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नेमिजी के साथ मेरे नाट्यानुभव – रेखा जैन

नेमिजी के साथ मेरे नाट्यानुभव – रेखा जैन

रेखा जैन के सौवें जन्मदिन के अवसर पर, साथ ही उनके जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत के अवसर पर

(यह लेख रेखा जैन जी ने रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ 2006 में प्रकाशित पाँचवे अंक के लिए मुझे भेजा था। मुझे नहीं पता कि उनका यह लेख और कहीं उन्होंने प्रकाशित करवाया था या नहीं! यह लेख ‘रंगकर्म’ के जिस अंक में प्रकाशित हुआ था, उसमें मेरे द्वारा लिखे गए संपादकीय का कुछ हिस्सा भी इस लेख से जोड़ना मुझे महत्वपूर्ण लग रहा है।

“पाँचवे ‘रंगकर्म’ को जारी करने के कुछ ही पहले भारतीय रंगकर्म के घटना-फ़लक पर एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई। इप्टा का बारहवाँ राष्ट्रीय अधिवेशन लखनऊ में दि. 14 से 16 नवम्बर 2005 को संपन्न हुआ। भारतीय रंगमंच के अधिकांश दिग्गज समीक्षक इप्टा के देशव्यापी सांस्कृतिक आंदोलन को इतिहास का विषय बताकर उसे भारतीय रंगमंच के इतिहास में सिर्फ़ मील का पत्थर निरूपित करते हैं। ये विद्वान इप्टा को वर्तमान में निष्क्रिय मानकर सिर्फ़ बड़े नगरों या महानगरों के रंगकर्म की चर्चा करते हुए शेष छोटे नगरों-क़स्बों में निरंतर चलनेवाली रंगमंचीय गतिविधियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। आज हज़ारों की संख्या में इप्टा की इकाइयाँ एवं अन्य नाट्य संस्थाएँ भी छोटे छोटे गाँवों-क़स्बों और नगरों में काम कर रही हैं। उनके पास भले ही महँगे और अत्याधुनिक रंग-संसाधन न हों, परंतु रंगकर्म के प्रति समर्पित हज़ारों रंगकर्मी हैं, जो अपने तन-मन-धन से रंगकर्म जैसी सामूहिक कलात्मक प्रस्तुतिपरक विधा को पूरी शिद्दत से न केवल ज़िंदा रक्खे हुए हैं, वरन् नए-नए प्रयोगों द्वारा रंगमंच के इतिहास को निरंतर समृद्ध भी कर रहे हैं। ज़रूरत है इन्हें राष्ट्रीय परिदृश्य में शामिल करने की, इनका नोटिस लेकर इनका महत्व रेखांकित करने की।

इप्टा के बारहवें राष्ट्रीय अधिवेशन का उद्घाटन इप्टा के भूतपूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष क़ैफ़ी आज़मी की बेटी और प्रसिद्ध अभिनेत्री शबाना आज़मी ने किया। साथ ही प्रसिद्ध और प्रतिबद्ध अभिनेता ए.के. हंगल, एम.एस. सत्थ्यू, राजेंद्र गुप्ता, अंजन श्रीवास्तव के अलावा वरिष्ठ रंगकर्मी समिक बंदोपाध्याय, रणवीर सिंह, जितेंद्र रघुवंशी, डॉ.ए. स्टालिन, राकेश, प्रख्यात प्रगतिशील लेखक सज्जाद ज़हीर की बेटी नूर ज़हीर, प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. कमला प्रसाद, डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, पाकिस्तान से विशेष रूप से अधिवेशन में सम्मिलित होने आईं जाहिदा हिना और अन्य पाकिस्तानी साहित्यकार भी शामिल हुए थे। लखनऊ में संपन्न हुए इन तीन दिनों के अधिवेशन में बाईस राज्यों के लगभग 1100 (ग्यारह सौ) कलाकारों और प्रतिनिधियों ने भाग लिया। प्रथम दिवस उद्घाटन से पूर्व आयोजित सांस्कृतिक रैली में प्रत्येक प्रदेश ने अपनी पारंपरिक वेशभूषा और लोकगीतों, लोकनृत्यों से अद्भुत समाँ बाँधा। इतनी विशाल, इतनी कलात्मक और बहुआयामी सांस्कृतिक रंगों और भावनात्मक एकता से ओतप्रोत रैली का निकाला जाना न केवल लखनऊ के लिए, वरन् भारत के रंगमंचीय इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण घटना है। जो विद्वान इप्टा को इतिहासजमा मानकर रंगकर्म पर कलम चलाते हैं, वे यदि लखनऊ के इन तीन दिनों का मंज़र देखते तो उन्हें प्रतीत होता कि आज़ादी के पहले और उसके बाद का इप्टा का सक्रिय सांस्कृतिक आंदोलन, जो 1985 में पुनर्जीवित हो चुका है और अब शानदार तरीक़े से फलफूल रहा है।

ग्यारह सौ कलाकार-प्रतिनिधि पूरे तीन दिनों तक वैचारिक-सांगठनिक कार्यक्रमों के अलावा अनेक मंचीय नाटक, नुक्कड़ नाटक, जनगीत, लोकगीत, पोस्टर प्रदर्शनी, चित्र प्रदर्शनी, स्लाइड शो, फ़िल्म शो प्रस्तुत करते रहे, परस्पर देखते-मिलते-चर्चा करते रहे। सभी लोग एक साथ एक ही जगह पर चाय-नाश्ता-भोजन करते परस्पर संवाद करते रहे।

