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इप्टा के सांस्कृतिक आंदोलन पर महत्वपूर्ण दस्तावेज़ी किताब

इप्टा के सांस्कृतिक आंदोलन पर महत्वपूर्ण दस्तावेज़ी किताब

(इप्टा संबंधी दस्तावेज़ों का संकलन करने के दौरान बहुत सी किताबें, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख, संस्मरण, जीवनियाँ, आत्मकथाएँ मिलीं। इस सामग्री का लेखा-जोखा एक स्थान पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से इस ब्लॉग के माध्यम से प्रयास किया जा रहा है। इस बार प्रस्तुत है इप्टा पर केंद्रित मराठी में लिखी एक किताब का परिचय।)

रमेशचन्द्र पाटकर कला संबंधी लेखन करने वाले मार्क्सवादी लेखक थे। इसी महीने 11 फ़रवरी को उनका निधन हुआ है। उन्हें क्रांतिकारी अभिवादन करते हुए उनके द्वारा लिखित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) का परिचय प्राप्त कर लें। इस पुस्तक में संकलित ऐतिहासिक दस्तावेज़ी महत्व के लेख और रिपोर्ट्स का अनुवाद इस ब्लॉग में क्रमशः प्रकाशित किया जा रहा है। कुछ साथियों ने इस किताब के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, महाराष्ट्र राज्य कौंसिल द्वारा मुंबई से प्रकाशित साप्ताहिक ‘युगांतर’ के लिए यह परिचय लिखा गया था, जो ताज़ा अंक में प्रकाशित हुआ है। इसका स्वयं द्वारा किया हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है।

रमेशचन्द्र पाटकर जी से मेरा परिचय ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन)  किताब के माध्यम से हुआ। पिछले कुछ वर्षों से इप्टा के कुछ साथी संगठन की स्थापना के बाद से वर्तमान तक के कार्यों का दस्तावेज़ीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं। कई युवाओं ने शिकायत की थी कि इप्टा के बारे में बहुत कम जानकारी इंटरनेट या प्रिंट मीडिया में उपलब्ध है। यह सच है, क्योंकि देश भर में इप्टा की इकाइयाँ अपना-अपना काम करती रही हैं और अब भी कर रही हैं,  लेकिन राष्ट्रीय स्तर का संगठन होने के बावजूद देश भर की इकाइयों की समग्र जानकारी आसानी से एक स्थान पर उपलब्ध नहीं है। सुधी प्रधान द्वारा अंग्रेज़ी में लिखित ‘मार्क्सिस्ट कल्चरल मूवमेंट इन इंडिया’ के तीन खंडों में 1936 से 1964 तक की ही विस्तृत जानकारी मिलती है। इसके अलावा कई भाषाओं में कई किताबें लिखी गई हैं। लेकिन वास्तव में प्रगतिशील लेखक संघ (प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन PWA) और भारतीय जन नाट्य संघ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन IPTA) की स्थापना से लेकर आज तक गतिविधियों का कोई समेकित दस्तावेज़ प्रकाशित नहीं हुआ है। इस कमी को दूर करने के लिए दोनों संगठन वर्तमान में अपने दस्तावेज़ एकत्र करने और एक व्यापक इतिहास लिखने के व्यापक प्रयासों में लगे हुए हैं।

इप्टा संबंधी दस्तावेज़ों की तलाश करते समय मुझे रमेशचंद्र पाटकर की किताब, जो लोकवांगमय प्रकाशन गृह मुंबई से प्रकाशित हुई थी – ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन’ मिली। मैंने तुरंत पाटकर जी से फोन पर हिंदी अनुवाद की अनुमति ली और अनुवाद शुरू कर दिया था। इसके कुछ लेख प्रलेस घाटशिला के साथी शेखर मल्लिक द्वारा ऑनलाइन प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका ‘प्रगतिशील हाँक’ में प्रकाशित हुए थे।

