(इप्टा ने अनेक समविचारी संगठनों के साथ मिलकर पिछले वर्ष 09 अप्रेल 2022 से 22 मई 2022 तक 44 दिनों में छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 89 जिलों के गाँवों-कस्बों-शहरों में ‘ढाई आखर प्रेम’ का सन्देश फैलाया था । अपने गीतों, नाटकों, लोकगीतों, नृत्यों, भाषणों और परस्पर संवाद के माध्यम से लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त की। इसे आगे बढ़ाते हुए इस वर्ष 28 सितम्बर 2023 से 30 जनवरी 2024 तक देश के 22 राज्यों में ‘ढाई आखर प्रेम’ का सन्देश लेकर सांस्कृतिक जत्था पदयात्रा करने जा रहा है।
सांस्कृतिक यात्रा इप्टा के जन्म से ही जुडी हुई है। 1943 में फैलाये गए बंगाल के अकाल के साथ साथ इप्टा के विधिवत गठन से पूर्व ही जन जागरण के लिए सांस्कृतिक यात्रायें शुरू हुई थीं। बंगाल कल्चरल स्क्वाड से शुरू होकर सेन्ट्रल कल्चरल स्क्वाड तक की इन यात्राओं में न केवल भारत की विभिन्न लोक संस्कृति एवं नागर संस्कृतियों का सम्मिश्रण था, वरन देश की तत्कालीन परिस्थितियों की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और उपनिवेशवादी विसंगतिपूर्ण नीति एवं उनके परिपालन के विश्लेषण का प्रस्तुतीकरण और उसके विरुद्ध एकजुट संघर्ष का आह्वान किया गया था। इन परिस्थितियों से जूझकर एक बेहतर संतुलित समतावादी समाज-रचना का लक्ष्य भी सामने रखा गया था।
इसी विरासत को उत्तर प्रदेश इप्टा ने 1989 से 1999 के बीच अनेक चरणों में आगे बढ़ाया। 2010 में भी वामिक जौनपुरी पर केंद्रित एक यात्रा की गयी थी। प्रत्येक यात्रा को किसी न किसी उद्देश्य पर केंद्रित किया गया था। प्रत्येक यात्रा में 3-4 जिलों के अनेक गाँव-कस्बे-शहर सम्मिलित किये गए थे। उनके कार्यक्रम शहरी समस्याओं से लेकर गाँव की अमराई, चौपाल, बाजार तक फैले हुए थे। इसमें गंभीर संगोष्ठियाँ भी थीं, लोकगीत, जनगीत, नाटक, कविता-पाठ भी था। उनकी स्थानीय समस्याओं को सामने लाकर उनसे उबरने का, सामूहिक संकल्प लेने का जज़्बा पैदा करने की ताक़त थी और था अनवरत रचनात्मक श्रम। इनकी रिपोर्ट्स इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष राकेश ने उपलब्ध करवाई हैं । इस रिपोर्ट को तैयार किया था अखिलेश दीक्षित और राज त्रिपाठी ने। ये सांस्कृतिक यात्रायें इप्टा की अनेक इकाइयों के अलावा अन्य जन संगठनों को भी अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार नई दिशाएँ तलाशने की प्रेरणा देंगी। – उषा वैरागकर आठले )
‘‘अगर मुझसे पूछा जाए कि अंतरिक्ष के नीचे वह कौन सा स्थल है, जहाँ मानव-मन ने अपने अंतराल में निहित प्रकृति प्रदत्त अन्यतम सद्भावों को पूर्ण रूप से विकसित किया है, गहराई में जाकर जीवन की कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है तो मेरी उंगली भारत की ओर उठेगी।’’ – मैक्स मूलर
06 से 11 मार्च 1995 तक भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) उत्तर प्रदेश द्वारा आगरा से दिल्ली की छै दिवसीय सांस्कृतिक यात्रा ‘पहचान नज़ीर’ आरम्भ हुई। इस दौरान प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक मैक्स मूलर की पुस्तक ‘इंडिया व्हॉट कैन इट टीच अस’ में भारत के प्रति अभिव्यक्त किये गये उपरोक्त विचार लगातार मन में आते रहे।
सूफी परम्परा की एक सशक्त कड़ी मियाँ नज़ीर अकबराबादी यूँ तो दिल्ली में जन्मे थे, पर अकबराबाद (आगरा) को ही अपनी सृजन-स्थली बनाकर वहीं उन्होंने अंतिम साँस ली।
मुफलिस कहो फकीर कहो आगरे का है
शायर कहो नज़ीर कहो आगरे का है
