गाड़ी मेरी रंग-रंगीली पहिया है लाल गुलाल
अखिलेश दीक्षित ‘दीपू’
(इप्टा ने अनेक समविचारी संगठनों के साथ मिलकर पिछले वर्ष 09 अप्रेल 2022 से 22 मई 2022 तक 44 दिनों में छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 89 जिलों के गाँवों-कस्बों-शहरों में ‘ढाई आखर प्रेम’ का सन्देश फैलाया था । अपने गीतों, नाटकों, लोकगीतों, नृत्यों, भाषणों और परस्पर संवाद के माध्यम से लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त की। इसे आगे बढ़ाते हुए इस वर्ष 27 सितम्बर 2023 से 30 जनवरी 2024 तक देश के 22 राज्यों में ‘ढाई आखर प्रेम’ का सन्देश लेकर सांस्कृतिक जत्था पदयात्रा करने जा रहा है।
सांस्कृतिक यात्रा इप्टा के जन्म से ही जुडी हुई है। 1943 में फैलाये गए बंगाल के अकाल के साथ साथ इप्टा के विधिवत गठन से पूर्व ही जन जागरण के लिए सांस्कृतिक यात्रायें शुरू हुई थीं। बंगाल कल्चरल स्क्वाड से शुरू होकर सेन्ट्रल कल्चरल स्क्वाड तक की इन यात्राओं में न केवल भारत की विभिन्न लोक संस्कृति एवं नागर संस्कृतियों का सम्मिश्रण था, वरन देश की तत्कालीन परिस्थितियों की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और उपनिवेशवादी विसंगतिपूर्ण नीति एवं उनके परिपालन के विश्लेषण का प्रस्तुतीकरण और उसके विरुद्ध एकजुट संघर्ष का आह्वान किया गया था। इन परिस्थितियों से जूझकर एक बेहतर संतुलित समतावादी समाज-रचना का लक्ष्य भी सामने रखा गया था।
इसी विरासत को उत्तर प्रदेश इप्टा ने 1989 से 1999 के बीच अनेक चरणों में आगे बढ़ाया। 2010 में भी वामिक जौनपुरी पर केंद्रित एक यात्रा की गयी थी। प्रत्येक यात्रा को किसी न किसी उद्देश्य पर केंद्रित किया गया था। प्रत्येक यात्रा में 3-4 जिलों के अनेक गाँव-कस्बे-शहर सम्मिलित किये गए थे। उनके कार्यक्रम शहरी समस्याओं से लेकर गाँव की अमराई, चौपाल, बाजार तक फैले हुए थे। इसमें गंभीर संगोष्ठियाँ भी थीं, लोकगीत, जनगीत, नाटक, कविता-पाठ भी था उनकी स्थानीय समस्याओं को सामने लाकर उनसे उबरने का, सामूहिक संकल्प लेने का जज़्बा पैदा करने की ताक़त थी और था अनवरत रचनात्मक श्रम। इनकी रिपोर्ट्स इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष राकेश ने उपलब्ध करवाई थीं। इन्हें रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ में 2007 के रजत जयंती विशेषांक में प्रकाशित किया गया था। ये सांस्कृतिक यात्रायें इप्टा की अनेक इकाइयों के अलावा अन्य जन संगठनों को भी अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार नई दिशाएँ तलाशने की प्रेरणा देंगी। – उषा वैरागकर आठले )
खेतों में दूर तक फैली धूप। पेड़ों की छाँव पूरे रास्ते जगह-जगह स्वागत करने को प्रतीक्षारत भोलेभाले ग्रामीण, मंच सजाए बैठे आयोजक और गाते-बजाते प्रेम और सद्भाव का संदेश देते हुए आगे बढ़ते कलाकार, इन सभी का सुरीला संगम थी ‘पद चीन्ह कबीर’ यात्रा।
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) उत्तर प्रदेश राज्य इकाई, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और कलम द्वारा 18 से 25 अप्रेल 1993 तक कबीर की कर्मस्थली काशी से उनके अंतिम पड़ाव मगहर तक आयोजित इस सांस्कृतिक यात्रा का उद्देश्य था कबीर की वाणी और उसके मर्म को जन-जन तक पहुँचाकर आज के हालातों में कबीर की महत्ता को पहचानना।
