आज अजय को गये हुए चार साल हो गए। अब तो सिर्फ़ यादों में ही उसे देख पाती हूँ। हमारे व्यक्तित्व काफ़ी भिन्न होने के बावजूद हमारी जीवन-दृष्टि, जीवन-मूल्य और रचनात्मक ऊर्जा में समानता थी। हम हमेशा किसी न किसी रचनात्मक काम में लगे रहते थे। यह काम कभी मेरी रचनात्मकता से उपजा होता, कभी उसकी, तो कभी सांगठनिक ज़रूरत के तहत अपनाया होता था। मगर यह सच है कि हरेक काम में हम एकदूसरे के पूरक होते थे।
इस वर्ष रेखा जैन जी का जन्म शताब्दी वर्ष है। उनसे हमारी मुलाक़ात सिर्फ़ दो बार हुई थी, मगर वे मेरे दिल के क़रीब लगती रही हैं । उनसे पहली मुलाक़ात 2003 में दिल्ली में उनके घर में हुई थी। रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ का उस वर्ष का अंक हम रंगकर्मियों के साक्षात्कार पर केंद्रित कर रहे थे। सो फ़ोन पर समय लेकर हम दोपहर लगभग तीन बजे उनके घर पहुँचे। पहले उन्होंने रायगढ़ इप्टा के बारे में और हमारे बारे में सामान्य बातचीत की, उसके बाद मुझे, अजय और अनादि को साथ देखकर उन्होंने कहा, “इस तरह तुम लोगों को देखकर मुझे अपने इप्टा वाले दिनों की याद आ रही है। मैं और नेमि भी ऐसे ही लगन से काम करते थे। वे दिन मेरे लिए अविस्मरणीय हैं।” हम दिवाली के बीच उनके घर गए थे। उन्होंने ख़ुद बनाई हुई गुजिया बहुत आग्रह के साथ खिलाई थी। उन्होंने बहुत आत्मीयता से साक्षात्कार दिया था। चूँकि हम उनके तीन बाल नाटक ‘गणित देश’, ‘पुस्तकों का विद्रोह’ और ‘बैलों की जोड़ी’ बच्चों के ग्रीष्मकालीन रंग शिविर में कर चुके थे और हमें बहुत उत्सुकता थी कि वे इप्टा की स्थापना वाले वर्षों में इप्टा से घनिष्ठ रूप में जुड़ी थीं, तो वहाँ से वे बच्चों के साथ निरंतर काम करने की ओर कैसे मुड़ीं, उनकी यह यात्रा और उसका ‘टर्निंग पॉइंट’ क्या था! हमने शेष साक्षात्कार उनके बच्चों के साथ किए गये रंगकर्म पर केंद्रित रखा था। बाद में रेखा जी पर महेश आनंद द्वारा लिखी किताब पढ़ी और अन्य लेख आदि भी पढ़े। बाद में 2006 में उन्होंने हमारे आग्रह पर एक लेख नेमि जी के साथ उनके नाट्यानुभवों पर भेजा था, जो हमारे ‘रंगकर्म’ के उस साल के अंक में छपा था। उसके साथ उन्होंने १९४३-४४ में गठित ‘सेंट्रल स्क्वाड’ के तीन फोटो (ब्लैक एंड व्हाइट) भी भेजे थे, वे भी अंक में छपे थे। अभी उनके संस्मरण की किताब ‘यादघर’ पढ़ रही हूँ। कितना खूबसूरत होता है पति-पत्नी का मिलकर किसी जुनून के तहत रचनात्मक काम करना… दोस्तों की तरह सभी बातें साझा करना… और कितना खूबसूरत होता है सुंदर और बेहतर दुनिया के लिए सामूहिक काम करते रहना…