इसी पृष्ठभूमि के साथ ‘रंगकर्म’ का यह अंक प्रकाशित हो रहा है। इस अंक में इप्टा की संस्थापक सदस्य रेखा जैन का, इप्टा के एक अन्य संस्थापक सदस्य नेमिचंद जैन के साथ, इप्टा के स्थापना-काल एवं उसके बाद के विकास काल की स्मृतियों पर आधारित एक लेख है, साथ ही उन्होंने उस समय के ‘सेंट्रल स्क्वाड’ के प्रदर्शनों के तीन दुर्लभ छायाचित्र भी उपलब्ध करवाए हैं। फोटो के पीछे बाक़ायदा कैप्शन लिखे हुए थे।इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ को प्रकाशित करना हमारे लिए गौरव का विषय है।” – उषा वैरागकर आठले)       

नेमिजी के साथ अपनी नाट्य गतिविधियों की याद करते ही नवम्बर 1941 का वह दिन याद आ जाता है, जब नेमि मुझे रूढ़िवादी मान्यताओं से मुक्ति दिलाने और देश को आज़ाद कराने के संघर्ष में शामिल होने के उद्देश्य से परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ विद्रोह करके आगरा से मुझे मध्य प्रदेश के एक छोटे क़स्बे शुजालपुर ले आए थे। गोद में छह महीने की रश्मि बेटी थी।

वैसे 1941 वह ज़माना था, जब देश के बच्चों से लगाकर बूढ़ों तक में अंग्रेजों के शासन से मुक्त होने की बड़ी छटपटाहट थी। विचारधाराएँ अलग होने पर भी देश को आज़ाद कराने का उद्देश्य एक ही था। संघर्ष के ऐसे वातावरण में पढ़े-लिखे युवा वर्ग की बेचैनी का रूप शुजालपुर के अपने घर में मैंने स्वयं अनुभव किया। शुजालपुर के जिस शारदा सदन विद्यालय में नेमिजी पढ़ाने गये थे, उस समय वहाँ गजानन माधव मुक्तिबोध, नारायण विष्णु जोशी एवं अन्य कई शिक्षक थे, जिनमें आज़ादी के संघर्ष में शामिल होने का बड़ा उत्साह था। पर विभिन्न विचारधारा होने के कारण क्या नीति अपनाएं, काम की पद्धति का रूप क्या हो आदि विषयों पर तरह-तरह की योजनाओं को लेकर घंटों लम्बी-लम्बी उत्तेजनापूर्ण बहसें होती रहती थीं और फिर जन-आंदोलन में भाग लेते थे।

यही उत्साह, काम करने की छटपटाहट कलकत्ते पहुँचने पर वहाँ एफ़.एस.यू. (फ़्रेंड्स ऑफ़ सोवियत यूनियन) के दफ़्तर में देखी। यहाँ समस्या ही एकदम दूसरी थी। 1943 में जब मैं और नेमि वहाँ पहुँचे, उस समय पूरा बंगाल अकाल की चपेट में था। जहाँ से भी निकलते, भिखारियों (जो वास्तव में खाते-पीते किसान थे) की “फेन दाओ, माँ गो फेन दाओ” की दयनीय आवाज़ें चारों ओर से सुनाई पड़तीं। वहाँ सड़कों के प्लेटफ़ार्म पर भूख से अशक्त कई इंसान वहीं दम तोड़ देते। हवा में एक अजीब सी बदबू तैरती रहती, जिससे मन विचलित हो जाता। अकाल-पीड़ितों की और भी भयानक जिन स्थितियों का जब हम सबने प्रत्यक्ष अनुभव किया, वे बहुत ही हृदय विदारक थीं। उस समय युवा बुद्धिजीवी जब एफ़.एस.यू. के दफ़्तर में एक साथ मिलते, उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि अकाल की इस स्थिति में लोगों को राहत कैसे पहुँचाई जाए। ऐसे क्या कार्यक्रम किए जाएँ कि, अधिक से अधिक धन एकत्रित हो सके। इसी समस्या पर विचार करने के लिए इस दफ़्तर में जाने पर वहाँ कई लेखक, गायक, अभिनेता बंधुओं से हमारी भेंट हुई। शंभु मित्र, विनय रॉय, ज्योतिन्द्र मित्र, उषा दत्त आदि के साथ काम करने की वजह से अधिक घनिष्ठ संबंध बने। विनय रॉय, ज्योतिन्द्र मित्र ने इस अवसर के लिए कई गाने लिखे थे और उन्हें स्वरबद्ध करके समूह गीत तैयार करके एक गायन टोली बनाई हुई थी। इस टोली में मुझे और नेमि को भी शामिल कर लिया गया था। यह टोली जगह-जगह के गली-मोहल्ले से गाना गाते हुए गुज़रती तो मैंने देखा, हमारे गीत सुनने के लिए काफ़ी सारे लोग सड़क पर इकट्ठा हो जाते और मकान की गैलरियों, छतों पर से भी स्त्री-पुरुष हमारे गीत सुनने के लिए ऊपर से देखते और वहीं से चावल, दाल, रुपये आदि की पोटली बांधकर हमारी झोली में डाल देते।