18 अप्रेल 1993 :
काशी से मगहर तक की इस यात्रा की शुरुआत बनारस विश्वविद्यालय के मालवीय हॉल में आयोजित गोष्ठी ‘भारतीय लोक जागरण व वर्तमान चुनौतियाँ’ से हुई। विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. चंद्रशेखर झा की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई गोष्ठी में डॉ. काशीनाथ सिंह, डॉ. रूपरेखा वर्मा, मुद्राराक्षस, डॉ. शुकदेव सिंह, कैफी आज़मी, शौकत आज़मी, मुजफ्फर अली, वीरेन्द्र यादव, राकेश सहित तमाम जाने माने संस्कृतिकर्मी व विचारक उपस्थित हुए। वर्तमान चुनौतियों की गंभीरता समझते हुए लगभग सभी वक्ता आज के संदर्भों में कबीर और उनके विचारों की आवश्यकता पर एकमत हुए। इसके बाद कबीर मंच देवास (मध्य प्रदेश) से आए प्रह्लाद टिपानिया और उनके साथियों ने कबीर के पदों को गाकर ‘पद चीन्ह कबीर’ की मशाल प्रज्वलित की। गोकुल आर्ट्स वाराणसी के नाटक ‘एक कबीर की हत्या’ ने सुअर और गाय के मांस को धार्मिक स्थलों में फेंककर मज़हबी उन्माद फैलाने वालों की असलियत को उजागर किया। वाराणसी के ही लोक गायक काशी भगत ने ढमना बजाकर पारम्परिक तरीके से गीत प्रस्तुत किये। इप्टा रायपुर के कलाकार निसार अली ने जीवन यदु का बहुचर्चित गीत ‘जब तक रोटी के प्रश्नों पर रखा रहेगा भारी पत्थर’ प्रस्तुत किया। यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि पूरी यात्रा के दौरान ऐसा कोई आयोजन नहीं हुआ, जिसमें यह गीत न गाया गया हो। यही स्थिति कबीर मंच देवास के गीत ‘ज़रा धीरे गाड़ी हाँको’ की हुई, जो यात्रा के अंत तक मार्चिंग साँग जैसा हो गया। इसी अवसर पर इप्टा लखनऊ ने कविता पोस्टरों की एक प्रदर्शनी भी आयोजित की, जिसमें युवा चित्रकार पंकज निगम के अतिरिक्त इंदु रूपा इरा और अरुण त्रिवेदी के पोस्टर प्रदर्शित किये।
19 अप्रेल 1993 :
यात्रा के सही संदर्भों में देखा जाए तो इसकी शुरुआत आज सुबह 09 बजे बी एच यू के सिंहद्वार से हुई, जब कलाकारों, साहित्यकारों और चित्रकारों का कारवाँ निकल पड़ा कबीर की कार्यस्थली बनारस में, उन्हीं के पदों व विचारों से गुंजायमान करने के लिए। लंका, अस्सी, शिवाला, मदनपुरा, गुदौलिया, बेनियाबाग, गुरुद्वारा, बजरडीहा, जुलाहों की बस्ती, नज़ीर बनारसी के घर, कबीर के पालन-पोषण स्थल, लहरतारा, लहुरा वीर होते हुए इस काफिले ने अपनी 40 किलो मीटर लम्बी यात्रा को कबीर कीर्ति मंदिर में समाप्त किया। शाम को यहाँ पर इप्टा लखनऊ के रवि नागर, निवेदिता भार्गव, संजीव भट्टाचार्य तथा कबीर मंच देवास के प्रह्लाद सिंह टिपानिया, गिरधर लाल यादव, नारायण सिंह व अन्य कलाकारों ने कबीर के पदों को प्रस्तुत किया। विशेष तौर पर लखनऊ के रवि नागर व देवास के कलाकारों की प्रस्तुतियाँ सराहनीय रहीं।
20 अप्रेल 1993 :
