जातियों के पदानुक्रम और ऊँच-नीच में पगा हुआ हमारा देश मानकर चलता है कि किन्हीं खास जातियों में जन्म लेने वाले लोगों के लिए अन्य लोगों द्वारा फैलाई गई गंदगी को साफ करना उनकी जन्मगत बाध्यता है। अन्य जगहों पर आरक्षण का सख़्त विरोध करने वाले भी साफसफाई के क्षेत्र में खास जाति के आरक्षण के समर्थक होते हैं। इस बात को कितनी संस्थाओं या व्यक्तियों ने रेखांकित किया है?
महात्मा गांधी द्वारा पाखाना सिर पर ढोने की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने संबंधी बातें बचपन में सुनी थीं। मगर सबसे पहले हरेक प्रकार की गंदगी साफ करने वाले लोगों के जीवन-यथार्थ को मैंने अनुभूत किया मराठी/हिंदी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘कचराकोंडी’ में। यह फिल्म मुंबई की सफाई कामगार यूनियन की अध्यक्ष मुक्ता मनोहर निर्मित और अतुल पेठे द्वारा निर्देशित है। इस फिल्म ने मुझ जैसे अनेक लोगों का उस समय खाना-पीना मुश्किल कर दिया था। कम्प्यूटर और डिजिटल तकनीक में इक्कीसवीं सदी में ऊँची पायदान पर रहने वाला हमारा देश गंदगी से बजबजाते नालों, भूमिगत गटरों और कचरा प्रबंधन के मामले में मानवरहित काम की पहल क्यों नहीं करना चाहता? अभी भी मनुष्य को इस डरावने अमानवीय काम में क्यों लगाया जाता है, यह सवाल मेरे दिल-दिमाग को मथता रहा।
उसके बाद अन्य मराठी फिल्म आई ‘कोर्ट’; उसमें गटर में मनुष्य के उतरने, उसकी सफाई करने, उसके अत्यंत अस्वास्थ्यकर दुष्प्रभावों के सम्पर्क में निरंतर रहने के कारण बीमारी से जूझते सफाईकर्मियों के जीवन और कई बार उसी गटर में कई कारणों से मर जाने वाले लोगों के बारे में सुनना अपनेआप को शर्म से भर देता है। मगर कोर्ट में चलने वाली ऐसे आदमी की केस में न्याय-व्यवस्था और जनसामान्य का क्रूर चेहरा बेचैन करता रहता है। उसके बाद किसी कार्यक्रम में बेज़वाडा विल्सन से उनके जैसे अनेक लोगों द्वारा किये गये प्रयत्नों के बारे में सुना कि, उन्होंने किस तरह सफाई-कर्म में मनुष्य-श्रम के उपयोग को समाप्त करने के लिए आंदोलन किये! उन्हें 2016 में रमन मैगेसेसे पुरस्कार तो मिला, मगर अभी तक यह अमानवीय मनुष्य-श्रम समाप्त नहीं हुआ है।
यहाँ मैं ‘कचराकोंडी’, ‘कोर्ट’ या अन्य फिल्मों की बात नहीं करना चाहती, बल्कि महानगरों के अंडरग्राउंड नालों के मेनहोल में उतरकर सफाई करने वाले लोगों की जीवन-कथा को जीते-जागते रंगमंच पर कटु यथार्थ के साथ उतारने वाले नाटक की बात करना चाहती हूँ। उर्मि लिखित और निर्देशित नाटक ‘अंधे जहाँ के अंधे रास्ते’ मैंने 05 दिसंबर 2023 को शिवाजी मंदिर दादर में देखा। इसे ‘देखा’ कहने की बजाय ‘बेहद तकलीफ़ के साथ जिया’ कहना बेहतर होगा। उन्मुक्त कलाविष्कार के सहयोग से अस्तित्व नामक संस्था ने इसे प्रस्तुत किया था। लगभग अढ़ाई घंटे के नाटक में मैं लगभग पूरे वक्त अपनी सीट पर पहलू बदलती रही। एक दिन तो कुछ भी लिखना असंभव लगता रहा, मगर लिखने का दबाव बहुत ज़्यादा महसूस हो रहा था।
