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संगठन में अजय से परिचय की पृष्ठभूमि

संगठन में अजय से परिचय की पृष्ठभूमि

(अजय के 66 वें जन्मदिन पर एक संस्मरण)

1980-81 से मैं प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में जाने लगी थी। सक्सेना सर एम ए में मुझे पढ़ाते थे, उनके अंतरअनुशासनिक ज्ञान ने आरंभिक दिनों में ही मुझे बहुत प्रभावित किया था। एडमिशन के चार-पांच महीनों बाद ही सर ने मुझे गोष्ठियों में बुलाना शुरू कर दिया था। शुरू में मुझे थोड़ा बोझिल माहौल लगता था, मगर पाठ्यक्रम से एकदम ही अलग विषयों पर होने वाली गोष्ठियाँ मुझे रास आने लगी थीं। 1982 का वर्ष संगठन से गहरे तक जुड़ने का महत्वपूर्ण वर्ष रहा। 1982 में मई में बिलासपुर में ‘महत्व भीष्म साहनी’ का आयोजन हुआ। तब तक सक्सेना सर के घर की सांध्यकालीन बैठकी का चस्का मुझे लग चुका था। ‘महत्व भीष्म साहनी’ कार्यक्रम में मुझे भी कई ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गई थीं। उस समय प्रभा खरे दीदी, भारती भट्टाचार्य दीदी आदि बाबा के घनिष्ठ परिचय की वरिष्ठ साथी प्रलेस में काफी सक्रिय थीं। उनके साथ रहकर मैं कुछ समझने-सीखने की कोशिश कर रही थी। इस तीन दिनों के कार्यक्रम में मेरी कई युवा साथियों से पहचान हुई। सबसे पहले ग्वालियर की अनघा शिंदे, उसका भाई अपूर्व शिंदे, भोपाल पार्टी का साथी प्रवीण अटलूरी और अंबिकापुर के साथी विजय गुप्त से मेरा पत्र-व्यवहार शुरु हुआ। इस कार्यक्रम में मुझे बहुत लोगों से मिलने और बहुत कुछ सुनने-समझने का मौका मिला। इस कार्यक्रम में एक किताब भी सर और प्रताप के संपादन में छापी गई थी, ‘भीष्म साहनी : व्यक्ति और रचना’। सर ने हम सबसे भीष्म साहनी की सभी कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने के लिए कहा था। हमने उपलब्ध किताबें तेज़ी से पढ़ी थीं और उन पर चर्चा भी की। इस कार्यक्रम के बाद मेरा दायरा, जो पहले अपनी इकाई के साथियों तक ही सीमित था, प्रदेश स्तर तक बढ़ गया। मेरा उत्साह भी बढ़ा।

1982 में अक्टूबर-नवम्बर में जगदलपुर में प्रलेस का राज्य सम्मेलन हुआ। प्रभा दीदी के कारण बाबा मुझे बाहर भेजने के लिए राज़ी हो जाते थे। वैसे उन्हें सक्सेना सर पर भी भरोसा था। वे कॉलेज में उनके सहकर्मी थे। भले ही सर की विचारधारा से बाबा कभी प्रभावित नहीं हुए, मगर बाबा में जाति और जेंडर को लेकर एक समतावादी दृष्टिकोण मौजूद था, इसलिए शायद उन्होंने मुझे कम्युनिज़्म की ओर जाने से नहीं रोका। जगदलपुर में मैंने काव्य गोष्ठी में कविता भी पढ़ी थी। उन्हीं दिनों काशीनाथ सिंह का उपन्यास ‘अपना मोर्चा’ पढ़ा था। उसमें वर्णित छात्र-आंदोलन की स्पिरिट से मैं भीतर तक प्रभावित हुई। उसको पढ़कर जो कविता मैंने लिखी थी, वही जगदलपुर में सुनाई। काशीनाथ सिंह भी वहाँ आए थे। उन्होंने मेरी कविता सुनकर मुझे बुलाया और बताया कि वह उनका काफी पहले का कच्चा उपन्यास है। उन्होंने काफी स्नेह से बात की। जगदलपुर सम्मेलन में कमलाप्रसाद अध्यक्ष और ज्ञानरंजन महासचिव दोबारा चुने गए। सम्मेलन में मैं ज्ञान जी से भी बहुत प्रभावित हुई। ज्ञान जी और कमला प्रसाद जी की खासियत थी कि वे युवा साथियों की संभावनाएँ तलाशते हुए उनसे पत्रों के माध्यम से बहुत आत्मीय संवाद करते थे। इस सम्मेलन में मिर्ज़ा मसूद, ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद पाण्डेय, रमाकांत श्रीवास्तव, ललित सुरजन, प्रभाकर चौबे जैसे वरिष्ठ साथियों से परिचय हुआ। जगदलपुर में प्रलेस के साथ मेरा जुड़ाव और पक्का हुआ। ज्ञान जी ने इसके बाद मुझे बहुत शानदार पत्र लिखा था, जिसका एक वाक्य मैंने हमेशा याद रखा। ‘हमारे संगठन में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं होता। सब एकदूसरे के साथी होते हैं। तुम जीवन में बहुत बहादुर व रचनात्मक बनो, यही हमारी आकांक्षा है।’’ हालाँकि इसकी शुरुआती दो पंक्तियों से मैं अभी भी असहमत हूँ।

27, 28, 29 दिसम्बर 1982 को जयपुर में प्रलेस का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। सक्सेना सर के नेतृत्व में फिर हमारी बिलासपुर टीम आगरा होते हुए जयपुर पहुँची। प्रभादीदी के साथ जाने का फिर मुझे अवसर मिल गया। भयानक ठंड थी। इस यात्रा में मुझे कुछ पुरुष साथियों से अजीब से अनुभव हुए। मैं तब तक इतने अधिक अपरिचित या अल्पपरिचित लोगों के बीच पहले कभी गई नहीं थी। मेरा व्यवहार बिना किसी कुंठा का खुला हुआ था। बचपन से भाइयों के बीच पलने-बढ़ने और खास किन्हीं बंदिशों के बिना मेरा जीवन बीता था। मगर जयपुर में मुझे कुछ झटके लगे। मुझे महसूस हुआ कि मैं एक लड़की हूँ और मुझे इस बात को हमेशा याद रखना होगा। मैं ज्ञानजी की बात को याद करती कि उन्होंने लिखा था कि हमारे संगठन में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है, मगर मुझे यह भेद बहुत गहराई से महसूस हुआ। लौटने के बाद मैंने ज्ञान जी को पत्र लिखा और अपने साथ घटी घटनाएँ बताईं। मेरी हताशा को ज्ञान जी ने महसूसा। उन्होंने इस पर सिर्फ मुझे यही सलाह दी कि तुम फिलहाल देश भर की महिला साथियों से चर्चा करो। हम अगले साल महिला लेखिका सम्मेलन करेंगे। और ज्ञान जी ने अनेक महिला साथियों के नाम पते भेजे। इनमें ममता कालिया से लेकर मन्नू भंडारी तक के नाम थे और अनेक युवा महिला साहित्यकारों के भी। मैंने धुआँधार चिट्ठियाँ लिखना शुरु किया। ज्ञान जी से यह बात मैंने और रफीक ने सीख ली थी। बिलासपुर इकाई से हम दोनों देश भर के साथियों से बहुत पत्र व्यवहार करते थे। तो, मैंने प्रदेश में, जहाँ प्रलेस और इप्टा की इकाइयाँ थीं, वहाँ के साथियों को लिखकर स्थानीय महिला साथियों/रचनाकारों के नाम-पते मंगवाए। यह अलग बात है कि पृथक महिला सम्मेलन की अवधारणा का संगठन में काफी विरोध हुआ और सम्मेलन की योजना ठंडे बस्ते में चली गई। रायगढ़ से अजय का नाम-पता मिला था, मगर तब तक हमारी मुलाकात नहीं हुई थी। रायगढ़ में तब तक प्रलेस की इकाई नहीं शुरु हुई थी, बल्कि इप्टा की इकाई शुरु होकर रायगढ़ में मई 1982 में मध्यप्रदेश इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन हो चुका था। अजय इप्टा का प्रादेशिक कोषाध्यक्ष था। महिला सम्मेलन वाला मेरा सर्कुलर उसे मिलने के बाद उसने पहली बार पत्र लिखा। उसके बाद अन्य साथियों की तरह उससे भी पत्र-लेखन के माध्यम से संवाद का सिलसिला शुरु हो गया। यह सिलसिला मार्च 1984 तक चला। उसके बाद अजय की ओर से पत्र आने बंद हो गए। वह आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बन के लिए जूझ रहा था।

