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गुजरात में श्रम, ज्ञान और प्रेम का रिश्ता मज़बूत करना ज़रूरी

गुजरात में श्रम, ज्ञान और प्रेम का रिश्ता मज़बूत करना ज़रूरी

(‘ढाई आखर प्रेम’ राष्ट्रीय सांस्कृतिक यात्रा, जिसका आयोजन 28 सितम्बर 2023 से देश के अनेक सांस्कृतिक संगठनों ने मिलकर किया था, 30 जनवरी 2024 को दिल्ली में समाप्त हुई।यह यात्रा राजस्थान, बिहार, पंजाब, उत्तराखंड, ओडिशा, जम्मू, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, कर्णाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल के बाद गुजरात राज्य में 03 से 06 जनवरी 2024 तक आयोजित की गयी थी। गुजरात महात्मा गाँधी का पैतृक प्रदेश रहा है। उनके नमक सत्याग्रह का साक्षी रहा है। अतः गुजरात में यात्रा का रुट साबरमती से दांडी तक बनाया गया था। प्रगतिशील लेखक संघ, किम एजुकेशन सोसाइटी, नव सर्जन संस्था, मानव कल्याण ट्रस्ट, रंगत और रोटरी क्लब का तीसरे और चौथे दिन के आयोजन में योगदान रहा।

गुजरात यात्रा में मध्य प्रदेश से विनीत तिवारी, छत्तीसगढ़ से निसार अली तथा बिहार से पीयूष, संजय, फ़िरोज और राजन सम्मिलित हुए थे। इसी तरह मुंबई के युवा गायक फ़राज़ खान, तबला वादक रौशन गाइकर और बाँसुरी वादक उत्कर्ष भी शामिल हुए थे। इस चार दिवसीय यात्रा की एक संस्मरणात्मक, रोचक और विस्तृत रिपोर्ट साथी विनीत तिवारी द्वारा बनायी गयी है। साथ ही फोटो एवं वीडियो विनीत, निसार अली, सादिया शेख द्वारा यात्रा के दौरान भेजे गए हैं। प्रस्तुत है गुजरात यात्रा रिपोर्ट की तीसरी और अंतिम कड़ी।) 

05 जनवरी 2024 की सुबह ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा के सहयात्री किम से सुबह 10.30 बजे सूरत के लिए निकले। किम में हमारे मेजबान उत्तमभाई परमार ने हमारी आगे सूरत, नवसारी और दांडी तक की यात्रा के लिए एक छोटी बस का इंतज़ाम तो ही कर दिया था, साथ ही नवसारी में संजय भाई देसाई से कार्यक्रम आयोजित करने के लिए कहा था। किम से जत्थे में बड़ौदा से आयीं पारुलबेन दांडीकर भी साथ हो लीं और गायक फ़राज़ और उनके संगतकार साथी उत्कर्ष और रौशन गाइकर भी। इस तरह हम वाहन सारथी जीतू भाई सहित 12 लोग दोपहर क़रीब 12 बजे सूरत में नवसर्जन संस्था में पहुँचे। यह संस्था बच्चों के अधिकारों और कचरा-पन्नी बीनने वाले मज़दूरों को संगठित करने का काम करती है।

वहाँ कच्चे सूत की माला पहनाकर सूरत शहर के गणमान्य वरिष्ठजनों ने यात्रियों का स्वागत किया। इनमें विभिन्न गांधीवादी, सर्वोदयी सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि तो थे ही, कुछ साथी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो), प्रगतिशील लेखक संघ, एटक और इंटक एवं भारतीय महिला फेडरेशन के भी प्रतिनिधि थे। 

सबसे व्यक्तिगत परिचय हुआ और फिर छत्तीसगढ़ के कलाकार निसार अली ने “दमादम मस्त कलंदर” गीत गाया। यात्रा के उद्देश्यों और पूरी योजना तथा अब तक की यात्रा के अनुभवों को संक्षेप में रखते हुए मैंने कहा कि यह यात्रा इस उद्देश्य के साथ की जा रही है कि श्रम, ज्ञान और प्रेम के बीच बढ़ती जा रही दूरी को कम किया जा सके और सूफ़ी तथा संत कवियों के सैकड़ों वर्षों पुराने इंसानियत के संदेशों को लोगों को याद दिलाया जाए। इस प्रक्रिया में 17-18 राज्यों की यात्रा ने हमें इस अनुभव से समृद्ध किया है कि लोग बुनियादी तौर पर प्रेम, आपसी सद्भाव और इंसानियत के पक्षधर हैं। नफ़रत की ताक़तें बहुत थोड़ी हैं लेकिन वे विध्वंस की पक्षधर होने से अधिक ताक़तवर नज़र आती हैं। 