यह नाटक सफाईकर्मियों के जीवन में अक्सर घटने वाली दुर्घटनाओं पर आधारित है। हम हमेशा ही पढ़ते-सुनते रहते हैं कि फलाँ सफाई कर्मचारी की गटर में फँसकर मृत्यु हो गई, वह घायल हो गया, उसकी आँखें चली गईं या फिर उसे न जाने कितने प्रकार की असाध्य बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है! ‘अंधे जहाँ के अंधे रास्ते’ में समूची कहानी सफाई कर्मचारी, उनके परिवारों, ठेकेदारों के इर्दगिर्द बुनी गई है। अधिकारियों, राजनेताओं का संक्षिप्त उल्लेख भी होता है। न केवल जाति, बल्कि धन और सामाजिक पद-प्रतिष्ठा पर आधारित श्रेणियों में असमानता और अमानवीयता किस तरह ऊपर से नीचे तक बढ़ती जाती है, किस तरह समाज की निचली पायदान पर पटक दिये गये मनुष्य का जीवन और जीने की परिस्थितियाँ सिकुड़ती चली जाती हैं, नाटक हमें गहन अहसास कराता रहता है।
इनके बीच ठेकेदार और मुकादम क्रमशः सवर्ण जाति एवं पिछड़ी जाति के प्रतिनिधि हैं। जाति और पेशेगत सर्वेक्षण होने पर वाकई यह सत्य सामने आ खड़ा होगा कि आज भी हमारी सामाजिक व्यवस्था के अधिकतम लोग वर्णगत श्रेणियों के अनुसार ही कार्यरत हैं। कहीं-कहीं यह श्रृंखला टूटी है, परंतु वहाँ वर्चस्ववादी वर्णों की दबंगई हावी हो जाती है। ठेकेदार ठेका देने वाले अधिकारी से दबता है, तो मुकादम काम पाने के लिए ठेकेदार से दबता है। मुकादम, ठेकेदार और सफाईकर्मियों के बीच की एक कड़ी है। इसलिए उसके दो रूप सामने आते हैं।
यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाना ज़रूरी है कि, नाटक के सभी अभिनेता सफाईकर्मी न होने के बावजूद सबने पूरी संवेदनशीलता और समझ के साथ दृश्य साकार किये हैं तथा परस्पर संवादों के साथ भी न्याय किया है। निर्देशक और कलाकारों ने मेनहोल में उतरने, उसे साफ करने और भीतर दम घुटने की समस्त परिस्थितियों का गहरा अध्ययन किया है। मेनहोल से नीचे उतरने वाले व्यक्ति की कमर में किसतरह दो प्रकार की रस्सी बाँधी जाती है, उनसे ऊपर रस्सी पकड़े हुए शेष साथियों को किस तरह संकेत दिये जाते हैं, कब कचरा निकालने के लिए बाल्टी दी जाती है, यह जितनी शिद्दत और तकनीकी कुशलता से दिखाया गया है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। गटर में छटपटाने वाले नामदेव या दिनेश का जीने-मरने के बीच का संघर्ष और ऊपर अन्य लोगों का उन्हें बचाने के लिए जी जान से किया जाने वाला प्रयत्न, दोनों के बीच प्रभावशाली एकता दिखाई देती है। वे सब समाज द्वारा नज़रअंदाज़ की जा रही दलित-शोषित-उपेक्षित इकाई बन जाते हैं।