हमारी शादी तय होने तक मेरे पास सभी साथियों से प्राप्त पत्र संग्रहित थे। मगर शादी के पहले बिलासपुर से सामान समेटते हुए मुझे बहुत सा सामान छोड़ना पड़ा, मगर अजय के पत्र मेरे साथ थे। अब इन पत्रों को पढ़ने पर मुझे महसूस हो रहा है कि ये इसलिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं कि, उस समय युवा रचनाकार, कलाकार किसतरह संगठन में एकदूसरे से जुड़कर श्रृंखलाबद्ध तरीके से, एक आत्मीय परिवार की तरह संवाद बनाकर संगठन के लिए, विचारधारा के लिए काम करते थे। इन पत्रों में हमारे सोचने-समझने-सीखने की एक ईमानदार प्रोसेस दिखाई देती है। इनमें काम करने का जोश और जज़्बा लबालब भरा रहता था।

पढ़ने-लिखने-अभिनय की ओर मेरा स्वाभाविक रूझान था। साथ ही मुझे संगठन और विचारधारा कहीं भीतर बहुत गहरे तक छू गये थे। मेरे दिल और दिमाग, दोनों इनसे बहुत प्रभावित थे। लगातार पढ़ने-लिखने और संगठन के साथियों से संवाद और गतिविधियों के जरिये बिलासपुर प्रलेस और इप्टा से मैं जुनून की हद तक जुड़ गई थी। धीरे-धीरे यह प्रतिबद्धता मेरे जीवन का ज़रूरी हिस्सा बनती जा रही थी। प्रलेस और इप्टा जैसे संगठन एक व्यक्ति को किसतरह धीरे-धीरे गढ़ते हैं, उसका अक्स इन पत्रों में मिलता है। उस समय संगठन में युवाओं के बीच किसतरह का जज़्बा हुआ करता था, अजय और मेरे द्वारा लिखे हुए ये पत्र शायद इस बात के साक्षी हो सकते हैं। इतने पुराने पत्र होने के कारण कुछ पत्र नष्ट हो गए हैं।

……………

रायगढ़, 11 मई 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। जानकर बहुत प्रसन्नता हुई, आप लोग महिला लेखिका सम्मेलन करवाने जा रहे हैं।
यहाँ प्रलेस की गतिविधियाँ न होने के कारण इस क्षेत्र में निष्क्रियता ही है। फिर भी दो-तीन लड़कियों के पते मैं आपको भेज रहा हूँ, जो हमारे इप्टा से सम्बद्ध हैं व लेखन के क्षेत्र में भी रूचि रखती हैं। इन्हें यदि सही मार्गदर्शन मिला तो आगे बढ़ने की काफी गुंजाईश है।

कृपया इन लोगों से सम्पर्क बनाए रखें।

  1. कु. शिवानी मुखर्जी, पोस्ट ऑफिस, रायगढ़
  2. कु. शीला शास्त्री, साँवरिया बिल्डिंग, रायगढ़
  3. कु. अलका आठले, सिविल लाइन्स, रायगढ़
  4. कु. पूनम मुखर्जी, डीएचओ ऑफिस, रायगढ़

बिलासपुर इप्टा इकाई का सम्बद्धता शुल्क अभी तक प्राप्त नहीं हो पाया है। कृपया उसे जल्द से जल्द भिजवाएँ। दूसरी बात, बिलासपुर इप्टा के गतिविधियों की जानकारी हमें समाचार पत्रों से ही मिल पाती है। आप लोगों द्वारा मंचित किये जाने वाले नाटकों की पूर्वसूचना मिले तो रायगढ़ के कुछ साथी प्रोग्राम देखने भी पहुँच सकते हैं व कुछ सीखने भी मिल सकता है। इसलिए यदि पूर्वसूचना आप लोग भिजवा सकें तो अच्छा होगा।

शेष कुशल
आपका
अजय आठले

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रायगढ़, 26 मई 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। व्यवसाय के कार्यों से प्रायः बाहर ही था इसलिए उत्तर देने में विलंब हुआ। पिछले गुरुवार को बिलासपुर में ही था व आपके घर भी गया था पर वहाँ ताला लगा हुआ था।
जिनका पता मुझे सबसे पहले भेजना चाहिए था, वो अब भेज रहा हूँ। मैडम वर्मा, जो साथी प्रमोद वर्मा जी की छोटी बहन हैं व रायगढ़ कॉमर्स कॉलेज में व्याख्याता हैं। शिवानी का ट्रांसफर खरसिया हो गया है इसलिए उसे पोस्ट ऑफिस खरसिया के पते पर लिखें व उसकी बड़ी बहन भी, जिसका नाम कल्याणी मुखर्जी है, उसे भी लिखें। वह भी खरसिया में ही है। मैडम वर्मा का पता भेज रहा हूँ।

कु. चंद्रभागा वर्मा, 45, किरोड़ीमल कॉलोनी, रायगढ़

शेष कुशल, सभी साथियों को अभिवादन सहित
आपका
अजय आठले

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बिलासपुर, 15 जून 1983

प्रिय साथी,
सादर अभिवादन।
आपका पत्र मिला। मैं करीब 15 दिनों के लिए बिलासपुर से बाहर थी। इसी बीच आप यहाँ आए होंगे। मुलाकात नहीं हो पाई, इसका दुख है।

शिवानी और शीला का जवाब आया। उनसे सम्पर्क जारी है। मैडम वर्मा को भी लिख रही हूँ। पूनम और अलका ने जवाब नहीं दिया।

एक महत्वपूर्ण बात, ‘उत्तरार्द्ध’ ने जनवादी नाटक विशेषांक निकाला है। 36 नाटक हैं। आपने देखा क्या यह अंक? आपके टीम के पास इसकी कुछ प्रतियाँ होनी चाहिए। आप यहाँ आए थे तो हमारी इकाई के किसी भी साथी से मुलाकात नहीं की क्या? अभी छत्तीसगढ़ स्तरीय शिविर की तारीखें तय नहीं हुईं। आप आएंगे क्या? आप लोग कुछ लघु पत्रिकाएँ नियमित लेते हैं या नहीं? शेष ठीक। साथी मुमताज भारती और साथियों को सलाम। परिवारजनों को यथायोग्य प्रणाम एवं स्नेह।