उसी समय कुछ साथियों ने ‘भूखा बंगाल’ नाम का नृत्य और विजन भट्टाचार्य द्वारा लिखित ‘ज़बानबंदी’ नाटक बांग्ला भाषा में तैयार किया था। इस नाटक, नृत्य और गायन की प्रस्तुतियों का दर्शकों पर गहरा प्रभाव पड़ता था कि वे बड़े उदार चित्त से दान दे जाते। काफ़ी धन इकट्ठा हो जाता। अकाल की वीभत्सता को देखते हुए यह अनुभव काफ़ी नहीं था, इसलिए इन प्रदर्शनों के अनुभव से यह तय किया गया कि कलकत्ते के बाहर भी इस तरह के कार्यक्रम किए जाने चाहिए ताकि बंगाल के अकाल की तबाही का कुछ अनुभव अन्य शहरों के लोगों को भी हो सके और इसी भावना के तहत धन जुटाया जाए। ‘ज़बानबंदी’ नाटक की सफलता को देख, यही नाटक हिन्दी में करने के लिए चुना गया। इस बीच एफ़.एस.यू. के दफ़्तर में नेमि की शंभु मित्र से बहुत मित्रता हो गई थी। उन्होंने इस बांग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद नेमि जी से करवाया। इस हिंदी नाटक को करने के लिए अभिनेताओं की तलाश शुरू हुई। क्योंकि हम हिन्दीभाषी थे, शम्भुदा ने कहा, “नेमिचन्द, तुम और रेखा इसमें शामिल हो जाओ तो काम बन जाएगा। तुम्हारे होने से तुम हमारी हिन्दी भी सुधार सकते हो।” यह सुनकर हम दोनों घबराए। मंच पर कभी भी कुछ करने का अनुभव नहीं था। और फिर मैं जिस रूढ़िवादी परिवार से आई थी, मेरे लिए यह कल्पना से एकदम परे था। हम लोगों ने शम्भुदा से बहुत मना किया। यह भी कहा कि हम जैसे अनाड़ी अभिनय करेंगे तो नाटक निस्संदेह ख़राब हो जाएगा। पर शम्भुदा नहीं माने और अंततः हम दोनों को उस नाटक में शामिल होना पड़ा और हम लोग बंबई जाने की तैयारी में लग गए।

हमारे नाटक का नाम ‘अंतिम अभिलाषा’ था। इसमें कुल छह चरित्र थे। प्रधान यानी गाँव का मुखिया, उसकी पत्नी, दो बेटे, एक बहू, एक मनचला पुरुष। प्रधान की भूमिका में शंभु मित्र स्वयं थे, पत्नी उषा दत्त (वर्मा), छोटा बेटा भूपति नंदी, बड़ा बेटा नेमिचन्द जैन, उसकी बहू रेखा जैन और मनचला पुरुष। यहाँ भी हम दोनों पति-पत्नी की भूमिका में थे। नाटक के इन छह सदस्यों के अतिरिक्त गायन-नृत्य मंडली को मिलाकर हम कुल दस-बारह साथी थे। बंबई पहुँचने पर मंडली का जिस तरह स्वागत हुआ, उससे लगा कि हमारे आने का वहाँ उत्सुकता से इंतज़ार हो रहा था। हम सबको ‘रेड फ़्लैग हॉल’ नामक स्थान पर ठहरा दिया गया, जो कम्युनिस्ट पार्टी हेड क्वार्टर से बहुत क़रीब था। खाने-पीने की व्यवस्था पार्टी हेडक्वार्टर में ही थी।

हमारे नाटक की रिहर्सल ज़ोरशोर से चल रही थी। एक-दो दिन बाद तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी और राहुल सांकृत्यायन जी हमारी रिहर्सल देखने आए। अन्य लोगों की अपेक्षा हम दोनों की हालत ख़स्ता थी। उन्होंने रिहर्सल देखी और मेरे अभिनय को और सुधारने के लिए कहा, विशेषकर लड़ाई वाले प्रसंग को। इस नाटक में मैं एक गरीब परिवार की बहू थी, जिसका जीवन ख़ाना न मिलने से तिल-तिलकर मृत्यु की ओर बढ़ रहा था। अपनी मर्यादा बेचकर वह भूख से तड़पते अपने बच्चे के लिए दूध लाई थी, उस दूध की बोतल को जब बच्चे से छीनकर सास ख़ुद पीने लगती है, उस समय बहू को गाँव की औरतों की तरह अपनी सास का झोंटा पकड़कर उग्र रूप से लड़ना ज़रूरी था, पर मैं नहीं कर पा रही थी। असल में जिस परिवार से मैं आई थी, वहाँ के संस्कार मेरे आड़े आ रहे थे। बार-बार यह लग रहा था कि मुझे ज़ोर से बोलने तक का अभ्यास नहीं, यदि ऐसी क्रूरता से झगड़ूँगी तो सभी मुझे झगड़ालू समझेंगे। शम्भुदा ने जब यह बात सुनी तो वे खूब हँसे और उन्होंने कहा, “मैं तो बूढ़े का पार्ट कर रहा हूँ। यदि ऐसा है, फिर तो कोई लड़की मुझसे शादी ही नहीं करेगी।” इस बात से सब हँस पड़े।

ऐसे ही एक बार मंच पर नाटक हो रहा था। उस दृश्य में जब सब सो रहे हैं, बहू को अंधेरे में मनचले पुरुष के साथ बाहर जाना था। उस रात के अंधेरे में सीटी की आवाज़ सुनकर बहू रूप में मैं, चुपके-चुपके भयभीत दशा में मंच से बाहर जा रही थी कि वहीं मंच पर शम्भुदा लेटे-लेटे बोले, “छिः छिः रेखा, ऐसा जघन्य काम, पराये पुरुष के साथ भाग रही हो! नेमि क्या कहेगा?” यह सुनकर मुझे ही नहीं, सबको हँसी आ गई। शम्भुदा बीच-बीच में ऐसे ही मज़ाक़ करके सारे वातावरण को सहज बना देते थे। इससे यह लाभ हुआ कि निर्देशक की अपेक्षा उनसे बंधुत्व का रिश्ता बनता गया। शंभुदा के निर्देशन और अभिनय में ऐसा जादू था कि उस नाटक के दौरान चरित्र की सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदना को पहचानने की, समझने की हमें नई सर्जनात्मक दृष्टि मिली। मेरे और नेमि जी के लिए नाट्य जगत का यह पहला-पहला अनुभव बड़ा उत्साहवर्धक था।

