
(बाएँ से दाएँ)
शोषित-वंचितों के लिए कारगर, उनकी जीवन-स्थितियों को बदलने के बीज बोने वाला रंगकर्म का प्रकार ‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ कहलाता है। इसके कई प्रकार हैं। उनमें से एक ‘फोरम थियेटर’ को लेकर नाशिक इप्टा पिछले साल भर से काम कर रही है। नाशिक जिले की अनेक बस्तियों की समस्याओं को लेकर, वहाँ के निवासियों को जोड़कर, उन्हें सहभागी बनाकर उन्होंने नाट्य-प्रयोग किये। वे ‘टीम थियेटर वर्कर्स’ नामक संस्था के साथियों के साथ मिलकर निरंतर शोषित-वंचित लोगों के बीच जाकर फोरम थियेटर संबंधी नए-नए प्रयोग कर रहे हैं।
पिछले दिनों महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर में एक मामूली घटना को किसतरह साम्प्रदायिक रूप देकर तिल का ताड़ बनाने की कोशिश की गई, हम सबने मीडिया के माध्यम से इसका नोटिस लिया था। इसी घटना को केन्द्र बनाकर नाशिक इप्टा, टीम थियेटर वर्कर्स और अन्य प्रतिभागियों ने एक वर्कशॉप के दौरान नाटक तैयार कर कोल्हापुर के कार्यकर्ताओं के बीच 09 जून 2023 को प्रस्तुत किया गया, जिसमें दर्शकों का रोचक और सार्थक हस्तक्षेप रहा।
इस पर दो रिपोर्ट्स का मराठी से हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। दोनों रिपोर्ट्स में कुछ विवरण समान होने के बावजूद चूँकि उनके प्रभाव अलग-अलग हैं, इसलिए मैंने उन्हें संपादित नहीं किया है। मराठी में नाट्य-प्रस्तुति या मंचन के लिए ‘प्रयोग’ शब्द का उपयोग किया जाता है। चूँकि ‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ एक प्रकार से आम लोगों, उनके मुद्दों और कलाकारों का मिलाजुला प्रयोग ही होता है इसलिए मैंने अनुवाद में इसी संदर्भ में ‘प्रयोग’ शब्द का उपयोग किया है।

पहली रिपोर्ट है नाशिक इप्टा के साथी संकेत सीमा विश्वासराव की।
जिनका मुद्दा उनका नाटक :
पिछले एक साल से हम महाराष्ट्र में फोरम थियेटर के नाट्य-प्रयोग कर रहे हैं। प्रयोग करते वक्त एक ही बात हमारे दिमाग़ में होती है कि, हम जहाँ भी यह प्रयोग करेंगे, वहाँ के दर्शकों से जुड़े हुए समसामयिक ज्वलंत मुद्दे को ही विषय बनाएंगे। ऐसा करने पर दर्शक खुद को बहुत जल्दी नाटक से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। या फिर जो नाटक करने वाले रंगकर्मी हैं, उनको बेचैन करने वाले मुद्दे उठाते हैं जिससे वह रंगकर्मी उसी जज़्बे के साथ नाट्य-प्रस्तुति कर सके।
अभी हम पिछले चार-पाँच दिनों से कोल्हापुर में समता फेलोशिप की कार्यशाला के लिए आए हुए हैं। हमारी साथी रेशमा कोल्हापुर में रहती है। उसने हमारे सामने प्रस्ताव रखा कि हम अपना फोरम थियेटर यहाँ प्रस्तुत करें ताकि स्थानीय कार्यकर्ता इसे देख सकें। हमने कहा कि ठीक है, 09 जून को कार्यशाला के समापन के बाद कर लेंगे। हम आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि हमारे दर्शक कौन होंगे, उसके अनुसार नाटक का विषय चुना जाए। इसी बीच दूसरे ही दिन हमें पता चला कि, कोल्हापुर में हिंदू-मुस्लिम दंगे छिड़ गए हैं, माहौल गर्म हो गया है और कोल्हापुर में धारा 144 लग गई है। प्रगतिशील महाराष्ट्र का केन्द्रबिंदु कहलाने वाले इस शहर में ऐसा कुछ घटित हुआ, इस बात से सबको बहुत धक्का पहुँचा। सब लोगों को बहुत बुरा लग रहा था कि ऐसा तो नहीं होना चाहिए था। हमारी नाट्य-प्रस्तुति