इप्टा बिहार के साथी पीयूष मधुकर ने अपने साथियों फ़िरोज़, राजन और संजय के साथ तीन राज्यों की यात्रा के अपने अनुभव साझा किए। यात्रा में सूरत में बिहार के मंसूर ख़ान नादान भी जुड़ गए जो सूरत में ही नौकरी करते हैं। प्रलेस गुजरात के महासचिव रामसागर सिंह परिहार ने यात्रा के गुजरात पड़ाव की जानकारी दी। फ़राज़ ने अपना लिखा और कंपोज़ किया हुआ एक वीडियो गीत प्रोजेक्टर से दिखाया जो सर्वधर्म समभाव और सद्भाव पर आधारित था और जिसके बोल थे – “आओ दुनिया को सिखाएँ कुछ ऐसा कलाम, कोई कहे नमस्ते तुमको और तुम कहो वाले-कुल-अस्सलाम।”  

सूरत की यात्रा के कार्यक्रमों के मुख्य योजनाकार श्री किशोरभाई देसाई और अतुल पाठकजी ने प्रेम की यात्रा के यात्रियों के लिए स्वागत शब्द कहे। इस आत्मीय  स्वागत कार्यक्रम में प्रोफेसर सूर्यकांत भाई शाह, नाटू भाई, चंद्रकांत भाई राणा, पद्माकर परसोले, लक्ष्मण भाई सुखाड़िया, मुम्बई से चारुल जोशी, राजेश हजीरावाला, मयूराबेन ठक्कर, महेश पटेल, विजय शेनमारे, जयमिन्द देसाई, उर्मिलाबेन राणा, दीपिका पाठकजी, समीर मैकवान, कमलेश त्रिवेदी आदि उपस्थित थे। सुगीत पाठकजी ने सभा का संचालन किया।

इतिहास को जानना और उसका खनन करना 

शाम को हम सूरत से नज़दीक के एक गाँव भीमराड पहुँचे तो भाजपा के कार्यकर्ता और गाँव के पूर्व सरपंच तथा पूर्व पार्षद बलवंत भाई पटेल ने हमें बताया कि जब गांधी जी ने दांडी में सत्याग्रह किया था तब उनके बेटे रामदास गांधी यहाँ सत्याग्रह कर रहे थे। जब गांधी जी ने दांडी में नमक कानून तोड़ा था तो भीमराड में रामदास गांधी ने भी नमक कानून तोड़ा था। वे भी 6 अप्रैल 1930 को छह महीनों के लिए गिरफ़्तार हुए थे। रामदास गांधी ने ही गांधी जी को मृत्योपरांत अग्नि दी थी। बलवंत भाई ने बताया कि वो भाजपा के होने के बावजूद गांधी जी को बहुत मानते हैं और भीमराड को इतिहास में उचित जगह दिलवाने के लिए काफ़ी समय से आन्दोलनरत थे। आख़िरकार सरकार वहाँ दांडी जैसा ही एक स्मारक और आश्रम बनाने के लिए तैयार हो गई है। साथ ही रामदास गांधी की याद में एक विश्वस्तरीय स्टेडियम भी वहाँ बनाया जा रहा है। इसके लिए सरकार ने 13 करोड़ रुपये स्वीकृत भी कर दिए हैं और वहाँ निर्माण कार्य भी शुरू हो गया है।

भीमराड में बलवंत भाई, जीतूभाई पटेल आदि के साथ ही वहाँ भी अनेक वरिष्ठ गांधीवादी, वामपंथी और पारुल बहन के जानने वाले जुटे। अच्छी सभा हुई। एक सुखद आश्चर्य के तौर पर वहाँ हिमाचल प्रदेश की कॉमरेड सपना से मुलाक़ात हुई। पता चला कि सपना ने कॉमरेड सुगीत पाठकजी से शादी कर ली है और सूरत के कॉलेज में पढ़ा रही है। दिन में सूरत के कार्यक्रम के समय उसका कॉलेज था इसलिए वो शाम के कार्यक्रम में भीमराड आ गई। सबसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई और हम लोग कार्यक्रम समाप्त करके नवसारी की ओर बढ़ गए। वहीं मुंबई से हमारे जत्थे मे शरीक होने आयीं फ़राज़ खान की शरीके हयात सादिया शेख भी हमसे आकर जुड़ गईं।