बहरहाल, नाटक की उस रिहर्सल के बाद पी सी जोशी और राहुल जी तो चले गए, पर मैं इन घटनाओं का ज़िक्र करके यह बताना चाह रही थी कि शम्भुदा के साथ उस हँसी-मज़ाक़ के कारण मेरे मन का तनाव दूर होने के साथ अभिनय में बहुत सुधार हुआ। कुल मिलाकर, सभी के अभिनय में सहजता आई। बंबई में अपने प्रदर्शन के लिए हम सब जी-जान से मेहनत कर रहे थे। अंततः वह दिन आया जब बड़े समुदाय के सम्मुख अपना नाटक दिखाना था। वहाँ पंडाल के मंच पर इप्टा के कई साथी और हमदर्द हमारी मदद के लिए पहले से मौजूद थे, जो हमारा उत्साह बढ़ा रहे थे।

नाटक किसी सभागार में न होकर बहुत बड़े पंडाल में मंच बनाकर हो रहा था। कार्यक्रम के अनाउंसमेंट के बाद सबसे पहले रेबा रॉय ने गाना गाया ‘सुनो हिन्द के रहने वालों सुनो सुनो’। इस गाने में बंगाल के अकाल पीड़ित इंसानों की दुर्दशा का वर्णन था। इसकी धुन में करुणा भरे स्वर थे, और रेबा रॉय ने जिस भाव-विभोरता के साथ इसे गाया, पंडाल में बैठे सारे दर्शकों पर ऐसा प्रभाव हुआ कि पल भर में वहाँ का अति शोर एकदम सन्नाटे में बदल गया। एक तरह से इस गाने से हमारे नाटक का जो विषय था, उसकी शानदार ढंग से पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। गाने के बाद हमारा ‘अंतिम अभिलाषा’ नाटक शुरू हुआ। इसमें खाते-पीते किसान परिवार की कहानी के माध्यम से उस समय अंग्रेजों के साथ बड़े-बड़े ज़मींदारों, सामंतों के शोषण के कारण कैसे हज़ारों-लाखों लोग एक-एक दाने के लिए तरस-तरसकर मरते जाते हैं, इस करुण कथा का वर्णन था। इस नाटक के आख़िरी दृश्य में शम्भुदा प्रधान की भूमिका में जब भूख की तड़प से अंतिम साँस ले रहे होते हैं, तब उनका मुट्ठी बँधा हाथ अचानक ऊँचा उठ जाता है और ‘हाय मेरे देश की माटी’ कहकर प्राण निकल जाते हैं। मुट्ठी में बँधी उनके गाँव की मिट्टी धीरे-धीरे वहीं धरती पर बिखर जाती है। इस दृश्य में गाँव के प्रधान का देश-प्रेम और अपने गाँव वापिस न लौट पाने की वेदना का जो दृश्य उभरकर आता है, वह सभी के हृदय को विचलित कर देता है। शम्भुदा का वह अभिनय इतना अद्भुत था कि आज भी याद करके मन द्रवित हो जाता है। यह नाटक यहीं समाप्त हो जाता है, पर उसका प्रभाव देर तक रहा। यह नाटक के गहराई से छूने का ही असर रहा होगा कि वहाँ जो दर्शक आए थे – ग़रीब से ग़रीब तक ने भी अकाल के लिए दान दिया था। दर्शकों से दान लेने के लिए पंडाल से बाहर जाने के दरवाज़ों पर कई साथी झोली पसारे खड़े थे। उनमें से एक प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज कपूर भी थे। हम लोग जब ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ गाना गा रहे थे तो पृथ्वीराज कपूर भी इतने ज़्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने भी पूरे जोश के साथ अपनी बुलंद आवाज़ में इस गाने की पंक्तियाँ ‘हिन्दी हैं हमवतन हैं’ तीन बार दोहराया, उनकी व सारे दर्शकों की आवाज़ें मिलकर एक हो गईं – एक कभी न भूलने वाला समाँ बँध गया। उनकी झोली में सबसे अधिक दान-राशि मिली।

अकाल संबंधी कार्यक्रम की, विशेषकर ‘अंतिम अभिलाषा’ नाटक की जिस तरह प्रशंसा हुई, उससे हम सब को बहुत ख़ुशी हो रही थी। पर सबसे अधिक रोमांचक अनुभव तो मुझे तब हुआ, जब लड़ाई वाला प्रसंग, जो पहले मेरा बहुत ख़राब होता था, उसके सफल अभिनय के लिए स्वयं शम्भुदा ने प्रशंसा करते हुए मेरी तुलना तृप्ति मित्र (भादुड़ी) से की। नेमि जो मेरे अभिनय को लेकर सबसे अधिक चिंतित थे, अब बेहद खुश नज़र आ रहे थे। कुल मिलाकर नाटक की सफलता पर सभी को बहुत संतोष हो रहा था।