धारा 144 लगने के कारण रद्द हो गई। मगर हम सब बुरी तरह छटपटा रहे थे कि हमें इस मामले में कुछ न कुछ करना चाहिए। इन दंगों को रूकवाना चाहिए। कोल्हापुर के सभी कार्यकर्ता बहुत बेचैन थे। रेशमा भी छटपटा रही थी। सभी लोगों को लग रहा था कि आज अगर गोविंद पानसरे अन्ना होते तो वे ऐसा नहीं होने देते। उनकी कमी बेहद अखर रही थी। इस कमी की भरपाई के लिए कुछ करना चाहिए, यह भावना भी सबके दिल-दिमाग को मथ रही थी। मगर हम अपनेआप को बहुत असहाय महसूस कर रहे थे। एक मामूली बात से शुरु हुए दंगों की आग ने कोल्हापुर और उसके आसपास के गाँवों को चपेट में लेना शुरु कर दिया था।
एक दिन पहले रेशमा के पास अनमोल कोठाडीया सर का फोन आया। उन्होंने सुझाया कि क्यों न हम कार्यशाला वाले हॉल में ही नाट्य-प्रयोग कर लें! हमने कहा, ‘क्यों नहीं, बिल्कुल चलेगा!’ हमने नाटक की तैयारी शुरु कर दी। विषय भी तय हो गया – कोल्हापुर में पिछले दो दिनों से फैलने वाले दंगे। विषय जो दिल-दिमाग को मथ रहा था, उस पर काम शुरु हो गया। तैयारी के लिए समय कम था। इस नाट्य-प्रयोग की विशेषता यह थी कि इसमें भाग लेने वाले कलाकार महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से यहाँ आए हुए थे। नागपुर से समीर तभाने, हिंगोली से प्रियपाल दशांती, औरंगाबाद से सोनू गायकवाड और समीक्षा बामने, नाशिक से तल्हा और संकेत, पुणे से कृतार्थ शेवगावकर, कोल्हापुर से रेशमा खाडे… मानो महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों से वस्तुएँ एकत्रित कर कोई शानदार ‘डिश’ तैयार की गई हो!

नाटक का सामान्य कथानक था, शिवाजी के राज्याभिषेक के दिन किन्हीं मुस्लिम सिरफिरे युवकों ने औरंगजेब का फोटो अपने व्हाट्सअप और इंस्टा के स्टेटस पर लगा दिया था। पुलिस ने मात्र दो घंटे में ही उन युवकों को पकड़कर जेल में डाल दिया, मगर दूसरे दिन सुबह अनेक हिंदू संगठन इकट्ठा होते हैं और एक मुस्लिम युवक से मारपीट करते हुए दंगे शुरु करते हैं। तोड़फोड़ करते हैं। तभी एक युवा कार्यकर्ता आकर मुस्लिम युवक को बचाता है; मगर वह खुद उनकी चंगुल में फँस जाता है। उनमें बहस छिड़ जाती है। नाटक यहीं पर रोक दिया गया।
इस प्रस्तुति के बाद हॉल में गहरी चुप्पी छा गई। कई बार फोरम थियेटर की प्रस्तुति के बाद छा जाने वाली चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है। इस चुप्पी में एक आक्रोश होता है, एक सिसकी छिपी होती है, एक असहायता व्याप्त होती है, एक अंदरुनी आवाज़ होती है। कुछ पलों के बाद एक जोकर आकर इस आवाज़ को व्यक्त होने के लिए रास्ता बनाता है।
आज इस नाटक के दौरान जिस सवाल को लेकर सभी बेचैन थे, वही सच उनके सामने प्रस्तुत किया गया था। सामान्य व्यावसायिक नाटकों में सबसे पहले मनोरंजन का पक्ष देखा जाता है, या फिर अपने सवालों को परे हटाकर दो घंटे का महज़ रिलैक्सेशन किया जाता है, नाटक सब कुछ भुलाकर कहीं दूर ले जाता है; परंतु यहाँ इसके विपरीत घटित हुआ। सामने वही यथार्थ ताल ठोंककर खड़ा हो गया है, जिसे व्यावसायिक नाटक दूर ले जाना चाहता है। वहाँ फैली हुई चुप्पी में होठों के भीतर दबी सिसकियाँ साफ सुनाई दे रही थीं।
अंततः कृष्णात स्वाती नामक युवा कार्यकर्ता इस परिस्थिति को तोड़ने के लिए उठ खड़े हुए। 15-20 मिनट तक अखंड संवाद चलता रहा। अनेक सवाल किये गये। उनके सटीक जवाब कृष्णात देते रहे। वे जी-जान से समझा रहे थे। यहाँ एक फोरम समाप्त हुआ।
