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आंबेडकर को याद करने की अविस्मरणीय यात्रा

आंबेडकर को याद करने की अविस्मरणीय यात्रा

अर्पिता श्रीवास्तव

(देश के अनेक सांस्कृतिक संगठनों द्वारा पिछले दिनों लगभग चार महीनों तक की गयी ‘ढाई आखर प्रेम’ की यात्रा का विस्तृत विवरण यहाँ साझा किया गया था। प्रेम, सदभाव, समानता, भाईचारा और भारत के बहुसांस्कृतिक तानेबाने को समझकर और एकदूसरे की संस्कृतियों का सम्मान करने की समझ विकसित करने में भी इस तरह की यात्राओं का योगदान होता है।

साथी अर्पिता एक ऐसी उत्सुक और मानवता को समर्पित व्यक्ति है, जो आदिवासीबहुल झारखण्ड की निवासी होने के कारण वहाँ की सांस्कृतिक विविधता और जीवन-शैली को नज़दीक से समझने और उसे रेखांकित करने की लगातार कोशिश कर रही है। आंबेडकर जयंती के अवसर पर की गयी दो दिवसीय अद्भुत यात्रा की संस्मरणनुमा रिपोर्ट अर्पिता की कलम से साझा की जा रही है।)

तारीख़ों के महत्व से हम अनजान नहीं है और आज के समय में इन्हें याद करना और लोगों के बीच मनाया जाना और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है; जबकि हमारे देश में लगातार संवैधानिक मूल्यों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है, खिलवाड़ किया जा रहा है। अप्रैल के महीने में 9 अप्रैल यायावर साथी राहुल सांकृत्यायन को याद करते बिताया गया। उनकी यात्राओं ने हमें सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध तो किया ही है, साथ ही इस चेतना से लैस किया है कि यात्राएं मनुष्यता को ज़िंदा रखने के लिए कितनी ज़रूरी हैं। संविधान ने भी लंबी यात्रा की है और इस यात्रा में हमने कई असंतुलन देखे हैं, जो दिनों-दिन बढ़ते चले जा रहे हैं; जिनके संतुलन और अभ्यास के लिए हमें रोजाना ही संवैधानिक मूल्यों को याद किया जाना ज़रूरी है।

बात संवैधानिक मूल्यों और यात्रा से शुरू करने का मकसद यह है कि इस बार 14 अप्रैल, 2024 का दिन ख़ास अनुभव की सौगात लेकर आया। जिसकी बदौलत जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े प्रबुद्ध लोगों की 3 पीढ़ी के साथ बच्चों की टोली भी मौजूद थी, जो इस उम्र से ही पूरी तरह से जल, जंगल और ज़मीन के मुद्दों पर अपनी समझ और अभ्यास में लगी है। इस अनुभव को दर्ज़ करते अन्य कई यात्राओं, लोगों और समय में आवाजाही बनीं रहेगी, इसलिए यह 14 अप्रैल की रपट कहलाएगी या संस्मरण यह बात आप पाठकों पर छोड़ती हूँ।

मैंने शुरुआत में राहुल सांकृत्यायन का ज़िक्र किया और उससे तुरंत ही स्मृति में कौंध गई हमारी ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा का पहला चरण, जो हमने कई प्रगतिशील साथियों की बदौलत 2022 में 9 अप्रैल से छतीसगढ़ से शुरू कर झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में अलग-अलग जगहों पर यात्रा कर पूरा किया था। इसमें झारखंड में जमशेदपुर में हम लोगों ने स्थानीय 5 जगहों में यात्रा की, सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के माध्यम से संवाद और स्थानीय लोगों के साथ सामूहिकता और समन्वय बनाते इसे सम्पन्न किया था। इस यात्रा के माध्यम से भी कई सामाजिक और सांस्कृतिक हस्तियों, संस्थाओं और संगठनों का सहयोग मिला था।

