इप्टा की स्थापना के पूर्व से की गयी सांस्कृतिक यात्राओं की विरासत को उत्तर प्रदेश इप्टा ने 1989 से 1999 के बीच अनेक चरणों में आगे बढ़ाया। प्रत्येक यात्रा को किसी न किसी उद्देश्य पर केंद्रित किया गया था। पहली यात्रा थी 1993 में ‘पदचीन्ह कबीर’, जो काशी से मगहर तक की गयी। दूसरी यात्रा 1995 में ‘नज़ीर पहचान यात्रा’ थी, जो आगरा से दिल्ली तक संपन्न हुई। उसके बाद ‘स्त्री-अधिकारों’ पर केंद्रित ‘आधी आबादी का सफरनामा’ के पहले चरण के अंतर्गत चार यात्राओं का सफर पूरा किया गया। अप्रेल-मई 1997 में संपन्न की गयी इन यात्राओं के क्रम में पहली यात्रा – ‘प्रेमचंद जन-जागरण यात्रा (06 से 09 अप्रेल 1997) की रिपोर्ट इस कड़ी में प्रस्तुत है। यह रिपोर्ट इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष राकेश ने उपलब्ध करवाई है , इसे तैयार किया था अखिलेश दीक्षित ने। उम्मीद है कि ये सांस्कृतिक यात्राएँ आगामी 28 सितम्बर 2023 से अलवर राजस्थान से आरम्भ होने वाली ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक पदयात्रा के लिए वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार नई दिशाएँ तलाशने की प्रेरणा देंगी। – उषा वैरागकर आठले )
चुपाई मारो दुलहिन मारा जाई कौवा
सवाल – आप लोग क्या करती हैं?
जवाब – कुछ नहीं करती हैं…
सवाल – कुछ नहीं करतीं? घर का काम कौन करता है?
जवाब – और कौन करेगा, हम करती हैं। बच्चे पालना, खाना बनाना, लीपना-पोतना, कण्डे थापना, बर्तन माँजना…
सवाल – खेती में हाथ बँटाती हैं?
जवाब – हाँ, गुड़ाई, कटाई, रोपाई और सभी काम हम करती हैं। बस, हल नहीं चलातीं। (संभवतः कुछ धार्मिक अंधविश्वासों के कारण ऐसा है वरना हम यह काम भी करतीं।)
सवाल – इतने काम करती हैं और कह रही हैं कि कुछ नहीं करतीं…
जवाब – (दबे स्वर में) अरे मेहनत वाला काम तो मरद करते हैं।
यह संवाद समाज में औरतों की स्थिति, उनके अधिकारों और चेतना के सवाल पर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) द्वारा आयोजित विभिन्न जन-जागरण सांस्कृतिक यात्राओं की पहली कड़ी प्रेमचंद यात्रा के दौरान हमारी साथी पत्रकार शहीरा नईम से गोरखपुर जिले के बारी गाँव में औरतों के साथ बातचीत का एक नमूना है, जो अपने ही काम के प्रति उदासीनता, उनकी मनःस्थिति को उजागर करता है।
इस पूरे आयोजन की शुरुआत 06 अप्रेल 1997 को हुई, जब 30-35 सदस्यीय इप्टा के कलाकारों का दल लखनऊ से चलकर गोरखपुर पहुँचा, जहाँ प्रेमचंद पार्क में ‘सामाजिक बदलाव और परिवार’ विषय पर संगोष्ठी आयोजित की गयी थी। जाने-माने लेखक, पत्रकार, आलोचक परमानंद श्रीवास्तव की अध्यक्षता में आयोजित इस संगोष्ठी में जनवादी लेखक संघ के गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, प्रगतिशील लेखक संघ के बादशाह हुसैन रिजवी, राकेश, गोरखपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष सहित तमाम वक्ताओं ने अपने विचार रखे। इसी स्थान पर रवि नागर, राकेश सिंह, राजू, दिनेश शर्मा, वेदा राकेश व अन्य साथियों ने ‘कबीरा भला हुआ’ तथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत ‘चुपाई मारो दुलहिन मारा जाई कौवा’ प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के अंत में प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘ब्रह्म का स्वांग’ प्रस्तुत किया गया। रमेश उपाध्याय के नाट्य रूपान्तर और जुगल किशोर के निर्देशन में प्रस्तुत इस नाटक में पुरुष प्रधान समाज के दोहरे मानदंडों को दर्शाया गया है। वेदा राकेश, सुखेन्दु मंडल, ओ पी अवस्थी व अन्य कलाकार साथियों के अभिनय ने नाटक में उठाए गए सवालों को सफलतापूर्वक सम्प्रेषित किया।