नवसारी और दांडी – अभूतपूर्व अनुभव 

सूरत से नवसारी और दांडी तक की यात्रा की पूरी योजना उत्तमभाई के साथ पारुल बहन ने ही बनायी थी। भीमराड से रात क़रीब 10 बजे हम नवसारी पहुँचे। रात का खाना वहीं था। जैसे ही हम लोग नवसारी में वहाँ पहुँचे जहाँ रुकना था तो जो देखा तो वो मेरे जीवन का पहला अनुभव था। पारुल बहन ने हमें नहीं बताया था कि उन्होंने हमारे रुकने का जहाँ प्रबंध किया है वो मूक-वधिर बच्चों के स्कूल का कैंपस था। अपने कैंपस में मेहमानों के आने से वो वैसे ही रोमांचित और उत्साहित थे जैसे हम जब बच्चे थे और कोई घर आता था तो हमें एक अलग ही खुशी होती थी जो बेफ़िक्री की होती थी, प्यार की होती थी और अगर मेहमान कोई ख़ास हो तो कहना ही क्या! कहने की ज़रूरत नहीं कि देश में सांस्कृतिक यात्रा निकालने वाले, प्यार-मोहब्बत ज़िन्दाबाद, अमन और इंसानियत ज़िन्दाबाद के नारे भी गाते हुए लगाने वाले और राम-कृष्ण, कबीर, तुलसी, गुरुनानक और बुल्ले शाह की आवाज़ लोगों को सुनाने वाले हम उन बच्चों के लिए ख़ास ही थे। उनके हॉस्टल में बनीं खिड़कियों से वो हमें देख रहे थे और उनके मुँह से जैसी आवाज़ें निकल रहीं थीं, वे उनकी निरीहता से ज़्यादा उनका उत्साह और रोमांच व्यक्त कर रही थीं, लेकिन साथ ही उन्हें देखकर हमें निरीहता का एहसास हो रहा था। उन्हीं में से कुछ 10-15 समझदार और बड़े बच्चों ने ही हमें खाना परोसा-खिलाया। बिहार के साथी संजय, फ़िरोज़ और राजन उन बच्चों से इशारों में काफ़ी बात करने की कोशिश कर रहे थे। 

पारुल बहन ने संस्था के ट्रस्टी जयप्रकाश भाई से मिलवाया जो रात के उस वक़्त भी अगवानी के लिए वहाँ मौजूद थे। उन्होंने बताया कि मानव कल्याण ट्रस्ट की स्थापना गांधीवादी महेश भाई कोठारी के प्रयासों से 1970 में आठ ऐसे विशिष्ट बच्चों के साथ हुई थी जो सामान्य नहीं कहे जा सकते थे। आज संस्था में ऐसे 700 से अधिक बच्चे हैं जिन्हें पूरी तरह पहली से 12वीं तक निःशुल्क शिक्षा, भोजन, आवास एवं उनकी रूचि और क्षमतानुसार प्रिंटिंग प्रेस, रसीद बुक स्टाम्पिंग, फिजियोथेरेपी, हैंडमेड पेपर बनाना, सिलाई, कढ़ाई, ब्यूटी पार्लर, कंप्यूटर, सॉफ्ट टॉयज़ बनाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें। हमारे यहाँ के अनेक लड़के-लड़कियाँ पोस्ट ग्रेजुएट भी हुए हैं और वे सभी धीरे-धीरे कंप्यूटर पर काम करना सीखते जा रहे हैं। संस्था में 100 कंप्यूटर हैं। इस सबसे बड़ी बात ये है कि इन बच्चों पर होने वाले कुल ख़र्च का मुश्किल से 10-15 प्रतिशत हिस्सा ही हमें सरकार से मिल पाता है, शेष हम समाज के सहयोग से चलाते हैं। नवसारी स्थित इस कैंपस में मूक-वधिर एवं मानसिक रूप से विशिष्ट क्षमता वाले बच्चे हैं और इस कैंपस का नाम ममता मंदिर है। दृष्टिबाधित बच्चों के लिए नवसारी से सवा सौ किलोमीटर दूर एक और केन्द्र है जिसे प्रज्ञा मंदिर कहते हैं। उन्होंने कहा कि अनेक बार इन बच्चों के माता-पिता इस आर्थिक स्थिति में भी नहीं रहते कि वे आकर छुट्टियों में अपने बच्चों को घर ले जा सकें तो ऐसे में हम अपनी ओर से ही उन्हें सहायता भी मुहैया कराते हैं।    