इसके बाद पिछले वर्ष यानी भगत सिंह के जन्मदिन 28 सितंबर, 2024 से 22 राज्यों में ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा गांवों में की गई। इसे भी हमने अपने-अपने प्रदेश में साझेदारी और सहयोग के साथ किया और गांवों की यात्रा की, जिसका अनुभव हमें अपने क्षेत्रीय लोगों के नजदीक लेकर आया। यात्रा के रूट की तैयारी के दौरान भी कई बातों को सीखने-जानने का अवसर मिला। इन यात्राओं के हवाले से और अपने सीमित अनुभव के आधार पर यह कह पाने का साहस कर रही हूँ कि किताबी ज्ञान के साथ गाँव में जाना, लोगों से मिलना-जुलना हमें इस बन चुकी और बदलती दुनिया का ऐसा एहसास कराता है, जो हमेशा के लिए स्मृति में अंकित रह जाता है।

इस अनुभव में अभी फिर कुछ जोड़ने का अवसर मिला और वो था 13 और 14 अप्रैल को भागाबिला (मारांग सेरेंग) में वनप्रेमियों का पारंपरिक रीति-रिवाज पर आधारित दो दिवसीय कार्यक्रम। वैसे भी 13 अप्रैल और 14 अप्रैल की तारीख़ हम सभी के लिए ऐतिहासिक महत्व के दिन हैं, इसमें मिलकर संवाद और चर्चा करने का अपना महत्व रहा है।

इस कार्यक्रम के लिए साथी बासमती और सिद्धार्थ के बुलावे पर 13 अप्रैल, 2024 को सुबह 10 बजे बाईहातू पहुंचे, जहां पहले से ही लगभग 25-30 साथी पहुंचे हुए थे। इसमें लमझरी में ट्राइबल स्कूल और भागाबिला में रात्रि स्कूल चलाने वाले बच्चे भी सम्मिलित हुए। इन दोनों स्कूलों को शुरू करने वाली साथी बासमती के जज़्बे से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता और अब इस यात्रा में साथी सिद्धार्थ भी शामिल हो गए हैं। इन दोनों युवा साथियों की हिम्मत और हौसले से किसी की भी नाउम्मीदी दूर हो सकती है। बहरहाल वहाँ इनके अलावा वन समिति, बिरसा और कई अन्य संगठनों के साथियो के साथ गाँव के लोग भी शामिल थे।

यह यात्रा बाईहातू से शुरू की जाने वाली थी, जो साल के जंगल से होते हुए हमें चिरिबुरू के पहाड़ में ले जाने की थी। बाई का अर्थ होता है बरगद और हातू का अर्थ है गाँव। पिछले तीन साल से यह यात्रा चल रही है , सिद्धार्थ और बासमती अपने स्कूल के बच्चों को पढ़ाने के साथ ही जंगल के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने और आने वाले समय में जिम्मेदार नागरिक की भूमिका अदा करने के लिए तैयार कर रहे हैं। एक आदिवासी के लिए जंगल से जुड़ाव और उनके जीवन में उसकी उपस्थिति के गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक संदर्भ जुड़े हैं, जिसको जीने का अभ्यास बनाने की एक महत्वपूर्ण कोशिश में वन-प्रवास की यह यात्रा और एक रात का जंगल में आवास ज़रूरी पहल है। इस यात्रा में तीसरी से शुरू होकर सातवीं तक के स्कूल के बच्चों के अलावा हाई स्कूल और कॉलेज जाने वाले युवा थे, शिक्षक-शिक्षिका, गाँववासी, वन समिति के लोग, वन विभाग के साथी, जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े मुद्दों से जुड़े कार्यकर्ता साथी भी थे। ज्यादातर साथी और बच्चे आदिवासी ‘हो’ समुदाय से थे, बस 2-3 शहर से जुड़े हम जैसे लोग थे, जिन्हें जीवन का अनमोल अनुभव मिलने जा रहा था।

सुबह लगभग 11 बजे हम सभी लोग एक लाइन बनाकर बाईहातू की सड़क से नीचे उतर जंगल में प्रवेश कर गए। जमशेदपुर की तपती गर्मी से बेचैन जब साल, महुआ, कुसुम के पेड़ों के बीच से गुजरे तो गर्मी जैसे छू मंतर हो गई। लगभग एक घंटा चलने के बाद हम पहाड़ के ऊपर पहुँच चुके थे। रास्ते में महुआ बटोरते अपनी प्यास को तर करते और जूर के ( मकोई जैसा ही) काले गुच्छे वाले जंगली फल को तोड़-तोड़कर मीठे स्वाद का मज़ा लेते पहाड़ के नीचे तक उतर गए, जहां एक पानी का स्रोत था जिसके उस पार सीधी खड़ी ऊंचाई में भी जंगल था, जिसमें जंगल के असल दावेदार(जंगली जानवर) रहते हैं। यानी अब हम अपने आगे-पीछे दोनों तरफ पहाड़ और जंगल से घिरे हुए सुरम्य स्थान में पहुँच चुके थे।