नज़ीर की रचनाओं में निहित इंसानियत और भाईचारे के पैगाम को जन-जन तक पहुँचाने और आज के संदर्भों में उसके महत्व को पहचानने के उद्देश्य से इप्टा उत्तर प्रदेश द्वारा आयोजित ‘पहचान नज़ीर’ सांस्कृतिक यात्रा की शुरुआत नज़ीर की समाधि से हुई। इसे महज़ इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता कि इप्टा उत्तर प्रदेश द्वारा 18 से 25 अप्रेल 1993 को काशी से मगहर तक आयोजित आठ दिवसीय सांस्कृतिक यात्रा ‘पदचीन्ह कबीर’ का अंतिम पड़ाव मगहर स्थित कबीर समाधि था और ‘पहचान नज़ीर’ का प्रथम चरण उनकी समाधि से शुरु हुआ था। ‘पदचीन्ह कबीर’ यात्रा के माध्यम से सद्भाव, मानवता और प्रेम से ओतप्रोत भारत की आत्मा की एक झलक को अपने अंदर समेटे 25 अप्रेल 1993 की गोधूलि वेला में आमी नदी और कबीर स्मृति भवन के बीच खड़े सांस्कृतिक दल के कलाकारों ने महसूस किया था कि यहाँ से आगे बढ़ना है। यह अंत नहीं है बल्कि अब यह यात्रा अधिक ऊर्जा और संकल्प के साथ प्रारम्भ होती है। 500 वर्ष पूर्व कबीर ने जिस यात्रा की शुरुआत की थी, नज़ीर ने अपनी रचनाओं से उसमें नवीन ऊर्जा भर दी।
06 मार्च 1995
नज़ीर पार्क आगरा : इंसानियत का पैगाम देने वाले इस जन कवि नज़ीर के चित्र पर प्रसिद्ध कथाकार कामतानाथ, हरि नारायण, पत्रकार बी पी सारस्वत उत्तर प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष व इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंशी, उत्तर प्रदेश इप्टा के महामंत्री राकेश, मालवा गायक प्रहलाद सिंह टिपानिया, श्रीमती अरुणा रघुवंशी, स्वदेश बंधु, वेदा राकेश सहित यात्रा में शामिल अन्य यात्रियों ने श्रद्धा सुमन अर्पित कर यात्रा का औपचारिक उद्घाटन किया।
इन औपचारिकताओं के पश्चात नज़ीर को पहचानने का पहला कदम था उन्हीं की एक नज़्म
तन्हा न उसे अपने दिले तंग में पहचान
हर बाग में हर दश्त में हर संग में पहचान।।
लखनऊ व आगरा इप्टा के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत इस नज़्म ने किया यात्रा का सांस्कृतिक उद्घोष। इसके पश्चात मध्य प्रदेश के साथी प्रहलाद सिंह टिपानिया ने ‘ज़रा धीरे गाड़ी हाँको मोरे राम गाड़ीवाले’ प्रस्तुत किया। उनके इस निर्गुण ने ‘पदचीन्ह कबीर’ और ‘पहचान नज़ीर’ का ऐसा संगम प्रवाहित किया, जिसने मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए आयोजित इस यात्रा के पूरे माहौल में एक ऊर्जा प्रवाहित कर दी। इसी ऊर्जा को अपने में समेटे आगरा इप्टा के दिलीप रघुवंशी, मिशाल रियाज़, शकील व अन्य साथियों ने नज़ीर की रचना ‘आदमीनामा’ प्रस्तुत की। ‘बज़्म-ए-नज़ीर’ के कोषाध्यक्ष राम बहादुर राठौर के धन्यवाद ज्ञापन से पूर्व आगरा कला जत्था 95 द्वारा साक्षरता पर आधारित विष्णुनिधि मिश्र द्वारा निर्देशित नाटक ‘बदलू फँस गया चक्कर में’ प्रस्तुत किया गया, जिसके माध्यम से निरक्षरता के कारण शोषण का शिकार होते गरीबों की दास्तान बयान की गई। यहाँ से ‘पहचान नज़ीर’ का सांस्कृतिक दल अम्बेडकर पार्क, लाल किले से चलकर आगरा के विभिन्न मार्गों से होता हुआ आगे बढ़ा। इस दौरान रोजी, शत्रुघ्न शर्मा, राकेश सिंह, विनय सिंह, जयंती मुंशी, ओ पी अवस्थी, आशू, सुखेन्दु मंडल आदि ने जीवन यदु का प्रसिद्ध जनगीत प्रस्तुत किया, जिसके बोल इस प्रकार हैं,
जब तक रोटी के प्रश्नों पर
रखा रहेगा भारी पत्थर
कोई मत ख्वाब सजाना तुम
मेरी गली में खुशी ढूँढ़ते
अगर कभी जो आना तुम।
मियाँ नज़ीर ने भी रोटी का फलसफा बयाँ करते हुए कहा है,
पूछा किसी ने यह किसी कामिल फकीर से
यह मेहर-ओ-माह हक़ ने बनाए हैं काहे के
यह सुनके बोला, बाबा खुदा तुझको खैर दे
हम तो न समझें न सूरज हैं जानते
बाबा हमें तो यह नज़र आती हैं रोटियाँ
रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो
मेले की सैर ख्वाहिशें बागों चमन न हो
भूखे गरीब दिल की खुदा से लगन न हो
सच है कहा किसी ने कि भूखे भजन न हो
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ।