नाटक में कोई प्रमुख अभिनेता नहीं है, बल्कि सभी अभिनेताओं के चरित्र परस्पर पूरक होकर एक भीषण यथार्थ को रचते हैं। ये कलाकार हैं, रुजुता साटम, श्रद्धा देवूळे, रत्ना साळुंके, श्रुतिका येसादे, अंकिता भोईर, सुमीत घाग, सिद्धार्थ कडलक, प्रथमेश पवार, साहिल मावलकर, तन्मय धामणे, आयुष भोसले, संकेत बागल, अभिजीत कांबळे, मनोज चाळके, तुषार शिंदे, रोहित साळवे, सौरभ जाधव, रोहित कंपली। सेट डिज़ाइनिंग है अमित इंदूलकर की, प्रकाश-योजना है सौरभ शेठ की, संगीत कौशल म्हात्रे का तथा रंगभूषा की थी सुनील मेस्त्री ने। बैकस्टेज के अन्य कलाकार थे, पंकज मिसाळ, आरती मोरे तथा शुभांगी पवार।
लेखक और निर्देशक उर्मि ने ‘टाइम्स नाउ’ के मराठी चैनल के साक्षात्कार में नाटक की रचना-प्रक्रिया पर बात करते हुए बताया कि मुंबई जैसे महानगरों में जो मल निस्तारी का प्रबंधन होता है, वह अनेक नालियों, पाइपों और टनेल्स के माध्यम से खाड़ी तक जाता है क्योंकि शहर जिस तरह ऊपर विकसित होता है, उसी तरह ज़मीन के नीचे भी फैला होता है। मुंबई में अनेक ब्रिटिशकालीन मेनहोल हैं, जिनका किसी भी प्रकार का आधुनिकीकरण नहीं किया गया है। इसमें आज भी सफाई के लिए मनुष्य ही उतरते हैं। मनुष्य द्वारा की गई हरेक प्रकार की गंदगी को साफ करने के लिए मनुष्य का ही उपयोग होता है। … नाटक की प्रेरणा के बारे में उर्मि ने बताया कि वे हाईकोर्ट में वकालत करती हैं। एक बार जब वे कोर्ट से लौट रही थीं, वहाँ मेनहोल की सफाई के बाद मैले का ढेर लगा था और एक ढेर के पास एक अन्य ढेर भी था, जो उन्हें हिलताडुलता हुआ नज़र आया। वे यह देखकर चौंकी कि वह गंदगी से लिपटा हुआ एक मनुष्य था, जिसकी लाल आँखें और चलती हुई साँसों ने उन्हें बेचैन कर दिया।
उर्मि ने इसपर पहले कहानी लिखी। बाद में अनेक संबंधित लोगों से बातचीत के दौरान उन्हें एक-एक सवाल मिलता चला गया। इस यथार्थ से सामना हुआ कि एक बार मेनहोल में उतरने पर उनके शरीर की दुर्गंध कई दिनों तक दूर नहीं होती। उन्हें खाने-पीने में भी बहुत दिक्कत होती है। उन्हें अपने परिसर में कोई बैठने नहीं देता। घर के सदस्यों को भी बदबू आती है। गले के नीचे कौर नहीं उतरता। उनके लिए कोई मैस या कैंटीन नहीं होते, उन्हें गटर से निकलने के बाद सार्वजनिक शौचालयों में नहाना पड़ता है। वे समूची दुनिया का मैला साफ करते हैं परंतु उन्हें खुद की साफसफाई तक के लिए कोई सुविधा मयस्सर नहीं होती, यह कितनी क्रूर बात है। उनके नाखूनों और त्वचा में भी वह गंदगी बस जाती है, जिससे छुटकारा पाने के लिए वे शराब का सहारा लेते हैं। इस तरह उनके काम और शराब का एक दुष्चक्र चलता रहता है। उनके पारिवारिक सदस्य बदबू के कारण उनके नज़दीक आने से बचते हैं।
यह देखा गया है कि, जो सफाईकर्मी जितनी बार मेनहोल में उतरता है, उसका जीवन-काल उसी अनुपात में घटता जाता है। उन्हें अनेक प्रकार की बीमारियाँ घेर लेती हैं। हम बहुत आसानी से कहीं भी कचरा फेंक देते हैं, कचरे को ठोकर मार देते हैं; मगर हम ऐसा करके उनके श्रम को, उनके काम की बेकद्री करते हैं। उर्मि ने अपने साक्षात्कार में उपर्युक्त बातें कहीं। इन अहसासों पर उन्होंने पहले एक अंक का नाटक लिखा, खेला और सही प्रतिक्रिया मिलने पर अब दो अंकों का नाटक बन गया है।