थोड़ी देर ही आराम कर आसपास का जायज़ा लिया ही था कि सिद्धार्थ की पुकार आई कि सभी साथी एक बार फिर ऊपर की तरफ जाकर ट्रेक्टर से सामान लेकर आएं। बच्चे तो सुनते साथ ही तेज़ी से दौड़ते हुए आगे बढ़ गए और हम लोग उनकी ऊर्जा और उत्साह देख अपने कदमों की तेज़ी को महसूस किए। रास्ते से दिख रहा बैंगनी-नीला पेटे बा ( स्थानीय नाम) फूल का गुच्छा ऐसा लग रहा था जैसे अपने पास आने को पुकार रहा हो। कहीं-कहीं पीले फूल भी दिखे। सारजोम (साल) के नए पौधों में उगे हरे पत्तों को छूते, ठंडक महसूस करते सभी लोग ट्रेक्टर में से राशन, बर्तन, पानी और अन्य सामान उतारकर वापिस आए।

दोपहर का 2 बज चुका था और अब खाना बनाने और अन्य तैयारियों में सबके लग जाने की बारी थी। इसी बीच दो साथियो ने तरबूज और केला देकर दोपहर के खाने के समय को थोड़ा आगे बढ़ जाने की अनुमति दे दी और घड़ी ने भी समय बदलने की सहज स्वीकृति दी। मिलजुलकर हरी सब्ज़ी काटने, चावल बनाने और एक तरफ चिकन के लिए तैयारी में अच्छे-खासे लोग लग गए। इस दौरान कुछ बच्चे गए जंगल से लकड़ियाँ बटोरने और कुछ बच्चे चले गए सारजोम के पत्ते और सकम (हरसिंगार) की टहनियों को तोड़ने, जिससे खाने की चिटकी ( पत्तल) और दोने बना सकें।

सिद्धार्थ ने बताया कि सकम यानि हरसिंगार की टहनियों से उसके हर कोण से किनारा खींचकर निकालते हैं और उसे पत्थर में घिसकर उसके रेशे और उसकी रफनेस खत्म की जाती है और फिर उसके टांके ही चिटकी यानि पत्तल में सारजोम के पत्तों में लगाए जाते हैं। खाना खाते समय पत्तल से निकल छोटे टांके के रूप में लगी लकड़ी अगर गले में चली गई और वो अन्य किसी पेड़ या बांस की हो तो गले में फंस सकती है, पर हरसिंगार एक औषधीय पेड़ होता है और इसका जिस तरह से टांका लगाया जाता है उससे किसी प्रकार का खतरा नहीं है। यह भी एक पारंपरिक ज्ञान है जो अब कई जगहों से विलुप्त हो चुका है। सभी बच्चों ने अपनी माँ से इसे सीखा है और बड़ी तन्मयता से वे इस काम को अंजाम दे रहे थे।

इसी बीच चावल तैयार हुआ तो चट्टान पर सारजोम के पत्ते बिछा उसके ऊपर नया गमछा बिछाकर भात बिखेर दिया गया और बड़ी-बड़ी पत्तल से उसे ढँक दिया गया। सब कुछ स्वचालित होते दिख रहा था क्योंकि सभी लोगों में काम के प्रति सामूहिकता का भाव प्राकृतिक रूप से मौजूद था। कुछ साथियों ने इस आयोजन के लिए बच्चों के द्वारा काले कपड़े पर बनाया त्रिभाषी पोस्टर “जंगल और हम” लगाया। इस आयोजन के अन्य पोस्टर के साथ संविधान से जुड़े पोस्टर भी आसपास के पेड़ों की टहनियों में बंधे जंगल को अपने उपस्थित होने की सूचना दे रहे थे।

