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छोटे शहर का कैमरा और अजय आठले

छोटे शहर का कैमरा और अजय आठले

(यह लेख अजय की पहली बरसी पर अपर्णा के आग्रह पर लिखा था। उसके द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘गाँव के लोग’ के 27 सितम्बर 2021 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसमें मैंने अजय द्वारा बनायीं गयीं कुछ फिल्मों के उसके द्वारा लिखे संस्मरण भी शामिल कर दिए हैं। रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ के 2016-2017 का अंक छत्तीसगढ़ इप्टा की विभिन्न इकाइयों के इतिहास के दस्तावेज़ीकरण के अंक के रूप में छपा था। अजय ने इसमें रायगढ़ इप्टा का विस्तृत सिलसिलेवार इतिहास लिखा था, उसमें उसके द्वारा लिखे गए फिल्म-सम्बन्धी संस्मरण यहाँ उद्धरण के रूप में जोड़ दिए गए हैं। अजय के 67 वें जन्मदिन पर यह लेख पुनर्प्रकाशित है।)

इप्टा ने अपने प्रारम्भिक काल में ‘धरती के लाल’ फिल्म बनाई। उसके बाद इप्टा के ही चेतन आनंद, ख्वाजा अहमद अब्बास, सागर सरहदी आदि ने भी अनेक शानदार फिल्में बनाईं। फिल्म एक ऐसा माध्यम है, जिसकी पहुँच काफी ज़्यादा लोगों तक होती है। रंगमंच की अपेक्षा इसके दर्शकों की संख्या बहुत अधिक है। साथ ही फिल्म से तकनीक जुड़ी हुई है। कैमरे की आँख से दुनिया को देखने और दिखाने का हुनर एक अलग आकर्षण रखता है।

अजय आठले अपनी उम्र के पचीसवें वर्ष में इप्टा से जुड़ चुका था और उसमें भी यह हुनर ठाठें भरता था। अजय को बचपन से फोटोग्राफी का शौक रहा है। उसके दादाजी बहुत अच्छी तस्वीरें खींचते थे, घर में ही डार्क रूम था, जहाँ वे अपनी तस्वीरें धोते व प्रिंट करते थे। साथ ही रायगढ़ की पुरानी नटवर स्कूल में छात्रों को अन्य कारीगरी के साथ फोटाग्राफी सीखने की सुविधा थी। इसलिए अजय का यह शौक बरकरार रहा। एक टेक्निकल पर्सन होने के कारण नए अद्यतन कैमरों की जानकारी उसके पास होती थी। अपनी आरम्भिक नौकरियों में ही उसने कैमरा खरीद लिया था। बाद में जब उसने इंश्योरेंस सर्वेयर का काम शुरु किया तो रोज़ ही कैमरे का काम पड़ता था। फर्क ये था कि इसमें प्रायः क्षतिग्रस्त मशीनरी या गाड़ियों के फोटो खींचे जाते। इसके अलावा अपनी सौंदर्य-दृष्टि के अनुसार भी वह फोटो खींचता था, खासकर बच्चों के! वीडियो कैमरे के आने के बाद तो उसकी आँख और तैयार होने लगी। उसने छोटे-बड़े वीडियो बनाने शुरु किये। कुछ प्रोजेक्टस की वीडियोग्राफी कर वीडियो रिपोर्ट या वीडियो फिल्म बनाने लगा। इस मामले में यही कहा जा सकता है कि उसने अपना कौशल बढ़ाना शुरु किया। पहलेपहल जल-संसाधन के प्रोजेक्ट में चेकडैम और स्टॉपडैम पर वीडियो बनाया। तब तक पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य बन चुका था, पृथक् राजनैतिक अस्तित्व मिलने पर छत्तीसगढ़ी भाषा और लोकसंस्कृति के प्रति लोगों की अस्मिता जागृत होने लगी। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों की बाढ़ आ गई। आसपास के सभी कलाकार फिल्मों की ओर दौड़ पड़े। ‘छालीवुड’ बनाने की बात की जाने लगी। छत्तीसगढ़ी फिल्मों की झड़ी लग गई। रंगमंच करने वाले कलाकार भी फिल्मों की ओर कूच कर गए। नाट्यसंस्थाओं का काम ठप्प होने लगा।

