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गुजरात में ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा का साबरमती पड़ाव

गुजरात में ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा का साबरमती पड़ाव

(‘ढाई आखर प्रेम’ राष्ट्रीय सांस्कृतिक यात्रा, जिसका आयोजन 28 सितम्बर 2023 से देश के अनेक सांस्कृतिक संगठनों ने मिलकर किया था, 30 जनवरी 2024 को दिल्ली में समाप्त हुई।यह यात्रा राजस्थान, बिहार, पंजाब, उत्तराखंड, ओडिशा, जम्मू, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, कर्णाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल के बाद गुजरात राज्य में 03 से 06 जनवरी 2024 तक आयोजित की गयी थी। गुजरात महात्मा गाँधी का पैतृक प्रदेश रहा है। उनके नमक सत्याग्रह का साक्षी रहा है। अतः गुजरात में यात्रा का रुट साबरमती से दांडी तक बनाया गया था। प्रगतिशील लेखक संघ, अनहद, अहमदाबाद के श्रमिक संगठन एवं सांस्कृतिक संगठन, छारानगर के कलाकारों का पहले दिन योगदान रहा।

गुजरात यात्रा में मध्य प्रदेश से विनीत तिवारी, छत्तीसगढ़ से निसार अली तथा बिहार से पीयूष, संजय, फ़िरोज और राजन सम्मिलित हुए थे। इसी तरह मुंबई के युवा गायक फ़राज़ खान, तबला वादक रौशन गाइकर और बाँसुरी वादक उत्कर्ष भी शामिल हुए थे। इस चार दिवसीय यात्रा की एक संस्मरणात्मक, रोचक और विस्तृत रिपोर्ट साथी विनीत तिवारी द्वारा बनायी गयी है। साथ ही फोटो एवं वीडियो विनीत, देव देसाई, निसार अली द्वारा यात्रा के दौरान भेजे गए हैं। प्रस्तुत है गुजरात यात्रा रिपोर्ट की पहली कड़ी।)  

मध्य प्रदेश की यात्रा समाप्त करने के बाद मैं और निसार अली इंदौर से अहमदाबाद पहुँचे 3 जनवरी 2024 को । जैसा गुजरात के साथियों से बातचीत में तय हुआ था – गुजरात में “ढाई आखर प्रेम” यात्रा साबरमती से शुरू करके दांडी तक निकालनी थी। दोपहर में जब हम साबरमती आश्रम पहुँचे तो निसार अली और मेरे साथ में कॉमरेड रामसागर सिंह परिहार, साथी कवि ईश्वर सिंह चौहान और कवि व लेखक साथी करतार सिंह थे। हम दो को छोड़ तीनों स्थानीय सदस्य प्रगतिशील लेखक संघ की गुजरात इकाई के पदाधिकारी हैं और अच्छे लेखक हैं।

हमें लग रहा था कि हम पाँच लोग क्या ही करेंगे गुजरात में यात्रा के उद्घाटन की रस्म! ये रस्म अदायगी भर न बन जाए। लेकिन साथी ईश्वर सिंह चौहान साथ लायीं फूल-मालाएँ गांधी जी की मूर्ति के बगल में रखते हुए आत्मविश्वास से बोले – ‘अरे चिंता की कोई बात नहीं, अभी सब हो जाएगा।’ 

साबरमती आश्रम  पर्यटकों के लिए भी बहुत आकर्षण का केन्द्र रहता है। बहुत बड़ा परिसर है। कहाँ गांधी जी रहे थे, कहाँ उनकी रसोई थी, कहाँ वे चरखा कातते थे, कस्तूरबा का कमरा कौन सा था, वग़ैरह सभी कुछ सँजो कर रखा गया है। गांधी जी के जीवन की मुख्य घटनाओं को दर्शाने वाली एक बड़ी प्रदर्शनी भी स्थायी तौर पर लगी हुई है। पीछे कभी पतली-सी रेखा में बहने वाली साबरमती नदी में अब नर्मदा नदी का पानी भरा जाता है जिसकी वजह से अब वह स्वस्थ नदी दिखाई देती है लेकिन दरअसल साबरमती नदी को परजीवी बनाकर नर्मदा नदी का स्वास्थ्य भी बिगाड़ा जा रहा है।

