विजय शर्मा
(महाराष्ट्र में मध्यवर्गीय पारिवारिक नाटकों की दीर्घ परंपरा रही है। परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध, उनकी मानसिकता, सामाजिक मनोविज्ञान, सांस्कृतिक राजनीति और तमाम तरह की विसंगतियों के प्रभावों को पारिवारिक ढाँचे के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता रहा है। इप्टा की नाशिक इकाई ने इस ढांचे को तोड़कर भी नाटक किये हैं। उन्होंने ‘थिएटर ऑफ़ द ऑप्रेस्ड’ की संकल्पना पर केंद्रित कई प्रयोग किये, जिसकी रिपोर्ट पहले भी इस ब्लॉग में प्रकाशित की गयी थी।
यहाँ महाराष्ट्र की एक अन्य परंपरा का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है। पूरे राज्य में अनेक प्रकार की नाट्य प्रतियोगिताएँ अनेक अलग-अलग संस्थाओं द्वारा आयोजित की जाती हैं। इसमें बहुत गंभीरता के साथ, पूरी मेहनत और व्यावसायिक गुणवत्ता के साथ नाटक प्रस्तुत किये जाते हैं। इन नाट्य प्रतियोगिताओं की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें प्रस्तुत किये जाने वाले नाटक नए लिखे हुए होते हैं। इन नाटकों के लिए अनेक प्रकार के पुरस्कार भी होते हैं, जिन्हें प्राप्त करना बहुत सम्मान की बात होती है। मराठी नाटक और सिनेमा के अनेक नामचीन अभिनेता, लेखक और संगीत, प्रकाश, ध्वनि, डिजाइनिंग जैसे सम्बंधित क्षेत्र के अनेक कलाकार इन प्रतियोगिताओं से होकर ही कला-जगत के सितारे बने हैं। इसीलिए मराठी में नए-नए विषयों पर नए नाटक बड़ी संख्या में प्रकाशित होते हैं तथा नयी नाट्य-प्रतिभाएँ उदित होती हैं।
नाशिक इप्टा के युवा नाटककार, निर्देशक, अभिनेता संकेत सीमा विश्वास द्वारा लिखित नाटक ‘प्रथम पुरुष’ का प्रथम मंचन 26 नवम्बर 2023 को राज्य नाट्य स्पर्धा (प्रतियोगिता) के अंतर्गत हुआ। इसकी समीक्षा मथुरा इप्टा के युवा साथी रंग समीक्षक विजय शर्मा ने लिखी है। फोटो भी विजय के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं।
देश के अनेक सांस्कृतिक संगठनों द्वारा की जा रही ‘ढाई आखर प्रेम’ राष्ट्रीय सांस्कृतिक पदयात्रा के परिप्रेक्ष्य में भी इस नाटक को देख रही हूँ। परस्पर ‘प्रेम’ के लिए किसी भी प्रकार का वर्चस्व न होना ही मानवीय प्रेम की पहली शर्त होनी चाहिए। हमारा समाज प्रेम जैसी सहज, स्वाभाविक भावना को किस तरह की हदबंदियों में बाँधकर , उसका विकृतीकरण करता है, नाटक में इसे बेबाकी के साथ दर्शाया गया है। इस तरह के नाटक ‘प्रेम’ और ‘समाज के समूचे वातावरण’ पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं।)
भारतीय समाज में पितृसत्तात्मकता एक गुणसूत्र के रूप में उपस्थित है। वही इस प्राचीन व्यवस्था में जातिवाद, श्रेष्ठतावाद, ब्राह्मणवाद और सामंतवाद का निर्माण करती है। अध्यात्म, दर्शन और न्यायिक क्षेत्र में भी यह अपने पूर्ण दुर्दांत रूप में स्पष्ट दिखती है।
