(हमारे देश के हरेक प्रदेश के अलग-अलग अंचल में हमें विविधता के दर्शन होते हैं। बिहार में 07 अक्टूबर 2023 से चल रही इस पदयात्रा में विभिन्न गाँवों में विभिन्न प्रकार के लोग मिल रहे थे। लेकिन इन गाँवों में पदयात्रियों को एक समान भावना और अनुभव यह मिला कि यहाँ हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच भाईचारा बना हुआ है। नफ़रत की आँधी के झोंकों का प्रभाव इस क्षेत्र में उस तरह से नहीं दिखाई दिया। ग्रामीणों से चर्चा के दौरान जो बार-बार ज़िक्र मिलता रहा कि इस क्षेत्र में महात्मा गाँधी का अभी भी अच्छा खासा प्रभाव है। शायद इसीलिए इस सुदूर अंचल में नफरत की ज़हरीली हवा का असर न के बराबर दिखाई देता है।
‘ढाई आखर प्रेम’ की बातें सुनकर लगभग सभी ने समर्थन दिया और बहुत उत्साह से पदयात्रियों का स्वागत किया। पिछली कड़ियों में बिहार राज्य की पाँच दिनों की यात्रा का विवरण पढ़ चुके हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है, छठवें और सातवें दिन की पदयात्रा का विवरण, जिसे लिख भेजा है बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव सत्येंद्र कुमार ने। वे भी इस पदयात्रा के स्थायी पदयात्री थे और हरेक पड़ाव से संबधित तमाम गतिविधियों की रिपोर्ट मुस्तैदी से भेज रहे थे। फोटो और वीडियो दिनेश शर्मा और निसार अली द्वारा लिए गए हैं, जिससे समूचे अंचल की आँखों देखी तस्वीर और चलचित्र सभी के लिए उपलब्ध हो रहा है।)
12 अक्टूबर 2023 गुरुवार
दिनाँक 12 अक्टूबर को जत्थे ने सपही गाँव से आगे की ओर प्रस्थान किया। यह जत्था आपसी प्रेम, शांति और सौहार्द्र का उत्सव है, जो दुनिया में व्याप्त नफरत, अविश्वास की भावना के जवाब में हम संस्कृतिकर्मियों और ज़िम्मेदार नागरिकों की एक ज़रूरी पहल है। यह यात्रा इस समर्पण के साथ क्षेत्र के लोगों से मिल रही है, वहाँ की आर्थिक स्थिति, लोगों की रोज़ की समस्याएँ, आपसी भाईचारे आदि पर उनसे विचारों का आदान-प्रदान कर रही है। ग्रामीण पिछड़े इलाके में रहते हुए भी लोग दुनिया में हो रहे युद्धों को लेकर भी चिंतित हैं। कुछ पढ़े-लिखे बेरोज़गार युवाओं से बात करने पर वे बताते हैं कि ‘चंद मजबूत और ताकतवर देश कमज़ोर देशों को समाप्त कर देना चाहते हैं। चारों ओर युद्ध की विभीषिका से दुनिया त्रस्त है। इज़राइल द्वारा जिस तरह ग़ज़ा पट्टी पर हमले कर फिलीस्तीनी लोगों को खत्म करने की कोशिश की जा रही है, वह नितांत चिंताजनक है। हम आप लोगों के जत्थे के उद्देश्यों के साथ खड़े हैं। हम सब भी युद्ध और हिंसा की दुनिया नहीं चाहते। हम युवा हैं लेकिन हमारे सपनों को कुचला जा रहा है। रोज़गार, नौकरी नहीं है। पढ़-लिखकर भी यूँ ही छोटे-छोटे काम करके किसी तरह सिर्फ साँस भर ले पा रहे हैं।’