परिसर में तीन-चार सौ लोग तब भी घूम ही रहे थे। निसार ने ढपली बजाना और “वैष्णव जन तो तेने कहिए रे” गाना शुरू कर दिया। तुरंत ही आठ-दस लोग ढपली की आवाज़ सुनकर नज़दीक आ गए, जिन्हें ईश्वर सिंह जी ने आग्रह से आगे बुला लिया पुष्पांजलि अर्पित करने हेतु। गांधी जी पर पुष्प चढ़ाने में किसे आपत्ति होती! एक परिवार दिल्ली से आया था। उनमें से किसी को मोबाइल पकड़ा दिया गया तस्वीरें खींचने के लिए। तुरंत ही परिहार जी और करतार सिंह जी ने “ढाई आखर प्रेम” का बैनर खोल दिया। मुझे लग रहा था कि ढपली और शोरगुल सुनकर सिक्योरिटी गार्ड आएँगे। लेकिन हमने सोचा कि जब तक आएँगे तब तक एक गीत तो हो चुका होगा और गुजरात जत्थे का उद्घाटन भी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि उम्मीद से ज़्यादा ही लोग आ गए। तस्वीर खिंचवाने को भी।

एक लड़का और लड़की स्पेन से आये हुए थे। उन्हें भी अंग्रेजी में लव, ह्यूमैनिटी बोल-बोलकर बुला लिया। इस तरह सम्मानजनक संख्या के साथ गुजरात जत्थे का उद्घाटन हुआ। तभी एक महिला आकर हम लोगों से पूछने लगीं कि आप कहाँ से आये हैं? हमने बताया। हमारी “ढाई आखर प्रेम” की यात्रा की बात सुनकर वो बोलीं “आइए, आपको मैं आश्रम घुमाती हूँ।” कहाँ तो हमें लग रहा था कि सिक्योरिटी वाले निकाल देंगे और कहाँ हमें विशिष्ट स्वागत मिलने लगा।

वे उस घर में ले गईं जहाँ गांधी जी और कस्तूरबा रहा करते थे। उस जगह को काका साहेब कालेलकर ने ‘ह्रदय-कुंज’ का नाम दिया था। यहाँ गांधी जी 1918 से 1930 तक रहे। फिर उन्होंने दांडी यात्रा शुरू की और घोषित करके निकले कि अब स्वराज हासिल किये बिना मैं इस आश्रम में नहीं लौटूँगा। फिर कभी वो जीते-जी साबरमती वापस नहीं आ सके। वहाँ रहते हुए उन्होंने काका साहेब कालेलकर की मदद से गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की। काकासाहेब गुजरात विद्यापीठ के कुलपति भी रहे। काकासाहेब थे तो मराठी, लेकिन गांधी जी उन्हें सवाई गुजराती कहते थे; मतलब गुजरातियों से भी एक पाव ज़्यादा गुजराती।

कुछ विशिष्ट कमरों में आम दर्शकों को बाहर से ही देखने की अनुमति थी। उन कमरों में जाली वाला दरवाज़ा लगा हुआ था और दरवाज़ों पर ताला। लेकिन उन्होंने हमारे लिए सभी ताले खोल दिए। गांधी जी जिस कमरे में बैठकर चरखा चलाते थे और उनके निजी सचिव महादेव भाई देसाई जिस जगह बैठकर चौकी पर गांधी जी के कहे अनुसार दस्तावेज़ और पत्रादि लिखते थे, वो जगहें भी उन्होंने दिखायीं। उन्होंने बताया कि उनका नाम लता बहन है और वे वहाँ चरखा चलाना सिखाती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि गांधी जी ने अपने जीवन में जिन-जिन चरखों को चलाया उनमें से भी 20 चरखे वहाँ सहेजे हुए हैं। तस्वीरें आदि खींचने और खिंचवाने के बाद हम लोग आश्रम से यात्रा के अच्छे उद्घाटन का अहसास लिए रुखसत हुए। लता बहन ने यह भी बताया कि महादेव भाई जिस चौकी पर कॉपी-किताब रखकर लिखते-पढ़ते थे, उसे किसी कर्मचारी ने चोरी कर लिया था लेकिन बाद में उसका ह्रदय परिवर्तन हो गया तो उसने स्वयं ही वह चौकी लौटा दी थी।  