हमारे इस कार्यक्रम के बंबई, अहमदाबाद, सूरत, पूना आदि शहरों में कई प्रदर्शन किए गए, और इन प्रदर्शनों से प्रभावित होकर सभी जगह से अकाल-निवारण के लिए भारी मात्रा में अनुदान की प्राप्ति हुई, जो हम सबके लिए प्रेरणादायक थी। इस नाटक के प्रदर्शनों के बाद जब बंबई लौटकर आए तो मालूम हुआ कि सेंट्रल स्क्वाड की योजना बन गई है। यहाँ नृत्य, संगीत के साथ ‘बैले’ आदि भी सिखाया जाएगा। नेमि को यह योजना काफ़ी आकर्षक लगी, और हम लोगों ने बंबई में ही रहने का निश्चय किया। पर एक-दो को छोड़कर बाक़ी सब लोग कलकत्ता चले गए।

नेमि जी की बचपन से ही संगीत में बहुत दिलचस्पी थी। उन्होंने गाना तो सीखा ही, उसी के साथ उन्होंने कई तरह के वाद्य बजाने भी सीखे थे। शायद इसी संगीत-प्रेम की पूर्ति के कारण ही उन्हें मेरा नृत्य सीखने का विचार इतना आकर्षक लगा कि मेरे मना करने पर भी जब उनका ऐसा आग्रह देखा तो फिर मैं वहाँ शांतिवर्धन से नृत्य सीखने के लिए रह गई। और इस प्रकार कलकत्ते के बाद अब बंबई में नई तरह की ज़िंदगी शुरू हुई। शम्भुदा कलकत्ता वापिस चले गए थे, और अब शांतिवर्धन जी के निर्देशन में एकदम भिन्न संगीतात्मक नाट्य विधा में प्रवेश किया।

शांतिवर्धन, जो उदय शंकर जी के अलमोड़ा सेंटर में त्रिपुरा के नृत्य गुरु थे, उन्होंने इप्टा में आने के बाद सबसे पहले अकाल से ही संबंधित एक ‘पैंटोमाइम’ तैयार की थी, इसमें नेमि ने भी भाग लिया था। मुझे याद पड़ता है कि यह पेंटोमाइम फ़िल्म जगत के जाने-माने फोटोग्राफर श्री डी आर डी वाडिया के घर प्रदर्शित की गई थी। इसे कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं के साथ सरोजनी नायडू भी देखने आई थीं। तब उनकी कविता सुनने का भी मौक़ा मिला।

नेमि मूलतः अपने लेखन के काम को ही करना चाह रहे थे इसलिए उन्हें पार्टी हेड क्वार्टर से निकलने वाले अख़बार में लिखने के लिए बुला लिया गया, और मैं सेंट्रल स्क्वाड में नृत्य सीखने लगी। यद्यपि मेरा और नेमि का काम अलग-अलग जगह पर था, पर हम दोनों अपनी बेटी के साथ अंधेरी में ही रहते थे। नेमि के वहाँ काम करने के कारण दोनों जगह से हमारा निकट का संबंध बना रहता। एक ओर सेंट्रल स्क्वाड में विभिन्न प्रदेशों के लोगों के साथ रात-दिन रहने, मिलकर नृत्य, गायन करने आदि के कारण एक-दूसरे की भाषा, रीति-रिवाज़, उनके स्थानीय गीत, नृत्य आदि सीखने को मिलता, तो दूसरी ओर पार्टी हेड क्वार्टर में जाने पर पी सी जोशी, बी टी रणदिवे, डॉ अधिकारी, ज़ेड ए अहमद, हाजरा बेगम आदि बड़े-बड़े नेताओं से अक्सर भेंट होती रहती। क़ैफ़ी आज़मी, सरदार अली जाफ़री, सज्जाद ज़हीर, सुमित्रानंदन पंत, राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों से वहीं परिचय हुआ। 1944-46 का यह वह समय था, जब कम्युनिस्ट पार्टी का सभी क्षेत्र के बड़े-बड़े लोगों से संपर्क बढ़ा। तब सबके मन में देश के लिए कुछ न कुछ नया करने का उत्साह था। वहाँ जिनसे भी मुलाक़ात होती, एक विशेष तरह से आत्मीयता का रिश्ता बन जाता। उसी समय चित्रकार चित्तप्रसाद, फोटोग्राफर सुनील जाना, गोविंद विद्यार्थी और रशीद नक़वी से तो ऐसी मित्रता हुई, जो अंत तक बनी रही।

नृत्य, संगीत, नाटक, साहित्य आदि कलाओं के साथ-साथ राजनीति से भी जुड़ाव। और फिर एक साथ इतनी चीज़ों, विभिन्न विचारधाराओं वाले व्यक्तियों से मेरा साक्षात्कार होने से मुझे सब कुछ ऐसा अपूर्व, अकल्पनीय लग रहा था, जैसे मेरे सामने विविध रंगों से सजी पृथ्वी के साथ पूरा खुला आकाश फैला है। इसमें जी भर दौड़ सकती हूँ, उड़ सकती हूँ। अदम्य स्फूर्ति और उत्साह से मैं भर उठी थी। जैसा कि नेमि चाहते थे, मेरे मन की संकुचित धारणाएँ, मर्यादा के बंधन धीरे-धीरे टूटते चले जा रहे थे। इसी संदर्भ में एक घटना याद आ रही है। एक बार नेमि को ढूँढने के सिलसिले में रशीद नक़बी से मैंने नेमि का नाम न लेकर ‘वह’ संबोधन से उनके बारे में पूछा ही था कि उसने मेरी ऐसी कसकर चोटी पकड़ी कि जब तक सात बार नेमि-नेमि नहीं कहलवा लिया, मेरी चोटी नहीं छोड़ी। इस तरह नेमि कहकर पुकारने के साथ मेरी एक और अंधविश्वास भरी मर्यादा का अंत हुआ। सुहाग के बिछुए तो नेमि ने पहले ही उतरवा दिये थे। इस सबसे एक तरह का ऐसा आत्मविश्वास आ गया कि लगा, रेखा का भी अपना कुछ व्यक्तित्व है। यह सच ही है कि वहाँ रहकर हम दोनों ने महसूस किया कि अब हमारा रिश्ता केवल पति-पत्नी का ही नहीं, मित्र का भी है।