आज विश्व का बहुत बड़ा भाग इसी संघर्ष में लगा है, पर हमारे राजनीतिक नेता और धार्मिक ठेकेदार जनमानस का ध्यान रोटी के प्रश्नों से हटाकर धर्म की अफीम पिलाने पर तुले हुए हैं और उनके इस षड्यंत्र में शामिल हैं बड़े-बड़े माफिया, अपराध जगत के बेताज बादशाह। ऐसी ही स्थितियों का सामना करने और जन-जागरण के उद्देश्य से भ्रमण करती इस यात्रा का अभिन्न अंग आगरा इप्टा के साथियों ने ‘हम बंदे अल्ला-राम के, फिर झगड़े किस काम के’ गाकर आम जन को इन कुचक्रों से सावधान रहने की बात बताई। अब यात्रा आज के अंतिम चरण सूर सदन प्रेक्षागृह पहुँची, जहाँ पर राकेश, जितेन्द्र रघुवंशी, कामतानाथ, अली अहमद फातमी आदि ने दर्शकों को यात्रा के उद्देश्य से अवगत कराया। आगरा इप्टा के साथियों ने नज़ीर अकबराबादी की नज़्म ‘आदमीनामा’ पर आधारित लघु नाटक प्रस्तुत किया। आज की संध्या का समापन लखनऊ इप्टा की प्रस्तुति ‘रामलीला’ से हुआ। राकेश द्वारा लिखित इस नाटक के माध्यम से निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए रचे जा रहे धार्मिक कुचक्रों के शिकार भोले-भाले लोगों की व्यथा का चित्रण किया गया है। नाटक के अंत में वेदा राकेश द्वारा लिखित गीत ‘मानवता के दुश्मन को आओ हम पहचान लें, हमें लड़ाती आपस में जो उस ताकत को जान ले’ के माध्यम से इंसानियत के ऊपर मंडराते खतरों से सजग रहने का संदेश दिया गया।
07 मार्च 1995
हर आन में हर बात में हर ढंग में पहचान
आशिक है तो दिलवर को हर रंग में पहचान।
‘पहचान नज़ीर’ सांस्कृतिक यात्रा के दूसरे दिन का प्रारंभ नज़ीर की अद्वैतवाद से ओतप्रोत इस रचना से हुआ, जिसे पूर्वान्ह 11 बजे सिकन्दरा गेट के पास एक विशाल चबूतरे पर इप्टा के कलाकारों ने प्रस्तुत किया। मानवीय मूल्यों को सर्वोच्च बताकर अपनेआप को पहचानने की बात को ही प्रचारित-प्रसारित करने का उद्देश्य लेकर आगे बढ़ रही है यह सांस्कृतिक यात्रा।
सिकन्दरा पर प्रस्तुत इस कार्यक्रम से पूर्व ‘पहचान नज़ीर’ के यात्री गुरू के ताल भ्रमण को भी गए। अपने रागों में रंग भरते और भावों को सच्चाई के और करीब लाने में प्रयासरत यात्रा के सभी कलाकार अब पहुँचे सूर समाधि पर। भक्ति आंदोलन के एक सशक्त स्तम्भ कवि सूरदास की शरण स्थली सूर कुटी पर बनी सूरदास की मूर्ति के सान्निध्य में बैठे यात्रियों ने विश्राम किया। भक्तिकाल के इस अमर रचनाकार की मूर्ति पर लखनऊ के राकेश सिंह ने माल्यार्पण किया। यमुना किनारे शांत व रमणीय स्थल पर स्थित सूर-समाधि यात्रियों को दिलवर को हर रंग में पहचानने का संदेश दे रही थी।
आज का अगला पड़ाव था लगभग 800 वर्ष पूर्व बसा ग्राम कोठम। इस गाँव में यमुना के तट पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम है, जिसका ज़िक्र पौराणिक कथाओं में मिलता है। राजा परीक्षित ने सत्ता के नशे में चूर अहंकारवश श्रृंगी ऋषि का अपमान करने के लिए उनके गले में मरा हुआ साँप डाल दिया था।
पेड़ों की शीतल छाँव में दोपहर विश्राम करते यात्रियों को मीठी-मीठी बोली में सवाल करने वाले तमाम बच्चों ने घेर लिया। एक ओर लम्बे-लम्बे घूँघट निकाले घरों की छतों, खिड़कियों और दरवाज़ों से महिलाएँ झाँक रही थीं, दूसरी ओर सिर पर चार-चार घड़े टिकाये पनघट की ओर युवतियों की कतार चल रही थी। यात्रा के साथ चल रही यूक्रेन की दो महिलाओं कात्या व एला को हिंदी बोलते देख ये ग्रामीण आश्चर्यचकित हो रहे थे परंतु भाषा का यह पुल यूक्रेनी महिलाओं और ब्रजवासियों के बीच की दूरी कम कर रहा था। इसी परिवेश में प्रहलाद सिंह टिपानिया और साथियों ने सद्भाव की जोर जोत जगाई। उसे लक्ष्मण खलीफा ने नज़ीर द्वारा रचित एक होली गीत गाकर और प्रखर कर दिया। नज़ीर ने अपने जीवनकाल में अलग-अलग छंद और विभिन्न मात्राओं में लगभग 20 होलियाँ लिखी हैं। होली के अलावा दिवाली, ईद, शब्बेरात और ऐसे ही तमाम त्यौहारों को नज़ीर की रचनाओं में बगैर किसी भेदभाव के समान व महत्वपूर्ण स्थान मिला है। लक्ष्मण खलीफा की होली के बाद लखनऊ इप्टा के जुगलकिशोर द्वारा निर्देशित नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ मंचित किया गया।