07 अप्रेल 1997 को पहला पड़ाव था उच्च प्राथमिक विद्यालय तथा कन्या क्रमोत्तर प्राथमिक विद्यालय। वैसे तो यह स्थान पूर्व निश्चित कार्यक्रम स्थलों में नहीं था, पर वहाँ के प्रधानाचार्य श्री राम बहुलराम त्रिपाठी व सभी अध्यापकों के सहयोग व छात्र-छात्राओं की इच्छा को देखते हुए पूरे दल ने स्कूल के प्रांगण में जन नाट्य मंच के नाटक ‘औरत’ और बाबा नागार्जुन का गीत ‘मेरी भी आभा है इसमें’ प्रस्तुत किया। यहाँ एक बात बड़ी अजीब-सी लगी कि नाटक के दौरान जहाँ हँसने वाला प्रकरण आया, लड़के तो बहुत ज़ोर से हँसे, पर लड़कियों के चेहरों पर वही सन्नाटा। पूछने पर तमाम लड़कियों ने एक ही जवाब दिया – ‘मन में हँसे थे’! खुलकर हँसने पर भी प्रतिबंध लगा है। तमाम आर्थिक और सामाजिक विपदाओं के बीच में ऐसे अवसर ही कितने होते हैं, जब कुछ क्षणों के लिए सब कुछ भूलकर सिर्फ खुलकर हँसने का मौका मिले। पर अजीब विडम्बना है कि लड़कियों, औरतों के लिए उस पर भी वर्जनाएँ हैं। लड़कियों का यह जवाब अप्रेल 1993 में इप्टा की ‘पदचीन्ह कबीर’ यात्रा के दौरान हृदयपुर गाँव की उस दोपहर तक फैल गया, जहाँ दर्शकों में लड़कियाँ, औरतें अधिक थीं और जो पुरुषों और बच्चों से थोड़ा हटकर खड़ी थी। उनके समूह में लंबे-लंबे घूँघटों के पीछे पथराई आँखों से झाँकती वेदना से अपने सरोकारों को जोड़कर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का एक गीत हुआ था,
मर्द गँडासा लेकर हो गर रोज खड़ा
चकला घूमे सुने न औरत का दुखड़ा,
जब-जब पानी-सुपारी दे, तब-तब मुँह पर गारी दे
इससे अच्छा डूब मरे गंगाजल में
कह आया राम बुलौवा
चुपाई मारो दुलहिन मारा जाई कौवा…
और आज चार बरसों के बाद खजनी के इस स्कूल में इप्टा के कलाकार बता रहे थे कि इस पूरे समाज की संरचना में तुम्हारा भी योगदान है, सुविधाओं पर तुम्हारा भी अधिकार है और आज़ादी पर भी तुम्हारा हक़ है।
यहाँ से निकलकर इप्टा के कलाकार, पत्रकार, रंगकर्मी, लेखक व मीडियाकर्मी खजनी तहसील के महादेवा बाजार में गीतों व नाटकों के जरिए अपनी बात कहते, जन-जागरण की अलख जगाते हुए दोपहर में बारी गाँव पहुँचे। यहाँ पर वेदा राकेश के निर्देशन में नाटक ‘हिंसा परमो धर्म’ के माध्यम से धर्मेंद्र, राकेश सिंह, दिनेश शर्मा, विजय, उषा, सीमा व अन्य साथियों ने साम्प्रदायिक वैमनस्य और उसके परिणामों को दर्शाया। साम्प्रदायिकता का सवाल सीधे महिलाओं से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि धार्मिक कट्टरता और दंगे, दोनों की ही सबसे ज़्यादा भुक्तभोगी औरतें ही होती हैं। इसी गाँव की औरतों ने कहा – ‘अरे मेहनत वाला काम तो मरद करते हैं, हम कुछ नहीं करतीं।’ लेकिन यह हालत आगे पूरी यात्रा में लगभग सभी स्थलों पर उजागर हुई। महिलाओं में अपने काम को काम न समझना या बेगार मानने की मानसिकता बहुत गहरे तक जमी हुई है।