अजय ने महसूस किया कि बड़े परदे का आकर्षण नाटक के कलाकारों को भी बहा ले जा रहा है। मुंबई जाने के सपने देखने वालों को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर खींचने लगी मगर सबको वहाँ अवसर कैसे मिल सकता था! एक तरह की अफरातफरी मची हुई थी। अजय ने इप्टा रायगढ़ के कलाकारों के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘‘चलो, अपन लोग खुद ही फिल्म बनाते हैं!’’ सभी साथी खुश! उस बीच हम कई छोटी कहानियाँ पढ़ चुके थे। हमें पुन्नीसिंह यादव, जो मध्यप्रदेश इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के हमारे वरिष्ठ साथी भी थे, उनकी कहानी ‘मुगरा’ पसंद आ गई। अजय ने पटकथा तैयार की। फिल्म में हमारी टीम के साथी युवराज सिंह ‘आज़ाद’, अपर्णा श्रीवास्तव, लोकेश्वर निषाद, रामकुमार अजगल्ले, श्याम देवकर – इन पाँच कलाकारों को लेकर शूटिंग शुरु हुई। अन्य सभी कलाकारों ने फिल्म-निर्माण में सहायक के रूप में खुशी से ज़िम्मेदारियाँ सम्हाल ली थीं। फिल्म का एक गीत मेरी सहकर्मी डॉ. नीलू श्रीवास्तव ने गाया। शूटिंग रायगढ़ के आसपास के लोकेशन्स पर हुई। सारे संसाधन व्यक्तिगत होने के कारण मात्र डेढ़ हज़ार रूपये में सन् 2003 में फिल्म तैयार हो गई थी। एडिट अनादि ने किया था, जो उस समय मात्र पंद्रह साल का था। अजय द्वारा लिखे गए रायगढ़ इप्टा के इतिहास में इस फिल्म का ज़िक्र उसने कुछ यूँ किया है, ‘‘…साथी पुन्नीसिंह यादव की एक कहानी ‘मुगरा’ पर उसी नाम से एक शॉर्ट फिल्म की शूटिंग पूरी कर ली थी और डबिंग का काम चल रहा था। … इसकी पहली स्क्रीनिंग हमने बच्चों के वर्कशॉप के पहले दिन करना तय किया था परंतु कुछ कारणों से एडिटिंग पूरी न होने के कारण इसे आगे बढ़ा दिया था।’’ (इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ 2017 का छत्तीसगढ़ इप्टा विशेषांक, पृ. 87)

फिल्म विशुद्ध तकनीकी माध्यम है। कैमरा और उसकी भाषा, उसके सामने अभिनय की समझ, साउंड, लाइट्स, डबिंग और पोस्ट-प्रोडक्शन के अनेक काम… इस तकनीकी ज्ञान को हासिल करने और उसमें कुशलता तथा सिद्धहस्तता हासिल करने के लिए अजय ने इंटरनेट की सहायता से अनेक वीडियो देखे, लेख पढ़े, किताबें मंगवाईं। इनके अलावा व्यावहारिक कुशलता अर्जित करने के लिए उसने रायगढ़ में बनाई जाने वाली फिल्मों और म्युज़िक वीडियोज़ की भी एडिटिंग शुरु की। उस समय अधिकांश लोग शौक से फिल्में या वीडियो बना रहे थे, कटक जाने के लिए उनके पास पर्याप्त धनराशि नहीं होती थी, ऐसे लोग अजय के पास आते थे। अजय ने रिसर्च कर सॉफ्टवेयर मंगवाए, कम्प्यूटर अपडेट किया। ‘मुगरा’ के निर्माण तक अजय ने अपना हाथ साफ कर लिया था। ‘मुगरा’ धोबी के बेटे की कहानी है, जो पढ़ने में तेज़ होने के बावजूद अपने पियक्कड़ बाप द्वारा शिक्षा से वंचित कर काम में लगा दिया जाता है। उस समय बालश्रम के विरुद्ध अनेक जागरूकता कार्यक्रम चल रहे थे, उनका सूत्र पकड़कर फिल्म का अंत हुआ है बाल श्रमिक परियोजना के सरकारी प्रचार-प्रसार के लिए निकले जुलूस से। इसतरह की अनेक परियोजनाएँ लागू करने का तब तक कोई औचित्य नहीं हो सकता, जब तक समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक विषमता न हटाई जाए! अन्यथा इसतरह के बुद्धिमान बच्चे शिक्षा से वंचित होकर बचपन में ही हाथ में ‘मुगरा’ लेने के लिए बाध्य होंगे।