आपकी
उषा वैरागकर

रायगढ़, 19 जून 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। चूँकि बिलासपुर में सारा समय अजय मेंढेकर को खोज निकालने में लग गया इसलिए और किसी से मुलाकात नहीं हो सकी। अजय से ‘उत्तरगाथा’ के दो ताजा अंक लेना था।

‘उत्तरार्द्ध’ के जनवादी नाटक विशेषांक बाबत मैंने भी किसी पत्रिका में पढ़ा ज़रूर था, परंतु एड्रेस न होने के कारण मंगवा न सका। आपके पास यदि एड्रेस हो तो कृपया भेजें।

यहाँ लघु पत्रिकाओं में ‘पहल’ और ‘साम्य’ मंगवाते हैं। ‘इसलिए’ भी शुरु करने का विचार है। यहाँ प्रलेस के गठन की कोशिशें जारी हैं। आशा है, अगले महीने तक विधिवत गठन हो जाएगा।

कल पूनम से मुलाकात हुई थी व उसका कहना है कि उसने तुम्हें उत्तर भेजा है।

छत्तीसगढ़ स्तरीय शिविर की तारीख कब तक तय होगी? रायगढ़ से चार-पाँच साथियों के आने की उम्मीद है।

यहाँ ‘बकरी’ नाटक की तैयारियाँ चल रही हैं। धीमी गति होने के कारण शायद अगस्त महीने में मंचन हो सकेगा।

शेष कुशल, सभी साथियों को सलाम।
आपका
अजय आठले

……….

बिलासपुर, 24 जून 1983
प्रिय साथी,
लाल सलाम!
आपका पत्र मिला। अजय मेंढेकर मेरे घर के पास ही रहते हैं। अगर आप हमारी इकाई के साथी प्रताप ठाकुर, रफीक खान या डॉ. सक्सेना से मिलते तो आपको दिक्कत नहीं होती। अजय भाई से हम लोग परिचित हैं। या वे नहीं भी मिलते तो भी आपको ‘उत्तरगाथा’ के अंक मिल जाते। खैर, अब कभी आइये तो साथियों से अवश्य सम्पर्क कीजिए।

‘उत्तरार्द्ध’ मंगवाने के लिए पता है, सव्यसाची, 2164, डेम्पियर नगर, मथुरा – 281001
संभवतः यह अंक इप्टा के सभी साथियों को दिलवाइये। लघु पत्रिकाओं के अलावा आप विचारधारात्मक साहित्य और क्या पढ़ते हैं? वहाँ उपलब्ध है क्या? कुछ तो साथी मुमताज भारती जी के पास होगा। आप लोग ‘कथन’ भी लिया करें। ‘यात्रा’ कटनी से निकलने लगी है। हम लोग शिविर के अवसर पर ‘सम्बद्ध’ नाम से अनियतकालिक लघुपत्रिका जारी कर रहे हैं। इसे आगे भी प्रकाशित करते रहने का प्रयत्न करेंगे। ‘सम्बद्ध’ अभी प्रेस में है। शिविर की तारीखें सम्भवतः 16-17 जुलाई तय होंगी। दरअसल अभी सब आलेख प्राप्त नहीं हुए हैं इसलिए तारीखें तय करने में असुविधा हो रही है। आप अपनी पूरी टीम के साथ आइये, हमारी इकाई का आग्रह है।

आप शिवपुरी नाट्य शिविर में नहीं गए थे क्या? और सारंगढ़? शिवपुरी शिविर की रिपोर्टिंग तो अच्छी है। हमारी इकाई से आर्थिक कारणों से कोई नहीं जा पाया।

प्रलेस के गठन संबंधी सूचनाएँ डॉ. राजेश्वर सक्सेना सर को देते रहिये, वे क्षेत्रीय संयोजक हैं। आपके यहाँ तो काफी साथी हैं आपके साथ। काम अच्छा होगा मगर विचारधारात्मक स्तर बनाए रखें और उस ओर ध्यान दें।

पूनम का पत्र मुझे नहीं मिला। आज ही शेफाली चौबे और चंद्रभागा वर्मा जी को पत्र डाले हैं। भाई मुमताज जी का भी पत्र आया है।

‘बकरी’ कब तक तैयार हो जाएगा? यहाँ भी उसका मंचन किया जा सकता है। हमारी इकाई ‘गिरगिट’ और ‘नेताजी’ के मंचन कर चुकी – चौराहों पर भी। अब कोई नया नाटक, थोड़ा लम्बा उठाने की सोच रहे हैं।

आप और स्थानों के साथियों से भी पत्रव्यवहार रखें ताकि जानकारियाँ मिलती रहें। रफीक और प्रताप को भी लिखें। शेष ठीक। परिवारजनों को यथायोग्य प्रणाम एवं प्यार। साथियों को अभिवादन।

आपकी
उषा

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रायगढ़, 12 जुलाई 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। मैं जरा बाहर चला गया था। कल ही भाई रफीक खान का परिपत्र नं. दो मिला। उन्हें भी जवाब भेज दिया है। दरअसल, जब भाई रफीक को पत्र लिखा, उस समय तक रायगढ़ से सिर्फ चार साथी ही जाने को तैयार थे। परंतु आज बैठक में यह निर्णय लिया गया है कि ‘समरथ को नहीं दोस गुसाँई’ की पूरी टीम के साथ हम लोग बिलासपुर पहुँचेंगे। अर्थात रायगढ़ से करीब 10 साथी शिविर में भाग लेंगे।

शेष मिलने पर। सभी साथियों को यथायोग्य नमस्कार।

आपका
अजय आठले

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बिलासपुर, 29 जुलाई 1983

प्रिय साथी,
लाल सलाम!
आपका भेजा हुआ साम्प्रदायिकता वाला सूचना पत्र मिला। कार्यक्रम कैसा रहा? ‘देशबंधु’ में रिपोर्टिंग नहीं भेजते हैं क्या? इस विषय पर परिचर्चाओं का आयोजन करके आप लोगों ने एक अच्छी शुरुआत की है। बधाई।

आपको और अन्य दोनों साथियों को यहाँ का शिविर कैसा लगा? प्रतिक्रिया एवं सुझाव जानना चाहती हूँ। ‘सम्बद्ध’ पर भी रिमार्क अवश्य लिखिये।

आपने ‘उत्तरगाथा’ का साम्प्रदायिकता विरोधी अंक आनंद से ले लिया था क्या? और आप एक काम कीजिए, कमलाप्रसाद जी को लिखकर ‘गाथाएँ सपनों की’ की कुछ प्रतियाँ मंगवा लीजिये। यह मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, हो ची मिन्ह तथा ऑगस्टीन नेटो की कविताओं का सोमदत्त द्वारा किया हुआ अनुवाद है। संग्रहणीय पुस्तक है। वैसे पुस्तक की कीमत 25 रू. है पर प्रलेस के सदस्यों को मात्र 5 रू. में उपलब्ध है। हमारे यहाँ दस प्रतियाँ दी थीं, सारी खत्म हो गईं।

