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उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक यात्राएँ : छह : आधी आबादी का सफरनामा : एक : राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण सांस्कृतिक यात्रा(13-17 मई 1997, ऋषिकेश, टिहरी, मसूरी, देहरादून, हरिद्वार)

उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक यात्राएँ : छह : आधी आबादी का सफरनामा : एक : राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण सांस्कृतिक यात्रा(13-17 मई 1997, ऋषिकेश, टिहरी, मसूरी, देहरादून, हरिद्वार)

इप्टा की स्थापना के पूर्व से की गयी सांस्कृतिक यात्राओं की विरासत को उत्तर प्रदेश इप्टा ने 1989 से 1999 के बीच अनेक चरणों में आगे बढ़ाया। प्रत्येक यात्रा को किसी न किसी उद्देश्य पर केंद्रित किया गया था। पहली यात्रा थी 1993 में ‘पदचीन्ह कबीर’, जो काशी से मगहर की गयी। दूसरी यात्रा थी – 1995 में ‘नज़ीर पहचान यात्रा’, जो आगरा से दिल्ली तक संपन्न हुई थी उसके बाद ‘स्त्री-अधिकारों’ पर केंद्रित ‘आधी आबादी का सफरनामा’ के पहले चरण के अंतर्गत चार यात्राओं का सफर पूरा किया।अप्रेल-मई 1997 में सांस्कृतिक जन-जागरण यात्राओं के क्रम में इसमें पहली यात्रा थी – ‘प्रेमचंद जन-जागरण यात्रा (06 से 09 अप्रेल 1997), दूसरी यात्रा थी – ‘सुभद्रा कुमारी चौहान जन-जागरण यात्रा’, तीसरी यात्रा थी – ‘सरोजनी नायडू जन-जागरण यात्रा’ और आज उसी ‘आधी आबादी का सफरनामा’ के पहले चरण की चौथी और अंतिम कड़ी में प्रस्तुत है – ‘राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण सांस्कृतिक यात्रा’ की रिपोर्ट। यह रिपोर्ट इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष राकेश ने उपलब्ध करवाई है , इसे तैयार किया था अखिलेश दीक्षित ने। उम्मीद है कि ये सांस्कृतिक यात्राएँ आगामी 28 सितम्बर 2023 से अलवर राजस्थान से आरम्भ होने वाली ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक पदयात्रा के लिए वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार नई दिशाएँ तलाशने की प्रेरणा देंगी। – उषा वैरागकर आठले )

तिरिया के लागला केवाड़ रे पुरुखवा

हमारा आदर्श यह होना चाहिए कि प्रत्येक स्त्री शिक्षित हो। यह कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं कि एकाध स्त्री बड़ी पंडिता और गुणवती निकल आवे। व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि यदि कहीं कोई अनपढ़ स्त्री मिले तो मर्द उसे देखकर लज्जा से गड़ जाएँ… भारत की आत्मा तभी मुक्त होगी, जब स्त्रियों के बंधन टूटेंगे। स्त्रियाँ, जिन्हें तुम पराधीनता में रखे हुए हो, जब स्वाधीनता प्राप्त करेंगी, तो वे ही तुम्हारी मुक्ति का कारण बनेंगी। ‘तुम्हारी मुक्ति’ से सरोजनी नायडू का तात्पर्य सम्भवतः एक बेहतर समाज की स्थापना से है।

यही सपना लेकर इप्टा के यात्री कलाकारों ने 13 मई 1997 की शाम ऋषिकेश के बाबा कमली धर्मशाला से एक जुलूस बनाकर भरत मंदिर, झण्डा चौक, क्षेत्र रोड, घाट रोड से गुज़रते जनगीत गाते ‘राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण यात्रा’ शुरु की। हमारा यह जुलूस जब त्रिवेण घाट पहुँचा तो वहाँ साधुओं का एक बड़ा समूह उपस्थित था।एक बहुत बड़े बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर मुख्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। आरती का समय हो चुका था। भारी संख्या में श्रद्धालु आरती के लिए आ रहे थे। यहाँ रंगकर्मियों का स्वागत किया गया नगर पालिका पूर्व अध्यक्ष वीरेन्द्र शर्मा और विनय मनमीत ने। कार्यक्रम का प्रारम्भ रवि नागर ने कबीर के एक भजन से किया,

