(रायगढ़ इप्टा ने अजय आठले के निर्देशन में न केवल ख़ुद अनेक शॉर्ट फ़िल्में (‘मुगरा’, ‘बच्चे सवाल नहीं करते’, ‘टुम्पा’) बनाने की पहल की थी, बल्कि फ़िल्म इंस्टिट्यूट पुणे के फ़िल्मकारों के साथ भी कई फ़िल्में (‘जून एक’, ‘मोर मन के भरम’, ‘द फर्स्ट फ़िल्म’) की हैं। इस प्रक्रिया में इप्टा के रंगकर्मियों को फ़िल्म-माध्यम का अनौपचारिक प्रशिक्षण मिला, साथ ही एक छोटे शहर में किस तरह जन-सहयोग से कम बजट वाली फ़िल्म बनायी जा सकती है, इसका अनुभव FTII के प्रशिक्षित स्नातकों को भी मिला। उसमें से एक फ़िल्म का लेखाजोखा इस पोस्ट में लिया जा रहा है।)
मैं बीसवीं सदी के छठवें दशक की पैदाइश हूँ। हिन्दी सिनेमा तब तक जनसामान्य पर अपना जादू चला चुका था। अधिकांश फ़िल्में प्रेमकथा ही हुआ करती थीं। मगर उस समय तक प्रेम की अभिव्यक्ति इतनी शालीन और प्रतीकात्मक तरीक़े से हुआ करती थी कि किसी लेखक के अनुसार, ‘नज़र से नज़र मिलती थी तो दर्शकों के दिल में करेंट दौड़ने लगता था।’ प्रेम की नैतिकता के पैमाने ही और हुआ करते थे। आज की मिलेनियल या जेन-ज़ी पीढ़ी पर्दे पर उस तरह के प्रेम की अभिव्यक्ति का मनोविज्ञान और समाजशास्त्र शायद ही समझ पाए।
मुंबई में पला-बढ़ा फ़िल्म स्कूल में प्रशिक्षित एक युवा निर्देशक-एडिटर 1960 के आसपास के क्लासिक सिनेमा के दौर में हमारी स्मृतियों को ले जाकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जैसे छोटे शहर में अपने फ़िल्म स्कूल के कुछ साथियों और स्थानीय इप्टा के कलाकारों और सहयोगियों को लेकर एक ऐसी शॉर्ट फ़िल्म बना लेता है, जो दुनिया के पाँचों महाद्वीपों में आयोजित होने वाले लगभग पंद्रह फ़िल्म समारोहों में दिखाई जाती है और कुछ पुरस्कार भी समेट लेती है। इसका वर्ल्ड प्रीमियर कोलंबिया के Bogoshorts में हुआ, जो ऑस्कर-क्वालिफ़ाइंग फ़िल्म फेस्टिवल है। इस फेस्टिवल में यह एकमात्र भारतीय एंट्री थी। इसके बाद फ़्रांस, कनाडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, नाइजीरिया, यूनाइटेड स्टेट्स, फ़िनलैंड, इटली, नेपाल के अलावा भारत के अनेक महत्वपूर्ण फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स में ‘द फर्स्ट फ़िल्म’ प्रदर्शित हुई। आज भी यह क्रम जारी है।
पीयूष ठाकुर की ‘द फर्स्ट फ़िल्म’ महान फ़िल्म ‘मुग़लेआज़म’ के माध्यम से 1960 के दौरान की मानवीय संवेदनाओं से लबरेज़, सदियों से लड़कियों पर लगाए जाते रहे अनेक निषेधों वाले माहौल को हल्के-फुल्के मगर प्रभावशाली और मर्मस्पर्शी तरीक़े से प्रस्तुत करती है। लड़कियों के छोटे सपने तक सामाजिक बंदिशों के कारण पूरे नहीं हो पाते। नारी-स्वंतत्रता का उद्घोष करने की बजाय फ़िल्म क्रमशः दर्शक के दिल-दिमाग़ को झकझोरकर सांकेतिक स्वतंत्रता पर समाप्त होती है। तत्कालीन समय को महसूस करने के लिए फ़िल्म का अधिकांश हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट में फ़िल्माया गया है। वर्तमान समय में ब्लैक एंड व्हाइट में फ़िल्म बनाने के लिए पीयूष ठाकुर और सिनेमेटोग्राफ़र सोनू ने काफ़ी चर्चा और प्रयोगों द्वारा दृश्यों के प्रभावकारी परिणाम को अंजाम दिया है। यह एक साहस भरा प्रयोग भी है।