इस किताब की शुरुआत में पाटकर जी ने ‘चार शब्द’ नामक संक्षिप्त भूमिका में किताब के लेखन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखा है, “कॉम. गोविंद पानसरे ने मुझसे ‘इप्टा’ पर लिखने का आग्रह किया। संदर्भ उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी प्रकाश विश्वासराव ने ली। इसलिए मैंने ‘इप्टा’ पर लिखने की ‘हिम्मत’  की।” (पृष्ठ नौ)

पुस्तक तीन खंडों में विभाजित की गई है। पहला खंड है – इप्टा की स्थापना से विघटन तक का विवरण। (मैं यहां ‘विघटन’ शब्द से असहमत हूँ, क्योंकि प्रस्तुत किताब जून 2011 में प्रकाशित हुई है। जबकि 1964-65 में राष्ट्रीय स्तर पर भले ही संगठन बिखर गया था, लेकिन अनेक राज्यों में इकाइयाँ काम करती रहीं। आगे चलकर 1985-86 में राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्गठन के बाद इप्टा ने नए जोश के साथ अपना काम फिर से संगठित रूप में शुरू कर दिया था। और उसके बाद पहले से भिन्न ढंग से ‘इप्टा’ का सांस्कृतिक जागरण आज तक अनवरत जारी है। आज लगभग बाईस राज्यों में ‘इप्टा’ की 500 से अधिक इकाइयाँ सक्रिय हैं। – अनुवादक) दूसरा खंड है- इप्टा के शुरुआती दिनों में सक्रिय रहे लोगों के भाषणों और लेखों का; तथा तीसरा खंड है – इप्टा  द्वारा विभिन्न अवसरों पर आयोजित कार्यक्रमों,  सम्मेलनों एवं अन्य सांस्कृतिक संगठनों की रिपोर्ट्स का। ये तीनों भाग इप्टा की स्थापना और उसके इतिहास को जानने-समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

पहला भाग दो अध्यायों में विभाजित है – ‘इप्टा’: एक सांस्कृतिक आंदोलन’ और ‘इप्टा की मुंबई इकाई’। पहला लेख प्रथम विश्व युद्ध,  अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील फासीवाद-विरोधी आंदोलन,  कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, अंतर्राष्ट्रीय लेखक संघ की स्थापना और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आकार लेने वाला फासीवाद तथा युद्ध विरोधी माहौल की व्यापक चर्चा करता है। रमेशचन्द्र पाटकर ने उस समय की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। साथ ही दूसरे लेख में इप्टा की मुंबई इकाई की शुरुआत और उसकी बढ़ती सांस्कृतिक गतिविधियों की समीक्षा की गई है।

दूसरे भाग के सभी पंद्रह लेख ऐतिहासिक महत्व के हैं। इप्टा  द्वारा बनाई गई फिल्मों पर ख्वाजा अहमद अब्बास का लेख है ‘इप्टा, धरती के लाल और जुबैदा’। इस लेख में उन्होंने खुद के प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़ने की कहानी बताई है। इप्टा  द्वारा उस समय किये गये तीन नाटकों – ‘नबान्न’, ‘अंतिम अभिलाषा’ और ‘अन्नदाता’ – को ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी कल्पना की भट्ठी में पिघलाकर  ‘धरती के लाल’ नामक नई फ़िल्म का निर्माण किया। अब्बास ने इस पूरी फ़िल्मी यात्रा के बारे में रोचक अन्दाज़ में यह लेख लिखा है। उनका यह लेख अंग्रेज़ी में लिखी उनकी आत्मकथा ‘आई एम नॉट एन आइलैंड’  से संकलित, संपादित और अनुवादित है।

दूसरा लेख इप्टा  के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और लोकप्रिय हिंदी अभिनेता ए. के. हंगल का ‘इप्टा और मैं’  है। इस लेख का विस्तृत संस्करण हंगल साहब की इसी नाम से प्रकाशित आत्मकथा में मिलता है। यह लेख शैली सत्थ्यू द्वारा शब्दबद्ध किया गया है। 1949 में विभाजन के बाद ए. के. हंगल भारत आए थे। इस लेख की विशेषता यह है कि इसमें हंगल साहब के इप्टा से जुड़ने, सक्रिय होने से लेकर 1960 से 2000 तक इप्टा मुंबई की गतिविधियों का काफ़ी विस्तार से वर्णन किया गया है और साथ ही इसमें देश के अन्य राज्यों में होने वाली गतिविधियों तथा कार्यक्रमों का विवरण भी मिलता है।