इस कार्यक्रम के उपरान्त हमें सरदार वल्लभ भाई पटेल स्मारक में अहमदाबाद के श्रमिक संगठनों और सांस्कृतिक संगठनों द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जाना था जिसमें केमिकल मज़दूर पंचायत के साथी आशिम रॉय, गुजराती साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ कवयित्री सरूपबेन ध्रुव और अन्य साथी मिलने वाले थे। साथी रामसागर सिंह परिहार ने सभा का सञ्चालन किया और सभा की अध्यक्षता की सरूपबेन ध्रुव ने।

इस सभा में अंबेडकरवादी, गांधीवादी और वामपंथी राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता मौजूद थे। हुज़ैफ़ा, नट्टू और उनके साथियों ने क्रान्तिकारी गीत प्रस्तुत किए। निसार अली ने मुझे ही साथ में लेकर कुछ गीत आदि गाये। दरअसल गुजरात के जत्थे में शामिल होने के लिए पटना इप्टा के चार साथी आने वाले थे। आना तो उनको सुबह ही था लेकिन उनकी ट्रेन काफी देर से पहुँची और वो लोग जब अहमदाबाद पहुँचे तो सरदार पटेल स्मारक पर कार्यक्रम समाप्त हो रहा था। इप्टा बिहार के साथी पीयूष मधुकर अपने साथियों फ़िरोज़, राजन और संजय के साथ आये और हम सभी छारानगर की ओर निकल गए। बहरहाल, सरूपबेन और आशिम रॉय के प्रेरक सम्बोधनों और बढ़िया सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के बाद हम लोग रात क़रीब आठ बजे छारानगर पहुँचे जहाँ क़रीब 20 बरस बाद जाने का मुझे रोमांच भी हो रहा था।   

अहमदाबाद का बुधन थिएटर और छारानगर 

अहमदाबाद के छारानगर का इतिहास काफी दिलचस्प है और लोगों को ये जानना चाहिए। छारानगर दरअसल डिनोटिफाइड ट्राइब के छारा प्रजाति के लोगों की बस्ती है, जो कि एक सैटलमेंट के तहत बसाये गये थे। यानी एक तरह से उन्हें खुली जेल में रखा गया था। पहले इनको अपराधी सूची के तहत सूचीबद्ध किया था इसलिए इनको नोटिफाइड कहा गया था।

दरअसल 1857 के आज़ादी के संघर्ष में घुमंतू जनजातियों के लोगों की विद्रोहियों को गोपनीय सूचनाएँ और अन्य मदद पहुँचाने में बड़ी भूमिका रही थी, इसलिए अंग्रेजों ने अनेक जनजातियों को अपराधी घोषित कर दिया था। सन 1871 से 1947 के बीच क़रीब 150 समुदायों को अपराधी प्रजाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया था जो आज़ादी के बाद 1952 में उस सूची से निकाले गए। तो पहले उन्हें सूचीबद्ध यानि नोटिफाई किया गया और बाद में उन्हें सूची से बाहर यानि डीनोटिफाई किया गया। इसीलिए इनका नाम डीएनटी पड़ गया। लेकिन डिनोटिफाइड कहने से उनके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ा, उनसे वैसा ही भेदभाव भरा बर्ताव किया जाता रहा।