ग्रामीण परिवेश की एक मातृ-पितृहीन किशोरी और उसके पड़ोस में रहने वाले समवयस्क गूँगे किशोर के मध्य ‘संवाद’ का प्रमुख विषय हैं फ़िल्में। काफ़ी लंबे अरसे तक स्त्रियों को सिनेमा देखने जाने की अनुमति नहीं थी। सिनेमा में अभिनय करना तो दूर, देखना तक बुरा काम माना जाता था। मगर दूसरी ओर सिनेमा का बाज़ार और आकर्षण ज़ोर पकड़ रहा था। दिलीप कुमार, मधुबाला, राज कपूर, नर्गिस आदि अभिनेताओं की क्लासिक हिन्दी फ़िल्में बन रही थीं। इसी सामाजिक पृष्ठभूमि पर ‘द फर्स्ट फ़िल्म’ बनायी गई है।
देवी का भाई और दादी सिनेमा के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। मज़े की बात यह है कि देवी का भाई सिनेमा हॉल में गेट कीपर की नौकरी कर घर चलाता है। इसके बावजूद उसे सिनेमा से, फ़िल्मी गानों से सख़्त नफ़रत है। वहीं उसकी बहन को सिनेमा के प्रति बहुत उत्सुकता और रुचि है। यह उसका एकमात्र शग़ल है। वह अपने पड़ोसी मोहन से रोज़ रात को सबके सोने के बाद शहर के एकमात्र थिएटर में लगी फ़िल्म की कथा आमने-सामने की खिड़कियों में खड़े होकर साभिनय देखकर चकित होती रहती है। देवी को मुंबई से कोई लड़का देखने आनेवाला है, इसलिए उसकी दादी ने उसे मुलतानी मिट्टी का फेस पैक लगा दिया है, जिसे देखकर वह सांकेतिक भाषा में पूछता है, ‘तुम्हारा चेहरा चाँद जैसा क्यों बना हुआ है?’ मोहन देवी को समझाता है कि अगर वह शादी होकर मुंबई जाएगी, तो उसकी फ़िल्म देखने की इच्छा पूरी हो सकती है, क्योंकि मुंबई में लड़कियों पर पाबंदियाँ कम हैं। ‘मधुबाला अपनी फ़िल्म ख़ुद गाड़ी चलाकर अकेले जाकर देखती है।’ मोहन की इन बातों से देवी बहुत खुश होती है। वास्तविकता में लड़के के माता-पिता को उसके भाई के थिएटर में नौकरी करने और घर की बहु-बेटियों के घर से बाहर निकलने में भी आपत्ति है। देवी की उम्मीद टूट जाती है। विवाह-परंपरा में पितृसत्तात्मक वर्चस्व, लड़कियों के जीवन में विवाह का महत्व और केन्द्रीयता के अनेक अर्थ संक्षिप्त संवादों और दृश्यों में खुलते हैं।
एक समय था जब ‘मुग़लेआज़म’ के भव्य सेट्स और भारीभरकम दृश्यों का बहुत बोलबाला था। देवी के गाँव में भी वह फ़िल्म आई हुई है। उसे नाउम्मीद देख मोहन देवी को ‘मुग़लेआज़म’ का पहले दिन पहला शो दिखाने की योजना बनाता है। कुछ नाटकीय परंतु दिलचस्प दृश्यों के बाद देवी सिनेमा हॉल में पहुँचती है। मोहन उसे टिकट थमाता है और एक ही टिकट मिलने का बहाना बनाता है। देवी अकेले हॉल के भीतर जाने से इनकार करती है, मगर अंत में देवी को हम हॉल में पाते हैं। वह सब कुछ भूलकर उस मायावी जगत में बहुत खुश है। खचाखच भरे हॉल में उसके बग़ल की सीट ख़ाली है।
इस सीधी-सादी पुराने फ़िल्मों की-सी कहानी में निर्देशक ने भरपूर उतार-चढ़ाव, राग-रंग और सहज हास्यभरा ग्रामीण जीवन चित्रित किया है। एक किशोरी की नन्ही-सी इच्छा-आकांक्षा, उसके जीवन का छोटा सा दायरा, मोहन के साथ उसका मासूम लगाव और दोनों के बीच की सांकेतिक बातचीत बहुत हृदयस्पर्शी असर छोड़ती है। फ़िल्म का अंत एक मानवोचित व्यवहार के उच्च प्रतिमान पर होता है। यह एक प्रेम-कथा होने के बावजूद दो व्यक्तियों के बीच के प्रेम तक सीमित नहीं है, बल्कि मानव को मानव से जोड़ने वाले प्रेम, सद्भाव, समानुभूति (empathy) और एक साहसभरे सहयोग की कथा है। यह एक लड़की की मुक्तता को प्रतीकायित करती फ़िल्म है।
यह शॉर्ट फ़िल्म मूक सिनेमा, प्रारंभिक रोमांटिक सिनेमा, मनुष्य के परस्पर संबंधों की उच्च मूल्यवत्ता, नाटकीयता, सादगी और छोटे-छोटे लिखित या वाचिक संवादों की सहजता जैसी कई विशेषताओं को समेटे हुए है। फ़िल्म की कथा में बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्रचलित सिनेमा विषयक धारणाएँ काफ़ी बारीकी के साथ चित्रित हुई हैं। साथ ही फ़िल्म माध्यम की तकनीकी बारीकियों की जटिलताओं की मदद से एक सीधा-सरल-सा सपना साकार करने की सफल कोशिश है।