‘ज़रा धीरे गाड़ी हाँको मेरे राम गाड़ी वाले’, कबीर मंच देवास के इस भजन से शुरु हुई आज की यात्रा। वाराणसी से निकलकर यह यात्रा पाण्डेपुर होते हुए लमही पहुँची। वहाँ कथा-सम्राट प्रेमचंद के गाँव लमही में उनके मकान की जर्जर अवस्था और उसमें फैली गंदगी सभी कलाकारों को बहुत गहरे तक बेध गई। यात्रा की शुरुआत से ही लमही पहुँचकर प्रेमचंद के जन्म व उनकी रचनाओं से जुड़े स्थल पर खड़े होकर उसे छूने का जो रोमांच सभी यात्रियों में था, वहाँ की हालत देखकर गहरी वेदना में तब्दील हो गया। सभी चुप… कुछ क्रोध से, कुछ वेदना से!! आगे तो बढ़ना ही था, तो भारी मन लिए ‘पद चीन्ह कबीर’ के यात्री लमही से चलकर मुख्य सड़क से लगभग छः-सात किलो मीटर अंदर हृदयपुर गाँव पहुँचे, जहाँ कार्यक्रम का आयोजन होना था। यहाँ दर्शकों में महिलाओं की संख्या बहुत थी। पुरुषों व बच्चों से थोड़ा अलग हटकर खड़ी महिलाओं की भीड़ में लम्बे-लम्बे घूँघटों के पीछे पथराई आँखों से झाँकती वेदना ने कलाकारों को सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत ‘चुपाई मारो दुलहन मारा जाई कौआ’ गाने को बाध्य कर दिया। सांस्कृतिक यात्रियों ने यह गीत हृदयपुर गाँव की महिलाओं को ही समर्पित किया। ‘चुपाई मारो दुलहिन’ के माध्यम से औरतों की स्थिति का बयान करते हुए व अन्य गीत प्रस्तुत करते हुए कलाकार गाँव वालों से विदा लेकर सारनाथ, सेदपुर, नंदगंज में अपने कार्यक्रम करते सद्भावना का संदेश देते हुए 4 घंटे विलंब से 11 बजे रात गाजीपुर पहुँचे।
21 अप्रेल 1993 :
पिछली रात 3 बजे सोये इन कलाकारों में न जाने कहाँ से स्फूर्ति संचारित हुई और सब के सब सुबह 6 बजे से ही आज की तैयारी में लगे दिखाई दिये। यात्रा में चल रही इप्टा लखनऊ की वेदा राकेश, नाहीद जमाल और निवेदिता भार्गव के चेहरों पर भी कहीं से कोई थकान नज़र नहीं आई। बात करने पर सभी के इरादे बुलंद दिखाई दिये। सो चल पड़ा कारवाँ गाजीपुर भ्रमण करता हुआ जंगीपुर की ओर, जहाँ के बच्चों ने एक गीत ‘पनिया आवत है मांझी है तैयार’ पूरे जोश से गाया। यात्रा के साथ चल रहे प्रसिद्ध साहित्यकार मुद्राराक्षस ने दर्शकों को संबोधित किया। प्रसिद्ध शायर व इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कैफी आज़मी और उनकी हमसफर शौकत आज़मी भी कलाकारों के इस काफिले के साथ चल रहे थे। कैफी आज़मी ने अपनी नज़्म ‘दूसरा बनवास’ सुनाई, जिसमें उन्होंने 06 दिसम्बर 1992 की शर्मनाक घटना के बाद भगवान राम की मनःस्थिति का बयान किया है। इप्टा लखनऊ के सुखेन्दु मंडल, शत्रुघ्न, राकेश वर्मा, वेदा राकेश व अन्य साथियों ने वहाँ के बच्चों के साथ बाबा नागार्जुन का गीत ‘मेरी भी आभा है इसमें’ प्रस्तुत किया। निरंतर आगे बढ़ती यह सांस्कृतिक यात्रा गाजीपुर जनपद के अंतिम पड़ाव मरहद पहुँची, जहाँ देवास और लखनऊ के कलाकारों ने गीत गाए। अगले पड़ाव मऊ पहुँचने के कई किलो मीटर पहले ही स्वागत के लिए प्रतीक्षारत साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘मंथन’ व ‘जागृति नाट्य मंच’ के कलाकार व अन्य आयोजकों ने यात्रा का हार्दिक स्वागत किया। यहाँ से कार्यक्रम स्थल मुस्लिम इंटर कॉलेज मऊ तक यह यात्रा बहुत बड़े जुलूस में तब्दील हो गई। लगभग 07 किलो मीटर की दूरी तय करते गाते-बजाते हुए ये सांस्कृतिक यात्री शाम 6 बजे तक मऊ पहुँचे, जहाँ मुस्लिम इंटर कॉलेज के परिसर में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। बड़े शहरों में प्रायः गोष्ठियों के प्रति आम श्रोताओं का लगाव लगभग न के बराबर होता है, वहीं इस यात्रा के दौरान गोष्ठी में आए श्रोताओं की संख्या जहाँ एक ओर छोटे कस्बे और गाँव में संस्कृति-कर्म व परिचर्चा के प्रति आम जन की जागरूकता को उजागर कर रही थी, वहीं दूसरी ओर ग्राम्यांचलों में बसे लाखों लोगों के प्रति तमाम भ्रांतियों को भी तोड़ती थी।