नाटक के सिलसिले में बंबई में रहने के विषय में जब सोचती हूँ, तो वहाँ सब का काम के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के साथ सहज आत्मीयता से भरापूरा दृश्य सामने आ जाता है। नेमि और मेरे वे दो-तीन वर्ष ऐसे अनमोल ख़ज़ाने की तरह से थे, जिसने हमारे जीवन को, हमारे काम को बहुत समृद्ध बनाया।

1944 से ही ‘सेंट्रल स्क्वाड’ का काम अंधेरी में पूरी तरह प्रारंभ हो गया था। इसमें शांतिदा के अतिरिक्त शचिन शंकर, नरेंद्र शर्मा, अवनि दासगुप्ता जैसे नर्तक और संगीतज्ञ भी उदय शंकर जी के सेंटर से यहाँ आ गये थे और अंधेरी में राष्ट्रीय स्तर का सेंट्रल स्क्वाड, संगीत का एक भव्य सेंटर बन गया। इसमें एक साथ मिलकर काम करने वालों में – शांता गांधी, दीना पाठक (सिंघवी), गुल (वर्धन), रूबी जोशी (दत्त), लीला सुन्दरैया, रेवा रॉय, उषा दत्त, नागेश, अपुनिकर्ता, प्रेम धवन, गंगा धरन, रेड्डी आदि हम सब का एक अपना परिवार जैसा बन गया था। यहाँ तरह-तरह के नृत्य और देश की आज़ादी से जुड़े विषय पर ‘बैले’ संरचना के लिए सुबह से रात तक अभ्यास होता रहता और पूरा कार्यक्रम तैयार होने पर मुख्य शहरों में उसके प्रदर्शन होते। कुछ समय बाद प्रसिद्ध सितारवादक रवि शंकर जी भी संगीत निर्देशन के लिए सेंट्रल स्क्वाड में आ गए। रवि शंकर जी के वहाँ आने पर नेमि अपने संगीत प्रलोभन को रोक नहीं पाए और रवि शंकर जी से सरोद सीखने का निर्णय लेकर सेंट्रल स्क्वाड में शामिल हो गए। रबूदा (रवि शंकर जी) ने नेमि के लिए स्पेशल ऑर्डर देकर बड़ी अच्छी सरोद मैहर से मँगवाई भी, पर सरोद की क़ीमत इतनी अधिक थी कि पार्टी में रहकर इतना पैसा इकट्ठा करना मुमकिन नहीं था। घर से आर्थिक सहायता लेना उचित नहीं लगा। इस प्रकार सरोद आने पर भी रवि शंकर जी से सरोद नहीं सीखने का बहुत दुख हुआ, पर रबूदा के साथ संगीत में विविध वाद्य बजाने के अनुभव से नेमि बहुत उत्साहित थे। नृत्य संरचनाओं के लिए गीत लिखना एवं संगठन संबंधी कामों की ज़िम्मेदारी सम्भालने से कुछ ही दिनों में नेमि स्क्वाड के महत्वपूर्ण सदस्य बन गए।

सेंट्रल स्क्वाड के प्रमुख नृत्य नाट्य का विषय देश की आज़ादी से संबंधित होता था। शांतिदा ने ‘भारत की आत्मा’ और ‘अमर भारत’ नाम के दो नृत्य नाट्यों की संरचनाओं के साथ और भी कई नृत्य रचनाएँ तैयार की थीं। उसमें से ‘’कॉल ऑफ़ ड्रम’ नाम का नृत्य भी था। यहाँ यह बता दूँ कि उसी के प्रथम दृश्य का नगाड़ा बजाते हुए वादक का चित्र विख्यात चित्रकार चित्तप्रसाद ने तब बनाया था, जो बाद में इप्टा का चिह्न (logo) बन गया।

See Also

सेंट्रल स्क्वाड कार्यक्रम बंबई, कलकत्ता, दिल्ली, लखनऊ, पटना, लाहौर वग़ैरह भारत के कई शहरों में दिखाया गया। ये संगीतात्मक कार्यक्रम अपने ढंग की कलात्मकता के साथ अनोखा था। देश-भक्ति पर आधारित होते हुए भी कलात्मक पक्ष की सौंदर्य-दृष्टि से भी अपूर्व था। शांतिवर्धन की मान्यता थी कि आपकी संरचना का विषय कुछ भी हो, कला का स्वरूप जितना श्रेष्ठ, सुनियोजित होगा, उतना ही वह मनुष्य-मन को गहराई से छू सकेगा और उसका असर भी स्थाई होगा। हमने यह देखा भी कि वास्तव में शांतिदा दृश्य-सज्जा, वेशभूषा, रंग उपकरण आदि पर बहुत ध्यान देते थे और हर छोटी से छोटी चीज़ का संगीत भी सुरुचिपूर्ण कलात्मक ढंग का रखते थे। इसी के साथ रवि शंकर जी का संगीत पूरी रचना को, उसके एक एक चरित्र को सजीव और मधुर बना देता था। कार्यक्रम की इन्हीं विशेषताओं के कारण जहाँ भी प्रदर्शन होते, सभी जगह बहुत प्रशंसा मिली।