और एक सुझाव आपको देना चाहती हूँ। आप ज़्यादा से ज़्यादा विचारधारा से जुड़े साथियों से पत्रव्यवहार कीजिये। इससे हममें आपस में आत्मीयता और एकता बढ़ती है। उनके कामों से, विचारों से प्रेरणा मिलती है।

हम लोग 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती पर कुछ कार्यक्रम रखेंगे। शेष ठीक। सभी साथियों को अभिवादन।
शुभकामनाओं के साथ
उषा

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रायगढ़, 5 अगस्त 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। मैं दो-तीन दिन के लिए बाहर गया था इसलिए पत्र का उत्तर देने में देर हुई। साम्प्रदायिकता पर परिचर्चा काफी सफल रही। रिपोर्टिंग आज ही भेजी है, ‘देशबंधु’ में।

यहाँ 23 जुलाई को प्रलेस का गठन हो गया। अभी तदर्थ समिति बनाई है। अध्यक्ष गुरुदेव कश्यप जी को बनाया है व सचिव का कार्य मैं देख रहा हूँ। साथ ही पाँच लोगों की कार्यकारिणी भी बना ली है। सम्बद्धता शुल्क एक-दो दिन में चौबे जी को भेज देंगे। डॉ. राजेश्वर सक्सेना जी को भी आज ही पत्र डाल रहा हूँ। प्रलेस की पहली गोष्ठी शरद बिल्लौरे की कविता पुस्तक ‘तय तो यही हुआ था’ पर रखी जा रही है। तारीख अभी तय नहीं हुई है। ‘गाथाएँ सपनों की’ की पाँच प्रतियाँ यहाँ आई थीं क्योंकि यहाँ पर हमने पहले ही बुक क्लब योजना के अंतर्गत पाँच सदस्य बनाए हैं।

जहाँ तक ‘सम्बद्ध’ पर कोई रिमार्क देने का सवाल है तो चूँकि वह रविन्द्र चौबे अपने साथ सन्ना ले गया और मैं पढ़ ही नहीं पाया हूँ अतः कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हूँ। हाँ, शिविर निस्संदेह सफल रहा। चर्चा और व्यवस्था दोनों ही दृष्टि से। शिविर का उद्घाटन दो बजे दिन के बजाय यदि सुबह हुआ होता तो तीन की जगह चार विषयों पर चर्चा हो सकती थी और शनिवार पूरे दिन का सार्थक उपयोग हो सकता था। विषय काफी अच्छे चुने गए थे। ‘फोटोग्राफी’ पर पहली बार चर्चा हुई। काफी अच्छी चर्चा हुई। मगर पता नहीं क्यों, हो सकता है मैं गलत हूँ, पर मुझे ऐसा लगता है कि फोटोग्राफी कला की दृष्टि से इतनी विकसित नहीं हुई है कि वह अमूर्तन को पकड़ सके व यथार्थ को समाजवादी यथार्थ तक पहुँचा सके। इसमें रॉन्ग इंटरप्रिटेशन के खतरे ही ज़्यादा हैं। दूसरी गोष्ठी में जितने मेहनत से आलेख तैयार किये गये थे, उतने ही ज़ोरदार ढंग से उन पर चर्चा भी हुई, खासकर डॉ. सक्सेना जी का स्पीच, जिसने क्रमशः नीरसता/एकरसता की ओर बढ़ रही गोष्ठी को जीवन्त बना दिया।

तीसरी गोष्ठी का विषय जितना महत्वपूर्ण था, उतनी ही मेहनत से भाई मिर्ज़ा मसूद ने आलेख भी तैयार किया था। बावजूद इसके, मुझे ऐसा महसूस हुआ कि चर्चा काफी भटक रही थी। हालाँकि बीच बीच में भाई रमाकान्त श्रीवास्तव व अन्य लोगों ने काफी हद तक दिशा बदलने की कोशिश की। संस्कृति तो परिवर्तनशील है ही, उसे रोक कर तो रखा नहीं जा सकता। सवाल है कि उसे अपनी धारा के साथ जोड़ने के लिए रचनाकार को किन किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। बहस इस मुद्दे पर केन्द्रित होनी चाहिए थी।

वैसे कुल मिलाकर आयोजन बहुत सफल रहा। और इस बात के लिए रायगढ़ इप्टा और प्रलेस की ओर से आप सभी साथियों को बधाई।

‘उत्तरगाथा’ मुझे अभी तक नहीं मिल पाई है। आनंद से रायपुर जाते समय ट्रेन में मुलाकात ज़रूर हुई थी। उसे याद दिला दिया है। फिर भी आप एक बार और रिमाइंड करा देना।
शेष कुशल। सभी साथियों को अभिवादन।
आपका
अजय आठले

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बिलासपुर, 12 अगस्त 1983

प्रिय साथी,
लाल सलाम!
आपका पत्र मिला। ‘देशबंधु’ में साम्प्रदायिकता वाली आपकी रिपोर्ट पढ़ी, बहुत छोटी थी। इकाई गठन के लिए बधाई। आपकी इकाई में सक्रिय साथी काफी हैं इसलिए उम्मीद है कि आप लोग बहुत काम करेंगे। मैंने जो योजना आपके सामने रखी थी यहाँ, उसे भी शुरु कर दीजिए – विचारधारात्मक शिक्षण की। हमने यहाँ रविवारीय बैठकें शुरु की हैं। नए साथियों के साथ पिछले रविवार को कविता पाठ पर चर्चा हुई। उनकी कविताएँ सुनीं और उस पर चर्चा की कि, कविता क्यों/किनके लिए/किसके लिए/कैसी होनी चाहिए। खुशी है कि नए साथियों ने तुरंत प्रयास शुरु कर दिए हैं। रोमेंटिक कविता से आगे बढ़कर कम से कम यथार्थवादी कविताओं की रचना करने लगे। इस रविवार को समाज के विकास के संदर्भ में बात होगी। नए साथियों में जिज्ञासाएँ निरंतर बढ़ रही हैं, जो पॉज़िटिव पॉइंट है। बैठकों में कम साथी रहें तो भी चलेगा, पर ये बैठकें असर छोड़ती हैं। पिछले रविवार को डॉ. सक्सेना और मैं ही थे पुराने साथियों में, पर सफल रहे। आप भी ये शुरु कीजिए, इससे सिखाने के साथ हम लोग भी सीखते हैं। आपके पास पर्याप्त किताबें हैं, आपकी बातों से लगा। यदि किसी रविवार को यहाँ आ सकें तो आइये। बैठकें प्रायः मेरे घर पर ही ले रहे हैं।

आपकी इस बात से मैं भी सहमत हूँ कि फोटोग्राफी अभी समाजवादी यथार्थ को पकड़ पाने में असमर्थ है। प्रताप के आलेख में ये कमज़ोरी थी कि वह भारतीय संदर्भों को छू नहीं पाया। गोष्ठियों में चर्चा इसलिए भटकती है क्योंकि प्रायः आलेख पहले पढ़े हुए नहीं होते अतः चर्चा गहराई तक उतर ही नहीं पाती। यदि पढ़े जाने वाले आलेख जल्दी आ जाएँ और साइक्लोस्टाइल करके सभी इकाइयों को पहले ही भिजवा दिये जाएँ तो समय काफी मिलेगा अतः चर्चा ठोस होगी और दोहराव का खतरा कम हो जाएगा।