22 अप्रेल 1993 :
सुबह 8 बजे ‘पद चीन्ह कबीर’ के सांस्कृतिक यात्री चल पड़े मिर्ज़ा हादीपुरा की ओर। चौराहे पर एकत्र सैकड़ों की भीड़ के समक्ष इप्टा के कलाकारों ने ‘आज़ादी’ का गीत गाया। आज़ादी के इस गीत की विशेषता यह है कि, इसमें दर्शक भी समान रूप से भागीदारी करते हैं। हज़ारों आवाज़ें एक साथ मिलकर जब धर्मान्धता और मज़हबी वैमनस्य से आज़ादी माँगते हैं, तो सारा आकाश गूँज उठता है। वैसे तो इस पूरी यात्रा का हर पड़ाव निश्चित था, परंतु उसके अतिरिक्त न जाने कितने स्थानों पर दरी बिछाए या तखत लगाए सड़क के किनारे घंटों से इंतज़ार करते भोलेभाले ग्रामीण तमाम देरी के बावजूद इन सांस्कृतिक यात्रियों को रूकने पर बाध्य करते। उनकी आँखों का मौन आग्रह, थकान, देरी और कुछ कलाकारों की थकानजनित झुंझलाहट पर इतना हावी हो जाता था कि कब कबीर के पद गूँजने लगते थे, पता ही नहीं चलता था। गोहना से निकलकर यह यात्रा मठियाँव होती हुई मुबारकपुर पहुँची। वहाँ पर कार्यक्रम चल ही रहा था कि, पैंट-बुशशर्ट पहने दो नौजवान आपस में ही बुरी तरह लड़ पड़े। इधर यात्रा के कलाकार मंच से सद्भावना का संदेश दे रहे थे और ठीक मंच के दाहिने कोने पर एक कुर्सी के पीछे लड़ाई हो रही थी। इस सम्पूर्ण यात्रा के दौरान मुबारकपुर एक अकेली ऐसी जगह थी, जहाँ कार्यक्रम रोकना पड़ा, वर्ना तो दर्शक छोड़ते ही नहीं थे कलाकारों को।
मुबारकपुर से निकलकर यात्रा सिधारी हाइडिल क्रॉसिंग पहुँची, जहाँ राहुल सांकृत्यायन स्मृति संस्थान के प्रमुख व अन्य लोग प्रतीक्षारत थे। राहुल की प्रतिमा पर इप्टा व कबीर मंच के कलाकारों ने माल्यार्पण किया। आयोजकों के अत्यधिक आग्रह पर इप्टा लखनऊ के रवि नागर और अन्य साथियों ने ‘कबीर भला हुआ’ व अन्य दोहे प्रस्तुत किये। आज के अंतिम पड़ाव आजमगढ़ पहुँचने से पहले ‘पद चीन्ह कबीर’ के यात्रियों को यायावराचार्य राहुल सांकृत्यायन के गाँव कनैला पहुँचना था। ओ पी अवस्थी, आशु, वेदा राकेश, राजीव भटनागर, संजीव भट्टाचार्य, विनय सिंह व अन्य कलाकारों में अच्छा तालमेल नज़र आया। इप्टा लखनऊ का ‘रामलीला’ व ‘रामकबीर’ पूरी यात्रा में जगह-जगह पर प्रस्तुत किये गये।
23 अप्रेल 1993 :
जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ते जा रही थी, वक्ताओं और कलाकारों पर प्रेम का रंग चढ़ता जा रहा था, जो मगहर तक ‘चढ़ै न दूजो रंग’ की स्थिति में पहुँच गया था। सुबह 8 बजे से ही कलाकारों व लेखकों का कारवाँ आजमगढ़ भ्रमण पर निकल पड़ा। कबीर, खुसरो, नानक व अन्य सूफी संतों की वाणी जन-जन में बिखेरने से यात्री बनकर जियनपुर बोझी होते हुए काफिला झारखण्डे राय के गाँव अमिला पहुँचा। रोज की तरह आज भी जगह-जगह आँखें बिछाए ग्रामीण श्रोताओं के आग्रह ने यात्रा को 2-3 घंटे पीछे कर दिया। सांस्कृतिक यात्री अमिला से चलकर घोसी पहुँचे, जहाँ तीन कार्यक्रम प्रस्तुत हुए। एक स्थान पर तो एक साधु बाबा विभोर होकर नाचने लगे। यात्रियों का उद्देश्य जानकर उन्होंने अश्रुपूरित आँखों से पूरे दल को शुभकामनाएँ दीं। कबीर की मशाल लिए ‘परदेश का है मामला टेढ़ा हो प्यारा रे’ गाते हुए देवास, लखनऊ, रायपुर, आगरा व