दूसरे फोरम के लिए आकाश भास्कर सामने आए। उन्होंने अनेक सवाल उठाए। मगर इस बार ऑप्रेसर ने अपना पैंतरा बदला। झगड़े और मारपीट की भाषा में बात करने लगा। ‘हम तो दंगे करेंगे ही, तू क्या कर लेगा? कल पुलिस को कम्प्लेंट करेगा मगर रात में ही समूची बस्ती जला दी जाएगी, तब क्या करेगा?’ वह धमकाने लगा। ऐसा लग रहा था मानो आकाश सहित वह सभी दर्शकों को भी चुनौती दे रहा हो! देखने वाले लोगों के मन में भी सवाल पैदा हो रहे थे। वे परिस्थिति को समझ रहे थे, मगर क्या करना चाहिए, कोई नहीं समझ पा रहा था। इतने में संघसेन जगतकर सर खड़े हुए। ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम’ नारे लगाते हुए लोगों को इकट्ठा करने लगे। दंगाइयों की तुलना में दंगा रोकने वालों की संख्या ज़्यादा हो गई। परिस्थिति पलट गई थी। संख्या अधिक होने के बावजूद उन्होंने शांति बनाए रखी थी। एकता की ताक़त दिखाई दे रही थी। लोग संगठित हो गए थे। अब तो ऑगस्टो बोल के कथनानुसार क्रांति की रिहर्सल भी हो चुकी थी। मन में व्याप्त छटपटाहट बाहर निकल गई थी। समविचारी लोग एक हो गए थे।

यह दृश्य इतना प्रभावशाली था कि, अब तक किये गये ‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ के सभी प्रयोगों से यह अनुभव बिल्कुल अलग था। फिर एक बार हम अपनी पोटली में एक नए अनुभव को सँजो रहे थे। इस प्रयोग ने हमें जितना समृद्ध किया, शायद उतना ही वहाँ उपस्थित कोल्हापुरवासियों को भी किया होगा। मन हल्का होने में मदद मिली थी। एक प्रकार की साइकोलॉजिकल थेरेपी ही सम्पन्न हुई थी। नाटक यही करता है। आपको भीतर से हिला देता है। क्या नाटक सचमुच क्रांति करता है? शायद क्रांति होने में समय लगेगा परंतु कैथेर्सिस ज़रूर हो जाता है और क्रांति के बीज ज़रूर भीतर तक पैठ जाते हैं।
(साथी संकेत द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट से मुझे बरबस याद आई क्रिस्टोफर कॉडवेल की किताब ‘इल्यूज़न एण्ड रियलिटी’ की। उसमें कॉडवेल ने आदिम समाज की आदिम मानसिकता का विश्लेषण करते हुए बताया है कि साधनहीन आदिम मानव प्रकृति और अपने आसपास की परिघटनाओं से बिल्कुल अपरिचित था। धीरे-धीरे निरीक्षण के बल पर उसने कुछ घटनाओं के कार्य-कारण संबंध अपने आरम्भिक मस्तिष्क के अनुसार समझने की कोशिश की। कॉडवेल ने अनेक उदाहरणों द्वारा इस बात को समझाया है। एक उदाहरण इस प्रकार है। आदिम मानव ने देखा था कि, कड़ी गर्मी के बाद काले बादल छाकर तेज़ गड़गड़ाहट के बाद वर्षा होती है, जिसे आजकल ‘प्री मानसून’ के नाम से हम जानते हैं, और उसके बाद लगातार वर्षा होने से समस्त प्रकृति समृद्ध हो जाती है। उसे यह नहीं पता था कि वर्षा कैसे होती है, गड़गड़ाहट कैसे और कहाँ से पैदा होती है; इसलिए उसने आरम्भिक ‘ट्रायल एण्ड एरर’ के रूप में पहाड़ियों से बड़ी चट्टानों को सामूहिक श्रम द्वारा नीचे लुढ़काने की कोशिश की ताकि गड़गड़ाहट हो और पानी बरसना शुरु हो। यह समूचा कार्य वर्षा करने वाली अलौेकिक शक्ति को आकर्षित करने या प्रसन्न करने का प्रयास था। कॉडवेल के अनुसार आदिम मनुष्य ऐसे कई काम बतौर रिहर्सल पहले करता था, जिनके भौतिक रूप में सम्पन्न करने में उसे कठिनाई महसूस होती थी, मगर जब वह उस काम को