हरियाली के बीच आयोजन से संबंधित और संवैधानिक मूल्यों के पोस्टर आगे के कार्यक्रम की तरफ ले जा रहे थे। इस कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में वरिष्ठ साथी रमेश जरेई की भूमिका रही, साढ़े तीन के बाद ही सभी को एक-दो बार आवाज़ देकर इस एम्फीथियेटरनुमा जगह में एकत्र होने के लिए आग्रह किया गया और सभी बिना किसी विचलन के स्थान ग्रहण कर लिए।

सिद्धार्थ के संचालन के साथ लगभग एक घंटे के विलंब से कार्यक्रम शुरू हुआ। जल, जंगल और आदिवासियों के आपसी संबंध के बारे में रमेश जेरई ने सरलता से अपनी बात रखी कि बच्चे भी इसे समझ पाएं। किस तरह से आदिवासियों का जीवन जंगल से जुड़ा है, वनोपज से उनका जीवन चलता है और वर्षा का प्रमुख आधार जंगल ही है यह बात सभी बच्चे बहुत अच्छे से समझ गए होंगे। इसके बाद सुखलाल सिंकू ने कोल्हान में जल की स्थिति पर बात रखी। जिस तरह से हम अभी की शहरों में पानी की कमी की खबर सुन रहे हैं, उस लिहाज से यह क्षेत्र बचा है पर इसे बचाकर रखने की चुनौती बढ़ गई है। मिलकर किस तरह से पानी के संरक्षण और संवेदनशीलता को क्षेत्र में बढ़ाना है, यह भी उन्होंने बताया।

वनोपज और उसके बाज़ार पर लंबे समय से काम करने वाले साथी गुरुचरण बागे ने लोगों को संबोधित किया। इसके बाद महिला कॉलेज चाइबासा में भौतिकी पढ़ा रहे प्रशान्त जी ने ग्लोबल वार्मिंग पर अपनी बात रखी। इसके बाद इस सत्र को ओपन कर दिया गया और लमझारी के ट्राइबल स्कूल के वे तीन बच्चे द्रौपदी, शिवलाल और जो बंगलौर की यात्रा करके आए थे, उन्होंने अपने अनुभव सुनाएं; जिससे हम बड़ों को भी बहुत कुछ सीखने मिला। इमारतों की भीड़ में जंगल की अनुपस्थिति, दिन-रात का पता नहीं चलना, टैंकर द्वारा पानी की आपूर्ति, फ्लैट में एक बंद पिजरे में रहने की उपमा की उनकी बात ने बहुत कुछ कह दिया।

इस यात्रा और जंगल प्रवास के महत्व पर सिद्धार्थ अपने संचालन में लगातार ज़रूरी जानकारी और लोक ज्ञान से बच्चों को परिचित कराते रहे। अपनी जगह से निकलकर यात्रा करने के महत्व पर भी उन्होंने कहा।

अपनी बात रखने के लिए मुझे बुलाया गया। वहाँ उपस्थित तमाम ‘हो’ समुदाय के लोगों को इप्टा के इतिहास के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा के अनुभव साझा कर मैंने यह स्वीकारा कि इस यात्रा के माध्यम से ही संथाली समुदाय की कला-संस्कृति के बारे में जानकारी हुई। बच्चों को उनके लोकज्ञान और संस्कृति के मामले में मैंने संवेदनशील माना। कुछ और साथियो ने भी इस पर अपनी बात और विचार रखे। मीटिंग के इस पड़ाव पर आते-आते सूरज अपनी सवारी ले जाने का इशारा कर चुका था, तो सभी से अपने बिछौने को उचित जगह देखकर बिछा लेने की अपील की गई। इसके बाद अंधेरे में ताज़ी चिटकी(पत्तल) में गरम-गरम खाने का मज़ा सबने लिया। हम शहरवासी कभी अंधेरे में खाने का अनुभव नहीं करते, तो उस दिन अंधेरे में खाना खाकर लगा कि स्वाद ग्रंथियां पूरी सक्रियता से काम कर रही हैं।

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सिद्धार्थ ने संचालन करते सभी से कहा था कि जितनी ज़रूरत है, बस उतने ही पत्ते और अन्य चीज़ें जंगल से लेना है। आसपास गंदगी फैला कर नहीं जाना है, प्लास्टिक की बोतलें जिसमें लोग पानी ले गए थे, उन्हें अपने साथ वापिस लेकर जाने की अपील भी की।