चूँकि 06 दिसंबर को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का मृत्यु दिवस होता है, जिसे उनके अनुयायी परिनिर्वाण दिवस कहते हैं, उसकी पूर्वसंध्या पर ‘अंधे जहाँ के अंधे रास्ते’ के लगातार तीन मंचन रखे गए थे, ताकि मुंबई की चैत्यभूमि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आने वाले करोड़ों लोग इस नाटक को देख सकें। यह नाटक संविधान के ‘समानता’ की अवधारणा की विफलता की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है कि, कुछ लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी दूसरों का मैला साफ कर रहे हैं, मगर उन्हें जीवन के मूल अधिकार प्रदान करने, उन्हें मानवोचित सम्मान देने तक का शेष समाज का न तो नज़रिया है और न ही व्यवहार। बल्कि उनकी ओर वर्चस्ववादी हिकारत की दृष्टि से ही देखा जाता है, उनका अपमान करने की कोई कसर बाकी नहीं रखी जाती।
‘अंधे जहाँ के अंधे रास्ते’ नाटक हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में खेला जाता है। इस मंचन से पहले 11 मंचन हो चुके थे। मैंने बारहवाँ मंचन देखा। उसी दिन तेरहवें व चौदहवें अन्य दो मंचन हुए। नाटक के शीर्षक के ऊपर लिखा है, शहरों की गंदगी में धँसे हुए अपरिचित मनुष्य की कहानी तथा सामाजिक पदानुक्रम तथा जीवन-संघर्ष का यथार्थ प्रस्तुत करता है नाटक ‘अंधे जहाँ के अंधे रास्ते’। वाकई यह ‘जहाँ’ अंधा बना रहता है क्योंकि उसे अपनी सुविधा के कारण इस हृदयविदारक सत्य को देखना ही नहीं है, साथ ही उन्हीं रास्तों पर जाना है, जिसके विषमतावादी यथार्थ से उसे आँखें मूँद लेनी हैं। मगर सच तो सच है, जिसे नाटक में पूरी बेबाकी के साथ प्रस्तुत किया गया है।
यह नाटक असंवेदनशील या लापरवाह लोगों की आँखें खोलने वाला है, क्योंकि मेनहोल से गटर में उतरने की समूची तकनीक के साथ, कलाकारों के अद्भुत यथार्थवादी अभिनय, आंगिक हलचलें, प्रभावी प्रकाश-संचालन तथा समूचे अमानवीय कर्म को रेखांकित करने वाला ध्वनि-संयोजन दर्शक को भी गटर की बदबूदार, अंधेरी तथा डरावनी गंदी दुनिया में अपने साथ खींच ले जाता है। लाल और नीले प्रकाश के माध्यम से खतरे, डरावने माहौल में काम का संघर्ष व छटपटाहट अद्भुत असर पैदा करती है। संकटकालीन ध्वनियों की भयावनी गुथमगुथा आवाजें, रोंगटे खड़े करती हैं। इन सफाईकर्मियों की मजबूरी के साथ पूरी व्यवस्था किसतरह खिलवाड़ करती है, इसका हृदयविदारक अनुभव कुछ मिनटों के लिए सुन्न कर देता है। उपेक्षित, दमित, शोषित वर्ग के प्रति होने वाले बेइंसाफी की मार्मिक जीवंत दृश्यावली मंच पर इतनी संवेदनशीलता, कुशलता और प्रभावी तरीके से साकार करने के लिए उर्मि और उनकी पूरी टीम को सैकड़ों बार सलाम!
(नाटक के फोटो, टाइम्स नाउ मराठी का साक्षात्कार तथा कास्ट एण्ड क्रू सम्बन्धी जानकारी नाटक के साथी कलाकार सिद्धार्थ कड़लक ने उपलब्ध करवाएँ हैं।)