(हमारा देश बहुत विविधता और अनेकता का देश है। अलग-अलग क्षेत्रों की न केवल संस्कृति, बल्कि जीवन-शैलियाँ, सोचने और काम करने का तरीका भी अलग-अलग है। इसीलिये यहाँ किसी एक साँचे में, एक ही तरीके से काम नहीं हो सकता और अगर वह काम रचनात्मक हो, सांस्कृतिक कला-कर्म हो, तब तो बहुत विविधताओं का दर्शन हो ही जाता है। ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक पदयात्राओं में भी यही विविधता और क्षेत्रीय विशेषताएँ देखी जा रही हैं। अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार संस्कृतिकर्मी पदयात्रा को जारी रखने, उसके मूल उद्देश्य को केंद्र में रखने और जैसा संभव होगा, उस तरह से लोगों से मिलने, उनसे बातचीत करने, प्रेम का सन्देश सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से देने के लिए कृतसंकल्प हैं। 03 से 06 अक्टूबर की चार राज्यों में की जाने वाली एक दिवसीय यात्राओं में यह बात और भी उभरकर सामने आ रही है।
यहाँ प्रस्तुत है 05 अक्टूबर को झारखण्ड के गढ़वा में की गयी पदयात्रा का ‘रोलरकोस्टर’ अनुभव, जिसे अनेक रोचक विवरणों के साथ लिखा है रविशंकर ने। फोटो एवं वीडियो प्राप्त हुए हैं अर्पिता श्रीवास्तव और रविशंकर से।)
ढाई आखर प्रेम राष्ट्रीय सांस्कृतिक जत्था के शेड्यूल में थोड़ा परिवर्तन हुआ। वजह थी केरल में निपाह वायरस की धमक। कोविड दौर की भयानक त्रासदी को सबने देखा-झेला है, सो ऐसे किसी भी आपात संभावनाओं से एहतियात जरूरी था। इसलिए जब 2 अक्टूबर से 7 अक्टूबर तक केरल में प्रस्तावित जत्था को स्थगित कर दिया गया तो इप्टा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने यह तय किया कि इन तिथियों को अलग-अलग राज्यों में प्रतीकात्मक तौर पर एकदिनी यात्रा निकाली जाए, ताकि प्रेम, अमन, एकजुटता और आपसी सद्भाव की यह पदयात्रा रुके नहीं, जैसा कि ढाई आखर प्रेम राष्ट्रीय सांस्कृतिक जत्था का ऐलान है कि भगत सिंह की जयंती 28 सितंबर से गांधी के शहादत दिवस 30 जनवरी तक यह यात्रा हिंदुस्तान के किसी न किसी कोने में प्रेम और अनुराग का संदेश बांटते हुए निरंतर मौजूद रहेगी। 22 सितंबर को हुए ऑनलाइन वर्चुअल मीटिंग में झारखंड ने 5 अक्टूबर की तिथि एकदिनी पदयात्रा के लिए मुकर्रर की और तय किया कि यह प्रतीकात्मक यात्रा झारखंड के गढ़वा जिले में निकाली जाएगी।
इस सिलसिले में 1 अक्टूबर को गढ़वा के साथियों के साथ बैठक हुई। इप्टा के राष्ट्रीय सचिव शैलेंद्र कुमार और झारखंड इप्टा के महासचिव उपेंद्र मिश्रा ने गढ़वा पहुंचकर इप्टा के पुराने साथी संजय तिवारी के नेतृत्व में एक आयोजन समिति का गठन किया। जिसमें अशर्फी चंद्रवंशी, योगेंद्र नाथ चौबे, नमस्कार तिवारी, वीरेंद्र राम, जिला परिषद सदस्य धीरेंद्र सिंह, गौतम ऋषि, राहुल सिंह एवं जसम के अनवर झंकार आदि ने यात्रा को सफल बनाने की जिम्मेवारी ली और तय किया कि ग्राम खजूरी से मझिआंव तक की पदयात्रा प्रेम और अनुराग का संदेश बांटते हुए करेंगे।
