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फ़िल्मों की डोर पकड़कर

फ़िल्मों की डोर पकड़कर

मैं शायद बचपन से ही सपने देखने वाली रही हूँ। पढ़ने की आदत से और बाद में प्रगतिशील आंदोलन से जुड़कर मेरे सपनों में सामूहिक या साथीपन के साथ किये जाने वाले रचनात्मक और नए-नए प्रयोगों की लड़ियाँ जुड़ीं, जो अजय के जीवनसाथी बनने के बाद परवान चढ़ गई। अचानक कहीं पढ़ी हुई कोई रचनात्मक खबर मुझमें उमंगों की हिलोर उठा देती और मैं उसके साथ सपना बुनकर अजय के सामने बयाँ कर देती। अधिकतर सपने हम मिलकर हकीकत में भी बदलते रहते थे। अजय भी ज़रूर पहले कहता था कि वह भविष्य को लेकर सपने नहीं बुनता, मगर हमारे सहजीवन की नैया स्थिर होते ही उसके सपने भी अँकुआने लगे थे। अब हम अक्सर एकदूसरे को अपने सपने या अपना आइडिया बताते और उस पर चर्चा करते हुए उसे यथार्थ में उतारने के लिए योजना बना लेते।

शायद ‘इंडिया टुडे’ में कभी पढ़ा था कि कहीं कोई एक छोटा समूह गाँव-गाँव में घूमकर दुनिया की क्लासिक फिल्में स्थानीय लोगों को दिखाता है। वे अपने साथ स्क्रीनिंग की समूची व्यवस्था लेकर चलते हैं और लोगों को दुनिया का नज़ारा दिखाते हैं। इस खबर ने मेरे भीतर ढेर सी जिज्ञासाएँ जगा दीं। वे लोग गाँवों में ‘वर्ल्ड क्लासिक्स’ दिखाकर क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या गाँव के लोग उन फिल्मों को समझते हैं? इस अभियान के लिए वह समूह आर्थिक संसाधन कैसे जुटाता होगा? अजय से इन सवालों पर चर्चा के बीच हममें यह सपना जागा कि हमें भी प्रोजेक्टर खरीदकर कुछ बेहतरीन भारतीय फिल्में लोगों को दिखानी चाहिए, जहाँ हमारी पहुँच हो। हालाँकि यह सपना इसी शक्ल में हकीकत में नहीं बदला।

मुझे छठवाँ वेतनमान मिलने के बाद इन सपनों की उड़ान भरने के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन जुटाने की स्थिति बन गई थी। हमने एक एलसीडी प्रोजेक्टर खरीदा और शुरुआती दौर में अपने घर में ही इप्टा के साथियों के साथ अनेक फिल्मों और नाटकों को डाउनलोड करके देखा।  इनमें मुझे सबसे ज़्यादा याद आता है आनंद पटवर्धन की डॉक्यूमेंट्रीज़ का सिलसिला। 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भड़की हुई साम्प्रदायिकता की गहरी तहों में जाने वाली फिल्म ‘राम के नाम’ देखकर हम सभी साथी देर तक चर्चा करते रहे। बाद में उनकी अन्य डॉक्यूमेंट्री ‘विवेक’ के 16 एपिसोड हमने यूट्यब पर रिलीज़ होते ही क्रमशः देखें। हमें डर था कि वे एपिसोड कभी भी बैन हो सकते हैं। हालाँकि ऐसा नहीं हुआ और पूरी फिल्म बाद में आनंद पटवर्धन ने यूट्यूब पर सबके लिए उपलब्ध करा दी। उनकी फ़िल्मों ने मुझे इस कदर प्रभावित किया था कि मैंने ISTR (इण्डियन सोसाइटी फॉर थिएटर रिसर्च) की कांफ्रेंस के लिए आनंद पटवर्धन की सभी फ़िल्मों पर एक रिसर्च पेपर लिखकर उनकी फ़िल्मों की क्लिप्स के साथ कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया। पिछले साल मामी फ़िल्म फेस्टिवल में उनकी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ फ़िल्म देखी। बहुत साफ़ विश्वदृष्टि वाले फ़िल्मकार हैं आनंद पटवर्धन। हमेशा बहुत ठहरकर, देख-समझकर ऐसी फ़िल्में बनाते हैं कि बात-बात में ही बहुत बड़ी बात निकलकर सामने आ जाती है।