तो डिनोटिफाईड ट्राइब्स को कोर्डन ऑफ किया जाता था, मतलब उन्हें एक सुरक्षा घेरे में या पहरे में रखा जाता था। पहले उनके साथ बहुत अमानवीय स्थितियाँ होती थीं, उन्हें ज़ंजीरों से भी बाँधा जाता था। लेकिन बाद में उनको धीरे-धीरे रहने की जगह के लिए एक घेरा तय कर दिया गया और वे लोग एक घेरे में रहने लगे। छारानगर सरकारी ज़मीन मानी जाती है। काफी बरसों से, लगभग 80-100 वर्षों से वे यहाँ रह रहे हैं, अपने पुरखों के ज़माने से, लेकिन वे ज़मीनें अभी भी उनके नाम पर नहीं हैं, जहाँ वे रह रहे हैं। दूसरी बात, अधिकतर डीएनटी लोगों के दिमाग़ में यह भर दिया जाता है कि तुम जिस समुदाय के हो, उसका कर्त्तव्य ही छल-कपट और अपराध करके आजीविका चलाना है। मध्य प्रदेश में कंजर, पारधी और बंजारे भी इसी तरह नोटिफाइड जनजाति थे। छाराओं के बारे में भी यही कहा जाता है कि अगर वो बिना चोरी, ठगी, लूट किये, मेहनत करके घर चलाएँगे तो अपशगुन होगा। उनको यही समझाया गया था इसलिए वे अपना दायित्व समझते थे कि हमारे जीवन का प्रमुख कर्तव्य यही है कि जीवन में चोरी करके कमाना है और अवैध काम करके खाना है। बाद में चोरी करने से लेकर अवैध शराब बनाने में और अलग-अलग तरह के ग़लत कामों में ये सब लोग शुमार होते रहे।

मेरी जानकारी में 1980-90 के आसपास कुछ लोगों ने डिनोटिफाइड ट्राइब्स के पक्ष में आवाज़ उठायी और उसे एक आंदोलन की शक्ल दी। ख़ासकर महाश्वेता देवी का नाम सबसे पहले लेना होगा। गुजरात में 1998 में महाश्वेता देवी, गणेश देवी के साथ में इस बस्ती में आयीं और उन्होंने यहाँ ‘बुधन लाइब्रेरी’ की स्थापना की। बुधन एक ऐसा ही डीएनटी समुदाय का व्यक्ति था, जिसे पुलिस की हिरासत में पीट-पीटकर कोलकाता में मार दिया गया था। इस पर गणेश देवी की एक प्रसिद्ध मार्मिक किताब “ए नोमेड कॉल्ड थीफ” भी है। उसके बाद से महाश्वेता देवी, गणेश देवी और शायद लक्ष्मण गायकवाड का यहाँ छारानगर में आना-जाना शुरू हुआ और उन्होंने यहाँ एक थियेटर शुरू किया। उसकी वजह यह हो सकती है कि नट और तमाशे के काम करने और फिर उन्हीं में से चोरी करके गायब हो जाने, वेष बदलने आदि में ये लोग सिद्धहस्त होते थे। इनमें बला की फुर्ती भी होती थी। वे चोरी करके भागने में निपुण होते थे। चपलता, अभिनय, झूठ, पकड़े जाने पर याचना का नाटक आदि के गुण उनके अंदर होते थे। इनकी जो भाषा होती थी आपस में बात करने की, वो भी कूट भाषा होती थी, जिसकी कोई लिपि नहीं होती। उसे वो भान्तु कहते हैं और वो कई भाषाओं का मिलाजुला रूप होती है। इनमें एक नैसर्गिक प्रतिभा थी कला की – थियेटर की, नृत्य करने की, संगीत की; इस तरह से इन्होंने थियेटर का एक ग्रुप बनाया और बुधन वाचनालय से बुधन थियेटर बना।

उसमें पहली पीढ़ी के जो कलाकार थे, उसमें दक्षिण छारा नामक कलाकार उभरा, जो अब शायद 45-50 की उम्र का होगा, जिसने बुधन थियेटर में कई नाटक तैयार किये। पहले तो नुक्कड़ नाटकों की शक्ल में ये नाटक बनाते थे, फिर उसके बाद तो प्रोसिनियम बनाना भी शुरु किये। जब प्रोसिनियम बनाया तो वे जर्मनी फेस्टिवल तक गए। एक बार तो मुझे हबीब तनवीर जी ने यह बताया था कि उनका नाटक इनके नाटक के सामने फ़ीका पड़ गया था। जर्मनी में दर्शकों ने बुधन के नाटक को ज़्यादा प्रतिसाद  दिया था। गणेश देवी और महाश्वेता देवी की अंतरराष्ट्रीय पहचान है, इसलिए बुधन थिएटर को भी अंतरराष्ट्रीय पहचान और अंतरराष्ट्रीय प्रोत्साहन भी प्राप्त हुआ। महाश्वेता देवी नहीं रहीं, गणेश देवी भी अनेक दूसरे कामों में लग गए लेकिन  वो शम्मा जलती रही और 1998 से हम आज 2024 तक इनका ढाई दशक का सफर देखते हैं।