हमने भी बच्चों से इशारों से काफ़ी बातें कीं। सबसे अच्छा लगा उनके शुक्रिया कहने का तरीका जिसमें वो दिल पर हाथ रखकर हल्का-सा आगे झुक जाया करते थे। उस झुकने ने मुझे अनेक बार अधिक मनुष्य बनाया।

अगले दिन सुबह 6 जनवरी 2024 को हम दांडी जाने से पहले फिर उन बच्चों से नाश्ते और चाय पर मिले। हमने आपस में तय किया कि उनके लिए हमें ज़रूर कुछ प्रस्तुति देना चाहिए। गीत और नाटक के संवाद तो उन्हें सुनायी ही नहीं देंगे। बाँसुरी की मीठी तान, तबले की थाप और मधुर धुनों का भी उन पर कोई असर नहीं होगा। फिर भी सोचा कि कुछ न कुछ तो करेंगे ही। लगा कि जिस प्रेम की बात करते हम देश-दुनिया में घूम रहे हैं, उस प्रेम की सबसे ज़्यादा ज़रूरत जिन लोगों को है, उन्हें हम प्यार किस भाषा में समझाएँ? निसार से बात की और कहा कि तुम नाटक करना और उनके साथ उनकी जो शिक्षिकाएँ होंगी, वे उन्हें इशारों से नाटक में जो कहा जा रहा है, वो समझाएँगी। 

दांडी – इतिहास, प्रेरणा और सबक

बहरहाल ऐसा सब सोचकर हम लोग 6 जनवरी की सुबह नवसारी से दांडी गए जहाँ पहले विनय मंदिर स्कूल में स्कूल के गांधीवादी ट्रस्टी 94 वर्षीय धीरूभाई ने हम लोगों के लिए कहा कि देश में अनेक यात्राएँ निकल रही हैं लेकिन आप लोगों की यात्रा इन स्कूली बच्चों के बीच में प्रेम और इंसानियत के बीज बोकर जा रही है। इसका महत्त्व बहुत बड़ा और दूरगामी है। सूरत से कॉमरेड विजय शेनमारे, कॉमरेड अतुल पाठकजी और कॉमरेड सुगीत पाठकजी भी सुबह दांडी आ गए थे। वहाँ अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत करने के बाद हम लोग दांडी स्मारक गए जहाँ यात्रा समाप्त की गई। स्मारक की ओर से डॉ. कालूभाई धनगर ने हमें पूरे इतिहास का विहंगावलोकन करवाया। 

उन्होंने बताया कि 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने साबरमती से अपने 80 विश्वासनीय साथियों के साथ जो पदयात्रा शुरू की थी वो 24 दिन बाद 6 अप्रैल 1930 को लगभग 390 किलोमीटर दूरी तय करके दांडी पहुँची जहाँ गांधी जी ने एक चुटकी नमक उठाकर कानून तोड़ा था जिसके बाद देश भर में अनेक जगह नमक कानून तोड़ने की सांकेतिक घटनाएँ और विरोध प्रदर्शन हुए। गांधी जी जब दांडी पहुँचे तो उस मौके पर उन्हें और उनके साथियों को समंदर किनारे बने अपने बंगले मे रुकने के लिए सिराजुद्दीन वसी सेठ ने आमंत्रित किया। सिराजुद्दीन वसी एक वोहरा मुसलमान थे जो मुंबई के सेठ होने के साथ ही काँग्रेस में भी सक्रिय थे। इस बात के अर्थ भी दूरगामी थे कि इस देश के नमक को अंग्रेजों से आज़ाद करवाने में हिंदुओं और मुसलमानों की साझा भूमिका थी। जब गांधी जी दांडी यात्रा के लिए अपने साथियों को चुन रहे थे तो उन्होंने 78 पुरुष साथियों को चुना था (आज गांधी जी होते तो शायद वे भी महिलाओं को यात्रा में ज़रूर साथ लेते) लेकिन बाद में दो लोगों की ज़िद के आगे गांधी जी को झुकना पड़ा और उन्हें अपने साथ लेना पड़ा। इस तरह गांधी जी के साथ 80 साथी साबरमती से दांडी तक साथ रहे।