रेखा जी के जीवन संबंधी बातों को पढ़ते हुए मुझे कहीं गहरे तक महसूस हुआ कि जब कोई भी दो जीवनसाथी एक जीवन-लक्ष्य के लिए अपनेआप को पूरी तरह समर्पित करते हुए कुछ काम करते है, तो उन दोनों के व्यक्तित्व भले ही कितने भी पृथक-पृथक हों, वे अच्छा काम कर गुज़रते हैं। अपने अतीत में झाँकती हूँ तो साफ़ दिखाई देता है कि मेरे और अजय के व्यक्तित्व में कई असमानताएँ होने के बाद भी हम एकदूसरे के बिना कोई काम नहीं कर पाते थे। मेरे लेखन का, चाहे वह कोई रचना हो या अनुवाद, एक-एक शब्द अजय को सुनाये बिना मुझे चैन नहीं मिलता था, उसी तरह किसी नाटक या फ़िल्म पर जब अजय काम करता तो हमारा अक्सर बहुत लंबा और बहसनुमा डिस्कशन चलता, क्योंकि उसकी कई बातों से मैं सहमत नहीं होती थी। मेरे लेखन में भी जो शब्द या पंक्ति अजय को सही नहीं लगती थी, उस पर हमारी चर्चा छिड़ जाती थी। एकदूसरे को ‘करेक्ट’ करते हुए, साथ ही एकदूसरे को ‘स्पेस’ देते हुए हम किस तरह पैतीस सालों तक साथ रहे, यह बात कई बार मुझे एक रोचक उपन्यास की तरह लगती है। इस तरह अपनी ज़िंदगी से बाहर निकलकर एक दर्शक की तरह ज़िंदगी को बाँचना, जीवनसाथी के बिना शेष ज़िंदगी गुज़ारने के लिए थोड़ी सी आँच दे जाता है।
वैसे तो मुझे और अजय को राजनीति, कला-साहित्य और जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों में रुचि थी, मगर हम रंगकर्म और साहित्य से ज़्यादा जुड़े रहे। मुझे अभिनय और निर्देशन में विशेष रुचि नहीं थी। 1984 में बिलासपुर में इप्टा के पहले पूर्णकालिक वर्कशॉप में मिर्ज़ा मसूद जी ने मुझे सहायक निर्देशक बनाकर पूरा प्रशिक्षण दिया था, मैंने रायगढ़ इप्टा के साथ बच्चों के साथ नाटक निर्देशित करने की कुछ कोशिश भी की थी, मगर मुझे जल्दी ही समझ में आ गया कि यह क्षेत्र मेरे बस का नहीं है। इसी तरह अभिनय में भी कुछ सालों के बाद मैंने इस क्षेत्र में भी घुटने टेक दिये। मुझे बैक स्टेज और संगठन के कामों में अधिक रुचि थी। साथ ही अनुवाद और अपने अकादमिक शोध कार्यों में डूबे रहना ज़्यादा पसंद था। अजय में न सिर्फ़ निर्देशन की क्षमता थी, बल्कि अभिनय, लाइट और संगीत की बारीक समझ भी थी। वह इन क्षेत्रों में अपना स्किल बढ़ाने के लिए कई किताबें ख़रीदता-पढ़ता, प्रसिद्ध निर्देशकों के देखे हुए नाटकों से बहुत कुछ सीख लेता था। कोई नया नाटक उठाने पर तो वह पूरी तरह नाटकमय हो जाता। लगातार स्क्रिप्ट के कथानक, पात्रों, ब्लॉकिंग, संगीत, लाइट, साथ ही अपनी टीम के अभिनेताओं की क्षमता को बढ़ाने की कोशिश भी करता रहता। कभी-कभी किसी नाटक में जब उसे लगता था कि किसी पात्र को वही कर सकता है, तो वह अभिनय में भी उतर जाता था। इस बात पर हमारी टीम का विवेक उसे कहता भी था, “भाऊ, आप बाक़ी अभिनेताओं का अभिनय देखकर उन्हें निर्देशित करते हैं, मगर जब आप ख़ुद अभिनय करेंगे तो आपको कौन देखकर कुछ बता पाएगा!” उसकी बात मुझे सही लगती थी। निर्देशक और अभिनेता के साथ-साथ जब कोई व्यक्ति नाट्य संस्था का कर्ताधर्ता भी होता है, तब उसका व्यक्तित्व सब पर हावी हो जाता है। हालाँकि अजय की यह बात सही भी थी कि कोई भी साथी स्क्रिप्ट पर, अपने चरित्र पर मेहनत नहीं करना चाहता। अधिकांश कलाकारों को शॉर्टकट चाहिए होते हैं। या फिर वे पूरी तरह निर्देशक के भरोसे होते हैं।