समाज को कथित रूप से अनुशासित रखने हेतु परिवार और विवाह जैसी संस्था का निर्माण होता है और अंततः वही समाज के घिनौने रूप में आज हमारे सामने उपस्थित है। स्त्री और पुरुष के बीच संबंध केवल सामाजिक मान्यता और पुरुष की ताकत के प्रदर्शन पर आधारित हो गए हैं। इस व्यवस्था ने मनुष्य के रूप में सबसे अधिक बुद्धिमान प्रजाति और एक दूसरे के पूरक लिंगों को एक दूसरे का प्रतिरोधी बना कर खड़ा कर दिया है, जिस वजह से मनुष्यता के प्रेम और सहजता जैसे मूल्य इस लड़ाई में ध्वस्त हो गए हैं और दया, प्रेम और सहिष्णुता जैसे सार्वजनीन मानवीय गुण कमज़ोर प्राणी का लक्षण बना दिए गए हैं।
युवा निर्देशक और लेखक संकेत सीमा विश्वास द्वारा लिखित नाटक ‘प्रथम पुरुष’ इसी सत्य को विश्लेषित करता है कि स्त्री, जो संपूर्ण मानवीय प्रजाति के उर्वर और मानवीय मूल्यों के संवाहक के रूप में हमारी सभ्यता में उपस्थित है, उसे पुरुष सत्ता किस तरह से अपनी देह और व्यवस्था से अर्जित गुणों द्वारा शोषित करती है और प्रेम जैसे गुण को उसकी कमजोरी बना कर उसी का शोषण करती रहती है और फिर उसी को इस कृत्य के लिए जिम्मेदार ठहरा देती है। मानवीय मूल्य जो करुणा, सम्मान और सहभागिता पर आधारित थे, परिवार ने उसे रक्त-संबंध और स्त्री पुरुष के बीच होने वाले संबंधों को मान्य करने वाली संस्था बना दिया। इस व्यवस्था की विशेषता यह है कि वह शोषित का शोषण, उसको भावनात्मक रूप से महान बना कर करता है फिर वो स्त्री हो, दलित हो, दास हो या प्रजा…।
‘प्रथम पुरुष’ केवल संकेत सीमा विश्वास द्वारा लिखा गया एक नाट्य आलेख भर नहीं, भारतीय समाज में स्त्री की सामाजिक दशा पर लिखा गया आधुनिक आख्यान है। मध्यवर्ग का एक परिवार, जो समाज के अवमूल्यन के सारे लक्षणों से ग्रसित है, उसमें प्रतीक जैसा किशोर बड़ा हो रहा है। पिता को अपनी माँ का शोषण करते देख वह वही गुण अपने व्यक्तित्व में ढाल लेता है और उसी तरह के उसके मित्र उसे उसकी महिला मित्र के साथ दैहिक व्यभिचार के लिए प्रेरित करते हैं। यह बात सार्वजनिक हो जाने के उपरांत लड़की का पिता, जो जाति और वर्ग के श्रेष्ठतावाद से पीड़ित है, प्रतीक के परिवार को कटघरे तक खींच लाता है। अदालत में एक तरफ प्रतीक और उसके मित्र हैं तो दूसरी तरफ उसकी प्रेमिका और उसका परिवार; इस सब में प्रतीक की माँ और बहन मानसिक रूप से व्यथित हैं क्योंकि पिता इस सब के लिए उनको जिम्मेदार मानता है… और साथ ही भीड़ के स्वघोषित और स्वकृत न्याय एजेंडे को भी दर्शकों के साथ मंच पर साझा करता है। मॉब लिंचिग की सोच को लेकर भी सवाल उठाता है।
नाटक जाति, धर्म और लैंगिक भेदभाव जैसे विभिन्न मुद्दों पर बहस पैदा करता है। इसके पात्र वर्तमान भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। युवा जीवन शैली और उसके मूल्य विघटित होते समाज को आईना दिखाते हैं। औरत की समाज में स्थिति और न्याय व्यवस्था में उसकी आवाज को सुने जाने की प्रक्रिया इस नाटक का केंद्र बिंदु है और यहीं यह स्त्री के मानवीय अधिकारों पर बहस पैदा करता है। नाटक समाज के निम्न और मध्य वर्ग में समान रूप से व्याप्त पुरुष सत्ता के प्रभुत्व को स्पष्ट करता है और स्त्री की सहभागिता हेतु उसके संवैधानिक अधिकार के लिए भी सवाल उठाता है।