अपरान्ह तीन बजे यात्रा रामपुरा पहुँची, जहाँ के जूनियर हाईस्कूल परिसर में एकत्रित बच्चों से कामतानाथ जी ने शिक्षा का महत्व समझने तथा धर्म के नाम पर आपस में लड़ाने वाली ताकतों को परास्त कर आपसी भाईचारे व प्रेमभाव से रहने की बात कही। निरंतर आगे बढ़ती यह यात्रा आगरा-मथुरा मार्ग पर पड़ने वाले विभिन्न ग्रामों से होकर शाम 6 बजे मथुरा में प्रवेश कर वहाँ के विभिन्न मार्गों पर भ्रमण करती हुई चम्पा अग्रवाल इण्टर कॉलेज मथुरा पहुँची। यहाँ पर बनाए गए मुक्ताकाशी मंच पर इप्टा के साथियों ने कई कार्यक्रम प्रस्तुत किये। इसके बाद लखनऊ इप्टा की नाट्य-प्रस्तुति ‘रामलीला’ का मंचन हुआ। आज के कार्यक्रम की श्रृंखला की अंतिम कड़ी थी, ‘आज़ादी ही आज़ादी’ – लखनऊ इप्टा के सिद्ध गायक रवि नागर के स्वरों से फूटते हुए इन्कलाबी दरिया में मंच और दर्शकों को एक ही रंग में रंग दिया। आज़ादी का यह गीत जब भी और जहाँ भी गूँजता है, वहाँ न कोई श्रोता रह जाता है न कोई वक्ता, न दर्शक होते हैं न कलाकार – बस एक ही धारा बहती है :
इन्कलाब-ओ-इन्कलाब-ओ-इन्कलाब-ओ-इन्कलाब
08 मार्च 1995
नज़ीर होली का मौसम जो जग में आता है
वह ऐसा कौन है होली नहीं मनाता है
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है
जो खाली रहता है वह देखने को जाता है।
होली की ऐसी कल्पना वही कर सकता है, जो इंसानियत का नुमाइंदा हो। मानवता की रवायत के इस महान मुसव्विर की बातों को जन-जन तक पहुँचाती है ‘पहचान नज़ीर’ यात्रा। यात्रा जब आज सुबह प्रेरक थियेटर पहुँची, तो वहाँ यात्रियों का स्वागत अबीर-गुलाल और फूलमालाओं से हुआ।
जब फागुन रंग झमकते हो
तब देख बहारें होली कीं
और दफ के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की।
प्रेरक थियेटर के इस सतरंगी माहौल में आगरा व लखनऊ इप्टा के कलाकारों ने क्रमशः ब्रज और अवध की होली प्रस्तुत कर पूरे वातावरण में फागुनी रंग दमका दिये। यहाँ से यात्रा लोहबन गाँव होते हुए दाऊजी व गोकुल पहुँची। इस स्थान पर द्रौपदी सखा कृष्ण ने लोहासुर नामक राक्षस का वध कर समस्त राक्षसी शक्तियों को चुनौती दी थी। प्रह्लाद के गीतों और सरन अग्रवाल जी द्वारा प्रस्तुत नज़ीर अकबराबादी की रचना के पश्चात कात्या ने लोहबनवासियों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि, हम भारत की संस्कृति के बारे में जानने आए हैं और इस कार्यक्रम में बच्चों और युवकों की भागीदारी से अत्यंत प्रसन्न व आशावान हैं। दोपहर 11.30 बजे सभी लोग गोकुल के रासलीला चौक पहुँचे, जहाँ खड़े विशाल वट वृक्ष पर रंगबिरंगे कपड़ों की ढेर सारी पट्टियाँ अन्याय के विरुद्ध लगातार संघर्षरत रहे कृष्ण में जनमानस की आस्था का बयान कर रही थीं।
रसखान स्मारक मंडल द्वारा आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत जितेन्द्र रघुवंशी, राकेश व ओ पी अवस्थी को पटके व मालाओं से सम्मानित करने के साथ हुई।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन
क्या क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन।
आगरा इप्टा के साथियों ने नज़ीर की इस प्रसिद्ध रचना को प्रस्तुत कर भारत की भेदभाव रहित सांझी संस्कृति का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया। इसके पश्चात गोकुल निवासी कथावाचक गिरिराज गोस्वामी ने रसखान के छंद प्रस्तुत किये। ब्रज-कोकिल हरिदास चौधरी ने भी इप्टा के कलाकारों के साथ गाया-बजाया।
