(सभी फोटोग्राफ्स गूगल से साभार)
तमाशा थियेटर द्वारा निर्मित तथा सुनील शानबाग द्वारा निर्देशित नाटक ‘वर्ड्स हैव बीन अटर्ड’ देखने का अवसर मिला। मैंने सुनील शानबाग के निर्देशित अनेक नाटकों की समीक्षाएँ पढ़ी थीं, परंतु उनका कोई नाटक प्रत्यक्ष देखने का मौका नहीं मिला था। इसीलिए जब पता चला कि हरकत स्टुडियो में ‘वर्ड्स हैव बीन अटर्ड’ का मंचन है, मैं पहुँच गई। पहले नाटक की एक झलक यू ट्यूब के सौजन्य से देखिये …
मुंबई में अनेक बड़े सर्व-सुविधायुक्त ऑडिटोरियम्स के अलावा सीमित दर्शकों के लिए छोटे-छोटे अनेक स्टुडियो थियेटर्स हैं। वरसोवा का आराम नगर इलाका इस तरह के कई थियेटर्स से गुलज़ार है। अरविंद गौड़ के अस्मिता थियेटर ग्रुप की मुंबई शाखा का एक थियेटर मैंने सबसे पहले यहाँ देखा। अन्य जगहों पर भी कुछ अपार्टमेंट्स में इस तरह के थियेटर स्पेस बने हुए हैं, जहाँ सीमित आसन-व्यवस्था के साथ लाइट्स और ध्वनि-व्यवस्था की बेहतरीन सुविधाएँ होती हैं। इनमें 30 से 50 दर्शक एक साथ बैठकर देख सकते हैं। इस तरह के इंटीमेट थियेटर में कलाकार-दर्शक की सम्प्रेषणीयता बेहतर स्थापित होती है। गहन संवेदनशील और वैचारिक कथ्य के नाटक इन थियेटर स्पेसेस में बहुतायत से खेले जाते हैं।
हरकत स्टुडियो में शो शुरु होने के 15 मिनट पहले हमें प्रवेश दिया गया। यह आयताकार लंबोतरा हॉल है। इसके एक सिरे पर समतल अभिनय का स्पेस है, सामने ही दर्शक गद्दियों तथा कुर्सियों पर बैठते हैं। छोटे से मंच पर कुछ स्टूल्स, उन पर किताबें और डायरियाँ, मुढ्ढे, एक टेबल, एक टेलिस्कोप और एक सिंथेसाइज़र दिखाई दे रहा था। तीसरी घंटी होने पर सबसे पहले रोहित दास ने गिटार बजाते हुए प्रवेश किया और उसके पीछे-पीछे अन्य कलाकार भी आए और स्टूल पर अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए। पीछे बैक कर्टन के बीचोबीच स्क्रीन लगी थी।
सबसे पहले निर्देशक सुनील शानबाग ने नाटक की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए बताया कि यह प्रस्तुति असहमति या डिसेंट की बहुआयामी अभिव्यक्तियों को मिलाकर बनी है। इसमें अनेक सदियों, अनेक देशों, अनेक भाषाओं, अनेक धर्म-जाति-लिंग-उम्र के साथ होने वाले अन्यायों का प्रतिरोध व्यक्त करने वाली रचनाओं को प्रस्तुत किया जाएगा।
सबसे पहले स्क्रीन पर कुछ एनिमेशन्स के ज़रिए तमाम तरह की असहमतियों की शाखाओं-प्रशाखाओं को प्रदर्शित किया गया। उसके बाद मंच पर आते हैं बर्टोल्ट ब्रेख़्त के नाटक ‘गैलीलियो’ के दो पात्र। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध खगोलविज्ञानी गैलीलियो चर्च के साथ संघर्ष करते हुए आठ साल तक अपने घर में क़ैद रखे गए थे, उस स्थिति में भी उनका लिखना जारी था। यह नाटक उस समय पर आधारित है, जब गैलीलियो कोपर्निकस की इस थ्योरी पर काम कर रहे थे कि, विश्व का केन्द्र पृथ्वी नहीं, सूर्य है। सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। कैथेलिक चर्च इस थ्योरी का घोर विरोधी था। उसका मानना था कि यह थ्योरी बाइबिल विरोधी है। ईश्वर द्वारा निर्मित की गई सृष्टि में कोई मनुष्य कैसे हस्तक्षेप कर सकता है!