इसके बाद ही संयोग से 2004 में पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के संकल्प मेश्राम रायगढ़ में बच्चों की फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ की शूटिंग करने आए। यह फिल्म चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी की सहायता से बनाई गई थी। उन्होंने इप्टा के बाल कलाकारों को तो लिया ही, साथ ही अन्य कलाकारों को भी चयनित किया। अजय को सरपंच की खासी महत्वपूर्ण भूमिका दी गई थी। रायगढ़ के नज़दीक के गाँव भिलवाटिकरा में लगभग एक महीना शूटिंग चली। अजय ने अपना पूरा महीना फिल्म प्रोडक्शन यूनिट के साथ ही बिताया। उसने समूची प्रोसेस बहुत बारीकी से देखी-परखी। उसने जो सैद्धांतिक ज्ञान हासिल कर लिया था, वह अब व्यावहारिक अनुभव से और बेहतर हुआ। उसके बाद अजय ने दूसरी लघु फिल्म ‘बच्चे सवाल नहीं करते’ बनाई। यह फिल्म भी पुन्नी सिंह यादव की इसी नाम की ही कहानी पर आधारित थी। इसमें भी इप्टा रायगढ़ के ही तमाम कलाकारों ने अभिनय और प्रोडक्शन किया था। हमारे समाज में हमेशा ही खाने और दिखाने के दाँत अलग-अलग होते हैं। ‘बच्चे सवाल नहीं करते’ में बड़ी मासूमियत के साथ इस बात को व्यक्त किया गया है। स्कूली शिक्षा में पर्यावरण-संरक्षण के पाठ पढ़ाने वाला समाज उच्च राजनैतिक-आर्थिक स्तर पर किसतरह पर्यावरणविरोधी होता है, इसका रूपक एक परिवार की कहानी के माध्यम से रचा गया है। तीन बच्चों की भूमिका में थे भरत निषाद, स्वप्निल नामदेव और संकल्प महंत। दोनों लघु फिल्में रायगढ़ इप्टा के यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं।

हालाँकि इसके बाद का फिल्म-निर्माण असफल रहा था। तपन बैनर्जी की ‘पहल’ में प्रकाशित एक कहानी पर समूची तैयारी कर शूटिंग शुरु हुई उस फिल्म में शहर के कलाप्रेमी वरिष्ठ लोगों को भी बतौर अभिनेता अजय ने लिया। ‘बयार’ के सम्पादक-साहित्यकार सुभाष त्रिपाठी, प्रोफेसर जी.एन.श्रीवास्तव को अनुरोध के साथ फिल्म में लिया गया था। बेरोजगारों की दुर्दशा पर केन्द्रित यह फिल्म तकनीकी गलती से डिब्बे में बंद हो गई। कुछ हिस्से शूट हो चुके थे, कुछ ही बचे थे। वह डीवी कैसेट का ज़माना था। पता नहीं कैसे चूक हो गई कि, फिल्म की शूटिंग वाले कैसेट के कुछ हिस्से पर ही कुछ दूसरा शूट कर लिया गया। कुछ सीन डिलीट हो गए। जब अजय को ध्यान में आया, उसने सिर पीट लिया। तब तक कुछ महीने बीत चुके थे। फिर से शूटिंग करने के लिए कलाकारों से सम्पर्क किया गया तो पता चला, मुख्य कलाकार युवराज ने अपने बाल रंग लिए थे इसलिए अब विकल्प एक ही था कि, दोबारा फिल्म शूट की जाए! मगर ‘बीत गई सो बात गई’ वाली बात हो गई और वह फिल्म नहीं ही बन पाई।