‘पहचान नज़ीर’ यात्रा का बढ़ता कारवाँ अब नंद भवन होता हुआ वहाँ से दो किलोमीटर दूर गोकुल महावन के बीच स्थित रसखान समाधि पर पहुँचा। रसखान की समाधि के चारों ओर कहीं नागफनी अपना सर उठाए खड़ी थी, तो कहीं वट वृक्ष और पीपल अपने विशाल रूप का प्रदर्शन कर रहे थे। मंद-मंद चलती बयार यात्रियों को शीतलता का उपहार बाँटती, प्रेम-वर्षा करती उस प्रेमाश्रयी धारा के महान कवि रसखान का संदेश सारे विश्व में प्रवाहित करने का आह्वान करती है,
राधा कहीं सीता कहीं कृष्ण कहीं राम
हर सिम्त से देता है कोई प्रेम का पैगाम।
शीतल बयार का आह्वान मन में सँजोए यात्री चंदपा पहुँचे, जहाँ पर लखनऊ इप्टा के कलाकारों ने ‘ब्रह्म का स्वांग’ नाटक प्रस्तुत किया। यहाँ के बाद मितई व अन्य गाँवों से होते हुए सभी कलाकार शाम 6 बजे हाथरस पहुँचे, जहाँ शहीदे आज़म भगत सिंह की प्रतिमा पर आगरा इप्टा के कलाकारों ने अमर शहीद के सम्मान में एक गीत गाया। अब यात्रा नगर-भ्रमण पर चल पड़ी। कालीनों के लिए प्रसिद्ध इस शहर की सड़कों, गलियों में घूम-घूमकर प्रेम, भाईचारे व मानवता का संदेश दिया। आगरा इप्टा के कलाकारों ने नाटक ‘बिजूके’ का प्रदर्शन भी किया। रात 9 बजे डी आर बी इण्टर कॉलेज के प्रांगण में नाटक ‘रामलीला’ का मंचन किया गया।
09 मार्च 1995
नए गगन में नया सूर्य चमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें…
सासनी स्थित प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में वहाँ के बच्चों को बाबा नागार्जुन की यह रचना समर्पित कर रवि नागर ने ‘पहचान नज़ीर’ यात्रा के चौथे दिन को गति प्रदान की। इससे पूर्व सभी कलाकारों ने स्वांग के प्रवर्तक नत्थाराम शर्मा ‘गौड़’ और प्रसिद्ध लोक गायक छेदाला ‘मूढ़’ की समाधियों पर श्रद्धा सुमन अर्पित किये। इलाहाबाद इप्टा के कलाकार साथी शैलेन्द्र पटेल ने निराला जी की कविता ‘उद्बोधन’ द्वारा युवाओं को राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रेरित किया। इसके पश्चात आगरा इप्टा द्वारा अजीज नेसिन की कहानियों पर आधारित नाटक ‘बिजूके’ के माध्यम से भ्रष्ट नौकरशाही, नई अर्थ व उद्योग नीति, डंकल मसौदे जैसी समस्याओं पर तीखा प्रहार किया।
सासनी के चेयरमैन श्री जगदीश शर्मा द्वारा संयोजित इस कार्यक्रम के पश्चात सासनी गेट पर कुछ गीत प्रस्तुत कर यात्री अलीगढ़ के गांधी मैदान की ओर चल पड़े। भरतुआ हाउस पर भारतीय क्रांतिकारी मोर्चा के श्री जुल्फिकार, शकील अहमद, शिशिर कुलश्रेष्ठ व अनिल अवस्थी ने यात्रा का स्वागत किया। दोपहर साढ़े बारह बजे गांधी मैदान में कार्यक्रम की शुरुआत इप्टा व दृष्टि नाट्य मंच काशिमपुर अलीगढ़ द्वारा प्रस्तुत कुछ क्रांतिकारी गीतों से हुई। लखनऊ इप्टा के साथियों ने ‘आज़ादी ही आज़ादी’ गाकर यहाँ भी इन्कलाब का परचम लहरा दिया। आगरा इप्टा ने ‘बिजूके’ और निशान्त नाट्य मंच दिल्ली के शम्सुल इस्लाम तथा साथियों ने ‘आई एम एफ’ की झाँकी प्रस्तुत की। यहाँ से चलकर कलाकारों का ये सैलाब यात्रा के आवाहन गीत ‘तन्हा न उसे अपने दिले तंग में पहचान’ को फ़िजा में घोलते हुए दोपहर दो बजे अलीगढ़ विश्वविद्यालय पहुँचा। वहाँ के कैनेडी हॉल में कार्यक्रम की इब्तिदा करते हुए डॉ. नज़ीर अहमद (आपने नज़ीर अकबराबादी की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया है, जो नज़ीर ग्रंथावली के नाम से उ प्र हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित की गई है।) कहा कि, सूफ़ी परम्परा के इस महान शायर ने गंगा-जमुनी तहज़ीब को आगे बढ़ाया और सारी दुनिया को प्रेम का संदेश दिया। यात्रा के साथ लगातार चल रहे प्रह्लाद सिंह टिपानिया और साथी एक गीत गाते हैं, जिसके शब्द इस प्रकार हैं – ‘एकला मत छोड़ जो रे, बडजारा रे, परदेश का