‘सेंट्रल स्क्वाड’ के प्रदर्शनों की जैसी चारों ओर धूम मच गई थी, उस दौर के लिए बहुत ही अच्छा होता, अगर यह सेंटर और आगे चलता रहता। पर नाना कारणों से 1947 के शुरू में ‘सेंट्रल स्क्वाड’ बंद करना पड़ा। सब साथी बिखरकर अलग-अलग स्थानों पर चले गए। नेमि ने यू पी में वापिस आना तय किया और हम दोनों अप्रैल 1947 में इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद कलकत्ता और बंबई की तुलना में बहुत छोटा शहर तो था पर यहाँ के पूरे वातावरण में बड़ी आत्मीयता का अहसास हुआ। फिर अपनी भाषा और साहित्य का क्षेत्र होने के कारण अपनापन भी बहुत लग रहा था। यहाँ पहुँचकर साहित्य, संगीत और नाटक के अनेक लोगों से जल्दी ही घनिष्ठता हो गई। सेंट्रल स्क्वाड से आना इलाहाबाद के रंगकर्मियों के लिए बड़ी बात थी। मैं इप्टा की गतिविधियों में जुट गई थी और नेमि अज्ञेय जी के साथ साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’ में लेखन के साथ-साथ इप्टा के संगठन संबंधी कामों को सम्भालते थे।

इप्टा में जब हमने काम शुरू किया, तब एक बड़ी कठिनाई यह थी कि वहाँ नाटक में अभिनय के लिए लड़कियाँ नहीं आती थीं। उन्हें मंच पर लाने के लिए मेरे प्रयत्न करने पर धीरे-धीरे वहाँ के वातावरण में बड़ा खुलापन आ गया। इलाहाबाद इप्टा की गतिविधि काफ़ी बढ़ गई। हमारे कार्यक्रम कई जगह दिखाने के लिए हम जाने लगे।

अगस्त 1947 में आज़ादी मिलने के बाद 1948 में अहमदाबाद में इप्टा की ऑल इंडिया कॉन्फ़्रेंस बड़ी भव्यता के साथ आयोजित की गई। वहाँ देश के विभिन्न इलाक़ों से अपने कार्यक्रमों के साथ कई मंडलियाँ और बहुत बड़ी संख्या में इप्टा के सदस्य इकट्ठे हुए थे। मैं और नेमि भी वहाँ गए। वहाँ आगरा, कलकत्ता, बंबई के पुराने साथियों से मिलकर बेहद ख़ुशी हुई। यह ख़ुशी इसलिए और भी अपूर्व थी कि अभी तक जिस देश को आज़ाद कराने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस आज़ाद देश में हम मिल रहे थे। अहमदाबाद की कांफ्रेंस में इप्टा की ऐसी अद्भुत सफलता और शक्ति को देखकर हम सभी का मन गर्व से भर उठा था।

उस वक्त ऑल इंडिया के जनरल सेक्रेटरी निरंजन सेन, जसवंत ठक्कर, राजेंद्र रघुवंशी वग़ैरह सभी प्रमुख व्यक्ति वहाँ मौजूद थे। वहीं सबने मिलकर अखिल भारतीय जान नाट्य संघ का संयुक्त सचिव नेमि को बना दिया और यह तय किया कि अगली इप्टा कांफ्रेंस इलाहाबाद में होगी। इस निर्णय से हम दोनों और इलाहाबाद इप्टा के सभी सदस्यों को बहुत ख़ुशी हो रही थी। सब इसे सफल बनाने में मनोयोग से जुट गए। 1943 से 1947 तक बंबई और कलकत्ते के रंगकर्मियों से जुड़े होने के कारण आसानी से संपर्क हो गया और लगभग सभी जगह से कई मंडलियाँ अपने-अपने कार्यक्रमों को लेकर इलाहाबाद आईं। इस कांफ्रेंस में पुराने परिचित साथियों के अलावा कुछ नए लोगों से भेंट हुई, उनमें सलिल चौधरी (फ़िल्म संगीतज्ञ), हबीब तनवीर, शीला भाटिया, अचला सचदेव, हिमांगो बिस्वास आदि से भी निकट का रिश्ता बना। बलराज साहनी, ख़्वाजा अहमद अब्बास से तो हमारा बंबई से ही पुराना परिचय था। बलराज 1949 की इलाहाबाद कांफ्रेंस में ‘जादू की कुर्सी’ नाटक लेकर आए थे, जिसमें हबीब तनवीर का प्रमुख रोल था। ख़्वाजा अहमद अब्बास का ‘मैं कौन हूँ’ नाटक हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के विषय पर मन को ऐसे छूने वाला था कि बंबई में जहाँ भी खेला गया, वहाँ के लोगों के मन में काफ़ी बदलाव नज़र आया। यह नाटक इलाहाबाद में हिंदू-मुस्लिम दंगों के समय अलग-अलग बस्तियों में किया गया। ‘मैं कौन हूँ’ नाटक के प्रभाव को देखते हुए एक बड़ी महिला सभा के आयोजन में दिखाने के लिए फिर हम तीन महिलाओं ने मिलकर इसे तैयार किया। इस नाटक में तीन प्रमुख चरित्र थे। इलाहाबाद में उस समय बच्चन जी और तेजी हमारे घर के पास ही रहते थे, इसलिए हमने तय किया कि तेजी बच्चन, मैं और इसके अलावा सादिक़ सरन इस नाटक को तैयार करेंगे। इस प्रकार इलाहाबाद में महिलाओं की सभा में हम तीन महिलाओं द्वारा यह नाटक खेला गया। शायद यह पहला ही प्रदर्शन था, जिसे केवल महिलाओं ने किया था।