बनारस के कलाकार रात दोहरी घाट पहुँचे। आजमगढ़ से लोक कवि व गायक विनय राय भी यात्रा में शामिल हो गए। शाम के कार्यक्रम की शुरुआत उन्हीं के गीत ‘हमका बाम्हन बनाई दो’ से हुई। इसके बाद देवास के प्रह्लाद व साथियों ने कबीर की वाणी बिखेरी। लखनऊ की निवेदिता व रवि ने भी कुछ लोकगीत प्रस्तुत किये। इप्टा लखनऊ और आगरा के कलाकारों ने मिलकर अदम गोंडवी का गीत ‘हिंदु मुस्लिम के अहसास को मत छेड़िये’ तथा राकेश के गीत ‘शमशीरों में दम है कितना चाहो जो आजमा लो तुम’ प्रस्तुत किये। अंत में आगरा इप्टा के कलाकार सतीश महेन्दु, विशाल रियाज, श्याम रस्तोगी व अन्य अभिनेताओं ने नाटक ‘बिजूके’ प्रस्तुत किया।
24 अप्रेल 1993 :
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर लोग आते गए कारवाँ बनता गया – 500 वर्ष पहले कबीर जब अकेले ही मशाल लेकर चल पड़े होंगे, तो न जाने कितना विरोध हुआ होगा! इन सब विरोधों से लड़ते हुए इंसानियत की जिस मंज़िल की तरफ ‘कबीर’ अकेले चल पड़ते हैं, उसमें लोग जुड़ते जाते हैं, काफिला बनता जाता है। दोहरी घाट भ्रमण में चमकते सूरज के नीचे उमड़ आया जनसमूह उस महान संत के विचारों की सार्वभौमिकता का जीता-जागता उदाहरण था। जनवादी लेखक संघ के कार्यालय में जलपान कर सांस्कृतिक यात्रियों का यह काफिला बड़हतगंज होते हुए महान शायर फिराक गोरखपुरी साहब के गाँव बनवारपार पहुँचा। उनके पैतृक मकान का आधा भाग तो ढह गया है, आधे में फिराक साहब मेमोरियल स्कूल चलता है। स्वामी सहजानंद सरस्वती के बाद आज़ादी के आंदोलन में किसानों को संगठित करने वाले इस महान व्यक्तित्व के जन्मस्थान पर उनकी स्मृति में स्कूल देखकर कुछ अच्छा अहसास तो होता है परंतु लमही हो या बनवारपार, कुल मिलाकर स्थितियाँ काफी कष्टप्रद हैं। प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, फिराक गोरखपुरी – ये सभी साहित्यकार उसी सांस्कृतिक परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं, जिसकी निर्भीक अभिव्यक्ति कबीर और सूफी संतों ने की।
संतों को कहाँ सीकरी सों काम
आवत जात पहनियाँ टूटी, बिसारे गयो हरि नाम।
फिराक के जन्मस्थल पर लखनऊ इप्टा के रवि नागर ने उनकी मशहूर नज़्म ‘ये तो नहीं कि गम नहीं, हाँ मेरी आँखें नम नहीं’ गाई। फिराक के घर की ज़मी पर उन्हीं की ग़ज़ल रवि नागर जैसे सिद्ध गायक की आवाज़ में सुनना अद्भुत अनुभव था। आगरा इप्टा के सतीश महेन्दु ने फिराक के ही एक खण्ड काव्य के कुछ अंश प्रस्तुत किये। इसके बाद सब चल दिये देईडीह होते हुए उरवा बाज़ार की ओर, जहाँ दिन के ठीक 12 बजे सूरज की छत के नीचे लखनऊ इप्टा के कलाकारों ने प्रेमचंद की कहानी पर आधारित नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ प्रस्तुत किया। नारी के प्रति पुरुष के दोहरे मापदंड को उजागर करते हुए इस नाटक ने आसपास खड़े सैकड़ों दर्शकों को प्रभावित किया। आगे चलते ही सौकरीगंज में खड़े लोगों ने यात्रा को रोककर स्वागत करते हुए कार्यक्रम प्रस्तुत करने का आग्रह किया। पास ही एक गाँव छतुवाधार में पिछली रात बिजली की एक दुर्घटना में कई व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी और कई घायल हो गए थे। सांस्कृतिक यात्रियों ने मृतकों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए घायलों के शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ की कामना की। महादेवा में कार्यक्रम को प्रस्तुत करते हुए यात्री रात 8 बजे गोरखपुर टाउन हॉल के मैदान में पहुँचे। निवेदिता के लोकगीत, आगरा इप्टा के जनगीतों और कबीर मंच देवास के पदों ने दर्शकों का मन मोह लिया।