इस बीच इप्टा रायगढ़ के नाटकों (बकासुर, गगन घटा घहरानी, गगन दमामा बाज्यो) की वीडियो रिकॉर्डिंग कर डीवीडी बनाई गई। इनकी रिकॉर्डिंग के बारे में अजय ने लिखा था, ‘‘इस बीच हमारे पास कैमरा आ चुका था। हम एक शॉर्ट फिल्म बना चुके थे तो मैंने प्रस्ताव रखा कि ‘बकासुर’ नाटक को शूट करके इसकी सीडी बनाए! हो सकता है, छत्तीसगढ़ी में होने के कारण इसे अच्छा मार्केट मिल जाए। इस सीडी को ‘भारंगम’ भी भेजा जा सकता है। सब तैयार हो गए। इसके सारे गीत हमने देवेश शर्मा के स्टुडियो में रिकॉर्ड कर लिए और उसके बाद यह तय किया कि नाटक फिर से खड़ा कर शनिवार-रविवार को इसके गाँव-गाँव में शो किये जाएँ। पंडरीपानी, बनसिया, सोंडका और गोरखा में इसके चार शो हुए। उसके बाद तीन दिन के लिए पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम बुक कर लगातार तीन रात शूटिंग की गई और डबिंग करके सीडी तैयार कर ली। 14 से 16 नवंबर 2005 में लखनऊ में इप्टा का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था… वहाँ ‘बकासुर’ की पचास सीडीज़ बेची भी गईं। भारंगम 2006 के लिए ‘बकासुर’ का चयन हो चुका था।’’ (इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ 2017 का छत्तीसगढ़ इप्टा विशेषांक, पृ. 89)

रायपुर दूरदर्शन के लिए नाटकों (गदहा के बरात, होली, गांधी चौक) की शूटिंग और दूरदर्शन द्वारा निर्देशित एक धारावाहिक ‘सपने कब हुए अपने’ के अनुभव ने भी समूची टीम को कैमरे से रूबरू होने का अवसर प्रदान किया। दूरदर्शन के साथ के इस अनुभव पर अजय ने लिखा है, ‘‘इस बीच अजीज़ कादिर जी पटना से रायपुर दूरदर्शन आ गए थे। उन्होंने हमारी मुलाकात दूरदर्शन के निदेशक श्री पाणिग्रही जी से करवाई। उन्होंने संतोष जैन लिखित ‘सपने कब हुए अपने’ नामक सीरियल की स्क्रिप्ट हमें दी। इप्टा रायगढ़ के साथियों के साथ मिलकर हमने इसके तीन एपिसोड बनाए, जो रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित भी हुए। आगे चलकर रायपुर दूरदर्शन ने हमारे दो नाटकों ‘होली’ (लेखक – महेश एलकुंचवार) और ‘गदहा के बरात’ (लेखक – हरिभाई वडगावकर) की शूटिंग कर उन्हें भी रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित किया।’’ (वही, पृ. 93)

2007 से 2010 तक मैंने यूजीसी के एक प्रोजेक्ट के तहत रायगढ़, जशपुर और सरगुजा जिले की पारम्परिक लोकसंस्कृति का दृश्य-श्रव्य डॉक्यूमेंटेशन किया था, जिसमें अजय की भी बहुत सक्रिय भूमिका रही। मेरी और उसकी रूचियाँ काफी मिलती-जुलती थीं और दोनों को नए-नए क्षेत्रों को जानने-समझने की भारी उत्सुकता और जिज्ञासा हुआ करती थी इसलिए हम प्रायः एकदूसरे के हरेक प्रोजेक्ट में शामिल रहते थे। तो, इन तीन वर्षों में हमने जितने भी वीडियो और ऑडियो रिकॉर्ड किये थे, अजय ने उस पर दो डॉक्यूमेंट्रीज़ बनाईं – पहली, अगरिया – जो सरगुजा की अगरिया जनजाति के लौह-निर्माण की समूची प्रक्रिया पर है और दूसरी, छत्तीसगढ़ की जीवनशैली और संस्कृति पर। ये दोनों डॉक्यूमेंट्रीज़ भी रायगढ़ इप्टा के यूट्यूब चैनल पर देखी जा सकती हैं।