कालूभाई ने यह भी बताया कि जब गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा तब नमक पर अंग्रेज सरकार ने 1400 फ़ीसदी कर (टैक्स) लगा रखा था। विडंबना यह है कि आज भी नमक लोगों का नहीं हो सका है, उस पर पूरी तरह कॉर्पोरेट का क़ब्ज़ा है। गांधी जी के साथ रास्ते मे पड़ने वाले गाँवों के लोग भी जुड़ते गए और दांडी तक पहुँचते-पहुँचते उनकी तादाद हज़ारों में हो गई थी। कालूभाई ने बताया कि जब गांधी जी ने दांडी की यात्रा शुरू की तो उनकी आयु 61 वर्ष थी और उन्होंने अपने सहयात्रियों में से सबसे युवा जिसे चुना था, उसकी आयु 61 के ठीक उलट 16 वर्ष थी।

दांडी में अब एक राष्ट्रीय स्मारक बन चुका है जिस पर टिकट भी लगता है और जो पर्यटन की जगह भी है लेकिन अब चूँकि समंदर को आगे तक मिट्टी से पूर दिया गया है इसलिए जहाँ जिस जगह गांधी जी ने नमक उठाकर कानून तोड़ा था, स्मारक उससे क़रीब 200-300 मीटर आगे बना है। एक प्रदर्शनी भी वहाँ लगी है जिसमें दांडी यात्रा के बारे में फ़िल्म चलती रहती है। एक दिलचस्प काम वहाँ यह किया है कि जो लोग दांडी यात्रा के आंदोलन के प्रति श्रद्धाभाव से आते हैं तो उनके लिए समंदर के पानी से दो मिनट में नमक बनाने वाले बिजली के यंत्र लगे हैं जिस पर वे अपने आप नमक बनाकर दांडी की याद के तौर पर ले भी जा सकते हैं और साथ ही स्मारक के कर्मचारी उन्हें काँच की छोटी शीशियों में भरकर देते हैं। नमक निःशुक्ल होता है, बस काँच की शीशी और कॉर्क का 20 रुपया लेते हैं। कालूभाई ने मुझे आगंतुक पुस्तिका मे अपनी टिप्पणी लिखने का अनुरोध किया जिसमें मैंने “ढाई आखर प्रेम” के गुजरात जत्थे की तरफ़ से लिखा कि गांधी जी, भगत सिंह और अंबेडकर के सपनों का भारत बनाने की लड़ाई भी जारी रखनी है और शोषण के खिलाफ़ दांडी जैसी यात्राएँ भी।

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यहाँ एक और बात उल्लेखनीय है कि दांडी राष्ट्रीय स्मारक बनाने की परियोजना की जब शुरुआत हुई तो उसमें कैसे क्या बनाया जाएगा, उसकी भी विस्तृत योजना बनी। अंततः इस परियोजना को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी आईआईटी मुंबई की एक टीम को दी गई जिसमें एक प्रोफ़ेसर की भूमिका प्रमुख थी क्योंकि उन्होंने अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों आदि को प्रस्तुत किया था। उन्होंने दो-तीन वर्षों तक शोध किया कि गांधी जी के साथ जो 80 साथी थे उनके आदमक़द पुतले बनाकर उन्हें चलने की मुद्रा में गांधी जी के साथ दिखाया जा सके। उन अस्सी में से क़रीब 50 पदयात्री तो बीस से तीस बरस की उम्र के बीच के थे और आठ तो बीस बरस से भी कम उम्र के। उनमें से अनेक की कोई तस्वीरें नहीं थीं, अनेक की थीं तो बहुत बुढ़ापे की थीं। वो दांडी यात्रा के वक़्त कैसे लगते थे, उसके बारे में अलग-अलग स्त्रोतों से संभव सामग्री को तलाश किया और फिर मुंबई में नौ विदेशी मूर्तिकारों सहित 40 शिल्पकारों के समूह ने गांधी जी के 80 साथियों के पुतले तैयार किए।