मुझमें और अजय में एक और बात में भिन्नता थी। मुझे पहले से रसोई में बनाने-पकाने में ख़ास रुचि नहीं थी। वह तो आई (अजय की माँ) के कारण स्वादिष्ट खाने की आदत पड़ गई तो उन्हीं से बनाना भी सीखा। मगर बाद के वर्षों में मुझे रसोई में मेहनत करना अखरने लगा।लगता था, वहाँ थकने की बजाय कोई लिखने-पढ़ने-सीखने का काम कर लिया जाए। (वैसे हम दोनों इस मामले में एकमत थे कि जब हम दोनों आर्थिक रूप से सक्षम हैं तो अपने कामों के लिए कुछ लोगों को अपने घर में रोज़गार दे देना बेहतर है, ताकि हम अपने रुचि के कामों के लिए समय दे सकें।) अजय को अपनी नौकरी के आरंभिक दिनों में उसके रूममेट ने ख़ाना बनाना सिखा दिया था। उसे उसमें रुचि भी विकसित हुई। कहीं कुछ मनपसंद डिश खाने पर वह उसे ख़ुद बनाकर देखना चाहता था। कुछ सब्ज़ियाँ, जैसे हैदराबादी बैगन, गोभी का कोरमा या फ़्राइड करेला जैसी चीज़ें वह कभीकभार किसी मेहमान के आने पर बनाकर खिलाना पसंद करता था। पिछले कुछ वर्षों से पापा (रायगढ़ के वरिष्ठ साथी मुमताज भारती) रविवार की सुबह नाश्ता करने आते थे। नाश्ते के साथ दुनिया-जहान की बातें भी होतीं, मेरे किसी अनुवाद का कोई हिस्सा मैं पढ़कर सुनाती, उस पर बात होती और अजय के साथ नीचे के पान ठेले पर पान खाकर पापा विदा होते।पापा को भी तरह-तरह के खाने का बहुत शौक़ रहा है, तो अजय टीवी पर अनेक कुकिंग शोज़ देखकर हर रविवार उन्हें नई डिश खिलाने की कोशिश करता था। उसे कुकिंग में बहुत समय लेने वाली रेसिपीज़ बनाने में भी आलस नहीं आता था। मैं कुछ साल तक तो ऐसी चीज़ें बनाती रही, ख़ासकर पारंपरिक मराठी डिशेज़, जो हम सबको पसंद थीं, मगर फिर धीरे-धीरे मैं थकने लगी थी। मगर अजय लगभग अंत तक डटा रहा। कभी नए प्रकार का भजिया-पकौड़ा, कभी चाट, कभी मंचूरियन तो कभी कोई कांटीनेंटल डिश…! एक मज़ेदार क़िस्सा यह हुआ कि हमारा भतीजा अमेय, अमेरिका जा रहा था। जाने से पहले वह अपनी माँ से कुछ चीज़ें पकाना सीख रहा था, ताकि वहाँ ज़रूरत पड़ने पर बनाया जा सके। अजय ने उसको ऑफर दिया कि वह उसे पनीर की एक डिश सिखा देगा। वह बेचारा सीखने आया। अजय ने उसे ‘रुइया पनीर’ जैसी कोई रेसिपी बनाना सिखाया। उसने धीरे से कहा, “काका, मैं इतनी कठिन डिश तो नहीं बना सकता।” मगर अजय का उत्साह कम नहीं हुआ। उसे खाने और खिलाने का भी बहुत शौक़ था। रिहर्सल के दौरान रिहर्सल स्थान के पास का कोई न कोई ठेला बड़ा, समोसा, आलूगुण्डा, भजिया खिला ही देता। अजय टीम को लेकर उसके पास जा धमकता। वह भी खुश हो जाता। कोविड के दौरान अस्पताल से भी उसने किसी साथी से कहा था कि मैं ठीक होकर आता हूँ, फिर बड़ा खाने चलेंगे। उसका बड़ा खाने का आश्वासन धरा रह गया …!