मामला टेढ़ा हो प्यारा रे’। वैसे तो धर्मदास जी द्वारा ब्रह्म और जीव के संबंध में कही गई ये पंक्तियाँ बहुत ही विस्तृत अर्थ सँजोए हैं, परंतु कभी-कभी इनका शाब्दिक अर्थ भी काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। हुआ यूँ कि जैसे ही साथी प्रह्लाद और उनके सह कलाकारों ने गीत गाना प्रारम्भ किया, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के लिए प्रसिद्ध इस विश्वविद्यालय के कुछ तालिब-ए-इल्मों ने जो रवैया अपनाया, उससे इन चार दिनों में पहली बार लगा कि हम परदेस में हैं और यहाँ का मामला वाकई टेढ़ा है। किसी-किसी कोने से तो गालियाँ भी सुनाई दीं। पर कार्यक्रम तो होना ही था, अपनी बात तो अवाम तक पहुँचानी ही थी :
जब कुछ न था तो हमने दिया था ज़मीं को खून
अब फ़स्ल पक चुकी तो समर कैसे छोड़ दें
चंदन के वन में साँप् निकलते ही रहते हैं
इस डर से खुशबुओं के शजर कैसे छोड़ दें।
लखनऊ इप्टा द्वारा ‘ब्रह्म का स्वांग’, दृष्टि नाट्य मंच द्वारा ‘सोने का मटका, बनाम लॉटरी का झटका’ तथा आगरा इप्टा द्वारा ‘आदमीनामा’ की प्रस्तुति ने अपनी बात सफलतापूर्वक सम्प्रेषित कर दी। इन प्रस्तुतियों के दौरान हॉल में एक बार जो शांति छाई, वह कार्यक्रम के अंत में दर्शकों की करतल ध्वनि से ही टूटी। यहाँ से आगे चलकर यात्री बुलंद शहर की सड़कों पर प्रेम और मानवता का संदेश देते हुए आज के अंतिम पड़ाव गाजियाबाद पहुँचे, जहाँ आयोजकों से पूर्व बारिश की फुहारों ने कलाकारों का स्वागत किया। रात में शहज़ाद रिज़वी, लक्ष्मण खलीफा तथा इप्टा के अन्य साथियों ने विभिन्न गीत प्रस्तुत कर दर्शकों को इस यात्रा के उद्देश्य से परिचित कराया।
10 मार्च 1995
जुनूँ के साज़ पर इश्क का नगमा गाते-गुनगुनाते ‘पहचान नज़ीर’ का पाँचवा दिन इलाहाबाद इप्टा के साथी शुभदर्शन द्वारा अली सरदार ज़ाफरी की रचना ‘अपने दिल की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम’ से शुरु हुआ। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण से चलकर सिहनी गेट के भीड़ भरे बाजार से गुज़रकर कलाकारों, साहित्यकारों, पत्रकारों, रंगकर्मियों का संगम घंटाघर पहुँचा, जहाँ जलती मशाल के रूप में स्थापित शहीद-ए-आज़म भगतसिंह की मूर्ति की छत्रछाया में यात्रियों ने क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किये। बजरिया, गांधी नगर, कुराब नगर व रमतेराम रोड की भागती-दौड़ती ज़िंदगी के बीच से होता हुआ ‘पहचान नज़ीर’ का ये काफ़िला कचहरी प्रांगण पहुँचा, जहाँ काले कोटों और उनके भोले-भाले व कुटिल मुवक्किलों के बीच इप्टा लखनऊ ने ‘ब्रह्म का स्वांग’ प्रस्तुत किया। दोपहर एक बजे सांस्कृतिक यात्रियों ने जब अपने को लालचंद्र इण्टर कॉलेज, साहिबाबाद के विशाल मैदान में खड़ा पाया तो देखा कि यहाँ कतारों में बैठे दर्शकों की निश्छल आँखों और मासूम चेहरों से तो प्रेम की एक नदी फूट रही है। यहाँ पर कार्यक्रम की प्रतीक्षा करते सैकड़ों की संख्या में ये बच्चे प्यार का संदेश दे रहे थे। यही तो आत्मा है कबीर की, यही तो दिल है नज़ीर का। मन में लगा कि सारे विश्व के लोग इतने निश्छल क्यों नहीं हो जाते! पर शायद ये बच्चे भी बड़े होकर किसी पंथ, किसी दल या किसी वाद में उलझकर संकीर्णता का शिकार हो जाएँ –
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है।
इस निश्छलता और मासूमियत को रवि नागर ने बाबा नागार्जुन की ओर से ‘नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है, मेरी भी आभा है इसमें’ का उपहार दिया। यही बच्चे जब इंकलाब पर उतर आएँ तो चारों दिशाओं में छा जाएँ। गीत ‘आज़ादी ही आज़ादी’ के दौरान बच्चों का जोश और भागीदारी दोनों ही अपने चरम पर दिखाई पड़े। इस अवसर पर लाला लाजपतराय डिग्री कॉलेज के प्राचार्य श्री गणेश दत्त शर्मा तथा जलेस के श्री जानकी प्रसाद जी ने सभा को संबोधित करते हुए देश की आज़ादी में कलाकारों और साहित्यकारों के योगदान पर प्रकाश डाला। बच्चों से मिली ऊर्जा अपने अंतर में सँजोये ‘पहचान नज़ीर’ का प्रवाह जस्सीपुरा मोड़, मोती मस्जिद, कैलाभट्ठा होता हुआ दिल्ली की ओर चल पड़ा।