भारतीय समाज या यदि कहें कि पूरे विश्व में एक औरत ही ऐसी है, जिसका नसीब अलग-अलग धर्मों, क्षेत्रों, जातियों, संस्कृतियों के बावजूद भी कमोबेश एक ही गति को प्राप्त रहता है। वो मानव इकाई होते हुए भी उसकी गरिमा से वंचित है। प्रकृति से मिली अपनी विलक्षण क्षमताओं, साहस और सामर्थ्य के बाद भी वह समाज के तमाम स्वार्थों में ही खत्म हो जाती हैं।
औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा,
जुल्म करने वाला सीनाजोर बनता जाएगा।
राकेश सिंह, रवि, वेदा, विपिन, राजुल, आशु, राजू, उषा, सीमा और साथियों की आवाज़ में सीकरीगंज चौराहे पर गूँजता यह आवाहन गीत जब उरवा बाजार तक पहुँचा, तो वहाँ माध्यमिक शिक्षक संघ के महामंत्री जगदीश पाण्डेय भी यात्रा में शामिल हो गए, जो हमारे साथ कुछ दूर तक रहे।
ढोती थी ईंट वह/किसनपुर की चिमनी पर/
नाम उसका झुनिया था
पाण्डेय जी की कविता के बाद नाटक ‘हिंसा परमो धर्म’ प्रस्तुत हुआ। उरवा बाजार में आज भी खूब भीड़ एकत्रित थी नाटक देखने के लिए। एकदम से इतनी संख्या में दर्शक-श्रोता कहाँ से आ जाते हैं, यह सोचकर सुखद आश्चर्य होता है। अप्रेल 1993 में कबीर यात्रा के दौरान इसी उरवा बाजार में दोपहर के बारह बजे चमकते सूरज के नीचे इप्टा के साथियों ने नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ खेला था। नाटक शुरु करने से पहले लग रहा था, इतनी धूप में कौन देखेगा पौन घंटे का नाटक, परंतु नाटक शुरु होते न होते हज़ारों दर्शक नाटक खेले जा रहे स्थल के चारों ओर जमा हो गए, पता ही नहीं चला।
1989 में लखनऊ से ‘पहचान नज़ीर यात्रा’ और अब इन यात्राओं के दौरान न जाने कितने ही ऐसे अनुभव हैं, जब हज़ारों दर्शकों ने चिलचिलाती धूप या अन्य विषम परिस्थितियों में भी हमारी प्रस्तुतियों को न केवल देखा, वरन उन गीतों, नाटकों से अपनेआप को जोड़कर न जाने कितने सवाल, कितनी चर्चाएँ कीं! उनकी बेलौस बातचीत, दबी-कुचली इच्छाएँ और डरा-सहमा विरोध ही तो है, जो बार-बार अपने बीच बुलाता है और चीख-चीखकर यह बताता है कि ग्रामीण भारत और उसके लोगों को पेप्सी की आज़ादी या कोलगेट की सुरक्षा नहीं चाहिए। वो अपने जीवन, अपने संघर्षों को देखना-सुनना और समझना चाहते हैं और इसके लिए उनके पास अपनी विषम परिस्थितियों के बावजूद समय भी है और अपार सांस्कृतिक भूख भी।
इप्टा की प्रेमचंद सांस्कृतिक यात्रा अब गोला होते हुए घोसी पहुँची, जहाँ मऊ इप्टा के डॉ. जयप्रकाश, श्रीनिवास पाण्डेय निराला और उनके साथियों ने गीत व नाटक ‘ऑक्टोपस’ प्रस्तुत किया। सुबह छै बजे से चल रहा गीतों, नाटकों, वक्तव्यों का यह क्रम आज के अपने अंतिम गंतव्य बड़हलगंज, दोहरी घाट तक आया, जहाँ राकेश व डॉ. जयप्रकाश ने लोगों को यात्रा के उद्देश्य से अवगत कराया। बाद में रवि नागर के स्वर में ‘गाड़ी मेरी रंगरंगीली, पहिया है लाल गुलाब’ तथा नाटक ‘हिंसा परमो धर्म’ से आज के कार्यक्रम का समापन हुआ और सभी लोग डाक बंगले में जाकर कुछ देर के लिए ही सही, संभवतः सो गए; क्योंकि रात के दो बजे थे और डाक बंगले में एक आवाज़ गूँज रही थी, ‘आप लोगों को सुबह छै बजे तैयार होकर बस में बैठ जाना है।’ यह थे लखनऊ इप्टा के महासचिव मुख्तार अहमद। चाहे अप्रेल 1989 की अयोध्या यात्रा हो, अप्रेल 1993 की काशी से मगहर ‘पदचीन्ह कबीर’ यात्रा हो, मार्च 1995 में आगरा से दिल्ली की ‘पहचान नज़ीर’ यात्रा हो, हमारे मुख्तार साहब सभी यात्राओं में पिस्टन की भूमिका में रहते हैं।