25 अप्रेल 1993 :
सुबह 6 बजे से चहलपहल शुरु हो गई। गोरखपुर टाउन हॉल से चलकर तमाम क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए सभी यात्री ट्रांसपोर्ट चौराहे पर पहुँचे। वहाँ आगरा इप्टा ने एक दिन पहले ही तैयार किया प्रहसन ‘रामधुन जागी हरामधुन लागी’ प्रस्तुत किया। नौसाद और सहनजवाँ होते हुए ‘पद चीन्ह कबीर’ सांस्कृतिक यात्री डोडरिया कलां पहुँचे, जहाँ स्वतंत्रता आंदोलन में जान की बाजी लगाने वाले 15 अज्ञात शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित किये गये। अपनी चिरपरिचित विनम्रता लिए हुए मशहूर जनकवि अदम गोंडवी भी यात्रा में शामिल हो गए। शाम चार बजे मगहर पहुँचते-पहुँचते एक अजीब-सी अनुभूति हो रही थी। पूरे मगहर की हवा में एक ऐसी ताज़गी थी, जिसने सारी थकान दूर कर दी। वैसे तो किसी भी आयोजन का अंतिम चरण बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, फिर जहाँ कबीर जैसे महान विचारक का अंतिम पड़ाव हो तो अनुभूति शब्दों से परे हो जाती है। काशी से कबीर के पदचिन्हों को पहचानते, पचासों गाँव से गुज़रते हुए कबीर की समाधि व मज़ार के सामने पहुँच यह सांस्कृतिक दल मानो कह रहा हो – यहाँ से आगे बढ़ती है वह यात्रा, जिसकी शुरुआत 500 वर्ष पहले कबीर ने की थी। यात्रा के साथ चल रहे प्रसिद्ध साहित्यकार मुद्राराक्षस के शब्दों में, ‘यह यात्रा अंत नहीं है, बल्कि अब यह अधिक ऊर्जा और संकल्प के साथ प्रारम्भ होती है।’ रवि नागर के गंभीर स्वर में गूँजती जोश मलीहाबादी की नज़्म –
बोल इकतारे झन झन झन झन
सबकी आँखें मेरे तारे
सबके काजल मेरे पारे
सबकी साँसें मेरे धारे
सारे इंसा मेरे प्यारे
सारी धरती मेरा आँगन
बोल इकतारे झन झन झन झन
कबीर मंच देवास के कलाकारों का ‘ज़रा धीरे गाड़ी हाँको, मेरे राम गाड़ीवाले’ और आगरा इप्टा का गीत ‘हिंदु मुस्लिम के अहसास को मत छेड़िये’ कबीर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि थी।
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।
अदम गोंडवी की ग़ज़ल से शुरु हुआ शाम का कार्यक्रम। आमी नदी और कबीर स्मृति भवन के बीच स्थित बड़े से मैदान में मंच सजा था। स्मृति भवन की गंभीरता और नदी के प्रवाह ने मिलकर सभी प्रस्तुतियों में ऐसी रवानगी भर दी कि, अमीर खुसरो का ‘मन कुंतो मौला’ पूरा भी न हो पाया था कि ज़ोर की आँधी ने सभी कलाकारों और श्रोताओं को शामियाने के नीचे दबा दिया। चारों तरफ अंधेरा… भागदौड़…! आयोजकों ने धैर्य के साथ सभी कलाकारों को कबीर समाधि में सुरक्षित पहुँचा दिया, जहाँ रवि नागर की आवाज़ दुगुनी शिद्दत से ‘मन कुंतो मौला’ गूँजने लगी। समाधि-स्थल के बरामदे में चल रहे सूफी गीतों और आसमान में चमकती बिजली के बीच एक अजीब-सा रिश्ता कायम हो गया था। ऐसा लगता था जैसे प्रकृति बार-बार उस तेज़ आँधी और अंधेरे में प्रेम व सद्भाव का दीप जलाए रखने का आग्रह कर रही हो इन सांस्कृतिक यात्रियों से।(क्रमशः)