अजय के अधूरे काम…

इंसान के बहुत से सपने अधूरे रह जाते हैं। जब कोई रचनाशील व्यक्ति जीवन के अनेक स्तरों पर सक्रिय होता है, तब अक्सर ऐसा होता है कि, उसके भावी नियोजित कामों की सूची लम्बी हो जाती है और उसको ज़मीन पर उतारने के अनुपात में अंतराल आ जाता है। अजय ने भले ही हमारी शादी के पहले कहा था कि उसने भावी ज़िंदगी के कोई सपने नहीं बुने हैं, मगर हमारी सहयात्रा के आरम्भ से ही अनेकानेक सपनों और उन पर केन्द्रित योजनाओं का अंबार निरंतर बना रहा।

कई अधूरे रह गए नाटकों और फिल्मों की बात आज की जा सकती है। कई ऐसे नाटक हैं, जिनका कथ्य और संदेश बहुत महत्वपूर्ण होने पर भी हम उसे खेलने की बात इसलिए ठंडे बस्ते में डाल देते थे क्योंकि हमारे पास उस उम्र और कैलिबर के कलाकार नहीं थे। ऐसे नाटकों में उठाए गए विषय की गहरी समझ, कथा को आगे बढ़ाने वाले पात्रों और घटनाओं के ग्राफ, आयाम और संदर्भों को जानने-समझने का धीरज और जज़्बा हमारे साथियों में उनकी अपनी विषम परिस्थितियों के चलते नहीं आ पाया और हम एक के बाद एक नाटक पढ़-पढ़कर, चर्चा करके अलग रख देते थे कि आगे कभी अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर उन्हें खेलेंगे। तात्कालिक रूप में लोकशैली के नाटक टीम के साथ लगातार खेले जाते रहे।

यहाँ तीन नाटकों का ज़िक्र करना चाहती हूँ। इब्सन के नाटक ‘दि ऍनिमी ऑफ द पीपल’ का हिंदी अनुवाद ‘जनशत्रु’ जब हमने पढ़ा तो अजय को लगा कि, इस नाटक को छत्तीसगढ़ के परिप्रेक्ष्य में ढालकर छत्तीसगढ़ी में भी किया जा सकता है। किस तरह स्थानीय खनिज संसाधनों पर पूंजीपतियों की वक्र दृष्टि रहा करती है और वे किस तरह येनकेन प्रकारेण उन्हें कब्जियाना चाहते हैं। उनके लिए सामाजिक स्वास्थ्य द्वितीयक महत्व का होता है और अपने लाभ-लोभ की राजनीति प्राथमिकता में होती है। नाटक में इसे बहुत सहज और दिलचस्प तरीके से इब्सन ने दो भाइयों की कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। सत्यजित रे ने इस पर ‘गणशत्रु’ जैसी शानदार फिल्म भी बनाई है। रायगढ़ जिले में जिंदल समूह द्वारा पतरापाली, चिरईपानी, तमनार और अन्य स्थानों के संसाधनों के दोहन के इतिहास के हम साक्षी रहे हैं।

दूसरा नाटक संजय पवार द्वारा मराठी में लिखित ‘कोण म्हणतो टक्का दिला’ था। आज से कुछ वर्ष पहले जब दलित और आदिवासियों को भी मुख्य धारा से जोड़ने की बात फैशन जैसी चल पड़ी थी, उसी दौरान मुझे यह नाटक मिला था। इस नाटक में एक फैंटेसी रची गई है कि सरकारी आदेश निकलता है कि, हरेक सवर्ण परिवार अपने-अपने घर में एक-एक आदिवासी या हरिजन युवा को रखकर उसे पढ़ाए-लिखाए तथा उससे सांस्कृतिक संबंध स्थापित करे।

हमें यह नाटक समाज की हिप्पोक्रेसी का शानदार नमूना मालूम दिया। संजय पवार ने बहुत ही रोचक तरीके से कुछ परिवारों की कहानी रची है, जो क्रमशः आदिवासी और दलित युवक को अपने घर में पनाह देते हैं। दलित युवक और सवर्ण युवती की प्रेम कहानी को पुराणों में शुक्राचार्य की कथा से जोड़ते हुए हास्य-व्यंग्ययुक्त स्थितियों-संवादों के जरिये देश की बहुस्तरीय संस्कृतियों और समाज के वर्चस्ववादी समूहों की पाखंडी मानसिकता और व्यवहारों को उजागर किया गया है। यह नाटक भी छत्तीसगढ़ के संदर्भ में करने के लिए हमने मूल लेखक से अनुमति प्राप्त कर ली थी। अनुवाद और रूपान्तरण का काम शुरु करते हुए महसूस हुआ कि सात-आठ परिपक्व कलाकारों के अभाव में नाटक का अंतर्प्रवाहित सार उभर नहीं पाएगा और यह नाटक भी ठंडे बस्ते में चला गया।