हम घर में तो अक्सर प्रोजेक्टर को टीवी की अपेक्षाकृत बड़ी स्क्रीन से जोड़कर कितने ही नाटक और फ़िल्में देखते, फिर उन पर चर्चा करते थे। बीच में हम किसी नाटक की रिहर्सल नहीं कर रहे थे, तब टीम के साथ यह देखने-दिखाने का और चर्चाओं का सिलसिला काफ़ी दिनों तक चलता रहा था। इस दौर में हमने नाटकों में ‘अंधेर नगरी’, ‘उसने कहा था’, ‘कोर्ट मार्शल’, ‘आधे अधूरे’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘तुगलक’ आदि देखे। फ़िल्मों में कुछ शॉर्ट फ़िल्में थीं, ‘नीतिशास्त्र’, ‘दैट डे आफ्टर एवरीडे’, ‘जूस’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘ब्लू अम्ब्रेला’, ‘फिर ज़िंदगी’ आदि और फीचर फ़िल्में थीं, ‘चिल्लर पार्टी’, ‘गट्टू’, नागराज मंजुले की मराठी फ़िल्म ‘फ़ैंड्री’ के बाद ‘सैराट’ ने बहुत धूम मचाई थी। ‘पहल’ में उसकी समीक्षा पढ़ने पर हमने एक साथ बैठकर यह मराठी फ़िल्म देखी थी।  

हमें फ़िल्में नाटकों जितनी ही पसंद थीं और यह भी लगता था कि भाषण सुनने की बजाय फ़िल्में देखना लोग ज़्यादा पसंद करते हैं। साथ ही अगर फ़िल्म दिखाने के संसाधन हों, तो नाट्य-प्रदर्शन की अपेक्षा फ़िल्म दिखाना ज़्यादा सुविधाजनक होता है। जब 2019 में हमने बच्चों के साथ नियमित काम शुरू किया, ‘लिटिल इप्टा’ की शुरुआत की, तब सैटरडे क्लब शुरू हुआ। उसमें बच्चों से इंप्रोवाइज़ेशन करवाने के साथ-साथ हम उन्हें बच्चों की फ़िल्में भी दिखाते थे। बच्चों के साथ फ़िल्म के बाद बातचीत की कोशिश भी की जाती। सबसे पहले 2019 की गर्मियों में हुए वर्कशॉप के बाद बच्चों को पार्टी दी, साथ में ‘आई एम कलाम’ फ़िल्म देखी। उसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा। उन दिनों हमने फ़िल्में देखीं – ‘विद्या क़सम’, ‘लिटिल टेररिस्ट’, ‘लड्डू’, ‘निधि’ज़ लंच बॉक्स’, ‘द कोट’, ‘द स्कूल बैग’, ‘गुल्लक’, ‘मेरे सपनों की भाषा’ ‘15 अगस्त’, ‘धनक’ आदि।

एक बार मेरे कॉलेज के एनएसएस कैम्प में गाँव डुमरपाली में ‘निल बटे सन्नाटा’ दिखाने गये थे। फ़िल्म देखने के लिए बहुत बड़ी संख्या में गाँव के लोग आ गये थे। पता नहीं क्या हुआ था, प्रोजेक्टर लैपटॉप से कनेक्ट ही नहीं हो रहा था। अजय, सुमित कोशिशों में लगे थे, तब तक एनएसएस के अनुशासित विद्यार्थियों ने गाँव के कुछ बच्चों का मंच पर नृत्य शुरू करवा दिया था। उसके बाद फ़िल्म देखी गई। कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने तब मुझसे कहा था कि उन्होंने इस तरह की फ़िल्म पहले कभी नहीं देखी थी। तब हमने उन्हें बहुत सारी फ़िल्मों के नाम गिनाए, जो आम आदमी की ज़िंदगी को चित्रित करती थीं। तब तक यूट्यूब आ चुका था।

हमें एक बार के अनुभव से एक बात समझ में आई कि दर्शकों की रुचि के अनुसार फ़िल्में दिखानी होंगी। रायगढ़ के ही एक मोहल्ले में एक स्कूल में बच्चों के लिए नाटक की वर्कशॉप की थी, तो उनसे अच्छा परिचय हो गया था। फिर उस मोहल्ले में यूथ फ़ेडरेशन का एक साथी था। हमने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर 23 मार्च को मोहल्ले के लोगों को इप्टा से जुड़ी प्रसिद्ध फ़िल्म ‘गर्म हवा’ दिखाई। पुरानी फ़िल्म थी या दर्शक कुछ और देखना चाहते थे, पता नहीं, मगर धीरे-धीरे लोग उठ-उठकर चले गये। बस, हम इप्टा, प्रलेस और यूथ फ़ेडरेशन के साथियों ने अंत तक देखी। समय के साथ-साथ लोगों की पसंद, प्रस्तुति की तकनीक और दर्शकों का ‘पेस’ भी बदल गया था।