स्क्रीन पर ‘लांडे’ शीर्षक पारम्परिक अफगानी गीत बुर्के में लिपटी महिलाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। यह गीत उन पर लगी ‘प्रेमसंबंधी’ बंदिशों के विरोध में गाया गया है। बहुत सरल-सहज शब्दों के इस अंग्रेज़ी में अनूदित गीत और उसकी मार्मिक धुन में स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक प्रेम की अभिव्यक्ति पर लगे पहरे बहुत गलत मालूम देते हैं। गीत इस लिंक पर सुना जा सकता है :
https://afrahshafiq.com/work/words-have-been-uttered
इसी तरह की अभिव्यक्ति मिलती है मराठी संत कवयित्रियों जनाबाई, सोयराबाई और अल्लामा प्रभु की भक्ति-कविताओं में। सोयराबाई पूछती हैं, ‘‘तुम कहते हो कुछ शरीर अछूत हैं/तो बताओ, आत्मा का क्या?/तुम कहते हो कि अशुद्धि शरीर में जन्मी है/अगर माहवारी के खून से मैं अशुद्ध हूँ/तो बताओ, कौन है जो उस खून से पैदा नहीं हुआ?’’
इसके बाद अंकिता आनंद की कविता ‘यू, आई डिटन्ट’ और बॉब डिलेन का गीत ‘द टाइम्स दे आर ए-चेंजिंग’ प्रस्तुत किया गया। इनके अतिरिक्त अनसुया की ‘थ्रीसम’, इफ्तिखार नसीम की ‘हर/मैन’, गोगवे की ‘भक्ति पोयम’, हबीब जालिब की ‘मौलाना’ तथा ‘दस्तूर’, नामदेव ढसाल की ‘न्यू दिल्ली 1985’, धूमिल की ‘बीस साल बाद’, अवतार सिंघ संधू ‘पाश’ की पंजाबी कविता ‘अपनी सुरक्षा से’ मीना कंदासामी की ‘द एण्ड ऑफ टूमॉरो’, लाल सिंह दिल की ‘वर्डस हैव बीन अटर्ड’, नोमान शौक की ‘मुख्य धारा में’, सचिन माली की ‘डियर डेमोक्रेसी’ कविताएँ अलग-अलग तरीके से प्रस्तुत की गईं। कुछ कविताओं के कुछ हिस्से पढ़कर, लय में बोलकर, गाकर साभिनय प्रस्तुत किये गये। इन्हें एक साथ नहीं, बल्कि अन्य विधाओं के बीच गूँथकर मंचित किया गया। मेघनाथ का आदिवासी जीवन के विस्थापन से जुड़े सीधे सवाल दागता लोकप्रिय गीत ‘गाँव छोड़ब नाहीं’ को कोरस में सुनना दर्शकों को भी गाने के लिए मजबूर कर रहा था।
सचिन माली की मूल मराठी कविता ‘डियर डेमोक्रेसी’ के सपन सरन द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद की कुछ पंक्तियाँ हैं, ‘‘डियर डेमोक्रेसी, बोल हमारी भूख में क्या खाएँ?/घिसी एड़ी के, भूख से मरते लोगों का आक्रोश खाएँ?/या ‘सूतक’ में क्रियाकर्म के लिए लिया उधार खाएँ?/… दिन-ब-दिन दुख फैलाती झोंपड़पट्टियाँ खाएँ?/कि झोंपड़पट्टी से बेइज़्ज़त कर छीनी गई मानवता की नग्नता को खाएँ?…’’ लोकतंत्र किसके लिए, किस तरह का और क्या है, समाज के कटु यथार्थ को आइना दिखाती यह कविता सिहरन पैदा करती है।
ज़कारिया तामेर का नाट्यांश ‘ओमर खैयाम’ में उनके कब्र से खोदकर लाए गये स्केलेटन से कोर्ट के सवाल-जवाब का प्रसंग न्याय-व्यवस्था के सत्ताकेन्द्रित नज़रिये को दिलचस्प तरीके से प्रस्तुत करता है। ओमर खैयाम के मुकदमे के अंत में जज निर्णय देता है, ‘‘बस खामोश!! गवाहों के बयान से यह साबित होता है कि ओमर खैयाम की शायरी न सिर्फ गैर मुल्की सामान खरीदने और शराब के लिए लोगों को बुलाती है बल्कि बगावत भी अपने अंदर रखती है… कैसे? हमारे गवाहों के बयान से यह भी साबित होता है कि ओमर खैयाम की शायरी देश में उदासी का मौजूद होना स्वीकारती है… तस्लीम करती है… उदासी हमारे देश में छुपा हुआ वह जासूस है, जो हमारे देश की शांति को खत्म करना चाहती है… लेकिन हम अपने दुश्मनों पर नज़र रख्खे हुए हैं… अदालत का यह फैसला है कि ओमर खैयाम की शायरी पर पाबंदी लगाई जाए… उसके कागज़ात और कलम तबाह किये जाए।।। जाओ, उसे दोबारा कब्र में दफनाओ।’’ नाट्यांश की अंतिम पंक्ति है, ‘‘ओह! लेकिन उदासी… उदासी फिर भी आज़ाद है तबाही फैलाने के लिए…’’
हरेक रचना इस तरह प्रस्तुत की जा रही थी कि उसके कथ्य और कहन को दिल-दिमाग़ तक उतारते हुए अंत में चुप्पी बोलने लगती थी। बीच में कोई अनाउंसमेंट नहीं, कोई भूमिका नहीं। एक के बाद एक, उचित अंतराल के बाद अन्य रचना मंच पर साकार होती जा रही थी। सबकी घटनाएँ, अनुभव, स्थान, काल, व्यक्ति-समूह पृथक-पृथक होने के बावजूद एक ज्ञानात्मक संवेदना की डोर से अभिनेता और दर्शक बंधे हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे।
बहुत दिलचस्प हिस्सा लिया गया था इस्मत चुगताई के लाहौर कोर्ट के मुकदमे वाले किस्से से। उनकी आत्मकथा ‘क़ागज़ी है पैरहन’ में इस्मत ने बोलचाल की उर्दू में बहुत रोचक तरीके से 1942 में उनकी कहानी ‘लिहाफ़’ पर लगे अश्लीलता के आरोप संबंधी वाकये की दास्तान पेश की है। ‘लिहाफ़’ में एक रईस औरत के सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और यौनिक समस्याओं की वास्तविकता को एक बच्ची के माध्यम से चित्रित किया गया है। मुकदमे की सुनवाई करने वाले जज को समूची कहानी में एक भी अश्लील शब्द नहीं मिला और मुकदमा ख़ारिज हो गया। मंटो पर भी उनकी कहानी ‘बू’ के संबंध में इसी तरह का आरोप लगा था।
दो अन्य नाटयांश भी भिन्न प्रकार की असहमति संबंधी घटनाओं और मुद्दों पर केन्द्रित थे। पहला, प्रेमानंद गज्वी के मराठी नाटक ‘आंबेडकर विरुद्ध गांधी’ और दूसरा, गाविंद पुरुषोत्तम देशपांडे के नाटक ‘उध्वस्त धर्मशाला’ के हिंदी में अनूदित अंशों का। इसमें आंबेडकर और गांधी के बीच की असहमतियों के मुद्दों पर चर्चा, खासकर दलितों के आत्मसम्मान से जीने के अधिकार पर आंबेडकर द्वारा उठाए गए सवाल, जिनके सामने गांधी निरुत्तर हो जाते हैं। ‘उध्वस्त धर्मशाला’ में एक नाटककार प्रोफेसर को मैनेजमेंट की ओर से वामपंथी साबित करने की कोशिश इन्क्वायरी के माध्यम से रोचक बहस के रूप में प्रस्तुत की गई। दोनों ही बहसें सहज रूप में तात्कालिक राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों से कनेक्ट करती हैं।
रोहित वेमुला के अंतिम पत्र के वाचन को सुनना दर्शकों के लिए फिर एक बार उस प्रसंग की संवदेनहीनता से गुज़रना होता है। पंक्ति दर पंक्ति समाज में व्याप्त जातीय विषमता की मार्मिक दास्तान बयां करती है। लगभग इसी तरह का, मगर अलग पृष्ठभूमि का अहसास इराक के एक सैनिक की डायरी के अंश ‘एन आर्मी न्यूज़पेपर’ में मिलता है। हसन ब्लासिम की यह कहानी युद्धरत इराक की अनेक घटनाएँ और अनुभवों को सामने रखती है। कश्मीरी कवि आगा शाहिद अली की कविता ‘भूमि’ और फ़िलिस्तीनी कवि तौफ़ीक़ ज़ायद की ‘ऑलिव ट्री’ में मनुष्य के विस्थापन की त्रासदी का निषेध मिलता है।