2-3 दिनों पूर्व उमाशंकर चौबे जी का पत्र आया है। इप्टा के छत्तीसगढ़ स्तरीय शिविर को लेकर। मुझे लगता है कि यह शिविर रायगढ़ में ही आयोजित किया जाए। चूँकि बिलासपुर में अभी अभी एक शिविर हो चुका है और राजनाँदगाँव में 11 सितम्बर को एकदिवसीय शिविर है ही। इसतरह के शिविरों के कारण नए साथी जुड़ते हैं, हमें पिछले वर्ष और इस वर्ष भी अनुभव हुआ। हमारी इप्टा की इकाई अवश्य सक्रिय हिस्सेदारी निभाएगी। चौबे जी को भी आज ही लिख रही हूँ।

आनंद से मुलाकात होते ही ‘उत्तरगाथा’ के लिए याद दिला दूँगी। आपकी इकाई में कितने साथी लिखते हैं (कुछ भी)? अभी कोई नाटक शुरू किया है क्या? आपको हमारी ‘जंगीराम की हवेली’ की प्रस्तुति कैसी लगी? आपकी टीम भी आती तो अच्छा होता!

आप जब भी यहाँ आएँ, कुछ किताबें ले जाना। शेष कुशल। अपनी एक्टिविटीज़ के बारे में लिखते रहिए। सभी साथियों को सलाम! शुभकामनाओं के साथ
आपकी उषा

…………..

रायगढ़, 23 अगस्त 1983

प्रिय साथी,
आपका 12 अगस्त का लिखा पत्र व अतुल के हाथों भेजी चारों किताबें मिलीं। ‘भारत का स्वतंत्रता संग्राम’ व ‘परिवार, व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति’ ये दोनों किताबें मेरी पढ़ी हुई हैं। परंतु ये किताबें पापा से लेकर पढ़ी थीं और दुबारा एक रीडिंग लेना चाहता था, पर ये किताबें पापा के पास उपलब्ध नहीं थीं इसलिए किताबें बहुत उचित समय पर मुझे मिली हैं। मुझे ऐसा लगा था कि आप द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर कोई पुस्तक भेजेंगी। यदि संभव हो तो उसे भेजना।

यहाँ इप्टा द्वारा ‘चार टाँगे’ सड़क नाटक का पहला प्रदर्शन 15 अगस्त को हुआ और अब तक करीब पाँच छैः प्रदर्शन हो चुके हैं।

प्रलेस की हमारी इकाई में तीन चार साथी हैं, जो लिखा करते हैं। रविन्द्र चौबे की कहानी म.प्र.साहित्य सम्मेलन द्वारा निकाली गई पत्रिका ‘पास-पड़ोस’ में छपी है, जिसका सम्पादन रमाकांत जी ने किया है। हेमचंद्र पाण्डे भी है, जिसकी कहानी को प्रेमचंद शताब्दी समारोह जबलपुर में प्रथम पुरस्कार मिला था। गुरुदेव कश्यप जी हैं, जो अच्छे कवि भी हैं।

यह पत्र मैं अपनी वहिनी साहिबा के हाथों भिजवा रहा हूँ। यदि संभव हो तो उनके हाथों ‘उत्तरगाथा’ भिजवाना।

यहाँ स्टेज प्ले के लिए अभी कोई नाटक नहीं लिया है। ‘बकरी’ नाटक पर काम शुरु किया था पर सारी बकरियाँ भाग गईं। फिर से जुटना पड़ेगा।

स्टडी सर्कल का काम भी शुरु है। अभी एकदम बुनियाद से शुरु कर रहे हैं। क्योंकि कुछ साथी पदार्थ और चेतना को लेकर ही गफलत में पड़े हुए हैं। इसलिए गोष्ठी डार्विन के विकासवाद से शुरु की है। इसके बाद समाजशास्त्र व क्रमशः आगे बढ़ेंगे।

शेष कुशल। सभी साथियों को सलाम!
आपका
अजय आठले

………….

बिलासपुर, 8 सितम्बर 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मुझे यथासमय मिल गया था। कुछ व्यस्त होने के कारण जवाब तुरंत नहीं दे पाई। आपकी भाभीजी से फिर मुलाकात नहीं हो पाई। आज जाऊँगी उनसे मिलने। यदि वे यहीं होंगी तो उनके साथ अफ्नास्येव की ‘मार्क्सवादी दर्शन’ भेज रही हूँ। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए सरल किताब है। फंडामेंटल्स पक्के होने के लिए बेस्ट है। आपको अंग्रेज़ी किताबें भेजी जाएँ क्या? मुझे अंग्रेज़ी में टर्म्स समझने में अभी भी दिक्कत होती है, इसलिए पूछ रही हूँ। और एक बात, आप मराठी पढ़ लेते हैं क्या? ज्ञान जी ने कुछ मराठी मैगज़ीन्स भेजी हैं। बहुत अच्छे आर्टिकल्स हैं। यहाँ के मराठीभाषी सदस्यों को तो दूँगी ही, यदि आप पढ़ सकते हों तो भेज दूँगी।

दूसरी बात, स्टडी सर्कल बुनियादी चीज़ों से शुरु किया है, यह बहुत बढ़िया काम है। हम लोग भी फंडामेंटल्स पर काम कर रहे हैं। अब ये बतलाइये कि आप लोगों का स्टडी सर्कल का तरीका क्या है? हम लोग तो कोई एक विषय तय करके उस पर कोई एक सरल भाषा में परचा पढ़ता है और अन्य पुराने साथी उस पर बोलते हैं। आलेख में छूटे मुद्दों को स्पष्ट करते हैं। नए साथियों को प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इससे हमारी भी स्टडी हो जाती है और नए साथियों में जिज्ञासाएँ भी पैदा होती हैं और उनका संकोच टूटता है। यदि आप लोग भी आलेख तैयार करते हैं तो अब तक जितने तैयार किये हैं, हमें भेज दीजिए। मैं भी यहाँ के आलेख जो कि – 1. मानव समाज का ऐतिहासिक विकास, 2. साहित्य और राजनीति, 3. यथार्थवाद, 4. पूँजीवादी व्यवस्था की विसंगतियाँ (यह कल डील होगा) – विषयों पर हैं, भेज दूँगी। आप उस पर चर्चा कर लें और आलेख वापस भेज दें। साथ ही आलेख में छूटी बातों का उल्लेख भी करें। इन पर बहस भी चलाई जा सकती है।

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शेष ठीक। सभी साथियों को अभिवादन।
आपकी
उषा

……….