घर बैठ गोविंद गाना, तुम राम मंदिर मत जाना।

सभी एकत्रित श्रद्धालुओं एवं संतजनों ने इस भजन को मंत्रमुग्ध होकर सुना। इसके बाद ‘जोगीरा’ प्रस्तुत किया गया और ‘औरतें उट्ठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा‘ तथा अन्य जनगीत गाए। भीड़ बढ़ती गई। वक्ताओं ने कट्टरपन, रूढ़िवादिता तथा नारी-उत्पीड़न के विरोध में अपने मत रखे। इसके पश्चात ‘ब्रह्म का स्वांग’ और ‘गिरगिट’ नाटकों का मंचन किया गया, जिन्हें उपस्थित दर्शकों ने बहुत उत्साह और शांति के साथ देखा।प्रेमचंद की कहानी का रमेश उपाध्याय द्वारा रूपान्तरित नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ में जहाँ वृंदा अपने पति और पिता के दोहरे-तिहरे व्यवहार से व्यथित रहती है, वहीं उसकी ननद भी उसे प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। यह एक प्रतीक है पूरे समाज का, जहाँ औरत ही औरत की दुश्मन है…। सवाल यह है कि ऐसा क्यों है? दूसरे, नारियाँ केवल पुरुष से और सामाजिक विषमताओं से मुक्ति चाहती हैं या वे नारियों से भी मुक्ति चाहती हैं? माना जाता है कि स्त्री ही स्त्री को जन्म देने में हिचकती है और उसके शोषण का कारण बनती है,

पैदा होने से पहले ही
डॉक्टर ने तेरी माँ के पेट में
कभी उसकी मर्ज़ी से और कभी खिलाफ भी
किरणें दे के तुझे मार डाला था…
ये तेरा नसीब, कि तू बच गई
पर पैदा होने के बाद
आदम शक्ल के
भूतों के हाथ फँस गई। – संजीवा

दूसरे दिन प्रातः 14 मई को ऋषिकेश शहर के रंगकर्मी पदयात्रा करते हुए मुखर्जी चौक पहुँचे, जहाँ आज के कार्यक्रम की शुरुआत जनगीतों एवं ‘औरत’ नाटक से हुई। यहाँ से यात्रा आगे बढ़ी और पहाड़ी रास्तों से होती हुई ऋषिकेश से लगभग 16 किलोमीटर दूर नरेन्द्र नगर कस्बे में पहुँची। सांस्कृतिक यात्री मार्च करते हुए बाजार में पहुँचे। वहाँ जनगीत गाए गए। वेदा राकेश और लखनऊ इप्टा के सचिव मुख्तार ने यात्रा के उद्देश्यों के बारे में अपने विचार रखे। नुक्कड़ नाटक ‘गिरगिट’ का मंचन किया गया। कार्यक्रम स्थानीय पॉलिटेक्निक के नौजवान छात्रों को बेहद पसंद आया।

यात्रा आगे बढ़ी। पहाड़ों का दिल लुभाने वाला दृश्य। जैसे-जैसे ऊपर जा रहे थे, गर्मी भी कम होती जा रही थी। यात्रा चम्बा पहुँची। चम्बा एक बड़ा कस्बा है, गढ़वाल की संस्कृति लोगों के पहनावे और रहनसहन में साफ दिखाई दे रही थी। इप्टा के संस्कृतिकर्मियों ने पूरे कस्बे में भ्रमण किया और जनगीत गाए तथा लोगों को चम्बा चौक पहुँचकर सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने का न्यौता दिया। चम्बा चौक पर काम करने वाले पोर्टरों, विद्यार्थियों, महिलाओं, लड़कियों और स्थानीय दुकानदारों की उपस्थिति में जनगीतों और नुक्कड़ नाटकों का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया।

इप्टा की ‘राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण यात्रा’ का मसूरी में अनुपम चौक पर भव्य स्वागत किया गया। इस अवसर पर इप्टा के प्रांतीय महामंत्री राकेश ने कहा कि, भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने अपने 50 वर्षें से भी अधिक समय की सांस्कृतिक यात्रा में अपने कला माध्यमों से उन तमाम सवालों को उठाने का प्रयास किया है, जो सामाजिक प्रगति में बाधक हैं। वर्तमान में ‘राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण यात्रा’ की केन्द्रीय विषयवस्तु ‘स्त्री-अधिकार’ को इसलिए बनाया कि स्त्री-सहयोग के बिना ‘सामाजिक बदलाव’ कतई संभव नहीं है। कार्यक्रम का आरम्भ आजमगढ़ इप्टा के कलाकार मोतीराम व साथियों के विख्यात जनगीत ‘जोगीरा’ से हुआ। इसके अलावा पिक्चर पैलेस चौक, रस्तोगी चौक, शहीद स्थल, झूलाघर व गांधी द्वार पर विभिन्न कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये, जिनमें ‘गिरगिट’, ‘हिंसा परमो धर्म’‘औरत’ नुक्कड़ नाटक रहे। इप्टा के युवा संगीतकार रवि नागर व अन्य कलाकारों द्वारा प्रस्तुत जनगीतों ने आम अवाम के मानसिक पटल पर अमिट छाप छोड़ी। पूरे मसूरी शहर में इस सांस्कृतिक जन-जागरण यात्रा की धूम मची रही। हर स्थान पर भारी भीड़ जमा हुई और अगले स्थान तक साथ हो ली।