मुंबई के उन आईआईटी प्रोफ़ेसर का नाम था प्रोफ़ेसर कीर्ति त्रिवेदी। स्ट्रक्चरल डिज़ाइनिंग की दुनिया में उनका बड़ा नाम हैं लेकिन उसके साथ ही वे ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने कभी जीवन में खादी के कपड़ों के अलावा कुछ नहीं पहना। मतलब उनका एक लगाव गांधी जी के विचारों से है। लेकिन वो कैसे है? वो ऐसे कि कीर्ति जी गांधी जी के क़रीबी रहे काशीनाथ त्रिवेदी जी के बेटे हैं और इंदौर के रहने वाले हैं जो अब सेवानिवृत्ति के बाद इंदौर में ही रह रहे हैं और मध्य प्रदेश की यात्रा की शुरुआत में खादी पर उन्होंने आँखें खोलने वाला व्याख्यान भी दिया था।

यहीं रामसागर सिंह परिहार जी ने और एक महत्त्वपूर्ण बात बतायी कि गांधी जी के 80 साथियों में से एक का गांधी जी से मतभेद हुआ था जिसका नाम था जयंती पारेख। उन्होंने 1934 में गांधी जी का संगठन छोड़ दिया था और वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे। वे गुजरात में पार्टी के प्रकाशन गृह से भी जुड़े थे। आज़ादी के बाद भी जब कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध जारी रहा था तो जयंती पारेख को अन्य लोगों के साथ पकड़कर 1949 में साबरमती जेल में डाल दिया गया था। आज़ाद भारत की साबरमती जेल में वहाँ वे अपने राजनीतिक कैदी के अधिकारों के लिए लड़े और साबरमती जेल में आज़ाद भारत की पुलिस द्वारा चलाई गई गोली से मारे भी गए। यह इतिहास गूगल पर भी ढूँढना मुमकिन नहीं है लेकिन यह कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेजों में शामिल है।

नवसारी – ममता, ख़ुशी और दुःख का मिलाजुला एहसास  

हम दांडी से लौटकर अपने ठिकाने ममता मंदिर पर खाना खाने आये और बहुत सारे मूक-वधिर बच्चे हमें देखते और प्रसन्न होते रहे। शाम को नवसारी शहर में रोटरी क्लब और “रंगत संस्था” द्वारा हम लोगों का एक और कार्यक्रम आयोजित किया गया था। फ़राज़ आदि साथी उसी कार्यक्रम की तैयारी के सिलसिले में निकल गए थे। हमने स्कूल के संचालक महोदय को कहा कि हम इन बच्चों के लिए कुछ प्रस्तुत करना चाहते हैं। उनकी आँखों में मानो आँसू आ गए। तुरंत ही बच्चों को एक हॉल में लाने के निर्देश दिए गए। 

सड़क पार ममता मंदिर का ही एक और स्कूल था जो मानसिक रूप से विशिष्ट बच्चों का था। वे भी हम लोगों की प्रस्तुति देखने बुला लिए गए। उनमें काफ़ी मंगोल बच्चे भी थे। निसार ने अपना उस्ताद-जमूरे शैली वाला नाचा गम्मत का नाटक “चालाक शिकारी” किया। बच्चे दो सेकंड निसार को देखते और फिर अपनी शिक्षिका को हाथों से समझाते हुए देखते। फिर हँसते। कितना समझे, कितना नहीं, लेकिन ख़ुश बहुत हुए, ताली बजायी और लाइन से अपनी शिक्षिकाओं के साथ चले गए। 