नाशिक इप्टा के इस प्रभावशाली नाटक का पहला प्रदर्शन परशुराम नाट्य गृह में 26 नवंबर 2023 को राज्य नाट्य स्पर्धा में हुआ। पर्दा उठते ही पहले दृश्य विधान से ही लगता है कि जर्जर रंग-परंपरावादी युग के अवसान काल का यह प्रथम नाट्य मंचन है। नाट्य तत्वों के अनुसार यह दर्शक के अक्षबिंदु को ध्यान में रख कर अपनी पूरी निर्मिति करता है।
प्रथम दृश्य में निम्नमध्यवर्गीय परिवार और उसके सामाजिक अलंकार मंच पर उपस्थित रहते हैं। भाव और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया प्रथम दृश्य से शुरू होती है और अंतिम दृश्य विधान तक पहुँचते-पहुँचते दर्शक को अपने साथ जोड़ लेती है। घर का दृश्य हो या सामान्य मिलन स्थल का, यथार्थवादी मंचन होते हुए भी सेट की कमी कहीं नही अखरती। मंच पर प्रकाश का सहज अप्रतिम नियोजन नए प्रकाश बिंब बनाता है और नाटक के अंदर रोशनी की कई दीवारें बना देता है जो हरेक दृश्य को उसका अलग रुप देता है।
संवाद भारतीय समाज की भाषा के अनुरूप हैं, जिसका प्रयोग हम अपने जीवन में तो बहुत सहजता से करते हैं किंतु मंच पर सुनते ही हमारी तथाकथित संवेदनशीलता जागृत होने लगती है। देशज स्त्री-बोधक गालियाँ होते हुए भी संवाद असहज नहीं करते, अभद्रता तो दूर की बात है।
प्रेम इस नाटक में अपने दृश्य रूप में उपस्थित है। वासना के स्पर्श, प्रेमिल स्पर्श और लगाव के स्पर्श को निर्देशक ने जिस चातुर्य से दर्शाया है, वह अपने आप में अद्भुत है। युगल प्रेम दृश्य हों या बाजार में देह बेचती स्त्री का दृश्य या इस नाटक का केंद्रीय दृश्य, जहाँ शिल्पा का शीलभंग उसके अपने ही प्रेमी के द्वारा किया जाता है। सभी दृश्य अपने आकार और गहराई के साथ मंच पर सृजित होते हैं। यह भारतीय रंगकर्म में वर्जनाओं के खंडित होने की घोषणा करता है।
युवा पुरुष वर्ग के अवचेतन में उपस्थित कुत्सित भाव और उसके प्रचेतक हमारी आधुनिक जीवन शैली के तत्वों के साथ प्रदर्शित किए गए हैं। जैसे जैसे नाटक आगे बढ़ता है, वैसे वैसे भारतीय समाज में स्त्री सशक्तीकरण और “यत्र नार्यस्तु…” के खोखले नारे की परतें उधड़ने लगती हैं । मराठी भाषा वैसे तो अपने लम्बे वाक्यों के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु नाटक के संक्षिप्त और मारक संवाद भारतीय पुरूष की स्त्री संबधित सोच को स्पष्ट करते हैं।
किशोर के मन पर परिवार और समाज में निरंतर होने वाली यौन हिंसा का प्रभाव और उसके व्यक्तित्व-निर्माण में उसकी भूमिका को यह नाटक एक प्रश्न के साथ मंच पर प्रदर्शित करता है। नाटक का सबसे संवेदनशील दृश्य कोर्ट सीन है, जो अन्य नाटकों में प्रायः उबाऊ होता है, यहाँ उभर कर सामने आया है। स्त्री पक्ष का एकालाप मंच पर संवेदना का एक सोता बहा देता है, जो दर्शकों तक पहुँचते-पहुँचते एक मौन झंझावात में बदल जाता है।