पिछले कुछ वर्षों से हमारा रिहर्सल स्थल पुष्प वाटिका नामक उद्यान में हो गया था, शायद अभी भी वह क्रम जारी है। वहाँ सुबह अक्सर रिहर्सल होती थी और जो लोग वहाँ मॉर्निंग वॉक और एक्सरसाइज़ के लिए आते थे, वे भी बैठकर देखने लगते थे। उन्हें खूब मज़ा आता था रिहर्सल देखने में। पूरी टीम की सबसे अच्छी दोस्ती हो गई थी। 01 मई 2019 को मई दिवस के उपलक्ष्य में हमने वहाँ दो शॉर्ट फिल्म्स दिखाने का कार्यक्रम बनाया। उसमें से पहली फ़िल्म ‘अनुकूल’ देखने तक मौसम सही था, मगर ‘कार्बन’ दिखाते वक्त हल्की बारिश होने लगी। बहुत दुखी होकर स्क्रीनिंग बंद करनी पड़ी थी। ये दोनों फ़िल्में पर्यावरण की मनुष्य ने कितनी हानि की है और उसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, साथ ही मशीनीकरण के दुष्परिणाम को भी दिखाती थीं। 1 मैं को होने वाली बारिश ने मानो जतला दिया था कि मौसम-चक्र किस कदर डिस्टर्ब हो गया है।

2-3 सालों तक रायगढ़ इप्टा के राष्ट्रीय नाट्योत्सव में भी हमने नाटक के पहले शॉर्ट फिल्म्स दिखाईं थीं। प्रायः ये फ़िल्में अनादि के साथ पढ़े या काम किये हुए फ़िल्म इंस्टीट्यूट के फ़िल्मकारों की फ़िल्में होती थीं। इनमें हमने फ़िल्म संस्थान पुणे के विद्यार्थियों की फ़िल्में ‘खोया’, ‘रिज़वान’, तत्पश्चात्’, द्वंद्व’, ‘आबिदा’, ‘फ़िरदौस’, ‘प्रभात नगरी’, ‘रीति’ तथा अन्य फ़िल्मों में ‘लिटिल टेररिस्ट’, ‘तुरुप’, ‘भूलन द मेज़’ आदि दिखाईं।

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अक्तूबर 2018 में देश में महिलाओं की एक साथ पाँच यात्राएँ शुरू हुई थीं। ‘बातें अमन की’ नाम की यह यात्रा 10 अक्तूबर 2018 को रायगढ़ आई, उस समय भी हमने 04 मिनट की एक शॉर्ट फ़िल्म ‘हर’ प्रदर्शित की थी।

इप्टा के अलावा मैं शासकीय महाविद्यालय के एम.ए. के अपने विद्यार्थियों को नियमित फ़िल्में दिखाती थी। मैं जो पेपर पढ़ाती थी, उसके पाठ्यक्रम के अनुसार फ़िल्में खोज-खोजकर डाउनलोड करके क्लास में दिखाती थी। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ और ‘ग़बन’ पर आधारित फ़िल्में, उनकी कहानियों पर आधारित ‘पूस की रात’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘कफ़न’, ‘ईदगाह’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि फ़िल्में दिखाईं थीं। साथ ही नारी विमर्श पर ‘जूस’, ’हर’, ‘दैट डे आफ्टर एवरीडे’, ‘डील’ दलित विमर्श पर ‘सद्गति’, ‘आउटकास्ट’, ‘जय भीम कामरेड’ दिखाई थीं। साथ ही जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध महाकाव्य का नाट्य-रूपांतरण ‘कामायनी’ तथा सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की लंबी कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ का नाट्य-रूपांतरण विद्यार्थियों के साथ बैठकर देखा था।

हम उस पीढ़ी के हैं, जिनके जीवन का काफ़ी बड़ा हिस्सा टॉकीज़ में जाकर फ़िल्म देखने में गुज़रा है। इसलिए आज की तरह ओटीटी पर अपने-अपने मोबाइल या लैपटॉप पर अकेले-अकेले फ़िल्म देखने की बजाय सामूहिक रूप से फ़िल्म देखने का मज़ा हमारी स्मृतियों में गहरा बसा हुआ है। वहाँ दर्शकों की सामूहिक प्रतिक्रियाएँ सुनने या जिनके साथ फ़िल्म देखी जाती थी, उनके साथ उस फ़िल्म पर गर्मागर्म बहस करने का अनुभव बहुत जीवंत था, शायद इसीलिए हमने इस तरह के फ़िल्म-प्रदर्शन के प्रयास किए होंगे।   

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