सपही से जत्था निकलने से पहले वहाँ के निवासी शंभु सहनी ने कहा कि सपही बाजार में जहाँ रात में जत्थे ने अपने गीत-संगीत का कार्यक्रम किया था, वहाँ एक कुआँ है, जिसका पानी ज़हरीला था। पुरखे कहते हैं कि जब अंग्रेज़ उधर से गुज़रते थे और पानी माँगते थे तो गाँव के लोग उसी कुएँ का पानी उन्हें देते थे। उस पानी को पीने के बाद बचने की संभावना नहीं रहती थी। इस तरह हमारे पूर्वज हर तरीके से अपना विरोध प्रकट कर रहे थे। सामने से लड़कर भी, साथ ही साथ जैसे भी मौका मिले। आज भी वह कुआँ मौजूद है। शंभु सहनी का कहना है कि इस कुएँ को ‘तितहवा इनार’ कहते हैं। उन्होंने एक गीत के द्वारा इसे बताया,
मत मुअ मत माहुर खा
मरे के होखे तो सपही जा।
यह हमारे पूर्वज बताते थे। यह विश्वास आज भी इस इलाके में मौजूद है। आज भी सपही विकास की बाट जोह रहा है। काफी सरकारी लूट है। गरीबों की संख्या बहुत अधिक है। धार्मिक कर्मकांड बहुत ज़्यादा है। शिक्षा का स्तर बहुत ख़राब है। दिखाने के लिए विकास है मगर बहुत कम लोगों तक उसकी पहुँच है। यहाँ भी अंग्रेज़ नील की खेती कराते थे और रैयत का शोषण-दमन भी करते थे।
12 अक्टूबर को जत्थे का पहला पड़ाव था सपही वेरेतिया (वॉर्ड नं. 5)। वहाँ के चौक पर जत्थे के उद्देश्य
प्र ग्रामीणों से चर्चा की गई। जत्थे के सभी साथियों ने मिलकर हिमांशु के नेतृत्व में गीत गाया, ‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं’। उसके बाद दूसरा गीत था, ‘गंगा की कसम, यमुना की कसम, ये ताना बाना बदलेगा, तू खुद को बदल, तू खुद को बदल, तब तो ये ज़माना बदलेगा।’
आगे जत्था बनारसी चौक (चैलहाँ) जाकर रूका। वहाँ दोपहर के भोजन के बाद जत्था आगे बढ़ा। अरविंद कुमार सिंह (अजगरी) तथा कुमार मनोज सिंह (पचरुखा) पश्चिमी का (मुखलिसपुर) जत्थे का नेतृत्व कर रहे थे। अरविंद जी पूर्व मुखिया रहे हैं। उन्होंने बहुत सम्मान के साथ जत्थे का स्वागत किया एवं रास्ते भर परिचय कराते हुए पदयात्रा को खुशगवार बनाए रखा।
यहाँ से जत्था रवाना होकर बतख मियाँ की मज़ार पर पहुँचा। मस्जिद की बगल में मज़ार है। (बतख मियाँ के बारे में बताया गया कि जब गांधी जी मोतिहारी आए थे, उन्हें अंग्रेज़ों द्वारा दूध में ज़हर देकर मारने का षड्यंत्र रचा गया था। यह बात बतख मियाँ ने सुन ली। सुनकर पहले तो वे जार-जार रोए, मगर उसके बाद उन्होंने जाकर गांधी जी को यह बात बताई और दूध पीने से मना कर दिया। गांधी जी ने उपवास की बात कहकर दूध पीना टाल दिया और उनकी जान बच गई। अगर गांधी नहीं बचते तो स्वतंत्रता नहीं मिलती, क्षेत्र में अभी भी यह विश्वास दृढ़ है। इस घटना के अनेक प्रकार के विवरण लोगों द्वारा सुनाए जाते हैं। जत्थे के साथियों ने इन बातों को कई जगह रिकॉर्ड किया है।)
वहाँ मो. हाजी हुसैन अंसारी साहब काजी तथा मौलाना सलाउद्दीन रिज़वी इमाम साहब से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि बतख मियाँ के चिन्हों को मिटाने की हरचंद कोशिश की जा रही है। बतख मियाँ के पोते हैदर अंसारी आज भी गाँव में रहते हैं। उनके पास ज़मीन तक नहीं है। उनका बेटा साबिर अली विकलांग है। नवाज़न खातून उनकी पत्नी है। यह परिवार बतख मियाँ के भाई का है। उनका अब कोई परिवार नहीं है। लोगों ने बताया कि अब यहाँ से बतख मियाँ की यादों को भी मिटाया जा रहा है। कई जगहों से शिलापट हटा दिये गये हैं। अजगड़ी गाँव के लोगों ने आज भी गांधी जी और बतख मियाँ अंसारी की यादों को उसी तरह सँजोकर रखा है। लोकस्मृतियों में ही पूरा इतिहास सुरक्षित है।