राजधानी की सीमा पर नौजवान सभा द्वारा स्वागत के पश्चात सभी साथी अपने साज़-ओ-आवाज़ के हथियार लिये शकरपुर, शकरपुर झील, मगवली, जलेबी चौक, खुरेजी, कैलाश नगर में गीत व नाटक प्रस्तुत करते अपना संदेश जन-जन तक पहुँचाते शाम को दिलशाद गार्डन पहुँचे, जहाँ डॉ रूपरेखा वर्मा, विभांशु दिव्याल, राकेश, जितेन्द्र रघुवंशी ने उपस्थित दर्शकों को यात्रा के उद्देश्य के बारे में बताते हुए कहा कि, कबीर, सूर, तुलसी से नज़ीर तक की जो विरासत है, उस विरासत को जीवन में उतारने के उद्देश्य से ही कलाकारों, साहित्यकर्मियों का काफ़िला आगे बढ़ रहा है। इतिहास साक्षी है कि वही परम्परा आगे बढ़ी है, जो प्रेम और सद्भाव पर आधारित रही है। नफरत पर टिकी हर परम्परा को इतिहास ने भुला दिया है। आज हमें लड़ाने की जो कोशिश हो रही है, उसी साजिश के खिलाफ हम संस्कृति के माध्यम से आवाज़ उठा रहे हैं। आज की सांस्कृतिक संध्या का प्रारम्भ यात्रा के आवाहन गीत ‘तन्हा न उसे अपने’ से हुआ। इप्टा लखनऊ, इलाहाबाद, गोरखपुर और आगरा के कलाकारों की इस प्रस्तुति के बाद प्रह्लाद और साथियों ने ‘गाड़ी मेरी रंग-रंगीली, पहिया है लाल गुलाल’ प्रस्तुत किया। अंत में आगरा व लखनऊ इप्टा ने क्रमशः ‘आदमीनामा’ और ‘ब्रह्म का स्वांग’ प्रस्तुत किये।
11 मार्च 1995
आज लगा जैसे रात हुई ही नहीं, सुबह पहले हो गई। 25 अप्रेल 1993 (पदचीन्ह कबीर यात्रा का अंतिम दिन) और 11 मार्च 1995 में केवल एक ही अंतर था। उस सुबह इप्टा उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक यात्री गोरखपुर के ट्रांसपोर्ट चौराहे पर अपनी बात कह रहे थे और आज लाल किले के सामने उसी प्रेम का संदेश देकर सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आवाहन कर रहे हैं। प्रेम का चिराग़ जलाकर अपने देश की साँझी विरासत को धार्मिक कठमुल्लेपन, राजनीतिक स्वार्थों और आपराधिक कृत्यों के क्रूर जाल से बचाना ही इन संस्कृतिकर्मियों का उद्देश्य है –
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम, बस एक फिक्र दम ब दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि धर्म के ठेकेदार अब हमारे देश के महान संतों और विद्वानों द्वारा कही गई बातों को मज़हब और पंथों की चाशनी में लपेटकर परोस रहे हैं और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं –
प्रेम संदेशा दे रहा द्वारे खड़ा फ़कीर
चटख़ रजाई ओढ़ के हाकिम पढ़े कबीर।
इसी धार्मिक संकीर्णता के जाल को काटती ‘पहचान नज़ीर’ यात्रा दिल्ली के खूनी दरवाज़े पहुँची। इसी जगह पर 1857 में बहादुर शाह जफर के तीन बेटों को अंग्रेज़ों ने गोली मार दी थी। अपने वतन को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने के लिए पहला बिगुल 1857 में फूँका गया था। 90 वर्ष के लम्बे संघर्ष के बाद देश फिरंगियों से तो मुक्त हो गया पर क्या वाकई आज़ादी मिली? हाँ, सत्ता का हस्तांतरण अवश्य हो गया –
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं
दिल पे रखकर हाथ ये कहिये देश क्या आज़ाद है।