छारानगर अहमदाबाद में 03 दिसंबर 2024 की रात 8 बजे से 11-11.30 बजे तक हमने जो ‘ढाई आखर प्रेम’ का कार्यक्रम किया था, वह एक ऐतिहासिक परिघटना थी। शुरू से ही मेरी और मनीषी भाई की यह समझ थी कि इस यात्रा में बुधन को ज़रूर शामिल करना है। यह बहुत ज़रूरी है कि इस थियेटर के बारे में, बुधन थिएटर के बारे में पूरे देश में ये बात पहुँचे कि हमने जब गुजरात में यात्रा के अपने रास्तों का चयन किया, तो उनमें इस तरह की जगहों पर जाने को हमने प्राथमिकता दी, बजाय कि बड़े मंचों पर जाकर कार्यक्रम करने के! ये जो जगहें हैं, इसमें आम लोग ही दर्शक हैं और आम लोग ही नायक हैं। इस यात्रा के मक़सद को पूरा करने में भी बुधन थिएटर जैसी संस्थाओं से जुड़ाव मददगार होता है।

प्रगतिशील लेखक संघ, गुजरात के महासचिव रामसागर सिंह परिहार ने छारानगर पर रची गई आज़ादी-पूर्व की एक रचना का परिचय देते हुए कहा, ‘‘छारा लोगों की जीवन-शैली और सरकार के दमन पर आधारित चंद्रभाई भट्ट ने ‘भट्टी’ शीर्षक से उपन्यास लिखा था। ये आज़ादी के पहले लिखा गया उपन्यास था। उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उसे जब्त कर लिया गया था। ये प्रतिबंध गुजरात के भीतर आज़ादी के बाद भी जारी रहा। लेकिन लगभग 1980 के बाद यह प्रतिबंध हटा और अहमदाबाद स्थित पीपुल बुक हाउस ने उसका पुनर्प्रकाशन किया। उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया था। उपन्यास में उस समय वहाँ की जीवन-शैली और पुलिस का दमन-चक्र विस्तार से वर्णित किया गया है। इन डीएनटी लोगों के लिए निर्धारित चारदीवारी से जो लोग निकलते थे, उनका नाम लिखा जाता था। कभी-कभी तो पुलिस उनके साथ-साथ जाती थी यह देखने कि वे कहाँ जा रहे हैं। वे जब लौटकर आते थे, तब उनका नाम फिर से दर्ज होता था। ये पूरी प्रक्रिया उस उपन्यास में चित्रित की गई है। ‘भट्टी’ शीर्षक सतत जलने वाली प्रक्रिया का प्रतीक है।

वर्तमान पीढ़ी भी बहुत कुछ लिख और रच रही है, यह छारानगर के कार्यक्रम में दिखाई दिया। ये न सिर्फ अपनी भाषा भान्तु में, बल्कि हिंदी में भी गीत और नाटक लिख रहे हैं। 

पहली दफ़ा मुझे और जया मेहता को गणेश देवी ही क़रीब 20 बरस पहले छारानगर लेकर आये थे। तब हमने इंदौर इप्टा की तरफ़ से एक नाटक बनाया था ‘धरती पर कहाँ है हमारी जगह’; जो आदिवासियों के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विस्थापन पर आधारित था। यह शुरु होता था बिरसा मुंडा से और ख़त्म होता था कलिंग नगर के मारे गये आदिवासियों पर। गणेश देवी ने वह नाटक देखा था इसलिए बुधन थिएटर से हमारा परिचय करवाया था। तब से यह लगभग तीसरी पीढ़ी है जो थिएटर भी कर रही है, गीत, कविताएँ और फ़िल्मों में भी जगह बना रही है।