सांकेतिक रूप में अनुकरण के रूप में कर लेता था तो उसके बाद वास्तविकता में उस काम को सामूहिक रूप से सम्पन्न करने का आत्मविश्वास वह अर्जित कर लेता था। उदा. – इस तरह के अनेक लोकनृत्य/आदिवासी नृत्य आज भी अवशेष के रूप में देखे जा सकते हैं। जैसे, फसल-नृत्य या शिकार-नृत्य। फोरम थियेटर में भी किसी समकालीन समस्या को हल करने के अनेक विकल्प कलाकार और दर्शक मिलकर खोजते हैं, उन्हें अभिनय के माध्यम से मंच पर घटित होते देखते हैं और फिर उस सामूहिक ऊर्जा से आशान्वित होकर संघर्ष करने के लिए एकजुट होने की दिशा में बढ़ सकते हैं/बढ़ते हैं। – उषा )

दूसरी रिपोर्ट है कोल्हापुर के वरिष्ठ समीक्षक अनमोल कोठाडिया की, जो उनकी फेसबुक वॉल पर उन्होंने पोस्ट की थी और नाशिक इप्टा के सचिव साथी तल्हा शेख ने मुझसे साझा की।
‘एक मामूली घटना को तनाव और दंगे में बदला जाता है। इस दंगे को रोकने के लिए एक संवेदनशील युवा कार्यकर्ता पहल करता है। वह दंगाइयों का सामना करता है और उन्हें रोकने की कोशिश करता है। परंतु वे दंगाई समझने की बजाय उसे मारने वाले हैं’; यहीं इस सीन को फ्रीज कर रोक दिया जाता है। जोकर उर्फ सूत्रधार दर्शकों के सामने आता है और पूछता है, ‘इस परिस्थिति में आप क्या करेंगे?’ वह दर्शकों को आमंत्रित करता है। उस संवेदनशील युवा कार्यकर्ता की जगह लेने के लिए आमंत्रित किये जाने पर कुछ दर्शकों ने स्वतःस्फूर्त भूमिका निभाईं…
‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ यह नाटक का रेडिमेड प्रकार नहीं है। इसकी प्रस्तुति का उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना मात्र नहीं होता। जहाँ और जिनके बीच प्रस्तुति की जानी है, उन्हें बेचैन करने वाली परिस्थितियों या समस्याओं पर आधारित वेलमेड स्क्रिप्ट पर यह नाटक आधारित नहीं होता, बल्कि कार्यकर्ता-रंगकर्मियों द्वारा अपूर्ण अवस्था में प्रस्तुत किया जाने वाला इम्प्रोवाइज़्ड नाटक होता है। इसमें दर्शकों को सिर्फ ‘दर्शक’ नहीं रहने दिया जाता, बल्कि रंगमंच की चौथी दीवार को हटाकर, प्रस्तुत नाटक के कथानक की परिस्थिति में घुसकर, उसमें प्रदर्शित शोषित पात्र के स्थान पर खुद को रखकर भूमिका निभानी होती है। एक दर्शक के बाद दूसरा दर्शक, दूसरे के बाद तीसरा, और फिर अगला…, इस पद्धति से अनेकविध संभावनाओं और विभिन्न दृष्टिकोणों का मंच पर दर्शन होता है। इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि, किसी अन्य नाटक की एक रंग-युक्ति की तरह दर्शकों के बीच नाटक के अभिनेताओं को नहीं बैठाया जाता, बल्कि वास्तविक दर्शक ही अपने हस्तक्षेप के माध्यम से नाटक को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं। ब्राज़ील का ऑगस्टो बोल (Augusto Boal) इस क्रांतिकारी नाट्य-प्रकार का प्रवर्तक है।
‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ की संकल्पना के बारे में पढ़ा ज़रूर था, परंतु उसमें से प्रत्यक्ष साकार होने वाली नाट्य-प्रस्तुति का अनुभव मिला ‘समता फेलोशिप, क्रॉस लर्निंग ट्रेनिंग’ के अंतर्गत महाराष्ट्र में संवैधानिक मूल्यों का विभिन्न माध्यमों से प्रसार करने वाले कार्यकर्ताओं के माध्यम से। वे विद्यार्थी भवन, शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर में इकट्ठा हुए थे। वर्तमान में ‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ पर काम करने वाले और उसका अपने-अपने कार्यक्षेत्र में प्रयोग करने वाले संकेत सीमा विश्वास (नाशिक), प्रियपाल दशांती (हिंगोली), समीर ताभाने (नागपुर) और कृतार्थ शेवगावकर (पुणे) इसमें प्रमुख थे। वे अपने सहशिविरार्थियों के सामने और कोल्हापुर के कुछ कार्यकर्ताओं, रंगकर्मियों के सामने इस तरह की प्रस्तुति करना चाहते थे।