आज भी कुछ बुजुर्ग कहते हुए मिले कि हमारे नेता आज भी गांधी जी ही हैं। कुछ लोग गांधी जी और बतख मियाँ के सपनों का भारत बनाने में हमेशा अड़चन पैदा करते रहे हैं। हमारा देश अनेक संस्कृतियों, जातियों का मजमुआ है। उसे हम किसी भी कीमत पर नष्ट नहीं होने देंगे। यह देश सबको जीने का एकसमान अधिकार दे, इसी के लिए हम सबको मिलकर लड़ना है। यह गाँव पूरी तरह मुस्लिम बहुल गाँव है। जिस तरह से वह पूरे राष्ट्रीय आंदोलन से उपजे एकता को बचाने के लिए कृतसंकल्प है, उससे सभी को सबक लेना चाहिए।
फिर जत्था सिसवा पहुँचा। रास्ते में बाजार मिला, वहाँ लोगों से सम्पर्क करते हुए जत्था आगे बढ़ता गया। रात उतर रही थी। लोग धीरे-धीरे गाते-बजाते रात्रि विश्राम की जगह सिसवा पहुँचे। यहाँ के पंचायत भवन में रूकने की व्यवस्था की गई थी। सिसवा में पूर्व विधायक रामाश्रय प्रसाद सिंह, अमीरुल हुदा, ज़फीर आज़ाद चमन, जो मंजरिया प्रखण्ड के प्रमुख हैं, आदि ने अपने अन्य साथियों के साथ पूरे जत्थे का इस्तकबाल किया। थोड़ी देर रूककर, सामान वगैरह रखने के बाद जत्था लगभग साढ़े सात बजे कपहरिया टोला सिसवा चौक पर पहुँचा। यहाँ पहले से ही लोग इकट्ठे थे। जत्थे के आगमन की सूचना उन्हें पहले से ही थी। बहुत उत्साहवर्द्धक माहौल था। यह भी मुस्लिमबहुल क्षेत्र है। यहाँ भी आपसी एकता देखते बनती थी।
कार्यक्रम की शुरुआत ‘जोगीरा’ से हुई। पीयूष के शुरुआत करते ही पूरी टीम उनके साथ गाने लगी, ‘ओ जोगीरा सरर … रर… र. र’ पर लोग झूम रहे थे। फिर रितेश ने लोगों के बीच अपनी बातें रखीं और जत्थे के महत्व पर लोगों से बातचीत भी की। उसके बाद इप्टा के राष्ट्रीय सचिव शैलेन्द्र ने लोगों को संबोधित किया। उन्होंने बताया कि, यह गांधी जी, भगत सिंह की विरासत को बचाने का समय है और आज हम जहाँ खड़े होकर बातें कर रहे हैं, यह पूरा क्षेत्र गांधी जी और किसानों-मज़दूरों की एकता का एक मिलन बिंदु रहा है। यह गांधी जी और उनके कई साथियों का कर्मक्षेत्र रहा है। आज उस भूमि को, हमारे मुल्क को घृणा का अखाड़ा बनाया जा रहा है। पहले जब मैं बच्चा था तो एक भजन सुनता था, ‘मन तड़पत हरि दरशन को आज’, इसे गाया मोहम्मद रफी ने, लिखा शकील बदायूँनी ने और संगीतकार थे नौशाद। इन्होंने सभी दूरियाँ खत्म कर दीं। यह मुल्क बनते बनते बना है। अमीर खुसरो, सूफियों-संतों की लम्बी परम्परा, गालिब, मीर, निराला, कालिदास सभी से गुज़रकर यह गुलिस्तां बना है। स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह और गांधी जी में कुछ वैचारिक भिन्नता थी, उनके तरीके कुछ अलग थे; लेकिन दोनों एक साथ देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। सिर्फ़ आज़ादी ही नहीं, बराबरी, समानता के साथ आज़ादी, मज़दूरों-किसानों की आज़ादी, महिलाओं को सामंती शिकंजे से आज़ादी! दोनों देश को एक सेक्यूलर देश देखना चाहते थे। हम उन्हीं के असली वारिस हैं। हम उन संघर्षों और सपनों की रक्षा करने, आपके साथ जुड़ने के लिए यहाँ आए हैं। गांधी जी के पास नैतिक ताकत थी। हम मोहब्बत का पैग़ाम लेकर आपके पास आए हैं।