उपभोक्ता संस्कृति का घोड़ा बेलगाम दौड़ रहा है और मुक्ति के नाम पर छोटा-सा दायरा मध्यम और उच्च वर्ग का बन गया है। सवाल है कि, दलित जातियों का आरक्षण, राजनीति में महिलाओं के आरक्षण पर क्या स्त्री-पुरुष समानता के लिए हमें क्या करना चाहिए? क्या हर प्रकार की विषमताओं के लिए पूरी तरह से केवल पूँजीवाद ही ज़िम्मेदार है? प्रत्येक जाति और समाज में व्याप्त पितृसत्ता के उस सिद्धांत में भी तो इसके सूत्र पहचाने जा सकते हैं, जहाँ कुछ लोग हर चीज़ पर, जन-जन पर, कण-कण पर अपना नियंत्रण रखना चाहते हैं। गौर से सोचें तो लोक सभा में भी स्त्री का प्रवेश सत्ता की भाषा बोलने पर ही हुआ। सदियों का यही क्रम स्त्री की पूरी व्यक्तिगत व्यवस्था को व्यवहार कुशल बनाता गया और सहजता से विमुख करता गया और शायद इसीलिए वह खुलकर चुनौती के रूप में पुरुष के सामने नहीं उभरती। कुछ समस्याएँ उसे केवल स्त्री होने के कारण ही झेलनी पड़ती हैं और जिनका हल बहुत कुछ बदलने से ही होगा, पर चाहे समाज हो या स्त्री-मुक्ति, दिल्ली अभी बहुत दूर है।

अगले दिन 16 मई 1997 को सांस्कृतिक यात्रा के रंगकर्मियों ने बालोगंज (मसूरी) में नाटक ‘गिरगिट’ व जनगीतों की सुंदर प्रस्तुति की। कार्यक्रम में धर्म कला परिषद बालोगंज एवं प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिकाओं का भरपूर सहयोग रहा। संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कृष्णा खुराना के कहा कि, सूचना-विस्फोट ने जीवन की गति को बहुत तेज़ कर दिया है, जिससे असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई है। हर चीज़ उपभोक्ता वस्तु बन गई है और नारी भी इससे अछूती नहीं रही है। उन्होंने कुछ सर्वेक्षणों पर अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा कि, उपभोक्तावादी व्यवस्था में नित प्रति कहा जाता है कि 94 प्रतिशत महिलाएँ विश्व सुंदरी प्रतियोगिता देखने के पक्ष में रहती हैं। 87 प्रतिशत नौजवान हर्षद मेहता को अपना आदर्श मानते हैं। कृष्णा खुराना ने इन सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर संदेह प्रकट किया। पत्रकार शहीरा नईम ने कहा कि, नई आर्थिक नीति में निजीकरण का सीधा प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है। उदाहरण के तौर पर स्वास्थ्य और शिक्षा का क्षेत्र लीजिए, यहाँ से सरकार अपना हाथ खींच रही है, जिसका दोहरा प्रभाव महिलाओं पर पड़ रहा है।

इप्टा के प्रांतीय महामंत्री राकेश ने कहा कि, नागरिकों के संस्कार ही किसी देश का भविष्य तय करते हैं। वह संस्कार नारी ही दे सकती है। इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने कहा कि, समाज-सुधार के प्रयासों में महिलाओं और बुद्धिजीवी वर्ग को काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। महिलाओं की स्थिति के प्रति सामाजिक चेतना तो पैदा हुई है लेकिन यह चेतना व्यक्ति तक ही सीमित हो गई है। चेतना की प्रथम इकाई जब तक परिवार नहीं हो जाता, तब तक सार्थक परिवर्तन संभव नहीं है।

संगोष्ठी के बाद शाम को गांधी पार्क में सांस्कृतिक कार्यक्रम किये गये। वेदा राकेश व साथियों ने ‘औरतें उट्ठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा’ कोरस गीत बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। उसके बाद ‘गिरगिट’ और ‘हिंसा परमो धर्म’ का मंचन किया गया। रात को मुख्य कार्यक्रम किया गया यमुना कालोनी में। हाईडिल विभाग में काम करने वाले लोग और उनके परिवारजनों ने भारी संख्या में उपस्थित होकर अपने उत्साह का प्रदर्शन किया। यहाँ ग़ज़ल, जोगीरा और कबीर भजन के बाद नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ खेला गया।