तीसरा नाटक मेरा सपना था। चूँकि मैं निर्देशक-अभिनेत्री नहीं थी, इसलिए मेरे इस तरह के सपने सिर्फ अजय के दिल-दिमाग में रोपने का काम मैं करती थी। अजय द्वारा स्वीकार लिये जाने के बाद उसकी समूची कार्य-योजना में मैं हर तरह की सहायक, विश्लेषक और सुझावक बस रहा करती थी। यह नाटक था मीरा कांत का ‘नेपथ्य राग’।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के खगोलशास्त्री वराहमिहिर द्वारा विदुषी खना को अपनी बहू बनाया जाता है। आगे चलकर राजा विक्रमादित्य द्वारा उसकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर उसे भी दरबार की सभासद बनाना किसी भी पुरुष सभासद को स्वीकार्य नहीं हो पाता और शर्त रखी जाती है कि अगर कोई स्त्री दरबार में सभासद बनाई जाती है तो पहले उसकी जीभ काट ली जाए। यह कथा चौथी शताब्दी की है परंतु इक्कीसवीं शताब्दी में भी किसी स्त्री की विद्वत्ता को आसानी से स्वीकारा नहीं जाता। मीरा कांत ने खना की कथा के समानांतर आधुनिक युग की प्रभावशाली पदों पर आसीन माँ-बेटी को इसी समस्या से जूझते हुए बहुत बारीकी से चित्रित किया है। इस तरह के संवाद-केन्द्रित विभिन्न उम्र के परिपक्व समझ के कलाकारों और अभिनय की माँग करने वाले कुछ नाटक उठाना हमारे लिए संभव नहीं हो पाया।

2017 में छत्तीसगढ़ इप्टा के राज्य सम्मेलन में महासचिव चुने जाने के बाद अजय की लगातार कोशिश रही कि राज्य की सभी इकाइयों को लेकर नाट्य-निर्देशन, स्क्रिप्ट राइटिंग, लाईट डिज़ाइनिंग आदि की कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँ। वर्तमान राष्ट्रीय महासचिव तनवीर अख्तर को आमंत्रित किया जा चुका था। बातें चल रही थीं, मगर समय और समयावधि तय नहीं हो पाई और यह योजना अधूरी ही रह गई।

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अजय धीरे-धीरे नाटकों की रिहर्सल में कलाकार साथियों द्वारा समय नहीं दिये जाने से निराश हो चला था। उसने तय किया कि अब वह फिल्में ही बनाएगा। उसने छत्तीसगढ़ राज्य पृथक होने के बाद अपने कलाकारों को रायपुर जाने से बचाने के लिए शॉर्ट फिल्में बनानी शुरु की थीं।

पुन्नीसिंह यादव की दो कहानियों पर ‘मुगरा’ तथा ‘बच्चे सवाल नहीं करते’ बनाने के बाद हमने तय किया था कि प्रगतिशील लेखक संघ के कहानीकार साथियों से ही उनकी कहानियाँ लेकर उन पर शॉर्ट फिल्में बनाई जाएँ। खैरागढ़ के वरिष्ठ कथाकार साथी रमाकांत श्रीवास्तव से उनकी कहानियाँ भेजने बाबत चर्चा भी हुई थी। हमने पढ़ी हुई कहानियों में किसी एक कहानी का चयन हम नहीं कर पा रहे थे। मगर यह काम आगे नहीं बढ़ पाया, इसका हमें हमेशा दुख रहा।

2014-15 से प्रल्हाद जाधव के मराठी नाटक ‘शेवंता जित्ती हाय’ का अजय द्वारा ही किया गया छत्तीसगढ़ी-हिंदी रूपान्तरण ‘मोंगरा जियत हावे’ हीरा मानिकपुरी के निर्देशन में लगातार खेला जा रहा था। मूल लेखक से चर्चा एवं स्वीकृति के उपरांत अजय ने इसकी पटकथा लिखना शुरु कर दिया था। रायगढ़ के अनेक परिचितों ने मिलकर फाइनेंस का आश्वासन दिया था। अप्रेल-मई 2020 में शूटिंग होनी थी। फरवरी माह में अजय ने लगभग एक माह तक एक रिकॉर्डिंग स्टूडियो किराये पर लेकर फिल्म के लिए नाटक में प्रयुक्त सभी गीतों की रिकॉर्डिंग कर ली थी। मगर मार्च में लॉकडाउन घोषित होने पर बाहर शूटिंग करना संभव नहीं हुआ और 27 सितंबर 2020 को उसकी खुद की दुनिया के रंगमंच से ही एक्ज़िट हो गई और उसकी यह अंतिम योजना हमेशा के लिए दफन हो गई।

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