फिर एक बार गीत की शुरुआत की लक्ष्मी प्रसाद यादव ने – ‘सोनेवाले जाग समय अंगड़ाता है’। उसके बाद उन्होंने दूसरा गीत सुनाया, ‘बढ़े चलो जवान तुम बढ़े चलो, बढ़े चलो।’
पूर्व विधायक रामाश्रय प्रसाद सिंह ने अपनी बातें रखते हुए कहा, यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, हम नए पौधों को देख रहे हैं। उन्हें देख यह विश्वास बढ़ा है कि अभी भी भविष्य सुरक्षित है। जब तक बच्चे एक सुर में एक साथ रहने का प्रण लेते हैं, तब तक हमें कोई परास्त नहीं कर सकता। इसके बाद लक्ष्मी प्रसाद यादव ने फिर एक गीत सुनाया,
‘कैसे जइबै गे सजनिआ पहाड़ तोड़े ला हे
हमर अंगुरी से खूनवा के धार बहेला।’
साथी रितेश ने उपस्थित लोगों से जत्थे में शामिल होने की अपील की। उसके बाद प्रमुख चमन जी ने कहा कि, ढाई आखर प्रेम का उद्देश्य आप सब जानते हैं। आप कितना भी विकास क्यों न कर लें, अगर प्रेम और विश्वास नहीं तो ऐसे विकास का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह गांधी जी की कर्मभूमि रही है और उन्होंने हमें प्रेम और त्याग का पाठ पढ़ाया है। हम अपनी बहुसांस्कृतिक पहचान को लेकर ही सुंदर दिखते हैं।
निसार अली और देवनारायण साहू ने छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य नाचा-गम्मत शैली में ‘ढाई आखर प्रेम’ नाटक प्रस्तुत किया। दर्शकों का उत्साह देखते बनता था। स्थानीय लोगों के लिए नाचा-गम्मत बिल्कुल नया था, फिर भी लोगों ने खूब लुत्फ़ उठाया। बच्चे कूद रहे थे इतना उत्साह था। नाटक के बीच बीच में कबीर, रहीम के दोहे, अदम गोंडवी की ग़ज़लें भी प्रस्तुत की जा रही थीं।
‘प्रेम न बाड़ी में उपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जे ही रुचै, सीस देई ले जाए।’
फिर हिमांशु और साथियों ने गीत प्रस्तुत किया,
ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं
हम भारत से नफ़रत का हर दाग़ मिटाने आए हैं।
‘ढाई आखर प्रेम’ बिहार राज्य के सांस्कृतिक कार्यक्रम का यह छठवाँ दिन था।
13 अक्टूबर 2023 शुक्रवार
‘ढाई आखर प्रेम’ पदयात्रा का बिहार में आज सातवाँ दिन है। 13 अक्टूबर की सुबह जत्था सिसवा पूर्वी पंचायत में रात्रि विश्राम के बाद प्रभात फेरी के रूप में निकल पड़ा। इस दौरान ग्रामीणों के साथ संवाद किया गया। यहाँ से अपने अगले पड़ाव सुरहा के लिए जत्था चल पड़ा। जत्थे के साथियों ने ‘गंगा की कसम यमुना की कसम, ये ताना बाना बदलेगा। तू खुद को बदल, तू खुद को बदल, तब तो ये ज़माना बदलेगा।’ गाते हुए यात्रा की शुरुआत की। जत्थे के सभी साथियों के चेहरे पर विश्वास था कि यह दुनिया, यह वक्त चाहे कितना ही बुरा क्यों न दिखाई दे या इस दुनिया को बदरंग करने की जितनी भी कोशिशें क्यों न की जाएँ; लेकिन हम जन-जन तक, लोगों के बीच पहुँचकर अपनी सांस्कृतिक विरासत की कथा कहते रहेंगे।