यह नाटक आधुनिक और यथार्थवादी संरचना में बुना है और अपनी भाषा और संवाद शैली के कारण दर्शकों से सीधा संवाद स्थापित करता है, जो एक सफल मंचन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण कारक है। नाटक के सभी पात्र अपने अभिनय से न्याय करते हैं। इस नाटक के पात्रों में सभी स्त्री-पात्र स्वाभाविक रूप से मुखर हैं। चाहें वो संवेदना के स्तर पर हो या चेतना के स्तर पर। प्रतीक की भूमिका में सुशील सुर्वे यद्यपि केंद्रीय चरित्र निभाते हैं, पर उनकी भूमिका को और अधिक मेहनत की जरुरत है, हालाँकि कई दृश्यों में सुशील याद किए जाने वाले भाव पैदा करते हैं।
आई (माँ) और समाज में मध्यवर्गीय स्त्री की हालत को उजागर करने के लिए, अपनी संवेदनशील भूमिका के लिए अर्चना नाटकर को एक बेहतर भूमिका के लिए याद किया जाना चाहिए। बाबा (पिता) के रूप में नागेश धूर्वे अपने एक ही चरित्र में कई अलग-अलग रंगों में दिखते हैं, तो दूसरी ओर उसी समय में समाज के क्रूर चेहरे और समय के मारे एक पिता की भूमिका को भी मंच पर लाते हैं। सुमी की भूमिका के माध्यम से मानसी स्वप्ना सुनिल कावळे ने नाटक में एक विशेष प्रश्न खड़ा किया है कि क्या स्त्री, समाज के लिए प्रचेतन का काम फिर से कर सकती है? सशक्त भूमिका के लिए उनको बधाई दी जानी चाहिए।
अशोक जो सुमी का प्रेमी, कवि और गायक भी है, उसकी भूमिका राहुल गायकवाड ने निभाई है। यह बहुत अंतर्द्वंद्व वाला चरित्र है, जिस पर और भी मेहनत की जानी चाहिए, पर प्रथम प्रयास बेहतर है। दिप्या (दीपक) पितृसत्ता के समाज का वह युवा चेहरा है, जो युवा अभिनेता प्रणव काथवटे ने सफलतापूर्वक अभिनीत किया है। मन्या (मनीष) और किरण्या (किरण) की भूमिका में कैवल्य चंद्रात्रे और ओम हिरे बेहतर साबित हुए। युवा दोस्तों की भूमिका में सभी ने स्वाभाविक रूप से अपने चरित्र को मंच पर जिया है।
वकील रिकामे की भूमिका में चेतन सुशिर अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व का इस्तेमाल करके दर्शक वर्ग को एक बेहतर चरित्र अभिनेता से परिचय करवाते हैं। उसी तरह पहली बार मंच पर उतरीं वकील दुसाने की भूमिका में डॉ.सोनाली ठवकार अपने चरित्र को बहुत सहजता से निभाती हैं। कोर्ट में पक्ष और विपक्ष के अधिवक्ता की भूमिका में चैतन्य और सोनाली ने कोर्ट सीन को भी समाज के एक विशाल चेहरे के रूप में प्रस्तुत करने में सफलता पाई है।
आवेश लोहिया एक हिंदी डायलॉग से कोर्ट के एक सीन में आते हैं, पर प्रभाव पैदा करते हैं। संपत जो प्रतीक के पिता का दोस्त है, की भूमिका प्रकाश पिंगळे ने निभाई है जो और बेहतर हो सकता था। जज साब, जो केवल अपनी आवाज से मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, उस आवाज पर और मेहनत करने की जरूरत है। सुरेश भाऊ का पात्र, जो खुद लेखक और निर्देशक संकेत सीमा विश्वास ने निभाया है, थोड़ा फिल्मी लगता है पर बेहतर है।