हम लोग जब दोपहर को पहुंचे थे तो गाँव के दियूरी ( संथाली में मांझी बाबा / पुजारी ) पहुँच चुके थे। उन्होंने वन और गाँव देवता की पूजा सम्पन्न की। हँड़िया बना अर्पित की। प्रार्थना में जंगल देव से आह्यवान किया गया कि सभी की सुरक्षा आप कीजिए। दोपहर बाद से आसपास के गाँव वाले दिनभर का काम करके यहाँ शामिल होते जा रहे थे और यह सिलसिला काफी रात तक चला। रात में पहुँचने वाले साथी निश्चित रूप से जंगल-प्रवास करने वाले तमाम साथियों की सुरक्षा के लिए पहुंचे थे। सभी आते और खाना खाकर ऊपर में बज रहे धमसा और माँदर की थाप में नृत्य में शामिल होते जा रहे थे।

शाम गहरा चुकी थी और चाँद-तारों से सजे आकाश ने ख़ूबसूरत रात के अनुभव से भरने का आलाप ले लिया था। ऊपर पहाड़ में ताल और गीत की मद्धम आवाज़ और जुगनुओं से भरे इस वातावरण ने अभिभूत कर दिया। अंधेरा घिरते जो थोड़ा डर लग रहा था, वो भी अपने आसपास साथियों की गुफ्तगू और बच्चों के हंसी-मज़ाक वाले स्वर में गायब हो गया। दिन भर की तेज धूप में भी पेड़ के नीचे गर्मी का एहसास नहीं हुआ और गहराती रात के साथ ठंडक ने चादर तानने के लिए उकसाया।

नृत्य स्थल तक लोगों की आवाजाही काफी रात तक चलती रही। खुले आकाश में तारे गिनते सोने का सुख तो प्रदूषण की वजह से शहरों में अब बीते दिनों की बात हो गया है। हमारे बाद की पीढ़ी, जिनकी गाँव में आवाजाही बनीं हुई है, वे बच्चे तो इस अनुभव से वाकिफ़ होंगे पर बाकी तो बस फिल्मों और टेलिविज़न में ही देख जान पाएंगे। प्रकृति से जुड़े जाने कितने अनुपम दृश्य, स्पर्श और जुड़ाव से शहरी पीढ़ी वंचित हो रही है, यह विचारणीय है। धूल-मिट्टी के स्पर्श से भी वे अनजान हैं। यह लिखते हुए मुझे कुछ वर्ष पुरानी अपनी एक दोस्त की कही बात याद आ रही है, जो मुंबई में रहती थी, अपने बेटे के लगभग 7-8 साल होने पर उसे महसूस हुआ कि यह तो प्रकृति से जुड़ाव ही महसूस नहीं कर पाएगा तो साजो-सामान के साथ वापिस छोटे शहर में आकर बसी। हालांकि यह निर्णय और विचार लेने का साहस और अवसर सभी को हासिल नहीं है।

रात भर गाने-बजाने की आवाज़ में सुबह हो गई। रात भर कुछ साथी पहरा देते रहे और रात गुजारने के लिए संगीत के साथ रहे। भोर 5 बजे सिद्धार्थ ने आवाज़ लगानी शुरू की कि सभी उठ जाएं और सामने खड़े पहाड़ में ट्रेकिंग के लिए चलें, जहां एक पहाड़ की चोटी है वहाँ से सूर्योदय का आनंद लेने। थोड़ी देर बाद साल पत्तों से पटे पहाड़ पर हम लोगों ने चढ़ना शुरू किया और ख़ुद को संभालते हुए ट्रेकिंग करते रहे।