हमारा जो बहुरंगी ताना बाना है, उसे बचाने के लिए हम कृतसंकल्प हैं। जत्थे के सभी साथियों ने, चाहे वे युवा हों, बुजुर्ग हों, सबके कदम एक साथ उठ रहे थे उसी जोशखरोश के साथ। कहीं थकावट के चिह्न नहीं। सबमें एक विश्वास और उत्साह, कि हिंसा और घृणा की ताक़तें चाहें जितनी मजबूत हों, हमारी एकता, हमारा भाईचारा, परस्पर प्रेम हमें एक बेहतर दुनिया बनाने से नहीं रोक सकते।
जत्था अपने अंतिम पड़ाव मोतिहारी की तरफ़ बढ़ रहा था अपने बापू की कर्मभूमि की ओर। यूँ तो यह पूरा क्षेत्र ही बापू के पदचिह्नों का अहसास दिलाता है। यहाँ की मिट्टी में बापू के त्याग और बलिदान की की सुगंध है। आज भी हर गाँव गांधी को ही अपना सब कुछ मानता है। ग्रामीणों ने कहा कि हमने ईश्वर को नहीं देखा है, न जानते हैं, लेकिन हमारे देश ने कई ऐसे लोगों को पैदा किया, जिन्होंने जन-जन तक मुस्कुराहट फैलाने और आपसी एकता को एक सूत्र में बाँधने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। लोगों में आज भी विश्वास है कि गांधी जी, भगत सिंह जैसे लोग उनके बीच हैं। आदमी के मर जाने भर से विचार ख़त्म नहीं होते, वह दुनिया ख़त्म नहीं होती, जिसका संकल्प लेकर लोग आगे बढ़ते हैं। हमारे देश में कबीर, रहीम, गुरु नानक, बुल्ले शाह जैसे संत-फकीरों के गीत से सुबह होती है। उनके प्रेम की वाणी हर व्यक्ति के भीतर व्याप्त रहती है। यह फ़कीरों, देशप्रेमियों का देश है। हर संकट से उबरकर खड़ा होना जानता है।
‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक जत्था सिसवा से चलता हुआ लोगों से मिलते हुए सुरहाँ गाँव पहुँचा। यहाँ जत्थे के साथियों ने हरिहर प्रसाद, बाबूलाल महतो, खेदू महतो से बातचीत की। वे सब मज़दूर हैं। उन्होंने कहा कि हम सब आपकी यात्रा का पूर्ण समर्थन करते हैं। अगर देश में हर कोई इसी प्रेम को फैलाने का प्रण ले ले तो आतताई तुरंत समाप्त हो जाएंगे। उन्होंने कहा, हमारा गाँव बहुत गरीब है। पूरे गाँव की जनसंख्या 1200 के करीब है, लेकिन 4-5 लोग ही नौकरी में हैं। ज़्यादातर लोग मोतिहारी शहर जाकर जीवनयापन के साधन ढूँढ़ते हैं। हमारे पास जो थोड़ी ज़मीन है, उसी पर गेहूँ, धान, मकई, गन्ना आदि से जीवनयापन करते हैं। यहाँ हर वर्ष बाढ़ आती है लेकिन दो वर्षों से नहीं आ रही है इसलिए धान हो रहा है। जब बाढ़ आती है तो लोग सुरक्षित जगहों पर अपने जानवरों और घर के कुछ सामान, जो वे बचा सकते हैं, ले कर चले जाते हैं। यहाँ एक मिडिल स्कूल है जहाँ बच्चे पढ़ने जाते हैं। एक विशेषता है हमारे गाँव की कि, हम मिलजुलकर रहते हैं। सभी एकदूसरे की मदद करते हैं। हमारे पास आपसी मदद के सिवा है भी क्या?? अगर हम अपना भाईचारा, प्रेम भी भूल जाएँ तो रहेंगे कैसे?