कोई भी यात्रा जब एक बार शुरु हो जाती है तो उसका ‘फाइनल’ अंत कभी नहीं होता, पर अस्थाई रूप से कुछ विश्राम अवश्य होता है। आज हमारी भी ‘आधी आबादी का सफरनामा’ के पहले चरण की इन चार यात्राओं का आखिरी दिन है और लग रहा है कि अभी यह शुरुआत है इन सरोकारों को गहराई से समझने की, जिन्हें केन्द्र में रखकर इप्टा यात्राएँ करती रही है। चाहे साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय का सवाल हो और चाहे नारी के अधिकारों और उसकी चेतना का। स्त्री-चेतना का सवाल ऐसा है, जो हमेशा से समाज के हर मुद्दे, हर पक्ष से जुड़ा होता है –

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वह बरसों से कोशिश कर रही थी
और उस दिन निकाल लेने के बाद से
तय नहीं कर पा रही थी
कि पाए के नीचे दबा हाथ किसका था
नानी का या उसका अपना?

आज 17 मई 1997 को कार्यक्रमों की शुरुआत भानियावाला, रानीखेखरी और आईडीपीएल में जनगीतों के माध्यम से हुई। आईडीपीएल ऋषिकेश में सार्वजनिक क्षेत्र के इस कारखाने में काम करने वाले महिला और पुरुष फैक्टरी गेट के बाहर छतरीनुमा पाखुड़ के विशाल पेड़ के नीचे भारी संख्या में एकत्र थे। देर तक कार्यक्रम चलता रहा। आयोजन में फैक्टरी के महिला-पुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। हालाँकि यह और बात है कि, अधिकांश कर्मचारियों को तीन महीने से वेतन भी नहीं मिला था। कुछ महिला कर्मचारियों का कहना था कि वह आज तक स्थाई पद प्राप्त नहीं कर पाई हैं। वेतन जब भी मिलता है, तीन-तीन महीने बाद ही मिलता है।

यहाँ से ये यात्रा अपने अंतिम पड़ाव हरिद्वार के लिए रवाना हुई। हरिद्वार के रास्ते में स्थानीय नागरिकों के अनुरोध पर एक और कार्यक्रम रायवाला कस्बे में करना पड़ा। रायवाला में उस दिन साप्ताहिक हाट लगी थी। यहाँ जनगीतों के अलावा ‘औरत’ नाटक का मंचन किया गया। बाजार की भीड़ तो एकत्रित थी ही, ‘उत्तराखंड ग्रामीण महिला उत्थान समिति’ की बहुत सारी महिलाएँ और लड़कियाँ अपने सिलाई सेंटर का कामकाज बंद करके कार्यक्रम देखने के लिए चली आईं।

शाम चार बजे यात्रा हरिद्वार पहुँची। हरिद्वार में मुख्य कार्यक्रम का आयोजन हर की पैडी के पीछे रेल्वे लाइन के बगल में एक बहुत बड़ी झुग्गी झोंपड़ी कालोनी ‘ब्रह्मपुरी’ में किया गया था। घनी आबादी में सड़क पर कार्यक्रम के लिए जगह बनानी मुश्किल पड़ रही थी। बच्चे और महिलाएँ ही भीड़ में ज़्यादा थे। स्थानीय समाज सेविका महिला प्रकाशवती ने पूरा सहयोग दिया। घर-घर से लोग सड़क पर उमड़ आए थे। जिन्हें जगह नहीं मिली, वे घरों की छतों पर थे। कार्यक्रम में जनगीत, जोगीरा व नज़ीर अकबराबादी की कविता ‘रीछ का बच्चा’ की प्रभावशाली प्रस्तुति हुई। ‘गिरगिट’ नाटक के बाद अंतिम कार्यक्रम नाटक ‘औरत’ की प्रस्तुति रही, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा।

कार्यक्रम के अंत में हरिद्वार के मेला अधिकारी जिला मजिस्ट्रेट श्री आनंद वर्द्धन ने अपने विचार व्यक्त किये और इसी के साथ 17 मई 1997 को पाँच दिवसीय राहुल सांकृत्यायन जन-जागरण सांस्कृतिक यात्रा का समापन हरिद्वार में हो गया। पर जन-जागरण का अभियान तो आगे चलता ही रहेगा…

नफस नफस कदम-कदम बस एक फिक्र दम ब दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए…

औरतें उठीं नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा
जुल्म करने वाला सीनाजोर बनता जाएगा…

‘‘…वह दुनिया को बदलने से नहीं, अपने पुनर्मूल्यांकन से शुरुआत कर सकती है। यह एक आयाम है जहाँ उसे किसी यूटोपिया का नक्शा तो नहीं मिलेगा, लेकिन वहाँ वो इस प्रयास के कारण अधिक से अधिक प्रेरित होने का कारण पा सकती है।’’ – जर्मेन ग्रीयर (क्रमशः)

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