तीसरा लेख कम्युनिस्ट पार्टी के इस पूरे सांस्कृतिक आंदोलन के सूत्रधार पी. सी. जोशी का ‘लोकगीतों के बारे में’ है। 1954 में  पी. सी. जोशी ने देश भर से लोकगीत एकत्र करने की ठानी। उन्होंने एक सर्कुलर बनाकर सभी को भेजा था। इस सर्कुलर की कुछ पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। “हमारे वैचारिक संघर्ष में लोकतांत्रिक तत्वों को मजबूत करने के लिए लोकसंस्कृति का पुनरुद्धार और उसे लोकप्रिय बनाया जाना आवश्यक है। लोकसंस्कृति के अध्ययन और एकीकरण के प्रयासों में हम भारतीय बुद्धिजीवियों को जितना एकजुट करेंगे, उनकी लोकतांत्रिक चेतना उतनी ही मजबूत होगी और वे अपने लोगों के बारे में उतना ही अधिक सीखेंगे और जानेंगे। इससे वे अपनी बहुरंगी-बहुढ़ंगी (cosmopolitan) पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध अपने भूमिका के निर्वाह में ज़्यादा सक्षम हो सकेंगे।” उन्होंने आगे लिखा है, “यदि भारत में एक भाषाई समुदाय के लोग अन्य भाषाई समुदायों की लोककविताओं के बारे में जानें, तो इससे सभी भाषाई समुदायों के लोगों के बीच प्रचलित पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद मिलेगी। परिणामस्वरूप प्रत्येक भाषा-वर्ग के लोगों द्वारा प्राप्त उपलब्धियों के आधार पर प्रत्येक भाषा-वर्ग एक-दूसरे को समझने में सक्षम होगा।” (पृष्ठ 68) पी. सी. जोशी की इसी तरह की सोच के कारण उस समय लोक कलाकार और शास्त्रीय कलाकार एक साथ आए और शानदार सांस्कृतिक कार्यक्रम बनाये जा सके। पी. सी. जोशी का यह सर्कुलर मूलतः पढ़ा जाना चाहिए। आज भी इस विचार को क्रियान्वित किए जाने की आवश्यकता है।

चौथा लेख प्रोफेसर हिरेन मुखर्जी का वह प्रसिद्ध भाषण है, जो उन्होंने इप्टा  के पहले सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए दिया था – ‘मज़दूर पृथ्वी के नमक हैं’। इसमें उन्होंने जन-पक्षधर रंगमंच के लिए सभी प्रकार के कलाकारों और मेहनतकशों को एकजुट होने का आह्वान किया था।

पाँचवाँ लेख प्रसिद्ध क्रांतिकारी फ़िल्मकार ऋत्विक घटक का ‘जन-नाट्य में गूंजने वाली भूतकाल की प्रतिध्वनियाँ’ है। इस लेख में उन्होंने 1951 में आयोजित इप्टा के एक सम्मेलन में जन-नाट्य पर अपने विचार व्यक्त करते हुए एक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया था। इसके कुछ अंश रमेशचंद्र पाटकर द्वारा संपादित कर इस लेख में शामिल किए गए हैं।

रंगमंचीय संगीत पर आधारित दो लेख हैं – मोहन उप्रेती का ‘भारतीय नाटक में संगीतकार की भूमिका’ और सलिल चौधरी का ‘आधुनिक बंगाली संगीत पर छाया हुआ संकट’। मोहन उप्रेती के लेख में रंग-संगीत में ध्वनि, ध्वनि-वाद्य और स्वर-नाद-धुन की महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की गई है, जबकि सलिल चौधरी ने प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन में प्रदर्शनकारी कलाओं तथा कलाकारों के संगठन और नवाचार पर जोर दिया है।