2009 में अनादि का दाखिला फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान पुणे में हुआ और अजय को अब घर का प्रशिक्षक मिल गया। वह अनादि से नित नए बिंदुओं की जानकारी लेता, उसके द्वारा लाई गई ढेर सारी फिल्में देखकर चर्चा करता। दो साल बाद अनादि छुट्टियों में ‘जून एक’ फिल्म बनाने अपने साथियों के साथ रायगढ़ आया। उस समय भी इप्टा के सभी सदस्यों ने इस फिल्म-निर्माण में संलग्न होकर बहुत-कुछ सीखा। यह सिलसिला उसके बाद चलता ही रहा। 2014 में अनादि और उसके साथियों ने छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा। उस समय उनका पाठ्यक्रम समाप्त नहीं हुआ था।

तीन निर्देशकों के संयुक्त निर्देशन में बनने वाली यह फिल्म ‘मोर मन के भरम’ इप्टा के साथियों के लिए किसी नाटक के इम्प्रोवाइज़ेशन से कम नहीं थी। अजय ने इस फिल्म में स्वयं अभिनय तो किया ही था, परंतु प्रोड्यूसर की भूमिका भी अदा की थी। जहाँ ये बच्चे फँसते, अंकल के पास दौड़ पड़ते। कभी शूटिंग के लोकेशन के लिए परमिशन का मामला हो, कोई प्रापर्टी न मिल रही हो, भोजन की व्यवस्था करनी हो या फिर फिल्म के भीड़वाले दृश्य के लिए लोगों को जुटाना हो – अजय अनादि और तमाम बच्चों का देवदूत था। अपना व्यवसाय सम्हालने के साथ-साथ सबकुछ करने के लिए तैयार! क्रू मेम्बर्स के साथ हँसी-मज़ाक-किस्सागोई करते हुए वह माहौल को खुशनुमा बनाए रखता था। ‘मोर मन के भरम’ को 2015 के मामी फिल्म फेस्टिवल में ज्यूरी स्पेशल अवॉर्ड मिला और स्क्रीनिंग के लिए पूरी टीम मुंबई रवाना हुई। फिल्म में अजय एक फोटोग्राफर की भूमिका में था। निर्देशक करमा टकापा ने उससे यह रोल बहुत कॉमिक ढंग से करवाया था। अजय के अभिनय में बहुत सहजता थी, इसलिए समूचा सीन यादगार बन गया था।

उसके बाद फिल्म इंस्टीट्यूट के कई निर्देशकों ने रायगढ़ आकर पिछले चार-पाँच सालों में कई फिल्में बनाई। 2018-19 में पियुष ठाकुर ने एक शॉर्ट फिल्म और करमा टकापा ने एक फीचर फिल्म रायगढ़ आकर शूट की। ये सब युवा प्रतिभाशाली निर्देशक अजय के भरोसे ही आते थे कि अंकल सब व्यवस्था करवा देंगे। इस बीच अजय ने बेहतरीन कैमरे, ट्राइपॉड, ट्रॉली, लाइट्स, साउंड रिकॉर्डर जैसे कई उपकरण खरीद लिये थे, जिससे सभी का काम आसान हो जाता और लो बजट होने पर भी काम चल जाता था।

इस बीच एक और लघु फिल्म अजय ने बनाई। ‘पहल’ में ही प्रकाशित ‘टुम्पा’ नामक बंगला कहानी के रूपांतरण ने अजय को आकर्षित किया और फिर इसी नाम से पर्दे पर एक रूपक रचा गया, जिसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रवेश किसतरह वैश्वीकरण के बाद हरेक व्यक्ति की निजी ज़िंदगी में भी हो गया है, इसका चित्रण है। अमेरिका दो देशों को परस्पर एकदूसरे के खिलाफ खड़ा कर किसतरह दोनों को हथियार बेचकर अपना उल्लू सीधा करता है, यह एक सीधी-सादी फैंटेसीनुमा कहानी के माध्यम से दिखाया गया है। यह फिल्म भी इप्टा रायगढ़ के बैनर पर ही बनी और यूट्यूब पर अपलोड की गई। ‘टुम्पा’ के निर्माण की कथा अजय ने इस तरह लिखी है, ‘‘मार्च में ‘टुम्पा’ की शूटिंग शुरु हुई थी और दो दिन की शूटिंग के बाद ठहर गई क्योंकि मुख्य रोल करने वाली लड़की अचानक वापस अंबिकापुर चली गई। बीच-बीच में वह आती और फिर गायब हो जाती। जिस फिल्म को दस दिन में पूरा होना था, उसे एक साल लग गया, मगर अंततः हम लोगों ने बनाकर ही दम लिया। … फिल्म पूरी कर 25 मई को इप्टा के स्थापना दिवस पर इसका पहला स्क्रीनिंग किया गया, जो बहुत सफल नहीं कहा जा सकता। … अगले महीने में ‘टुम्पा’ की दूसरी स्क्रीनिंग इला मॉल के मल्टीप्लेक्स में की गई तथा तीसरी स्क्रीनिंग रायपुर के वृंदावन हॉल में हुई। पटना में इप्टा के राष्ट्रीय सचिव मंडल की विस्तारित बैठक में भी ‘टुम्पा’ दिखाई गई। इसके बाद रायपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में इसका प्रदर्शन 15 दिसंबर को हुआ। (वही, पृ. 107-108)

