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परस्पर जानने, समझने, सीखने, सीखाने का मौका मिला : वर्षा और साक्षी

परस्पर जानने, समझने, सीखने, सीखाने का मौका मिला : वर्षा और साक्षी

(इस वर्ष भिलाई इप्टा का 25वाँ साल है बच्चों के साथ काम करने का, इसलिए भिलाई इप्टा ने एक नई योजना बनाई, जिसमें भिलाई के स्थानीय विभिन्न विशेषज्ञों के अलावा इप्टा की विभिन्न इकाइयों के युवा साथी, जो अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, उन्हें कार्यशाला के बीच आमंत्रित किया। इसमें बिलासपुर से साक्षी शर्मा, जमशेदपुर से अर्पिता श्रीवास्तव, दिल्ली से वर्षा आनंद, भोपाल से सचिन श्रीवास्तव और मथुरा से विजय शर्मा सम्मिलित हुए। इसके अलावा अशोक नगर के साथी कुश और मृगेंद्र भी आये थे। इन साथियों ने भिलाई की कार्यशाला के अपने-अपने अनुभव साझा किये हैं, जो काफी प्रेरक और नई दिशाओं को खोलने वाले हैं। ये रिपोर्ट्स भावी कार्यशालाओं के लिए एक गाइडलाइन के रूप में भी देखी जा सकती हैं। इसे कुछ कड़ियों में युवा साथियों के अनुभवों के रूप में यहाँ साझा किया जा रहा है। पहली और दूसरी कड़ी में हमने पढ़ा धर्म, ईश्वर और विज्ञान पर बच्चे तथा किशोर क्या सोचते हैं ! इस तीसरी कड़ी में इप्टा भिलाई के वरिष्ठ साथी राजेश श्रीवास्तव की भूमिका के साथ साक्षी शर्मा और वर्षा आनंद की रिपोर्ट प्रस्तुत है।)

बाल एवं तरुण नाट्य शिविरों का सिलसिला : राजेश श्रीवास्तव

भिलाई इप्टा के बाल  एवं तरुण नाट्य शिविर का यह 25 वां वर्ष है। 1998 में किसी दुर्घटना के तहत पहला बाल नाट्य शिविर प्रारंभ हुआ। (विस्तृत जानकारी फिर कभी) कुछ साल शिविर करते-करते एकरसता लगने लगी थी। इसे बेहतर बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर हम लोगों ने काफी प्रयास किए। पहला गंभीर प्रयास बच्चों के साथ काम करने वाले डायरेक्टरों की कार्यशाला था, जिसका सुझाव साथी जितेंद्र रघुवंशी ने दिया था।

अप्रैल 2006 में इस कार्यशाला में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय  से पंकज सक्सेना हनीफ, असम  से 2 साथी केरल से 2 साथी, बिहार से संजय और मधुलिका, मध्य प्रदेश से हिमांशु राय, सीमा राजोरिया, हरिओम राजोरिया, छत्तीसगढ़ से उषा आठले, अजय आठले, मणिमय मुखर्जी, आबिद अली, उत्तर प्रदेश से साथी जितेंद्र रघुवंशी के अलावा ज्योत्सना रघुवंशी, वेदा जी, राकेश जी, रवि नागर, अखिलेश दीक्षित, जुगल किशोर, भारतेंदु नाट्य अकादमी से चित्रा मोहन आदि साथियों ने भागीदारी की थी। इसके परिणाम मिले और कुछ साल तक शिविर  बहुत अच्छी तरह से चलता रहा। फिर हर साल कुछ नया करने का तरीका खोजने की कोशिश की गई। चूँकि इस वर्ष 25वाँ साल था, इसलिए कुछ खास करना चाह रहे थे। सभी साथी काफी उत्साहित थे।

‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा के दौरान बिलासपुर में साक्षी, जमशेदपुर में अर्पिता, भोपाल में सचिन को बच्चों के बीच काम करते हुए देखा। यात्रा में ही लगातार कुश, मृगेंद्र, वर्षा, विनोद को और यात्रा में ही इन्दौर में रजनीश के काम को देखा। फिर डाल्टनगंज में युवा कार्यशाला के साथियों के अनुभव भिलाई के साथियों से सुनें। इन सब के अलावा एक और नाम विजय शर्मा का मिला। युवा कार्यशाला के बाद साथियों की सांगठनिक स्तर पर सक्रियता और आपसी संबंध को देखते हुये डालटनगंज में राष्ट्रीय सम्मेलन में सभी साथियों साक्षी, अर्पिता, कुश, मृगेंद्र, वर्षा, विनोद, सचिन, रजनीश, विजय, हरिओम और सीमा से भिलाई के 25वें नाट्य शिविर के लिए चर्चा की। हरिओम और सीमा की व्यस्तता को देखते हुए उन से जो ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की। बाकी साथियों ने आग्रह स्वीकार कर लिया। विनोद व्यस्त था और रजनीश से दोबारा बात नहीं हो पाई। साथियों ने आपस में बात करते हुए अपनी सुविधा और सहूलियत से भिलाई प्लान बनाया और भिलाई पहुँच गए। इनके अलावा साथी अपराजित शुक्ल और छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी के अध्यक्ष साथी ईश्वर सिंह दोस्त  ने भी शिविर के तीन-चार दिन तक अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराई। साथी अपराजित तो पूरे शिविर में एक शिविरार्थी के रूप में उपस्थित रहे।

निश्चित ही इन सब साथियों के साथ काम करने का नया अनुभव रहा। मेरी नज़रों में तो संगठन के स्तर पर, गुणात्मकता के स्तर पर और कलात्मकता के स्तर पर पूरा शिविर  सफल रहा। पहली बार हम लोगों ने शिविर के समापन की शुरुआत शिविर के साथियों द्वारा लिखे और संगीतबद्ध किये गए गाने से की। पहली बार साथियों ने कविताओं पर इतनी गंभीरता से काम किया।पहली बार कविता-मंचन किया और पहली बार जेंडर के सवाल पर शिविरार्थी बच्चों ने खुल कर बात की। पहली बार शिविरार्थियों ने समाचार पत्र निकालने का प्रयास किया। साथियों को दिल से सलाम। साथियों ने अपने अनुभव साझा किए हैं जो संगठन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं | 

साक्षी की रिपोर्ट

इप्टा भिलाई विगत 25 सालों से लगातार बच्चों और युवाओं के साथ काम करते आ रही है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गर्मी की छुट्टियों में उनकी 25 वीं कार्यशाला आयोजित की गयी है। कुल 25 दिनों की इस कार्यशाला में हमें भी 5 दिनों के लिए शामिल होने का मौका मिला। मेरे साथ जमशेदपुर इप्टा से साथी अर्पिता, दिल्ली इप्टा से साथी वर्षा, भोपाल इप्टा से साथी सचिन और मथुरा इप्टा से साथी विजय भी शामिल थे। साथ ही इप्टा रायपुर से हमारे प्रिय ‘दोस्त’ जो अभी छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी है – ईश्वर सिंह दोस्त भी इस दौरान कार्यशाला में शामिल हुए।

10 से 15 मई के इस सफर में हमे लगभग 6 से 25 साल तक के उम्र के प्रतिभागियों के साथ काम करने का मौका मिला। वहाँ की गतिविधियों के बारे में साथी अर्पिता ने काफी चीज़ें लिख दी हैं। मैं इस रिपोर्ट में बचे हुए हिस्सों को लिखने का प्रयास कर रही हूँ | 

12 मई की सुबह के सत्र में हमने प्रतिभागियों के साथ ‘विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना’ पर बात की | हमने ग्रुप एक्टिविटी के माध्यम से उन्हें विज्ञान पर बात करने को कहा | सबसे पहले हमने सवाल रखा कि आप विज्ञान को कैसे समझते हैं ? और यहाँ इस वक्त आपके आसपास वे कौन सी घटनाएँ हो रही हैं, जिन्हें आप विज्ञान से जोड़ सकते हैं ?