अंग्रेज़ हाकिम जिस मज़हबी भेदभाव का बीज यहाँ बो गए थे, आज के राजनीतिक स्वार्थ-साधक धर्म की खाद डालकर उसे दरख़्त बनाने में लगे हैं। ये भी ‘बाँटो और राज करो’ जैसी कलुषित मानसिकता लिये अपना जाल फैला रहे हैं। इस खूनी दरवाज़े के सामने बैठक कर लगा कि, 1857 में शुरु हुए उस आंदोलन को तब तक नहीं रूकना है, जब तक सारी दुनिया में इंसानियत का परचम नहीं लहराता। इन सांस्कृतिक यात्रियों ने नज़ीर के संदेश को जहाँ जन-जन तक फैलाया, वहीं देश के प्रथम नागरिक भारत के राष्ट्रपति महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात की। सांस्कृतिक यात्रा ‘पहचान नज़ीर’ के प्रतिभागियों को राष्ट्रपति भवन में संबोधित करते हुए राष्ट्रपति महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने कहा कि, जन कवि नज़ीर अकबराबादी की कविताओं की आज बहुत आवश्यकता है। उनके संदेशों और शिक्षा को पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया जाना चाहिए ताकि बच्चे कन्हैया का बचपन पढ़ें, ‘जैक एण्ड जिल’ नहीं। राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने आश्वासन दिया कि वे आगरा स्थित नज़ीर की समाधि के जीर्णोद्धार, उसे राष्ट्रीय स्तर का बनाने, उनकी 260वीं जयंती वर्ष पर विशेष डाक टिकट जारी करने के लिए विशेष कदम उठाएँगे।
भारतीय जन नाट्य संघ के राष्ट्रीय महामंत्री जितेन्द्र रघुवंशी ने राष्ट्रपति को इन उपेक्षाओं के संबंध में एक ज्ञापन भी दिया। इप्टा उत्तर प्रदेश की सचिव वेदा राकेश ने नज़ीर अकबराबादी का एक चित्र तथा डॉ नज़ीर मोहम्मद ने अपनी सम्पादित पुस्तक ‘नज़ीर ग्रंथावली’ राष्ट्रपति को भेंट की। शाम 5 बजे सफदर हाशमी मार्ग पर स्थित श्रीराम सेंटर के सामने गीत तथा आगरा इप्टा द्वारा नाटक ‘बिजूके’ प्रस्तुत किया गया। यहाँ से ‘पहचान नज़ीर’ के सभी कलाकार इस यात्रा के अंतिम ठौर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे एन यू) पहुँचे। कार्यक्रम की शुरुआत जे एन यू इप्टा द्वारा प्रस्तुत भरतनाट्यम से हुई। इसके पश्चात उत्तर प्रदेश इप्टा के कलाकारों ने यात्रा का आवाहन गीत ‘आशिक हैं तो दिलवर को हर इक रंग में पहचान’ प्रस्तुत किया। इस गीत ने प्रेक्षागृह में जो माहौल रचा, उसमें शलभ श्रीराम सिंह के गीत नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम’ ने प्राण फूँक दिये। मियाँ नज़ीर के अद्वैतवाद और शलभ जी के इंकलाब में, प्रह्लाद सिंह टिपानिया और साथियों द्वारा प्रस्तुत कबीर की रचनाओं के आध्यात्मिक विस्तार को, आगरा व लखनऊ इप्टा के कलाकार अमीर खुसरो की प्रसिद्ध रचना ‘मन कुंतो मौला’ के माध्यम से ‘चढ़े न दूजो रंग’ की जिस पराकाष्ठा तक ले गए, उसे नज़ीर ने कुछ यूँ बयान किया है –
सब होश बदन का दूर हुआ, जब गत पर आ मरदंग बजी
तन भंग हुआ, दिल दंग हुआ, सब आन गई बे आन सजी।
कुछ देर के लिए दूसरी दुनिया में डूब गए दर्शकों को आगरा इप्टा के कलाकारों ने नज़ीर की रचना ‘आदमीनामा’ पर आधारित नाटक के ज़रिये ठोस यथार्थ से रूबरू कराया –
याँ आदमी ये जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वो भी आदमी।
आदमी की इसी कहानी को आगे बढ़ाया लखनऊ इप्टा के नाटक ‘रामलीला’ ने। लक्ष्मण खलीफा की होली के पश्चात कार्यक्रम का समापन इंकलाबी आवाहन ‘आज़ादी ही आज़ादी’ से हुआ। आगरे के इस आशिक शायर और फ़कीर नज़ीर अकबराबादी के पैगाम के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए आयोजित ‘पहचान नज़ीर’ यात्रा का दिल्ली के जे एन यू में भौतिक समापन तो हो गया, पर ‘‘दिल्ली अभी दूर है।‘‘ वैमनस्यता के तांडव, राजनैतिक दाँवपेंचों और साम्प्रदायिकता के राक्षस का मुकाबला करने के लिए इस प्रक्रिया का अनवरत चलते रहना नितांत आवश्यक है। पुनरुत्थानवाद और बर्बरियत के जरिये देश को सैकड़ों साल पीछे ढकेलने की साज़िश का सामना कबीर, नज़ीर, नानक, सहजोबाई, तुकाराम, शेख फरीद और इसी धारा के तमाम संतों की रचनाओं और उसके मर्म को देश के कोने-कोने तक पहुँचाकर ही किया जा सकता है –
लीक-लीक तीनों चले कायर कूर कपूत,
बिना लीक तीनों चलें शायर, सूर, सपूत।