सुबह उठकर सूरजपुर, मधुबन, दुबारी, मंझवापारा बाजार, भीटी चौराहा, रोजा मिर्ज़ा, हाजीपुरा में नाटक ‘हिंसा परमो धर्म’ और ‘औरत’ प्रस्तुत करते हुए, जीवन यदु का गीत ‘जब तक रोटी के प्रश्नों पर रखा रहेगा भारी पत्थर’ व सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत ‘चुपाई मारो दुलहिन मारा जाई कौवा’ गाते हुए हमारा कारवाँ खुरहट पहुँचा। अपने निश्चित समय से काफी देर से पहुँचने पर भी श्रोता-दर्शक पूरे धैर्य के साथ प्रतीक्षारत थे। कार्यक्रम हुआ। अब रात के 11 बज चुके थे। आगे मोहम्मदाबाद गोहना पहुँचकर वहाँ इंतज़ार कर रहे दर्शकों के समक्ष इप्टा के कलाकारों ने ‘हिंसा परमो धर्म’ नाटक किया और गीत गाए। रात में लगभग 3 बजे जब सभी लोग लेटे तो गुडनाइट कहते-कहते गुड मॉर्निंग हो गई और सभी लोग बस में तैयार बैठे दिखाई दिये।
मोहम्मदाबाद गोहना से चलकर जब दूसरे दिन सुबह पूरा दल सठियाँव पहुँचा, तो वहाँ नाटक ‘औरत’ मंचित हुआ। इस नाटक में घरेलू स्त्री, श्रमिक स्त्री सभी के रोजमर्रा जीवन की विषमताओं को दिखाया गया है। स्त्रियों की समस्याओं के सवाल पर उनकी तुलना दलितों से की जाती रही है, पर क्या यह सच नहीं है कि औरतों की लड़ाई दलित वर्ग के मर्द की तुलना में ज़्यादा व्यापक है क्योंकि औरतों को अपनी इस लड़ाई में दलित वर्ग के पुरुषों के दमन और शोषण का भी सामना करना पड़ता है।
शाहगढ़ और सिधारी चौक होते हुए यह यात्रा जब आजमगढ़ पहुँची, तो वहाँ पर साथी मोतीराम यादव अपने ‘जोगीरा’ के साथ मिले। जोगीरा पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक लोक गायन शैली है, जो होली के मौसम में गाया जाता था। न जाने इसमें कब अश्लील गालियों का प्रयोग होने लगा और ये गालियाँ होली के हुड़दंग के नाम पर माँ-बहन-भाभियों-बेटियों को ही संबोधित कर दी जाने लगीं। पर हमारे साथी मोतीराम यादव ने फिर से इस गायन शैली में राजनीतिक कुचक्र, साँठ-गाँठ, महिला-उत्पीड़न, दहेज, शोषण, अवसरवादिता जैसे समस्याप्रधान विषयों को शामिल कर विकृत होती इस लोक-परम्परा को गरिमा देने का सफल प्रयास किया है। आजमगढ़ कचहरी पर गीतों व नाटक ‘औरत’ के साथ मोतीराम ने जोगीरा के माध्यम से बताया,
देती जन्म कहाती जननी आँखों में है पानी,
इन्हें जलाने की आखिर कब तक होगी मनमानी
कि माँ की ममता कैसी – जोगीरा सारा रा रा रा…
आजमगढ़ के साथियों ने डाक बंगले पर भोजपुरी गीत गाया। साथ ही लखनऊ इप्टा के कलाकारों ने प्रेमचंद की कहानी पर आधारित नाटक ‘हिंसा परमो धर्म’ मंचित कर साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज़ उठाई। अब बारी थी रानी सराय में कार्यक्रम करने की। वहाँ पहुँचकर आजमगढ़ के साथी हरमंदिर पाण्डेय ने एकत्रित जन-समूह को यात्रा के उद्देश्य से अवगत कराया। गोरखपुर के साथी शाहजाद के ‘धोबिया गीत’ और आजमगढ़ इप्टा के नाटक ‘डंकल’ ने जो संदेश जनता को दिया, उसे मोतीराम के जोगीरा से दोबाला करते सभी कलाकार राजेन्द्र इंटर कॉलेज सेठवा के प्रिंसिपल श्री रम्मन यादव के आमंत्रण पर उनके घर चाय-नाश्ता करते हुए इस चार दिवसीय प्रेमचंद जन-जागरण सांस्कृतिक यात्रा के अंतिम पड़ाव महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जन्म-स्थान पन्दहा की ओर रवाना हुए।