गणपतराव की भूमिका में मनोहर पगारे की बहुत संक्षिप्त भूमिका थी, पर वह खुद की उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। शिल्पा के रूप में गायत्री रमेश नेरपगारे नाटक के केंद्र में भूमिका को रखने में सफल रही हैं। नाटक में उनके भाव-अभिनय को लंबे समय तक याद रखा जाना चाहिए। चंपा के रूप में अमन ने एक महत्वपूर्ण पक्ष को अभिनीत किया है, जो नाटक के अंत तक रहस्यमय बना रहता है। उसे और खोजने और नाटक से जोड़ने की भूमिका लेखक को करनी होगी। सुमी के पति के रूप में मयुर इनामके अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते, उनकी भूमिका और प्रभावी होनी चाहिए। सुमी के ससुर और सास के रूप में मिलिंद चिगळीकर और सविता सुधिर जोशी अपनी आयु और अनुभव का बेहतर इस्तेमाल करते हैं।
पहला प्रदर्शन होने के नाते अभी भी नाटक के दृश्यबंधों में कई संभावनाएँ बाकी हैं। लेखक के रूप में ही नहीं, अपितु दिग्दर्शक के रूप में भी संकेत सीमा विश्वास अपने विचार की स्थापना और उसे प्रश्न बना कर दर्शक दीर्घा तक पहुंचाने में सफल रहे हैं। शंतनू कांबळे, संभाजी भगत के कविता और गीत नाटक को प्रभावी बना देते हैं। निर्माण व्यवस्थापन के साथ-साथ नाटक में नाशिक इप्टा के अध्यक्ष तल्हा शेख ने अभ्यंकर और पुलिस की भूमिका में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है।
नेपथ्य, मंच सज्जा और पोस्टर के लिए मुक्ता की मेहनत को सराहा जाना चाहिए। नाटक के पात्रों के सहज किंतु आकर्षक वस्त्र विन्यास वैभवी चव्हाण ने रचे हैं। प्रकाश संयोजन को सरल लयकारी बनाने में समीर तभाने की कल्पनाशीलता प्रशंसनीय है। संगीत पक्ष और ध्वनि संयोजन पर तेजस बिल्दीकर ने अपने अनुभव का बेहतर इस्तेमाल किया है।
नाटक का अंत विस्मय और विषाद दोनों से भर देता है, जो पाठक को एक अंतर्यात्रा पर ले जाता है। अंत में यह कहना चाहता हूँ कि बहुत समय बाद इप्टा की नाशिक इकाई ने रंगमंच के वैचारिक क्षितिज पर लैंगिकता और जातीय राजनीति के अन्तर्सम्बन्धों को बीच बहस में लाया है और सफलतापूर्वक स्थापित किया है।
जातिगत राजनीति का दृष्टिकोण इस नाटक के कई दृश्यों में प्रभाव पूर्ण ढंग से लिखा गया है । राजनीति कैसे तथाकथित ऊँची और नीची जातियों के बीच के वर्गीय अंतर को जातीय संघर्ष में बदल देती है यह नाटक उसे भी बखूबी उकेरता है। विभिन्न जातियों के राजनेता अपनी राजनीति को उभारने के लिए कैंडल लाइट मार्च का आयोजन करते हैं और उसी मार्च में शामिल लोग मोमबत्ती जलाकर बस्ती में आग लगा देते हैं। राजनीति में वर्गीय और जातीय अंतर को कई छोटे छोटे संकेतों से दर्शाया जाना इस नाटक की उल्लेखनीय सफलता है।
यहाँ यह कहे बिना रहा नहीं जा सकता कि मराठी रंगमंच ने हमेशा भारतीय रंगमंच को समाज में बदलाव की राह दिखाई है। यह नाटक विजय तेंदुलकर की परंपरा का नाटक है, जिसको आगे ले जाने के लिए मराठी रंगमंच को संकेत सीमा विश्वास के रूप में युवा रंग निर्देशक मिला है, जिन्हें पूरी गंभीरता और दायित्व के साथ इसे आगे ले जाना होगा।