निसार, संजय और राजन जब ड्रेस बदलकर थोड़ी देर तक बाहर नहीं निकले तो मैं अंदर बुलाने गया। फ़िरोज़, राजन और संजय फ़फ़क-फ़फ़क कर रो रहे थे। निसार और पीयूष ख़ुद भी भावुक हो रहे थे लेकिन इन युवा कलाकारों को समझाते भी जा रहे थे। एक तरफ़ पूरे हाथ-पैर और सभी अंग चुस्त-दुरुस्त होने पर भी लोग कहीं डिप्रेशन में आ जाते हैं तो कहीं-कहीं तो कोई ज़िंदगी ही खत्म कर लेते हैं। लेकिन ये बहादुर ज़िंदगी और ज़िंदादिली से भरे हुए, बिना सुने और बिना बोले भी ज़िंदगी को भरपूर प्यार कर लेना चाहते हैं। इन बच्चों के सामने कुछ परफॉर्म करना और उनकी अवश स्थिति को महसूस करना हमें बहुत लाचार बना रहा था। क़ुदरत की इस नाइंसाफ़ी पर युवा मन वाले संजय, राजन और फ़िरोज़ का रोना थम नहीं रहा था। हमारे दिल और आँखें भी भर आए थे लेकिन बच्चे इतने ख़ुश थे कि सेल्फ़ी खिंचवाने के लिए भी तुरंत दौड़कर आ गए। ज़िंदगी कैसी पहेली है, ये तो नहीं पता, लेकिन ऐसी हालत में उनके बीच होकर लग रहा था कि एक आँख से दु:ख के, और दूसरी आँख से उनके साथ हो पाने की ख़ुशी के और उन्हें थोड़ा-सा ख़ुश कर पाने की ख़ुशी के आँसू भरे हों।    

वो सुबह कभी तो ज़रूर आएगी और बहुत देर से नहीं आएगी

वहाँ से अपने मन जैसे-तैसे सँभालकर हम नवसारी शहर के कार्यक्रम के लिए पहुँचे। यह गुजरात यात्रा का हमारा अंतिम कार्यक्रम था। रंगत और रोटरी क्लब की ओर से संजयभाई देसाई ने सबका स्वागत किया। यहाँ से रात में ही हमें सूरत पहुँचकर अपने-अपने, अलग-अलग गंतव्यों के लिए निकालना था। वहाँ अच्छा कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम के उपरांत शहर के प्रबुद्ध सांस्कृतिक लोग हम सबके साथ तस्वीरें खिंचवाने लगे। पारुल बहन के बारे में भी यहीं ठीक से परिचय हुआ। उनके माता-पिता दांडी में ही रहते थे। पिता का नाम मोहन दांडीकर था और उन्होंने ही मंटो को सबसे पहले गुजराती भाषा में अनुवाद किया था और पुस्तक प्रकाशित की थी। उन्हें हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार गिरिराज किशोर के महत्त्वाकांक्षी उपन्यास “पहला गिरमिटिया” के लिए अनुवाद का केन्द्रीय साहित्य अकादमी सम्मान भी प्राप्त हुआ था। सन 2020 में उनका देहांत हो गया था। 

कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पारुल बहन की दोस्त डॉक्टर राधिका भी वलसाड से आ गईं थीं। उन्होंने वहीं हमें वलसाड आकर कार्यक्रम करने का आमंत्रण भी दे दिया। एक सज्जन ने मुझे इशारे से एक तरफ़ बुलाया जहाँ वे और पारुल बहन खड़े थे। उन्होंने कहा कि मैं वैसे तो रोटरी क्लब का भी पदाधिकारी हूँ और आरएसएस का भी (उन्होंने किसी पद का नाम लिया था जो मुझे याद नहीं रहा), लेकिन लोगों को जगाने का सही काम तो आप लोग कर रहे हो। मुझे लगा कि कटाक्ष कर रहे हैं और ज़रूर कुछ अप्रिय सवाल करेंगे। मैं मन ही मन उस स्थिति के लिए तैयार होने लगा और जवाब सोचने लगा। लेकिन अगले ही क्षण वे बोले कि मैं आप लोगों को एक बूँद बराबर सहयोग करना चाहता हूँ। मैंने पारुल बहन की ओर सवालिया नज़रों से देखा तो उन्होंने आँखों में ही सहमति की आश्वस्ति दी। उन्होंने जेब से पर्स निकालकर उसे पूरा खाली करने पर हाथ में जो चार हजार रुपये आये, उन्हें मेरे हाथों में रख दिया। मुझे लगा – ये गुजरात कभी भी वो गुजरात नहीं बन सकता जिसकी कुख्याति देश भर में हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला के तौर पर की गई है, जब तक इस गुजरात में साथी रामसागर सिंह परिहार, सरूपबेन ध्रुव, आशिम रॉय, मनीषी भाई, अतुल पाठकजी, उत्तमभाई परमार, पारुल बहन, देव देसाई, धीरू भाई, कालू भाई, जयप्रकाश भाई, किशोर भाई और उनके जैसे हजारों बहादुर लोग ज़िंदा हैं जो इंसानियत और प्यार से भरे हुए हैं। (समाप्त)

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