जब पहाड़ों पर सूखे पत्ते बिछे होते हैं तो कदम फिसलते हैं। इसी बीच यह भी पता चला कि इसी मौसम में महुआ होता है और उसे बीनने वाली स्त्रियाँ आग लगाकर पत्तों की सफाई करती हैं। यहाँ जंगल की आग के संबंध में एक महत्वपूर्ण बात साझा करनी है वो यह, कि पिछले वर्ष मई-जून के मध्य में इसी चिरिबुरू पहाड़ में रात के आग लगी थी तो बासमती के ट्राइबल स्कूल के लगभग 15 बच्चों ने कुछ बड़े गाँव के लोगों के साथ रात 9 से दो बजे तक आग बुझाकर जंगल को समूचा जलने से रोका। अपने से किए इस काम से निश्चित ही उनके मन में जंगल के प्रति संवेदनशीलता का ग्राफ बढ़ा होगा। उन बच्चों से बात करने पर उन्होंने बताया कि पहले जलाने वाले पत्तों के बीच में गैप कर दिया जाता है जिससे आगे आग न फैले और फिर हरी पत्तियों को तोड़-तोड़कर डाला जाता है जिससे आग शांत होती है। उनके अनुभव सुनते महसूस हो रहा था कि आज जब ये बच्चे यहाँ आएं हैं, तो कहीं न कहीं दिल से वो इसे अपना मान रहे होंगे। जंगल प्रवास में विदा लेते समय इन बच्चों को गमछा पहनाकर इस जंगल से सम्मानित कर विदा दी गई।

बहरहाल हम लोग 45-50 मिनट में पहाड़ की चोटी पर पहुंचे, जहां सुबह की सुंदरता ने सभी को विस्मित कर दिया। ताज़ी हवा जिसके हलकेपन से मन हल्का हो गया, लगा कि घंटों यहाँ बैठकर प्रकृति को, जंगल की हरियाली को निहार सकते हैं। इस बीच बच्चे आसपास लगे जंगली फूल एकत्र कर लिए, क्योंकि नीचे उतरकर बाबा साहब को श्रद्धा-सुमन अर्पित करना था। वहीं बाघाबिल्ला के साथी बुधराम कहीं से फूल लगे नीम पत्तियों का मुकुट सजा कर आए और सिद्धार्थ के साथ गीत गाते नृत्य के उल्लास में उन्होंने सबको समेट लिया। गीत-संगीत किस कदर आदिवासियों के जीवन में घुला है, यह इनके साथ रहकर ही आप महसूस कर सकते हैं।

सात बजते हम सभी नीचे पहुँच चुके थे। अंबेडकर की जयंती की तैयारी के साथ ही सभी साथी पानी के सोते में डूबी चट्टानों में अपना स्थान चुनकर बैठ गए। अंबेडकर के बचपन, पढ़ाई और संघर्ष के बारे में बताने के लिए मुझे आमंत्रित किया और उसके बाद आज के समय में संवैधानिक मूल्यों पर खतरे और संविधान के बारे में चाईबासा महिला कॉलेज के भौतिकी के सहायक प्राध्यापक प्रशान्त ने सारगर्भित वक्तव्य दिया।

इसके बाद बच्चों ने ‘हो’ भाषा में प्रकृति को संबोधित बहुत प्यारा गीत गाया। बासमती ने जल, जंगल और ज़मीन से जुड़ी बातों के लिए प्रतिबद्ध होने के लिए कुछ ज़रूरी प्रस्ताव दिए, जिसमें सभी की सहमति बनीं और इस तरह से इस जंगल प्रवास से विदा लेने का समय आया, जिसमें इससे आगे की यात्रा के सूत्र निहित हैं।

इस तरह से अंबेडकर जयंती का मनाया जाना अविस्मरणीय अनुभव रहा, जिसमें अपनी धरती के प्रति विनम्र और जिम्मेदारी से भरे बच्चों का सानिध्य मिला, सरल और प्रतिबद्ध ज़मीनी कार्यकर्ताओं का साथ रहा, जिन्होंने हर जिज्ञासा का जवाब दिया। विराम लेने से पहले नन्हे साथी अविनाश का ज़िक्र करना ज़रूरी है जिसने हमें कार्यक्रम के अंत में संविधान की उद्देशिका का पाठ कराया। जीवन को ज़िंदादिली से जीते इन साथियो की प्रकृति और मनुष्यता के सवालों के प्रति प्रतिबद्धता को क्रांतिकारी अभिवादन और ख़ुद में थोड़ा ही सही जीने के इन मूल्यों को अभ्यास में शामिल करने की कोशिश का ख़ुद से वादा ही अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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