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जबसे मोबाइल और स्मार्ट फोन्स का हरेक घर में प्रवेश हुआ है, तब से सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर ही लोग ज़्यादा व्यस्त रहने लगे। अजय को तीव्रता से महसूस हुआ कि इप्टा को भी अब सिर्फ रंगमंच और नुक्कड़ पर नाटक करने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हस्तक्षेप करना चाहिए। हमने कई रंगकर्मियों और नाट्यदलों के स्टुडियो थियेटर के बारे में सुना था। अजय का सपना था कि, इसतरह का स्टुडियो थियेटर हमारा भी हो, जिसमें हम न केवल रिहर्सल, नाट्य-प्रस्तुति, संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ, व्याख्यान आयोजित कर सकें, बल्कि फिल्म स्क्रीनिंग्स और अनेक प्रकार के टॉक शोज़ भी बना सकें। उसका यह सपना 2019 की गर्मियों में पूरा हुआ। मई माह से बच्चों की और उसके बाद युवाओं की कार्यशाला हुई। अनेक फिल्में बच्चों को दिखलाई गईं। साथ ही अजय की परिकल्पना के अनुसार टॉक शो ‘मुद्दे की बात’ 29 फरवरी 2020 से शुरु हुआ।

कोरोना महामारी के कारण रायगढ़ में अगस्त में पूरा लॉकडाउन लगने तक ‘मुद्दे की बात’ के तेरह एपिसोड तैयार कर यूट्यूब पर अपलोड किये गये। जो विषय हमें तात्कालिक रूप से ज़रूरी लगते थे, उन्हें चुनकर हम संबंधित विषयों के विषय विशेषज्ञ और व्यक्तियों को आमंत्रित करते थे।

टीम का युवा साथी सुमित मित्तल, जिसने पत्रकारिता का पाठ्यक्रम पूरा किया है, उसे एंकरिंग सौंपा गया, साउंड रिकॉर्डिंग भरत निषाद करता, लाइट्स श्याम देवकर और वासुदेव निषाद सम्हालते, कैमरा सचिन टोप्पो और अजय सम्हालते – इसतरह पूरी तकनीकी टीम चाक-चौबंद थी। तमाम तकनीकी संसाधन हमारे पास इकट्ठा हो चुके थे और अजय एडिटिंग में भी काफी पारंगत हो चुका था अतः सिलसिला चल पड़ा था।

इसमें विषय थे – परीक्षा में तनाव (विद्यार्थियों, अभिभावकों तथा शिक्षकों पर तीन अलग-अलग एपिसोड हुए; सीएए-एनआरसी का सच, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ऑटो ड्राइवर, सफाई सुपरवाइज़र तथा घरेलू सहायक महिलाओं से बातचीत, भगतसिंह पुण्यतिथि पर ‘ऐ भगतसिंह तू ज़िंदा है’, श्रमिक दिवस/मई दिवस पर ‘महिला कामगारों की स्थिति’ विषय पर, लॉकडाउन में अप्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा पर चर्चा रखी गई।