बिलासपुर, 19 सितम्बर 1983

प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला, साथ ही जशपुर सेवा समिति के बारे में विरोध-प्रस्ताव भी। प्रस्ताव निस्संदेह स्पष्ट और ठोस बना है। इसतरह का कदम उठाने के लिए बधाई। हमारी बैठक में यह प्रस्ताव सब को पढ़वाएंगे। क्या इस प्रस्ताव को आप रायगढ़ के स्थानीय अखबार में चिट्ठी-पत्री वाले स्तम्भ में नहीं छपवा सकते? इसकी एक प्रति ‘देशबंधु’ के लिए और एक प्रति ‘बिलासपुर टाइम्स’ के लिए भेज सकते हैं। दोनों छपवा देंगे, इससे तथ्य लोगों की नज़रों के सामने जल्दी आएंगे।

कल साथी विश्वजीत कर आए थे। उनके साथ अफ्नास्येव की ‘मार्क्सवादी दर्शन’ और उत्तरगाथा का साम्प्रदायिकता विरोधी अंक भिजवाया है। मराठी पत्रिकाएँ अभी मैं ही नहीं पढ़ पाई हूँ पूरी। हाँ, एक बात और, क्या आप मराठी से हिंदी में अनुवाद कर सकेंगे? उनमें से कुछ लेख अनूदित करने हैं। अगले समय कोई पत्रिका भेजूँगी आपको। विश्वजीतभाई कह रहे थे कि स्टडी सर्कल वाला हमारी इकाई का तरीका ठीक नहीं है कि हम लोग छिटपुट विषय ले रहे हैं, सीरियली लेना चाहिए। उनका सुझाव ठीक तो है पर हमारे नए साथियों के लिए नहीं। अधिकांश साथी कम उम्र के हैं (मतलब एडल्ट भी नहीं), अपनी उम्र की अगंभीरता एवं अन्य कमज़ोरियों के कारण वे गंभीर चीज़ों को समझने की स्थिति में नहीं हैं। उनमें एकबारगी रूचि जागृत हो जाए, जिज्ञासा के अंकुर फूट निकले उनमें, तब उन्हें कुछ गम्भीर, सैद्धांतिक चीज़ें दी जा सकती हैं। फिलहाल दैनिक जीवन से जुड़ी समस्याओं और सामान्य साहित्यिक चीज़ों को मार्क्स का नाम लिये बिना मार्क्सवादी ढंग से समझा देते हैं। जैसे, पिछली क्लास में ‘साहित्य और समाज’ विषय था, उसमें सभी ने स्कूल में पढ़ी हुई साहित्य की परिभाषा – ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ – की एकांगिता और खोखलापन स्पष्ट किया। अपरिपक्व साथियों को सिद्धांतों और दर्शन के भारी विचारों का डोज़ पिलाना ठीक नहीं, वे बिचक जाएंगे। मार्क्सवाद के नाम से लोग किसतरह अछूत जैसी भावना प्रदर्शित करते हैं, ये अनुभव आपको भी होगा। आपकी इस पर क्या राय है, बताइयेगा। मेरे पास सिर्फ ‘यथार्थवाद’ पर लिखा मेरा आर्टिकल था, वही भेज दिया, बेहद रफ है, समझ लेना। एक बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि मार्क्सिस्ट बनाने के लिए जल्दबाज़ी करना ठीक नहीं, साथियों की ग्रहण करने की क्षमता देखकर ही उन्हें पढ़ाया जाए। सभी साथी उत्साही हैं, पर यही उत्साह अनुभव में कमी और कच्ची समझ के कारण अतिक्रांतिकारिता की ओर भी ले जाता है – यह बात ध्यान में रखकर ही स्टडी सर्कल चला रहे हैं। वैसे भी कॉम. प्रवीण अटलूरी आएंगे अक्टूबर में, तब वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद की गहराइयों को बहुत आसान तरीके से सामने रखेंगे ही, हम लोगों में यह क्षमता नहीं है। प्रवीण की इस मामले में बेहद सहायता होगी, उन्हें कमाल हासिल है इसमें।

आज यहाँ विवेचना की टीम आ रही है तीन नाटक लेकर। यदि आप नहीं आ पाएँ तो अगले पत्र में उनके बारे में लिखूँगी ही।

विश्वजीतभाई किसी और डांगेआइट का नाम बता रहे थे, जिनका लेखन सव्यसाची जैसा है, यदि आपके पास हो, तो सेट भेज देना। यहाँ पढ़वाकर भिजवा देंगे। कमलाप्रसाद जी अफ्रो-एशियन लेखक कान्फ्रेन्स में ताशकंद गए हैं।

महिला लेखिका सम्मेलन की तारीखें 26 से 28 दिसम्बर तय कर रहे हैं। 21 सितम्बर को हमारी सामान्य बैठक में सारी बातें तय हो जाएंगी। तब विस्तृत प्रपत्र जारी करेंगे। नई बुलेटिन (प्रादेशिक कार्यालय से जारी) मिल गई क्या? मन्नू भंडारी, नमिता सिंह, कृष्णा सोबती के लिए नेतृत्व की सहमति है।

आपका पत्र प्रस्ताव के साथ रफीक के पास चला गया है इसलिए कुछ चीज़ें छूट गई होंगी उसमें। आप कुछ लिखते क्यों नहीं? लिखने से विचार स्पष्ट होते हैं, अभिव्यक्ति में पैनापन आता है।

शेष ठीक। सभी साथियों को अभिवादन।
आपकी
उषा

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रायगढ़, 29 नवम्बर 1983

प्रिय उषा,
बीच में एक दोस्त के हाथों चिट्ठी भेजी थी आप लोगों को, उत्सव 83-84 के कार्यक्रम में नाटक देखने हम लोग आने वाले थे। परंतु उसी दिन एक साथी बाल भास्कर ने आत्महत्या कर ली इसीलिए आना नहीं हो सका। बाल भास्कर रायगढ़ इप्टा से काफी समय से जुड़ा हुआ था व सक्रिय रूप से भाग लेता था। उसे मिरगी की बीमारी थी। अभी कुछ समय से उसे बहुत दौरे आने लगे थे। शायद यही वजह थी।

जबलपुर यहाँ से पापा और रविन्द्र गए थे। वहाँ से ‘जिज्ञासा’ पत्रिका लाए हैं। आप लोगों के पास भी पहुँची होगी। इस पत्रिका में छपे दो लेख चंबल की रिपोर्टिंग व निखिल चक्रवर्ती का इंटरव्यू पढ़कर अटपटा-सा लगा। पत्रिका के प्रति अच्छी राय नहीं बनने देता। साथ ही नीलांजन मुखोपाध्याय, जो कि पत्रिका के संपादक हैं, उनका लेख भी है। आप लोग क्या सोचते हैं ? क्या वे लेख चालाकीपूर्ण तरीके से लिखे हुए नहीं लगते? आप लोगों की पत्रिका के बारे में क्या राय है? हम लोगों को यह थोड़ी संदेहास्पद ही लगी, खासकर चंबलवाली रिपोर्ट, जो पीयूसीएल से संबंधित है।

यहाँ इप्टा इकाई द्वारा 31 दिसम्बर को ‘एक और द्रोणाचार्य’ का तीसरा मंचन होने वाला है। आपके यहाँ इप्टा की इकाई कैसे चल रही है? रायगढ़ इकाई का प्रलेस का काम बहुत धीमी गति से हो रहा है। प्रवीण भाई का कार्यक्रम अच्छा रहा। जटिल विषयों को भी सरल ढंग से समझाने में वाकई कमाल हासिल है उनको। कम से कम मुझे तो बहुत लाभ मिला उस कार्यक्रम से। अब अफ्नास्येव की पुस्तक पढ़ने में कोई तकलीफ महसूस नहीं हुई।

आप लोगों को टाइम देकर भी बिलासपुर नहीं आ सका, इसके लिए वाकई दुख है। और व्यस्तता के कारण पत्र लिखने में भी देर हो हुई इसके लिए भी माफी चाहता हूँ।