प्रतिभागियों की तरफ से बहुत से जवाब आये जैसे – हम सभी और हमारे आसपास की सभी चीज़ें एटम से बनी हैं, हम सांस ले रहे हैं ऑक्सीजन से, सूरज की किरणें आ रही हैं, पेड़ों में फोटोसिंथेसिस हो रहा है, हमारी बॉडी का मूवमेंट, हम आँखों से जो देख रहे हैं या कानों से जो सुन रहे हैं और इसी तरह लगभग सभी प्रतिभागियों ने अलग अलग जवाब दिए | तो फिर सभी ने यह सहमति जताई कि हर वक्त हर समय हमारे आसपास जो कुछ भी हो रहा है, उसे हम विज्ञान से ही समझते हैं | एक प्रतिभागी ने पहले दुविधा में कहा कि कला में विज्ञान का कैसा उपयोग? अब यदि हम कुछ आर्टिस्टिक काम कर रहे हैं; जैसे लिखना या गाना तो उसमें विज्ञान कहाँ है ? लेकिन सवाल पूछने के साथ ही उसे अपने सवाल का जवाब भी समझ आ गया और उसने तुरंत कहा कि, ‘अरे हाँ उसमें भी तो विज्ञान है, हमारा बोलना, गाना, सोचना यह सभी चीज़ें भी प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर की उत्पत्ति हैं, जिसे हम विज्ञान के माध्यम से समझते हैं | इस तरह फिर सभी ने कहा कि, हाँ, हम अपने जीवन में हर चीज़ के बारे में विज्ञान के माध्यम से ही कार्य करते हैं और उसे समझते हैं | तो फिर इस पर आगे उन्हें एक्टिविटी करवाई गयी, जिसमें उन्हें अपनी उम्र के साथियों के साथ छोटे छोटे ग्रुप्स में बाँटा गया | क्लास 4 से 6, 7 से 8, 9 से 10, 11 से 12, कॉलेज के अंडरग्रेजुएट और अंत में पोस्टग्रेजुएट और पास आउट स्टूडेंट्स के ग्रुप्स बनाये गए | उम्र के हिसाब से ग्रुप बनाने के पीछे कारण यह था कि हमउम्र साथियों के साथ विज्ञान पर नाटक का इम्प्रोवाइज़ेशन करना आसान हो जायेगा; क्योंकि स्कूल और कॉलेजेस में वे सभी समान स्तर पर विज्ञान की पढाई कर रहे होंगे |

सभी प्रतिभागियों को सिर्फ 10 मिनट दिए गए थे अपने एक्ट को इम्प्रोवाइज़ करने के लिए | सबसे पहले ग्रुप में सबसे कम उम्र के बच्चे थे। उन्होंने बहुत ही सहजता के साथ ग्रेविटेशनल फोर्स को समझाया। एक बच्ची पेड़ बनी और उसके दोनों हाथों में एक-एक बच्चे सेब बन कर लटक गए। एक बच्चा साइंटिस्ट न्यूटन बनकर ज़मीन पर नीचे लेट गया। जो बच्ची सेब बनी थी, उसने उसके ऊपर गिरने का अभिनय किया और इस तरह उन लोगों ने गुरुत्वाकर्षण की खोज को समझाया। बच्चों ने इस बात का ध्यान रखा कि सेब उनमें से वही साथी बना, जिसने लाल रंग के कपडे पहने हैं। कहने को तो यह छोटी बातें हैं लेकिन सात-आठ साल की उम्र के बच्चों द्वारा इस तरह की क्रिएटिविटी, समझ  और डिटेलिंग सराहनीय बात है।

अगला ग्रुप, जिसमें क्लास 7th-8th के बच्चे थे, उन्होंने मोबाइल फ़ोन की उपयोगिता पर नाटक किया, जिसमें बच्चों ने अपने पिता के साथ अपने मोबाइल फ़ोन के एडवांस होने पर और किस तरह लेटेस्ट स्मार्ट फ़ोन्स उनकी पढाई में भी मदत कर रहे है, इस पर बात की। जनरेशन के साथ टेक्नोलॉजी किस तेज़ी से आगे बढ़ रही है, इसकी समझ उन बच्चों में भरपूर नज़र आ रही थी।