दो एपिसोड प्रेमचंद और भीष्म साहनी पर केन्द्रित किये गये तथा एक एपिसोड, जिसमें अजय ने खुद कोरोना वाइरस का रोल निभाया था – ‘कोरोना से बातचीत’, इसके अंतर्गत पत्रकार युवराज सिंह के साथ नाटकीय साक्षात्कार था) तीन साक्षात्कार भी स्टुडियो थियेटर में ही रिकॉर्ड किये गये, इन्हें ‘संवाद’ शीर्षक दिया गया था – रंगकर्मी एवं अभिनेत्री सुषमा देशपांडे, स्टोरी टेलर डॉ. शिल्पा दीक्षित तथा सामाजिक कार्यकर्ता सविता रथ का।

अजय को फिल्म-निर्माण में गहरी रूचि थी। उसमें छिपी रचनात्मकता और प्रभावशीलता से वह अच्छी तरह वाकिफ था। उसने अनादि में अपनी इस रूचि का बीजारोपण उसके काफी बचपन से ही कर दिया था। अनादि छठवीं में पढ़ रहा था, उसी समय अजय ने पहली बार उसके हाथ में वीडियो कैमरा थमाया। हम पचमढ़ी घूमने गए थे। अनादि ने वहाँ जो भी वीडियोग्राफी की, लौटने के बाद अपनी ही आवाज़ में कमेन्ट्री कर उसने एक यात्रा रिपोर्ताज़ जैसा बनाया था। उसके बाद अजय जो भी प्रोजेक्ट हाथ में लेता, अनादि को भी उसमें जोड़ लेता। अनादि ने नववी कक्षा में अपनी पहली डॉक्यूमेंट्री ‘रहिमन पानी राखिये’ शीर्षक से बनाई थी, जिसे पर्यावरण पर आधारित किसी फिल्म फेस्टिवल में बच्चों की श्रेणी में अजय ने भेजा था। जब अनादि का चयन फिल्म एवं टेलिविजन इंस्टीट्यूट पुणे में हुआ, उसे वहाँ अपने सहपाठियों से सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनमें से अधिकांश लोग अपने माँ-पिता से झगड़कर इस कोर्स में आए थे। उनके अभिभावक उन्हें इस कोर्स में न भेजकर किसी अधिक प्रतिष्ठित कोर्स में भेजना चाहते थे। जबकि अनादि के साथ उल्टा हुआ था। बचपन से कैमरा हैंडल करते हुए उसने पहले सिनेमेटोग्राफी में उच्च शिक्षा लेने का मन बनाया था मगर अपने ग्रेजुएशन के दौरान मास कम्युनिकेशन करते हुए उसकी रूचि ग्राफिक डिज़ाइन की ओर हुई। उसने हमारे सामने अपनी मंशा जाहिर की, अजय ने उसे समझाते हुए फिल्म-निर्माण की ओर ही फोकस करने के लिए कहा। अनादि आश्चर्यचकित! सहपाठियों से उसका अनुभव एकदम उल्टा था!!

अजय ने लघु फिल्में बनाईं, डॉक्यूमेंट्रीज बनाईं, टॉक शो प्रोड्यूस किये, अनेक कविता कोलाज और कविताओं के वीडियोज़ जारी किये, मगर उसका एक बड़ा सपना अधूरा रह गया छत्तीसगढ़ी फीचर फिल्म बनाने का। इप्टा रायगढ़ ने चार-पाँच साल पहले मराठी नाटककार प्रल्हाद जाधव लिखित नाटक ‘शेवंता जित्ती हाय’ का छत्तीसगढ़ी लोकशैली में ‘मोंगरा जियत हावे’ शीर्षक से नाटक तैयार किया, जिसके अनेक मंचन हुए। इसी नाटक पर फिल्म बनाई जानी थी। मूल लेखक से अनुमति प्राप्त हो चुकी थी। जनवरी-फरवरी 2020 में फिल्म के लिए सभी छत्तीसगढ़ी लोकगीत रिकॉर्ड किये जा चुके थे। फिल्म के लिए अजय ने पटकथा भी आधी लिख ली थी मगर लॉकडाउन के प्रतिबंधों के कारण यह योजना बाधित हो गई, जो अजय की अचानक एक्ज़िट के साथ ठंडे बस्ते में दफन होकर रह गई। छोटे पर्दे और बड़े पर्दे पर प्रयोग का जिज्ञासु हमेशा के लिए सो गया।

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