5 अक्टूबर को गढ़वा की एकदिनी पदयात्रा में शामिल होने के लिए डाल्टनगंज से भी इप्टा के कलाकारों ने मन बनाया। सुबह 10:00 बजे दो गाड़ियों से हम सब (उपेंद्र मिश्रा, शैलेंद्र कुमार, प्रेम प्रकाश, राजीव रंजन, समरेश सिंह, अनुभव मिश्रा, अमित कुमार भोला, संजीव ठाकुर, घनश्याम कुमार संजीत दुबे और रविशंकर) गढ़वा के लिए चलें। अभी हम सब डाल्टेनगंज शहर के बाहर निकले ही थे कि आयोजनकर्ताओं ने फोन पर सूचना दी कि कार्यक्रम में थोड़ा फेरबदल किया गया है। अब पदयात्रा की शुरुआत गढ़वा जिला मुख्यालय स्थित अंबेडकर चौक पर बाबा साहब के प्रतिमा पर माल्यार्पण के बाद की जाएगी इसलिए थोड़ा पहले पहुंचिये। चूंकि कलाकारों का दल ऑटो पर सवार था, जिसे गढ़वा पहुंचने में बमुश्किल डेढ़ से 2 घंटा लग जाता, तब तक काफी देर हो जाती।
कलाकारों को पहले गढ़वा पहुंचना जरूरी था इसलिए हमने गाड़ी एक्सचेंज की। अब कलाकारों का दल कार पर सवार होकर गढ़वा के लिये निकल चुका था और नेतृत्वकारी साथी जिसमें राष्ट्रीय सचिव शैलेंद्र कुमार और महासचिव उपेंद्र मिश्रा के साथ अन्य लोग भी सवार थे, पीछे ऑटो से पहुंचने वाले थे। लेकिन फिर बीच रास्ते में ऑटो भी खराब हो गयी। और वे सभी रास्ते मे ही फंसे रहे।
खैर, कलाकारों का दल गढ़वा पहुंच चुका था। आयोजनकर्ता साथी पहले से वहां मौजूद हम सब की राह देख रहे थे। पंहुचते ही कार्यक्रम शुरू हुआ। अंबेडकर चौक पर माल्यार्पण के बाद ढाई आखर प्रेम राष्ट्रीय सांस्कृतिक जत्था के उद्देश्य को बताते हुए जनता को अपने साथ चलने का आवाहन किया। डाल्टनगंज इप्टा के कलाकारों द्वारा ओमप्रकाश नदीम द्वारा लिखित गीत ‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ने आए हैं, हम भारत से नफरत का हर दाग मिटाने आए हैं ‘ की प्रस्तुति के बाद आगे बढ़े।
पदयात्रा करते हुए हम सब आगे बढ़े ही थे कि गढ़वा के मुख्य चौक को किसी घटना के विरोध में स्थानीय लोगों ने पूरी तरह से जाम कर दिया। सभी गाड़ियों का आवागमन बंद, लोगों का आना-जाना भी बंद। खैर, जैसे तैसे हम सब जाम से बाहर निकले और सामने शैलेन्द्र जी को देखा। उन्होंने बताया कि चूंकि वह जिस ऑटो से आ रहे थे वह खराब हो चुकी थी और उसके बनने के कोई आसार नही थे। सब लोग रास्ते में ही फंसे हुए थे तो उन्होंने यात्रा में शामिल होने के लिए एक ट्रक वाले से लिफ्ट मांगी और उसी ट्रक में बैठकर यहां तक पहुंच गए। बाद में पता चला कि बाकी साथी भी दूसरी गाड़ी डाल्टेनगंज से मंगवा कर गढ़वा पहुंचेंगे लेकिन काफी देर होगी।
बरहाल हमने यात्रा को आगे जारी रखा… चूँकि गढ़वा से और कई साथी जुड़ चुके थे इसीलिए पदयात्रा स्थल पहुंचने के लिए फिर से एक ऑटो बुक की गई मजगांव मोड़ से हम सब अलग-अलग गाड़ियों में सवार होकर खजूरी गांव पहुंचे जहां से पदयात्रा की शुरुआत की जानी थी। जहां से पदयात्रा की शुरुआत की गयी, जो अटौला, खरसोता होते मझिआंव तक गयी। इस बीच रास्ते मे कई पड़ाव मिले जहां रुक कर लोगों से संवाद स्थापित करते हुए, प्रेम और अनुराग का संदेश बांटते, अमन और मोहब्बत के गीत गाते और लोगों के बीच परचा वितरित करते हुए हम आगे बढ़ते गए।
गढ़वा के खजूरी से मझिआंव वाया अटौला का ऐतिहासिक महत्व
सन 1991 में पलामू जिला से कटकर अलग गढ़वा जिले की स्थापना हुई। निचले भूमि पर बसे होने की वजह से जिले का नाम गढ़वा पड़ा ऐसा माना जाता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा से सटा गढ़वा जिला वैसे तो प्राचीन प्राचीन व्यापारिक केंद्र रहा है, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गढ़वा जिले के अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े सामाजिक सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने लोगों में आजादी के प्रति जन जागरूकता पैदा की और समाज को नई दिशा देने का काम किया था।