तीसरे ग्रुप में क्लास 9th-10th के बच्चे थे। उन्होंने अंधविश्वास के ऊपर नाटक किया, और इसी तरह चौथा ग्रुप जिसमें क्लास 11th-12th के बच्चे थे, उन्होंने एक क्लास रूम सीन के माध्यम से अपनी बात रखी। किस तरह विज्ञान पढ़ने और पढ़ाने वाले शिक्षक खुद अवैज्ञानिक बातें करते हैं क्लास में, जैसे कि ग्रहण के दिन घर से निकलने को मना कर देते हैं। वैसे ही एक शिक्षक, जो क्लास में जेंडर इक्वलिटी की और खुले विचारों की बात कर रहा है लेकिन दूसरे ही पल क्लास में दो दोस्त, जिसमें से एक लड़का है और दूसरी लड़की है, उन्हें अलग अलग बैठने को बोल देता है। इस तरह उस ग्रुप ने बहुत अच्छे से लोगों के दोहरे चरित्र और कथनी और करनी में अंतर को दिखाया।

पांचवें ग्रुप में कॉलेज अंडरग्रेजुएट विद्यार्थी मौजूद थे। उन्होंने बड़े ही क्रिएटिव तरीके से अन्धविश्वास के बारे में अलग अलग ग्रहों के माध्यम से बताया। पृथ्वी पर इंसानो की ज़िन्दगी में हो रही बुरी चीज़ों के लिए किस तरह ग्रहों को कोसा जाता है, जबकि असल में उस व्यक्ति की बेवकूफी या आसपास की घटनायें उसकी ज़िन्दगी में घट रही चीज़ो के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। राहु और केतु ग्रहों के बीच के संवाद बड़े ही मनमोहक थे, जो बहुत अच्छे से वैज्ञानिक चेतना को सामने ला रहे थे।

अंत में पोस्टग्रेजुएट और कॉलेज पासआउट लोगों का एक ग्रुप बना था। उन्होंने अपने इम्प्रोवाइज्ड एक्ट में दो अलग अलग सीन्स को पैरेलल दिखाने की कोशिश की, जिसमें एक हिस्से में मॉडर्न टेक्नोलॉजी पर आश्रित लोगों की जीवन शैली और दूसरी तरफ टेक्नोलॉजी से दूर साधारण जीवन शैली अपनाने वाले लोगों के बीच के अंतर और उनकी अपनी अपनी परेशानियों को बखूबी दिखाया गया था | इस तरह सिर्फ 10 मिनट के अंदर सभी प्रतिभागियों ने अपनी समझ से एक अच्छा एक्ट तैयार करके वैज्ञानिक चेतना पर बात की।

वर्षा आनंद के अनुभव

भिलाई इप्टा पिछले पच्चीस सालों से लगातार नाट्य रंग शिविर आयोजित कर रही है। इस बार मुझे भी इस नाट्य शिविर का हिस्सा बनने का मौका मिला। इस शिविर से मैं एक नई ऊर्जा लेकर वापस लौटी हूँ।  

1 मई 2023 से शुरू इस शिविर में चौथी क्लास से लेकर ग्रेजुएशन तक के बच्चे शामिल थे। भिलाई के राजेश श्रीवास्तव (नेशनल सेक्रेटरी, इप्टा) ने जब इस शिविर में आने को कहा तो काफी उत्सुकता थी और थोड़ा असमंजस भी। उन्होंने बताया कि करीब 80 से 100 बच्चे इसमें रोजाना शामिल हो रहे हैं। इतने सारे बच्चों के साथ कार्यशाला का कोई अनुभव नहीं था मुझे। शायद इसलिए मैं इस शिविर को लेकर थोड़ा उधेड़बुन में थी। पर जैसे ही वहाँ पहुँचकर बच्चों से मिली तो सारी दुविधाएँ दूर हो गयीं। फिर लगने लगा कि 4-5 दिन का वक्त कितना कम होता है – कुछ भी सीखने-सिखाने के लिए !