सेवा निवृत्त दूरदर्शन निदेशक रूपा मेहता और कल्पना गागडेकर

बीस बरस बाद ‘ढाई आखर प्रेम’ की यात्रा के तहत यहाँ आने पर यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि एक पूरी नयी पीढ़ी उस परम्परा को नयी ऊर्जा के साथ सँभाले हुए है और आगे बढ़ा रही है। साथ ही यहाँ के अनेक लोग, जैसे आतिश इन्द्रेकर, रॉक्सी गागडेकर, उनकी छारा समुदाय से सम्बद्ध जीवनसाथी कल्पना गागडेकर गुजराती फिल्मों में स्थापित अभिनेत्री बन गई हैं। ये फिल्मों में भी काम कर रहे हैं, इन्होंने नये तरह का संगीत भी तैयार किया है। एक संगीत तो ऐसा भी है, जो सिर्फ़ शराब बनाने वाले उपकरणों से बनाया गया है, जो वहाँ के एक साथी ने तैयार किया है।

उमेश सोलंकी ने “परंपरा” कविता सुनायी। आतिश इन्द्रेकर ने राजेश जोशी की कविता “मारे जाएँगे” सुनायी। अनीश छारा ने एक कविता सुनायी ‘जाड्डा’, जो भान्तु भाषा में थी। इसमें बताया गया था कि जो ठंड पड़ती है, वह उनके घरों पर क्या और कैसा असर डालती है। यह विरल अनुभव है बाक़ी मध्य वर्गीय कविता से। वैशाख रतनबेन ने लम्बी कविता “जम्हूरियत मटनमार्ट” सुनायी जो बहुत ताक़तवर, मारक और साहसी कविता थी। गुजरात के वरिष्ठ कवि साहिल परमार और साथी ईश्वर सिंह चौहान ने भी कविताएँ पढ़ीं। मैंने भी एक कविता “जब वो सत्रह बरस का हुआ” सुनायी और पीयूष, संजय, राजन और फ़िरोज़ ने गीतों की प्रस्तुति दी। निसार अली ने बिहार के संजय को अपना नया सोमारू बना लिया था और उन्होंने मिलकर समाँ बाँध दिया।  

छारानगर का अनुभव काफ़ी ज़बर्दस्त था। सब लोगों से बहुत आत्मीयता से मिलना हुआ। हमारे साथ जो कलाकार थे, उनसे भी सब बहुत अच्छी तरह मिले। अहमदाबाद के साथी मनीषी जानी और उनकी जीवनसाथी रूपा मेहता, जो 1974 में गुजरात में हुए नवनिर्माण आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता रहे, जिसका एक बहुत सकारात्मक और प्रगतिशील चेहरा था। रूपा जी दूरदर्शन गुजरात की निदेशक भी थीं और उन्होंने भी छारानागर पर केंद्रित अनेक कार्यक्रम किये थे। साथी रामसागर सिंह परिहार, करतार सिंह, आशिम रॉय भी कार्यक्रम में पूरे समय उपस्थित रहे।

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कार्यक्रम लगभग रात 11.30 बजे तक चलता रहा। उसके बाद जो पता चला, वो हास्यास्पद भी है और करुणास्पद भी कि हमें वापस लौटने के लिए ओला-उबेर नहीं मिली तो वहाँ के लोगों ने हँसते हुए बताया कि ओला-उबेर वाले इस इलाक़े में आने से डरते हैं। वहाँ से बाइक से कुछ दूर तक छोड़ने पर ही ओला-उबर मिल पाएगी। रात को यहाँ आने की कोई हिम्मत नहीं करता।  