देवी की भूमिका निभाने वाली रायगढ़ इप्टा की रंगकर्मी प्रियंका बेरिया ने अपनी मुख-मुद्रा और आँखों से भावाभिनय की नई ऊँचाइयाँ छुई हैं। उसी तरह मोहन की भूमिका में रायगढ़ इप्टा के ही रंगकर्मी वासुदेव निषाद ने गूँगे लड़के के मनोभावों तथा सरल हृदय को सांकेतिक देहभाषा में बेहतरीन अभिव्यक्ति दी है। दोनों का ही फ़िल्म में अभिनय करने का पहला अनुभव है। निर्देशक ने दोनों के साथ किस तरह काम किया, इसे पीयूष बताते हैं, “चूँकि ये दोनों पहली बार कैमरे के सामने अभिनय कर रहे थे, इसलिए हमने कुछ दिनों का वर्कशॉप कर उनकी भूमिकाओं पर गहराई से काम किया। मेरा मुख्य उद्देश्य था दोनों को समूची फ़िल्म-प्रक्रिया के प्रति सहज करना और आपस में दोस्ताना तालमेल स्थापित करना। इसके लिए हमने शूटिंग से पहले किसी डाक्यूमेंट्री की तरह उनके साथ बातचीत के दौरान कैमरा चलाए रखा, ताकि उन्हें कैमरे की आदत हो सके। वे कैमरे के सामने नर्वस न हों। परिणामस्वरूप हमारे पास सौ से ज़्यादा घंटों का फ़ुटेज आ गया।” (https://northeastfilmjournal.com/mami-2024-an-interview-with-the-first-film-2023-filmmaker-piyush-thakur से भावानुवाद) एक लंबी प्रक्रिया और अवधि के बाद इसकी लगभग 25 मिनट की शॉर्ट फ़िल्म तैयार हुई। इसी तरह सांकेतिक भाषा सीखने-सिखाने की तैयारी के रूप में रायगढ़ की जगदंबा राव और उसके भाई ने वासुदेव और प्रियंका को बेसिक डेमो दिया।
पीयूष ठाकुर ‘द फर्स्ट फ़िल्म’ के निर्देशक और संपादक हैं। अनादि आठले सह-निर्माता और कला निर्देशक, सोनू सिनेमेटोग्राफ़र, प्रनील देसाई संगीत, प्रद्युम्न चावरे साउंड डिज़ाइनर, दीपक लोहाना और पीयूष ठाकुर पटकथा लेखक तथा आशीष घुगे सहायक निर्देशक हैं। फ़िल्म में रायगढ़ इप्टा के प्रियंका बेरिया और वासुदेव निषाद के अलावा अजय आठले, शिबानी मुखर्जी, टोनी चावड़ा, सुरेंद्र राणा, उषा आठले, युवराज सिंह आज़ाद, विवेकानंद प्रधान, ज्योति निषाद, स्वप्निल नामदेव, बाल कलाकार राजवीर मुखर्जी ने भी अभिनय किया है। फ़िल्म-निर्माण सहायक थे भरत निषाद, श्याम देवकर, संदीप स्वर्णकार और रायगढ़ इप्टा के कई कलाकार। रायगढ़ शहर के गोपी टॉकीज, दरोगापारा के अलावा शेष शूटिंग ग्राम भिखारीमाल में की गई है। रायगढ़ और भिखारीमाल के कई निवासियों ने, ख़ासकर विवेकानंद प्रधान और उनके परिजनों ने फ़िल्म-निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग किया है। 2018 में शूट की गई यह शॉर्ट फ़िल्म कड़ी मेहनत और अनेक बाधाओं के बाद 2024 में प्रदर्शित हुई। इस बात का पूरी टीम को दुख है कि फ़िल्म के प्रदर्शित होने के पहले ही अभिनेताओं में से अजय आठले और शिबानी मुखर्जी का असामयिक निधन हो गया। फ़िल्म दोनों कलाकारों की स्मृति को समर्पित की गई है।
‘द फर्स्ट फ़िल्म’ को अब तक स्टुटगार्ट जर्मनी में ‘ऑडियंस अवॉर्ड’, नेपाल के ह्यूमन राइट्स फेस्टिवल में बेस्ट इंटरनेशनल शॉर्ट फ़िल्म अवॉर्ड, स्मिता पाटिल इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल पुणे में बेस्ट स्टोरी स्पेशल मेंशन अवॉर्ड तथा अभी-अभी पाकिस्तान के ‘फ़िलम’ फेस्टिवल में ‘बेस्ट इंटरनेशनल शॉर्ट फ़िल्म अवॉर्ड प्राप्त हुआ है। पीयूष ठाकुर और उनके सभी सहयोगी इसी तरह की संवेदनशील फ़िल्में निरंतर बनाते रहेंगे, यही शुभकामना है।