उस समय कोल्हापुर में तुरंत घटी हुई एक ज्वलंत घटना पर उन्होंने काम करना शुरु किया। हालाँकि शुरुआत में जोकर बन कर आने वाले समीर ताभाने ने दर्शकों को खोलने के लिए कुछ मज़ेदार खेल करवाये। उसके बाद एक मामूली कारण से निर्मित और बढ़ता जाने वाला तनाव और उसका दंगे में तब्दील हो जाना दिखाया गया। इसमें जिस मोड़ पर इस दंगे को रोकने की पहल करने वाले एक संवेदनशील युवा कार्यकर्ता को दंगाई मारने वाले हैं, उसी जगह इस सीन में नाटक को रोक दिया जाता है। जोकर उर्फ सूत्रधार दर्शकों के सामने आता है और पूछता है, ‘इस परिस्थिति में आप क्या करेंगे?’ वह दर्शकों को आमंत्रित करता है। दर्शकों में कार्यकर्ताओं की संख्या ज़्यादा होने के कारण उस संवेदनशील कार्यकर्ता के स्थान पर एक-एक कर अनेक कार्यकर्ता आते हैं।

इस प्रस्तुति में सबसे पहले दर्शकों में से प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और विचारवान शिक्षक कृष्णात स्वाती सामने आए। उन्होंने दंगाइयों की भूमिका निभाने वाले कलाकारों का अच्छा-ख़ासा ‘बौद्धिक’ (विवेक पर आधारित तर्कपूर्ण समझाने की पद्धति) लिया। उसके बाद आए आकाश भास्कर ने भी अनेक वैचारिक ‘पंच’ मारे। इसी तरह संघसेन जगतकर ने अचानक ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाते हुए दर्शकों को अपने साथ आने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने नारे देते हुए, अपने हाथों को हिलाकर दर्शकों को उठकर आने के लिए ललकारते हुए नाटकीय प्रवेश किया। ऐसा लग रहा था मानो नाट्यालेख में यह सूचना लिखी हुई हो! ‘नफरत की लाठी तोड़ो…’ जैसा फिल्मी गीत भी गाया। उनके इस हस्तक्षेप ने जाहिर किया कि, जब तक रास्ते पर विचारहीन दंगाइयों का राज रहेगा, तब तक उनके साथ किसी प्रकार का प्रबोधनात्मक संवाद संभव नहीं हो सकता। इसकी बजाय विवेकवान, संवेदनशील लोगों द्वारा बड़ी संख्या में सड़क पर उतरने से ही दंगाइयों का सामना किया जा सकता है। उन्होंने इस यथार्थवादी कार्य-बोध को सामने रखा। नाटक का यह अंत मूल प्रस्तुतिकर्ताओं की कल्पना-शक्ति से परे था। ‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ में इस तरह के अनेक अनपेक्षित विभिन्न प्रकार के अनुभव मिलते हैं। बाद के संवादों में यह बात उभरकर सामने आई और प्रश्नोत्तर भी हुए।
इन दोनों रिपोर्टों में ‘थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड’ के फोरम थियेटर का जनकेन्द्रित स्वरूप स्पष्ट होने के साथ-साथ एक रंगकर्मी-कार्यकर्ता के रचनात्मक प्रयासों का सामूहिक आधार गढ़ने की दिशा में पहल दिखाई देती है। तात्कालिक दुर्घटनाओं के विश्लेषण और उनका मुकाबला कर हल निकालने की दृष्टि से रंगकर्म का यह प्रकार ज़मीनी प्रशिक्षण प्रदान करता है। नाशिक इप्टा के साथियों को इस ‘प्रयोग’ को अपनाने तथा स्थानीय घटना के प्रति सांस्कृतिक प्रतिरोध के रास्तों की खोज करने के लिए सलाम!