शेष कुशल। पत्रोत्तर देना। सभी साथियों को नमस्कार।
आपका
अजय आठले

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रायगढ़, 29 फरवरी 1984

प्रिय साथी,
दो दो पत्र आ जाने के बाद भी उत्तर देर से दे रहा हूँ। इसलिए शर्मिंदा हूँ। मैं इन दिनों दिल्ली चला गया था 8-10 दिनों के लिए। उसके पहले हफ्ते भर के लिए नागपुर गया था। इन्हीं कारणों से जवाब देने में देर हुई।

व्यस्तता के कारण पढ़ाई लिखाई बहुत ही धीमी गति से चल रही है। नागपुर से विजय तेंडुलकर का नया नाटक ‘कन्यादान’ लाया हूँ। अच्छा लगा, इसलिए अनुवाद भी शुरु कर दिया। दो अंक तक अनुवाद हो जाने के बाद बंद पड़ा है।

प्रलेस के सचिव का भार हेमचंद्र पाण्डे को सौंप दिया है। हेमचंद्र का लेख ‘बादलखोल’ पर नवभारत में छपा था। आप लोगों ने पढ़ा ही होगा। इस बार की गोष्ठी का आलेख उनके पिता ने लिखा था। गोष्ठी के समय मैं दिल्ली में था। यहाँ आने पर पता चला कि गोष्ठी काफी सफल रही।

इस बीच एक फिल्म देखी है ‘अर्द्धसत्य’। बहुत तारीफ सुनी थी, यहाँ तक कि ‘यात्री के पत्र’ में भी तारीफ की गई है। ‘धर्मयुग’ वगैरह में भी काफी उछाला गया है। वस्तुतः उतनी अच्छी फिल्म कथानक की दृष्टि से नहीं कही जा सकती। नायक का चरित्र किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण उपजी कुंठा से ग्रस्त है। साथ ही नायक का विद्रोह भी व्यवस्था के प्रति विरोध न लगकर व्यक्ति विशेष के प्रति विरोध लगता है। फिल्म की शुरुआत में नायक तीन गुंडों को पकड़कर बंद कर देता है, जिन्हें उनका मालिक अपनी पहुँच के कारण छुड़वा लेता है और यहीं से नायक का विरोध उस व्यक्ति से हो जाता है क्योंकि उसके अहं को चोट पहुँचती है। पूरी फिल्म में यह बात ज़्यादा मुखर रूप से दिख पड़ती है कि नायक का विरोध व्यवस्था से न होकर रामा शेट्टी से है। बचपन में बाप द्वारा उस पर व उसकी माँ पर किये गये अत्याचारों के कारण उसके मन में एक कुंठा उपजी है और वह इसी के तहत अपराधियों से क्रूरता के साथ पेश आता है। इन्हीं कारणों से एक बार सस्पेन्ड होने की नौबत आती है तब दिल्ली वाले ‘कॉन्टेक्ट’ से मिलकर पचीस-तीस हजार खर्च करके अपनी नौकरी बचाता है। स्मिता पाटील पूछती है कि इतने पैसे कहाँ से मैनेज करते हो, तो कहता है कि सब हो जाता है। यह दृश्य प्रायः हर समीक्षा में या तो अनदेखा कर दिया गया है या जानबूझकर छोड़ दिया गया है। पर यह दृश्य ही महत्वपूर्ण है और सिद्ध करता है कि नायक दूसरी जगहों पर समझौते करने को तैयार है और करता है, पर रामा शेट्टी से उसकी व्यक्तिगत दुश्मनी है इसलिए उसका खून कर देता है। वस्तुतः खून करने से पहले वह उससे सौदा करने ही गया था व रामा शेट्टी को पैसे देने हेतु तैयार रहता है पर रामा शेट्टी उसे अपनी शर्त पर छुड़ाना चाहता है, जो उसे नामंजूर है और वह उसका खून कर देता है। यह बात भी सभी समीक्षाओं में छुपाई गई है। इसमें एक और पात्र है माइक लोबो, जो एक ईमानदार पुलिस अफसर था, पर सस्पेन्ड कर दिया गया है। वह दारू पी-पीकर अपना जीवन खत्म कर लेता है। उसकी मौत नायक देखता है। यह दृश्य कुछ इसतरह फिल्माया गया है मानो फिल्मकार यह कहना चाह रहा है कि संघर्ष की यही परिणिति होती है (यह एक पलायनवादी रूख है)। कुल मिलाकर पात्रों का चयन गलत है। ऐसे पलायनवादी और कुंठित पात्र कथानायक नहीं होने चाहिए।
आपकी दी हुई पुस्तकों में से दो पुस्तकें पढ़ ली हैं। एक पहले ही पढ़ी थी। जल्द ही वापस भेज दूँगा। दिल्ली से दो पुस्तकें लाया हूँ जेनेटिक्स पर, पर पढ़ने का समय नहीं है। इसलिए हेमचंद्र को दे दी हैं पढ़ने के लिए।

शेष कुशल। सभी साथियों को अभिवादन।
अजय आठले

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बिलासपुर, 2 मार्च 1984

प्रिय साथी,
लाल सलाम!
पत्र मिला। आप दिल्ली जा रहे हैं, पहले पता होता तो आपको कुछ किताबों की लिस्ट दे देते, जो हमें पी.पी.एच. से चाहिए थीं। आपने लाई हुई किताबों के नाम लिखिये। हिंदी में हैं या अंग्रेज़ी में? नाटक के अनुवाद का काम अधूरा क्यों छोड़ा? उसको पहले पूरा कर लीजिए। विजय तेंडुलकर के नाटक सामान्यतः पूंजीवादी विसंगतियों पर आधारित होते हैं परंतु उनमें वैज्ञानिक समझ नहीं है, ऐसा मुझे लगता है। कन्टेन्ट अटैकिंग होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। मेरा अनुवाद का काम तो शुरु ही नहीं हो पा रहा है। यूँ ही छिटपुट लेखन चल रहा है। हाँ, अध्ययन की गति तेज़ कर दी है। इस बीच ई. एच. कार की ‘इतिहास क्या है’, यू.ए.खारिन की ‘फंडामेंटल्स ऑफ डायलेक्टिक्स’ समाप्त की। रिसर्च के सिलसिले में भगवत शरण उपाध्याय की ‘भारतीय कला की भूमिका’ पढ़ी। अब अफ्नास्येव फिर से शुरु कर दी है।

हमारी संडे क्लासेस अभी बंद हैं, परीक्षाएँ नज़दीक हैं इसलिए। 15 दिनों पहले सर वगैरह पामगढ़ जाकर इकाई गठित कर आए प्रलेस की। मैंने एआईएसएफ का काम शुरु किया है। गर्ल्स विंग बनानी है। रायगढ़ में एआईएसएफ की क्या स्थिति है? पता चलाइये और कॉम. मुमताज भारती से कहिये कि कुछ स्टुडेन्ट्स को आइडियॉलॉजिकली तैयार करने की ज़िम्मेदारी आप लोगों को उठानी चाहिए। प्रलेस या इप्टा में स्टुडेन्ट्स कितने हैं? उनके माध्यम से काम शुरु कीजिए। विद्यार्थियों को तैयार करने से आंदोलन में पुख्तापन आता है।