हेमांगो बिस्वास द्वारा लिखित उदय शंकर की नृत्य-कला पर एक आलोचनात्मक लेख किताब में सम्मिलित है।  साथ ही फिल्म और नाटक पर दो लेख हैं – बलराज साहनी लिखित ‘नाटक, फिल्म और संस्कृति’ तथा सुधि प्रधान लिखित ‘फिल्म उद्योग और रंगमंच’। इसी तरह ‘महागुजरात में इप्टा का कार्य’ तथा ‘यूनिटी’ के संवाददाता हेमांगो विश्वास द्वारा ‘असम में इप्टा के राज्य सम्मेलन’ पर संस्मरण लिखा गया है। अन्य लेख हैं- ‘शांति और जन-नाट्य’ पर अण्णा भाऊ साठे का भाषण, शंभु मित्र द्वारा ‘बहुरूपी थिएटर’ पर लिखा गया लेख तथा शिशिरकुमार भादुड़ी का आलेख है ‘स्वतंत्रता और हमारा रंगमंच’

किताब का तीसरा खंड अत्यंत महत्वपूर्ण है। इप्टा के कार्यक्रमों की रिपोर्ट्स,  इप्टा का अखिल भारतीय सम्मेलन,  इप्टा कलकत्ता द्वारा प्रस्तुत नाटक,  डॉ. राधाकृष्णन और राजकुमारी अमृत कौर के भाषणों की रिपोर्ट, भारतीय डाक विभाग द्वारा इप्टा की स्वर्ण जयंती के अवसर पर जारी एक विशेष टिकट का प्रकाशन, मुंबई का रंगमंच,  इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के खिलाफ पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा जारी गुप्त प्रपत्र,  नाट्य-प्रस्तुति पर प्रतिबंध हटाने की इप्टा की माँग,  अखिल भारतीय शांति परिषद की रिपोर्ट, इप्टा का छठवाँ अखिल भारतीय सम्मेलन,  दिल्ली में आयोजित इप्टा  का आठवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन,  कम्युनिस्ट सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का सम्मेलन,  संयुक्त महाराष्ट्र जननाट्य परिषद,  संयुक्त महाराष्ट्र लोकनाट्य सम्मेलन, अखिल भारतीय फिल्म कर्मचारी सम्मेलन के अलावा पूर्वी पाकिस्तान में सांस्कृतिक आंदोलन पर अनवर हुसैन की रिपोर्ट इप्टा एवं तत्कालीन सांस्कृतिक आंदोलन दस्तावेज़ के रूप में बहुत महत्वपूर्ण हैं।

रमेशचंद्र पाटकर द्वारा किया गया एक और बड़ा काम यह है कि 1943-44 में वामिक जौनपुरी लिखित अत्यंत लोकप्रिय गीत ‘भूखा है बंगाल’,  किताब में संकलित किया गया है।

पुस्तक के अंत में चार परिशिष्टों के अन्तर्गत ‘ब्रिटिश सरकार का नाट्य-प्रस्तुति बंदी अधिनियम 1876’, इप्टा मुंबई की नाट्य-प्रस्तुतियों की सूची,  इप्टा द्वारा अपनी साठवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित बहुभाषी जन-नाट्योत्सव और इप्टा मुंबई  द्वारा प्रस्तुत नाटकों के दृश्यों की तस्वीरें शामिल हैं। सबसे अंतिम पृष्ठों पर इप्टा संबंधी किसी भावी शोध कार्य के लिए सहायक हो सकने वाली संदर्भ सामग्री की सूची दी गई है।

कुल 222 पृष्ठों की इस किताब में रमेशचंद्र पाटकर ने भारत में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की नींव, उसके विकास और प्रभाव के बारे में कई विवरण संकलित किए हैं। साथ ही लगभग प्रत्येक लेख के अंत में उन लेखों के ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख किया गया है। यह पूरी किताब इप्टा की वर्तमान पीढ़ी के लिए अपनी विरासत को समझने के लिए बहुत उपयोगी है।

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