इलाहाबाद में उस समय बहुत से साहित्यकार मौजूद थे। अलग-अलग विचारधारा के लेखकों की गोष्ठियाँ होती रहती थीं। इन गोष्ठियों में शामिल होने के कारण नेमि जी के साथ मेरा भी उनसे घनिष्ठ परिचय तो हुआ ही, साहित्य के बारे में भी बहुत जानकारी मिल जाती थी। अज्ञेय जी, शमशेर जी, मुक्तिबोध, भारत भूषण अग्रवाल के तो साथ-साथ रहना भी हुआ इसलिए उनकी संवेदनशीलता, विचारों की विविधता उनके पूरे व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को निकट से जानने का जो अवसर मिला, वह बड़ा विचारोत्तेजक और दिलचस्प था कि वहीं से मुझे भी कुछ लिखने-पढ़ने की प्रेरणा मिली। नेमि जी का भी वहाँ लेखन कार्य अधिक हुआ, फिर भी इप्टा की गतिविधि चलती ही रही।

देखा जाए तो 1944-45 से 54-55 तक एक ऐसा दौर था, जब किसी न किसी रूप में साहित्य, संगीत और नाटक से हम दोनों का जुड़ाव बना ही रहा। इस प्रकार कलकत्ता, बंबई, इलाहाबाद  से अर्जित विविध अनुभवों को लेकर हम 1956 में दिल्ली आए, और फिर धीरे-धीरे अपने परिवार सहित पूरी तरह से वहीं बस गए। दिल्ली आकर सबसे पहले नेमि ने संगीत नाटक अकादमी में काम किया, फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में संयोजन और अध्यापन का। इन दोनों महत्वपूर्ण संस्थाओं में शामिल होने के साथ ही बड़े पैमाने पर देश भर के थिएटर से नए  सिरे से संपर्क हुआ। उसकी चर्चा फिर कभी।

आज जब लेख लिख रही हूँ तो नेमि जी के साथ बीते शुजालपुर से लेकर अब तक के कितने दृश्य, परिस्थितियाँ, विविध विधाओं की जानकारी, राजनीति की उथलपुथल में शामिल होना, अनेकों व्यक्तियों से मिलाप, देश-विदेश की यात्राएँ, फिर शंभु मित्र के साथ नाटक में अभिनय करना, शांतिवर्धन और रवि शंकर के साथ संगीतात्मक ‘बैले’ में काम करना आदि पुरानी बातें याद आने पर इस बात से बड़ा अच्छा लगता है कि एक साथ ऐसे समय में यात्रा शुरू की, जब हमारे पूरे देश में बड़ी तेज़ी से सांस्कृतिक गतिविधियाँ नए ढंग से अपना रूप ले रही थीं। दिल्ली आकर मैं चिल्ड्रेंस थिएटर और फिर ‘उमंग’ की स्थापना करके बच्चों को नाटक सिखाने से जुड़ गई और नेमि नाट्य विद्यालय में अध्यापन के साथ नाट्य समीक्षा लिखने में। अतीत से उपलब्ध उन सभी अनुभवों से हम दोनों को अपने-अपने काम में निरंतर कई स्तर पर ऊर्जा मिलती रही।

इस प्रकार कार्यक्षेत्र भिन्न होने पर भी जीवन का मूल आधार नाटक ही रहा। उसी के विषय में तरह-तरह का विचार-विनिमय, चिंतन-मनन ‘आज के संदर्भ में क्या कुछ हो सकता है’, आदि चर्चाएँ साथ-साथ होती रहीं। मैं अपने लेखन, बाल नाट्य-प्रस्तुति या अन्य हर तरह के कार्यों में उनसे सलाह लेती थी और वे भी कई बातों में मेरे ऊपर पूरी तरह से निर्भर रहते थे। बाह्य कार्य से लेकर घर-परिवार या सामाजिक-राजनैतिक समस्या जब भी मुझे उद्वेलित करती, तो उसका समाधान मुझे नेमि से ही मिल जाता था। हमारा यह परस्पर आदान-प्रदान अंत समय तक एकदूसरे का उत्साह और मनोबल बढ़ाता रहा। उमंग रजत उत्सव के मौक़े पर ‘बाल रंग’ पुस्तक प्रकाशित होने में कई तरह की बाधाएँ आ रही थीं; तभी नेमि जी ने उसे प्रकाशित कराने की पूरी ज़िम्मेदारी लेते हुए 23 मार्च की शाम को ही मुझसे उसकी पांडुलिपि ली, और स्वयं अपने हाथ से बाँधकर रखी थी। पर 24 की सुबह अचानक हमारे बीच से नेमि सदा के लिए चले गए।

तो संक्षेप में ये हैं मेरे नाट्यानुभव। नहीं जानती, जो नाट्य-यात्रा अब से इकसठ-बासठ वर्ष पहले एक साथ शुरू की थी, अब अकेली मैं क्या कर सकूँगी।

इस आलेख से पाठकों को और कोई लाभ न भी हो, पर देश में नए नाट्य रूपों का, इण्डियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) का कैसे जन्म हुआ, उसके पीछे क्या-क्या भावना थी, और कैसे-कैसे लोग उससे जुड़े थे और उनका समर्पण था – उस अतीत की कुछ जानकारी ज़रूर दिलचस्प लगेगी।

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