दरअसल अभी भी ऐसा नहीं है कि समूचे छारा समुदाय के लोग उस दलदल से बाहर आ गए हैं। एक छोटा हिस्सा सजग हो गया है, मगर अभी भी समुदाय के बहुत से युवा नशे में, अवैध शराब और अन्य अवैध धंधों में लिप्त हैं। छारानगर से लगा इलाक़ा नरोदा पाटिया का है। बताते हैं जब 2002 में मुसलमानों का नरसंहार किया गया था तब आदिवासियों और दलितों में से कुछ लोगों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया था, इन्हीं को मोहरा बनाया गया था। बाद में जब गिरफ़्तारियाँ हुईं, तब भी यही लोग पकड़कर जेलों में ठूँसे दिए गए थे। उदित राज ने उस वक़्त पूरे आँकड़े देकर बताया था कि कैसे दलितों और आदिवासियों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया और जब दुनिया को दिखाना पड़ा कि गुनहगारों को पकड़ा गया है तो इन्हीं दलितों और आदिवासियों को पकड़कर जेलों में डाल दिया गया।

छारानगर में जिन लोगों से हम मिले, चाहे वो वरिष्ठ हों या युवा, वो बहुत समझदार थे। उन्हें इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और वो दुनिया को बेहतर बनाने वाली कोशिशों में शामिल हैं। वो नफ़रत की साज़िशों को पहचानते हैं और मोहब्बत से इन साज़िशों को काटने का हुनर भी जानते हैं।

बुधन थिएटर ढाई आखर प्रेम यात्रा का ज़रूरी पड़ाव था। उम्मीद है कि इप्टा के साथ बुधन का रिश्ता गाढ़ा होगा और दूर तक चलेगा।

मेरे घर आके तो देखो 

इन दिनों कॉमरेड होमी दाजी के भतीजे और हमारे दोस्त फ़रोख दाजी और उनकी पत्नी अर्चना वाजपेयी अहमदाबाद में ही रह रहे हैं तो मैंने उन्हें पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हारे साथ रुकूँगा। संसाधनों की कमी तो थी ही। वैसे भी फ़िज़ूलख़र्ची नहीं करनी थी। और नये अनुभव भी करने थे। इन तीनों वजहों से शबनम हाशमी की संस्था “अनहद” से जुड़े अहमदाबाद के साथी देव देसाई ने बिहार के चारों साथियों और निसार अली के रुकने का इंतज़ाम एक अभियान के तहत एक परिचित जया बहन के घर कर दिया था।

“मेरे घर आके तो देखो” अभियान बहुत ही प्यारी सोच का अभियान है जिसमें एक जाति या समुदाय के लोग दूसरी जाति या समुदाय के परिवार के साथ जाकर के मिलते-जुलते हैं। संभव हो तो एक-दो दिन रहते भी हैं ताकि उन्हें यह पता चल सके कि एक-दूसरे के बारे में जाति या धर्म को लेकर जो दुर्भावनाएँ निजी स्वार्थ की वजह से या राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की वजह से फैलाते हैं, वे धारणाएँ दरअसल कितनी ग़लत हैं। तो छारानगर से बिहार के चारों साथी और निसार अली रास्ते में खाना खाकर जया बहन के घर रात 12:00 बजे  पहुँचे तब जाकर उनका आपस में परिचय हुआ। मिले-जुले और सो गए। सुबह जब चार बजे स्टेशन जाने के लिए उठे तो देखा जया बहन ने इतनी सुबह गर्म पराँठों का नाश्ता तैयार करके रखा हुआ है। ट्रेन में बैठकर निसार अली ने जया बहन के लिए एक प्यारी-सी चिट्ठी लिखी।

आपने दावत दी थी आओ, हम आये बिहार और छत्तीसगढ़ से। … थके थे सब दिन – शाम के शो के बाद रात लगभग एक बजे आपने स्वागत किया हमारा आत्मीयता के साथ … अलसुबह उठकर चाय नाश्ते की तैयारी में फिर जुट गईं। आपके घर में कुछ घंटे ही सही, आपकी आत्मीयता और अपनापे ने हमें सचमुच तरोताज़ा कर दिया आगे के सफ़र के लिए। आपको, आपके परिवार और साथियों और साथी देव देसाई को शुभकामनाएं, आभार …

निसार , पीयूष , संजय , फ़िरोज , राजन.

(क्रमशः)

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