रानी सराय विधानसभा क्षेत्र के इस पन्दहा गाँव में राहुल सांकृत्यायन प्राथमिक विद्यालय के सामने बस से उतरकर सभी लोग सीधे महापंडित राहुल या यूँ कहिए, बालक केदार पाण्डेय के जन्म-स्थल पर गए। वहाँ पर उनके सबसे करीबी संबंधी एक बुजुर्ग सज्जन मिलें, जिन्हें हम सबने पाठक जी के नाम से जाना। पाठक जी सबको घर के पीछे की ओर ले गए, जहाँ मैदान-सा था। कोने में दो-ढाई फीट ऊँचा और लगभग चार वर्ग फुट का एक ईंटों का चबूतरा बना था, जो चूने से पुता था। उस पर राहुल सांकृत्यायन का चित्र रखा था और अगरबत्ती जल रही थी।
पास में बड़ा-सा दरख़्त था, जिसकी डालों ने इस चबूतरे पर छत-सी बना दी थी। पाठक जी बोले कि, यही वो जगह है, जहाँ राहुल पैदा हुए थे। यहाँ पर एक कोठरी थी, जो अब नहीं है। बालक केदार का जन्मदिवस 09 अप्रेल है। आज वही तिथि थी। इस दिन राहुल सांकृत्यायन के जन्म-स्थल पर जाना एक अजीब अनुभूति थी। यहाँ से कनैला और कनैला से पूरा विश्व जुड़ा लग रहा था।
उनके जन्म-स्थल की भौतिक दशा देखकर सबका मन बहुत उद्वेलित हुआ। उत्तर प्रदेश इप्टा के महामंत्री राकेश ने वहाँ पर राहुल की मूर्ति स्थापित करवाने की घोषणा की। निश्चित रूप से यह घोषणा अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के प्रति उदासीनता और बेखबर राजनीतिज्ञों के रवैये से आहत एक संवेदनशील कलाकार का मुखर विरोध भी था और इस महादेश की महान सांस्कृतिक परम्पराओं पर हो रहे हमलों का जवाब भी। यहाँ से हम सभी लोग राहुल सांकृत्यायन प्राथमिक विद्यालय आए, जहाँ पर इस यात्रा का समापन समारोह होना था। डॉ. जयप्रकाश, राकेश व अन्य लोगों ने एकत्रित जन-समूह को यात्रा के कारणों और उद्देश्य के बारे में बताया। रवि नागर व साथियों के गीतों और ‘जोगीरा’ के बाद अंत में प्रस्तुत हुआ नाटक ‘औरत’। नाटक के बाद तमाम महिलाओं ने आकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
कुछ ने आक्रोश के साथ कहा कि, ‘यही होता है हमारे साथ, पर कोई सुनता नहीं हमारी बात!’ कुछ उदासीन भाव से बोलीं, ‘हाँ भइया, ऐसे ही होता है पर क्या किया जाए!’ वहीं की एक अध्यापिका शकुंतला गुप्ता ने आगे बढ़कर महिलाओं को संगठित करने व उन्हें अपने प्रति जागरुक करने का वादा किया। उन सभी उत्साही औरतों द्वारा एक बेहतर समाज की स्थापना में अपना योगदान देने की बात कही गई। कुछ सार्थक करने के इच्छुक लोगों से विदा लेकर जब हम लोग वापस बस में बैठकर लखनऊ की तरफ चले तो एकबारगी कुछ वाक्य गूँजने लगे – ‘मन में हँसे थे’, ‘अरे मेहनत वाला काम तो मरद करते हैं’। यात्रा के दौरान हुए अनुभव और प्रेमचंद के यह विचार लगातार डूबने-उतराने लगे – ‘कितनी बुरी हालत है हमारे समाज की! ज़रा एक नज़र इस गरीब औरत जात पर भी डालो। क्या मिट्टी पलीद की है बेचारियों की! कहने को कह दिया, जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। लेकिन कोई पूछे कि आपने किस तरह का कोई अधिकार नारियों को दिया है? बराबरी का दर्ज़ा न देते, लेकिन कुछ तो ऐसे अधिकार देते कि नारी पुरुष के अत्याचारों से अपनी रक्षा कर सकती।’ (क्रमशः)