‘क्रिएटिव यात्रा’ में दर्शिता जैन ने इस नाटक की समीक्षा करते हुए लिखा है, क्या हम इसे त्रासदी या सामूहिक कट्टरता कहें कि, इतने समय के बाद भी, चीज़ें बिलकुल नहीं बदली हैं? सदियों पहले गैलीलियो द्वारा पूछे गए प्रश्न आज भी वही प्रश्न हैं, जो मैं पूछता हूँ। सज़ा लागू करना और कला के माध्यम से पूछे गए प्रश्नों के लिए कलाकारों द्वारा माफ़ी माँगना अभी भी एक आदर्श है। गौरी लंकेश, गोविन्द पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी जैसे पत्रकारों की दिनदहाड़े हत्या से लेकर मुरुगन जैसे लेखकों द्वारा अपनी मौत की घोषणा करने तक और एमएफ हुसैन का निर्वासन; भीड़ के साथ चलने से इंकार करने पर लोगों को सताए जाने के उदाहरण प्रचुर हैं। भारत में राजनीतिक रूप से अशांत स्थिति में, ‘वर्ड्स हैव बीन अटर्ड, उस समय आता है, जब यह दर्शकों को सांत्वना का स्थान और अपनी असहमति व्यक्त करने का आधार देता है। (Creativeyatra.com, 26 Jan 2018 से साभार)
इन सभी रचनाओं में विभिन्न स्थानों और संस्कृतियों की अभिव्यक्तियों को कार्य-कारण संबंध, तर्क और तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत किया गया। असहमति के कितने तरीके हो सकते हैं, कितने आयाम और कोण हो सकते हैं तथा उन्हें प्रस्तुत करने के कितने सांस्कृतिक कलात्मक आयाम हो सकते हैं, ‘वर्ड हैव बीन अटर्ड’ में इसे देखा जा सकता है। ये समस्त प्रस्तुतियाँ हमें विसंगतियों के प्रति महज़ आक्रोश से नहीं भरतीं, बल्कि सोचने-समझने और बेहतरीन दुनिया बनाने के संकल्प को और मजबूत बनाती हैं। कर्टन कॉल का अंतिम दृश्य जब हबीब जालिब का ‘दस्तूर’ बंधी मुठ्ठियों के साथ ‘मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता’ कोरस में गाया गया, समूचे माहौल में जोश का जज़्बा तारी हो गया था।
नाट्यालेख सुनील शानबाग, इरावती कर्णिक तथा सपन सरन का था। कलाकारों में आयशा रज़ा, जैमिनी पाठक, हेमंत हजारे, सपन सरन, मानसी मुल्तानी, इरावती कर्णिक, यासिर इफ्तिखार खान, नचिकेत देवस्थली, सुनील शानबाग, रोहित दास तथा वरुण कुलकर्णी थे। पूरी प्रस्तुति में कुल 28 रचनाएँ सम्मिलित की गई हैं। ये रचनाएँ हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी भाषा में भारत, यूएस, इराक, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया, फ़िलिस्तीन के साहित्यकारों द्वारा लिखी हुई हैं। एक छोटे मध्यांतर के साथ लगभग दो घंटे का यह नाट्य-अनुभव दुनिया में चल रहे आंदोलनों के साथ एकजुटता महसूस करवाते हुए असहमति को व्यक्त करते रहने की प्रेरणा देता है। सबसे ज़्यादा उल्लेखनीय बात यह कि, सभी रचनाओं की लिखित स्क्रिप्ट नाटक के बाद न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध करा दी गई, अन्यथा अधिकांश नाटककार-निर्देशक अपनी स्क्रिप्ट साझा करने से बचते हैं। सुनील शानबाग और उनकी टीम का आभार।