गढ़वा जिला मुख्यालय से महज 7 किलोमीटर दूरी पर अवस्थित खजूरी गांव में स्थापित लगमा मंदिर (जहां एक साथ कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं और बगल में है कैलाश पर्वत), जो आज भी साझी विरासत का केंद्र बना हुआ है। यहां होने वाला सालाना जलसा धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों का केंद्र है। जिसमें आसपास के कई अलग राज्यों से बड़ी संख्या में लोग आते हैं और शामिल होते हैं। खजूरी गांव के समीप कोकरमा के रहने वाले देवराज तिवारी को लोग आज भी सम्मान के साथ देखते हैं। जिन्होंने आजादी के बाद भारत सरकार में सीनियर IAS के बतौर कई वर्षों तक अपनी सेवा दीं और स्थानीय स्तर पर विकास की कई योजनाओं को मूर्त रूप दिया और लोगों के उत्थान में बड़ी भूमिका निभाई।
खजूरी गांव पहुंचने पर युवाओं की एक बड़ी टोली सांस्कृतिक जत्था की राह देख रही थी, चूँकि सड़क जाम और गाड़ी खराब होने की वजह से हमें निर्धारित समय से 2 घंटा देर हो चुकी थी। स्थानीय युवाओं की टोली ने राहुल सिंह के नेतृत्व में जत्था में शामिल कलाकारों और अन्य लोगों का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। इनमे शामिल थे मोहन सोनी, अनिल चौधरी, अनिल कुमार यादव, अनुज यादव, रमन पासवान, छोटू पासवान, मनीष राम, श्यामगंगा आदि। युवाओं ने इस गांव की विशेषता और इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के बारे में जानकारी साझा की। जिसके बाद हम सब ने सड़क के किनारे स्थित सरकारी विद्यालय के बच्चों के साथ संवाद स्थापित करते हुए सांस्कृतिक जत्था के उद्देश्यों के बारे में बताया। इप्टा के कलाकारों ने कबीर के गीत ‘जरा धीरे गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाले’ प्रस्तुत किया और फिर आगे की ओर रवाना हुए।
पदयात्रा के दौरान बीच रास्ते में मिला अटौला गांव, जहाँ अटौला और क्रांतिकारी एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द की तरह जाने जाते हैं। पलामू के निवासी लेखक और पत्रकार प्रभात मिश्रा सुमन ने अपनी पुस्तक ‘पलामू के क्रांतिकारी’ और गढ़वा जिले के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ रमेश चंचल ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वा का इतिहास’ में पटोला गांव की चर्चा विशेष रूप से की है ।
दरअसल 1942 की क्रांति के समय ही अनंत चतुर्दशी का त्योहार आया था। इस गांव में भी उत्साह के साथ उत्सव मनाया जा रहा था। क्रांतिकारियों के नेता यदुनंदन तिवारी, देवराज तिवारी और इंद्रजीत तिवारी भी उस दिन गांव में थे। अंग्रेज इन्हें पकड़ने की कोशिश में एक बार असफल हो चुके थे। सोन नदी के रास्ते से आ रहे सिपाही, मल्लाह और अन्य ग्रामीणों की सूझबूझ से गांव तक पहुंच ही नहीं पाए थे। इस असफलता के बाद पुलिसकर्मी बौखला गए थे। जब उन्हें पता चला कि ये तीनों क्रांतिकारी अनंत चतुर्दशी के मौके पर गांव में रहने वाले हैं तो उन्होंने इन्हें छल से पकड़ने की साजिश रची। इन्हें नहाते समय और दूसरी जगह पकड़ लिया। इन्हें पहले नजदीक के थाने में लाया गया फिर डालटनगंज जेल में भेज दिया। यहां से सजा सुनाने के बाद ये हजारीबाग जेल में काफी समय तक रखे गए। ये तीनों तो आपस में रिश्तेदार थे ही, जिले के एक अन्य बड़े क्रांतिकारी जगनारायण पाठक भी इनके संबंधी थे। पाठक जी की ननिहाल भी अटौला में ही थी।