‘अर्द्धसत्य’ यहाँ इसी महीने आने वाली है। देखने के बाद ही कुछ लिखूँगी। इस बीच ‘बाज़ार’ और ‘सुबह’ देखी। ‘बाज़ार’ मार्क्सिस्ट फिल्म है। सशक्त, जानदार कैरेक्टर्स हैं, अवश्य देखिये। किसतरह पूँजीवाद में आदमी भी बाज़ार में बिकने वाले माल में तब्दील हो जाता है, इसकी वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण शानदार है। निर्देशक सागर सरहदी जनवादी लेखक संघ में हैं। ‘सुबह’ (उंबरठा) भी अच्छी फिल्म है इसलिए कि रोमांटिक विद्रोह किसतरह आदमी को एलिनेट कर देता है, इसका बढ़िया उदाहरण है। मुझे स्मिता पाटील के संघर्षपूर्ण चरित्र ने प्रभावित किया। यदि महिलाओं में संघर्ष की चेतना भी जाग गई तो दिशा देने का काम हो सकता है, संभावनाएँ जाग सकती हैं। नायिका का विद्रोह नारी मुक्ति की कल्पना से प्रभावित नहीं, बल्कि ‘कुछ करना चाहिए’ की छटपटाहट से उपजा है, पर कब और कैसे – इसकी दिशा तय न होने के कारण वह अकेली पड़ जाती है। इसके बावजूद फिल्म हॉन्ट करती है।

‘अर्द्धसत्य’ के बारे में आपकी समीक्षा पढ़कर लगा कि आप इसके नायक को वर्गचेतस चरित्र के रूप में देखना चाहते थे। मेरे विचार से अभी हमारे पास ऐसी स्थितियाँ नहीं हैं कि हम व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष दिखाकर लोगों को प्रभावित कर सकें। ऐसी फिल्मों की तारीफ नहीं होगी, वह बैन हो जाएगी। पूंजीवादी सत्ता अपनी विसंगतियों-कमज़ोरियों का चित्रण वहीं तक बर्दाश्त करती है, जहाँ तक उनके अस्तित्व को खतरा न हो – ऐसी फिल्मों को छूट देकर सरकार अपनी उदारता का प्रदर्शन करती है। व्यवस्था पर चोट करने के लिए संगठित शक्ति चाहिए, सिर्फ नायक कुछ नहीं कर सकता। यदि किया तो ‘इंकलाब’ जैसी फिल्म बनेगी। सेंसर, व्यवस्था पर चोट करके रास्ता दिखाने वाली, व्यवस्था-परिवर्तन की ओर स्पष्ट इशारा करने वाली फिल्म पास नहीं कर सकता। खैर, यह मैं सामान्य रूप से कह सकती हूँ, ‘अर्द्धसत्य’ के संदर्भ में नहीं। इस पर बाद में। आपने ‘मण्डी’ देखी थी? बढ़िया फिल्म थी पर उलझी हुई, आम समझ से ऊपर उठी हुई।

मराठी में महिलाओं का प्रगतिशील मासिक ‘बायजा’ की सदस्य बन रही हूँ। अंक आने के बाद रिपोर्ट दूँगी। ‘निनाद’ की कहानी प्रतियोगिता के पर्चे वहाँ पहुँचे या नहीं, अवश्य लिखना। फंडामेंटल्स का अध्ययन जितना हो उतना अच्छा। सभी साथियों को अभिवादन!
उषा

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बिलासपुर, 4 दिसम्बर 1984

प्रिय साथी,
बहुत दिनों से आपका पत्र नहीं आया। क्या बात है? रायगढ़ इकाई चुप क्यों हो गई? आप लोगों को कम से कम पत्र व्यवहार तो बनाए रखना चाहिए।

अभी यहाँ जनवादी साहित्य गृह (पीपीएच की शाखा) का स्टॉल आया है। विजय गुप्त लाए हैं। प्रवीण अटलूरी भी आए हुए हैं। हमारी इकाई की गोष्ठियाँ नियमित चल रही हैं।

आप के पास मेरी जो फंडामेंटल किताबें हैं, उन्हें जल्दी से जल्दी किसी के हाथ भेजने का कष्ट कीजिए। अन्य किताबें भी पढ़ चुके होंगे तो भेज दीजिए।

शेष ठीक। आपकी इकाई का हालचाल लिखिये। पापा तथा सभी साथियों को अभिवादन।
आपकी
उषा

1980 के बाद लगभग एक-डेढ़ दशक तक प्रलेस बहुत गतिशील रहा। लगातार इकाइयों में, क्षेत्रीय स्तर पर, प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठियाँ और कार्यक्रम होते रहे। महत्व श्रृंखला के अलावा सम्मान श्रृंखला में प्रगतिशील रचनाकारों और व्यक्तित्वों पर केन्द्रित कार्यक्रम आयोजित होते रहे। ज्ञान जी के लगातार ज़ोर दिये जाने और प्रोत्साहन के कारण मैंने भी मराठी से हिंदी अनुवाद का काम शुरु कर दिया था। पहलेपहल मराठी पत्रिकाओं से लेख छाँटकर उनका अनुवाद करती रही। सक्सेना सर, ज्ञान जी, कमला प्रसाद जी आदि वरिष्ठ साथी इन्हें विभिन्न पत्रिकाओं में छपवाते रहते। ज्ञान जी ने ‘पहल’ में भी कुछ अनुवाद छापे। 1984 में ज्ञान जी ने मॉरिस कॉर्नफोर्थ की एक किताब ‘साम्यवाद और मानव मूल्य’ का मराठी अनुवाद मुझे भेजा और उसका हिंदी अनुवाद करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। उन दिनों ज्ञान जी का हम पर इतना गहरा आत्मीय प्रभाव था कि हम उनके द्वारा सौंपे गए किसी काम या ज़िम्मेदारी का निर्वाह बहुत गंभीरता से करते थे। और फिर, एक बार आपने ज़िम्मेदारी ले ली, फिर तो ज्ञान जी के हरेक पत्र में आपको काम की गति की सूचना अनिवार्य रूप से देनी ही पड़ती थी। ज्ञान जी का सचिवालय चिट्ठियों के भरोसे ज़्यादा चलता था। अधिकांश साथियों, खासकर युवा साथियों को वे लगातार और तुरंत लिखते थे। उसी समय उनके पत्र एक विशेष प्रकार के टाइपराइटर पर छपे हुए मिलते, जिसका हमें बहुत क्रेज़ था। बहरहाल, मॉरिस कॉर्नफोर्थ की किताब मराठी में मुझे मिली। मराठी में विचारधारात्मक साहित्य पढ़ने का मेरा अभ्यास नहीं था इसलिए पारिभाषिक शब्दावली में मैं फँस जाती। फिर काफी पूछताछ के बाद मुझे उसका अंग्रेज़ी अनुवाद मिला। मराठी और अंग्रेज़ी अनूदित किताबों की मदद से और सक्सेना सर से अंग्रेज़ी किताब के आधार पर मदद लेकर मैंने अपनी पहली अनूदित पांडुलिपि पूरी कर ज्ञान जी को भेज दी।

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  • आपके और अजय भैया के संगठन के माध्यम से परिचय के बारे में कुछ बातें तो आप लोगों ने बताई थी लेकिन यहाँ पत्र के माध्यम से पढ़ने को मिला तो और अच्छा लगा और आप दोनों के जीवंत कन्वर्सेशन याद आ गए जो हम लोगों के बीच भी होते थे और हम लोग आप लोगों से प्रेरित होते थे. 👍👍

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