जत्थे के युवा साथियों को एक नई दुनिया पहली बार दिख रही थी। जो दुनिया शहरों में दिखती है, जो जगमगाहट दिखती है, उसके लिए गाँवों को अपना बलिदान देना पड़ता है।
फिर जत्थे ने आगे मोड़ पर बरगद के पेड़ के नीचे कार्यक्रम की शुरुआत की। तभी रामदेव गिरी, जो चलने में बिल्कुल लाचार थे, लाठी के सहारे किसी तरह कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। कुछ लोगों ने पानी लाकर दिया। गाँव की लड़कियाँ कुर्सियाँ निकालकर दे रही थीं। जिनके पास जो कुछ था, वह साथियों को देकर अपनी एकजुटता प्रदर्शित कर रहे थे। वे गरीब लोग थे, सीमित साधनों वाले लोग थे, बिचौलिए लोगों की मार से मारे गए लोग थे। लेकिन उनकी जिजीविषा और प्रेम के प्रति समर्पण नई आशा जगाती है।
स्थानीय लोगों ने चौक पर खड़े होकर कार्यक्रम को देखा और बहुत पसंद किया। प्रस्तुतियों के बाद रितेश रंजन ने लोगों को ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक पदयात्रा के बारे में जानकारी दी। उसके बाद शिवानी और साथियों ने गीत गाया, ‘‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं, हम भारत से नफरत का हर दाग़ मिटाने आए हैं’। दूसरा गीत भी प्रस्तुत किया गया, ‘गंगा की कसम यमुना की कसम, ये ताना बाना बदलेगा। तू खुद को बदल, तू खुद को बदल, तब तो ये ज़माना बदलेगा।’ निसार अली ने अपने संबोधन में कहा, हम दूर से चलकर आए हैं, एक संदेश लेकर आए हैं। यह बाजार का समय है, यह खरीदने-बेचने का समय है। ऐसे में हमें बाजार का विकल्प ढूँढ़ना है। वह बाजार, जो मनुष्य को, उसकी कला को एक कमोडिटी या उपभोक्ता वस्तु में बदल देता है।
जत्था वहाँ से निकलकर शाम 6 बजे मोतिहारी शहर से गुज़रकर एनसीसी कैम्पस राजा बाजार पहुँचा। यहाँ शाम को नुक्कड़ पर कार्यक्रम हुआ। सबसे पहले जत्थे के बुजुर्ग साथी गायक राजेन्द्र प्रसाद ने गीत सुनाया, ‘लिहले देसवा के अजदिया, खदिया पहिन के जी’, दूसरा गीत भी उन्होंने प्रस्तुत किया, ‘हमरा हिरा हेरा गइल कचरे में’।
उसके बाद निसार अली और देवनारायण साहू ने ‘ढाई आखर प्रेम’ छत्तीसगढ़ी नाटक प्रस्तुत किया। उसके बाद ‘राहों पर नीलाम हमारी भूख नहीं हो पाएगी, अपनी कोशिश है कि ऐसी सुबह यहाँ पर आएगी’ सुनाया।
इप्टा के राष्ट्रीय सचिव शैलेन्द्र कुमार ने महात्मा गांधी के कथन को उद्धृत करते हुए कहा, बापू अपने आप को हिंदू मानते थे और इस बात को वे खुलकर कहते थे। मगर वे बार बार यह भी कहते थे कि मैं अपने आप को केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि ईसाई, मुसलमान, यहूदी, सिख, पारसी, जैन या किसी भी अन्य धर्म-सम्प्रदाय का अनुयायी मानता हूँ। इसका मतलब यह है कि मैंने अन्य सभी धर्मों और सम्प्रदायों की अच्छाइयों को ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार मैं हर प्रकार के झगड़े से बचता हूँ और धर्म की कल्पना का विस्तार करता हूँ। यह बात उन्होंने 10 जनवरी 1947 को कही थी। यानी एक धर्म को मानने का यह मतलब नहीं होता कि हम दूसरे धर्मों के खिलाफ हो जाएँ। हमें साथ-साथ रहना है तो परस्पर प्रेम से जीना होगा।
उल्लेखनीय है कि 14 अक्टूबर को मोतिहारी में इस ‘ढाई आखर प्रेम’ बिहार जत्थे की पदयात्रा का समापन होना है, इसलिए रितेश रंजन ने सभी लोगों को समापन कार्यक्रम में आने का निमंत्रण दिया। बिहार इप्टा के कार्यवाह महासचिव फिरोज़ अख़्तर खान ने बताया कि समापन में बात होगी बंधुत्व की, बात होगी बराबरी की, बात होगी ढाई आखर प्रेम की। इसके बाद पदयात्रा मोतिहारी शहर पहुँची। 14 अक्टूबर 2023 को दोपहर 02 बजे गांधी संग्रहालय मोतिहारी में समापन कार्यक्रम आयोजित किया गया है।