पदयात्रा के दौरान इन गांवों में जाना और यहां के क्रांतिकारियो के बारे में जानना-समझना और लोगों को बताना काफी सुखद अनुभव रहा।
एक दिनी पदयात्रा का आखिरी पड़ाव था मझिआंव। मझिआंव का नाम संभवत मछुआरों के गांव के रूप में जाना जाता रहा होगा। हालांकि इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है यह एक कयास मात्र है, क्योंकि कोयल नदी के तट पर बसा हुआ मझिआंव, कोयल नदी के द्वारा सिंचित एक समृद्ध गांव के रूप में जाना जाता है। यहां जन्मे शंभू नाथ प्रवासी जी ने हिंदी के एक प्रखर विद्वान और गीतकार के रूप में ख्याति प्राप्त की। इस सांस्कृतिक जत्था में प्रवासी जी को याद किया जाना इसलिए जरूरी है कि अपने समय की साहित्यिक यात्राओं के दौरान इलाहाबाद में सुमित्रानंदन पंत के साथ उन्होंने कई महीने गुजारे और देश के बड़े-बड़े मंचों पर काव्य-पाठ किया। वे अपनी मधुर गीतों से सबका मन मोह लिया करते थे। जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने संन्यास आश्रम को अंगीकार किया और गढ़वा चेतन स्थित ब्रह्म विद्यालय आश्रम बनाकर बाकी का जीवन वहीं व्यतीत किया। उनका आश्रम अभी भी संचालित हो रहा है। पदयात्री समयाभाव के कारण वहां तक नहीं पहुंच सके लेकिन उन्होंने अपना वहाँ संदेश जरुर पहुंचाया।
गांव के मुहाने पर ही अंबेडकर की प्रतिमा दिखलाई पड़ी। हम सब वहां रुके। स्थानीय ग्रामीणों को इकट्ठा किया, जिनमें अधिकांश महिलाएं ही थीं । सांस्कृतिक जत्था के बारे में बताया। उनसे उनकी राय और वर्तमान हालात के बारे में बातचीत की।
बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य समस्याओं के बारे में ग्रामीणों ने खुलकर बातचीत की। सबों ने इस बात को समझा कि प्रेम ही शाश्वत है। प्रेम के बिना ना तो जीवन संभव है और न ही समाज। चाहे हिंदू हो या मुसलमान, चाहे ब्राह्मण हो या दलित, सब के बीच प्रेम है तभी हम सब एक हैं। लोगों ने इस बात को स्वीकार किया कि गांव में अभी भी लोगों में प्रेम बरकरार है। कुछ लोग हैं जो नफरत फैलाना चाहते हैं, हमें आपस में लड़ना चाहते हैं, उन लोगों को प्रेम का पाठ पढ़ना होगा।
पड़ाव के आखिर में मझिआंव मुख्य बाजार में एक नुक्कड़ सभा की गई। जहां पदयात्रा में शामिल संजय तिवारी, अशर्फी चंद्रवंशी, धर्मेंद्र सिंह, राहुल सिंह, शैलेंद्र कुमार और प्रेम प्रकाश आदि पदयात्रियों ने अपने अनुभव साझा करते हुए समाज में पनप रहे नफरत के खिलाफ प्रेम के महत्व को बतलाया। मौजूदा दौर में नफरत की राजनीति के जरिए लोगों में घृणा, हिंसा और वैमनस्य पैदा करने वालों की पहचान कर इसके खिलाफ प्रेम, अहिंसा और सद्भाव की संस्कृति विकसित करने की अपील की, ताकि हम सबके लिए बेहतर और सुंदर दुनिया बना सके। यह सांस्कृतिक जत्था भी इसी की एक कोशिश है, जहां हम सब मिलकर ढाई आखर प्रेम को पढ़ने और पढ़ाने आए हैं, भारत से नफरत का हर दाग मिटाने आए हैं।