 जब पूरे देश को नफ़रत के नशे में डुबाया जा रहा है, लोग अलग-अलग पहचानों में बँटते जा रहे हैं और एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे वक्त में हम सब कलाकारों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। कला के माध्यम से प्रेम और इंसानियत की बात करना और युवा साथियों के बीच दोस्ती के बीज बोना ही आज सबसे जरुरी काम है, जिसे इप्टा के साथी बखूबी निभा रहे हैं। शिविर में मुझे बच्चों के साथ एक नाटक तैयार करने में मदद करना था। मेरे हिस्से जो कहानी आई जिसे मुझे नाटक में बदलना था वह है – स्कूटर। यह कहानी छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार लोकबाबू ने लिखी थी।

बच्चों के साथ मेरे पहले सत्र में improvisation कराते हुए मैंने उनसे पूछा – ऐसी कौन सी ‘चीज़’ है जिससे आपको बहुत लगाव है, और क्यों? ‘लगाव’ के बारे में सोचते ही हर किसी के दिमाग में सबसे पहले माँ-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी का ध्यान आया। पर जब उनसे कहा गया कि परिवार के सदस्यों के अलावा किसी ‘चीज’ के बारे में बताना है, तो बच्चों ने जो बताया उनमें से कुछ तो बहुत ही आश्चर्यचकित करने वाले थे। माहिर ने कहा – मुझे अपने घर के पास के एक बादाम के पेड़ से बहुत लगाव है क्योंकि मैं और मेरा दोस्त अक्सर उसी के पास खेला करते थे। मेरा दोस्त अब यहाँ से चला गया है, मुझे जब भी उसकी याद आती है मैं वहीं जाकर बैठ जाता हूँ। सृष्टि ने कहा – मुझे मेरी साइकिल से बहुत लगाव है क्योंकि जब भी मैं साइकिल चलाती हूँ, मुझे लगता है कि मैं आज़ाद और निडर हूँ। ऐसे कई जवाब चौंकाने वाले आए। एक ने कहा कि उसे पेन और कॉपी से लगाव है क्योंकि उसका जब भी मन होता है वो अपने दिल की बात कॉपी में लिख देती है। सब बच्चों की कहानी अलग-अलग थी। कितना अच्छा लगता है जब ऐसे जवाब बच्चों से सुनने को मिलते हैं। सभी बच्चों को अपने-अपने “लगाव” के ऊपर चार लाइन तैयार करके आने को कहा गया।  

गोर्की और मैंने जब ‘स्कूटर’ को एक साथ पढ़ा, तो दोनों को लगा कि इसको लेकर एक म्यूजिकल प्ले तैयार किया जाए। पता चला कि मेरे साथ जुड़े बच्चों को नाटक के साथ-साथ संगीत में भी रुचि थी। बस फिर क्या था, शाम को हम आधे घंटे के लिए म्यूजिक पर बैठे। बच्चों की नई-नई प्रतिभाओं का पता चलने लगा। बच्चों के अंदर हुनर होता है, उन्हें बस तराशने के जरुरत है। पर अक्सर हम लोगों से यह गलती हो जाती है कि हम उन्हें अपनी तरह बनाना चाहते हैं और एक बँधे हुए साँचे में ढालना चाहते हैं। यहीं से बच्चों की रचनात्मकता ख़त्म होने लगती है और वो कुछ भी नया करने में डरने लगते हैं।

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कुछ बच्चों ने अपना लिखा गाना सुनाया। कुछ ने रैप गाया। इसी बीच एक युवा साथी, कनिष्क ने बताया कि उसने एक गाना लिखा है पर उसे वह कंपोज़ नहीं कर पा रहा है। इस गीत के बोल हैं – “आओ हम सब मिल खुशियों का जश्न मनाएँ, इप्टा भिलाई के सदस्य हम सब हँसते जाएँ।” एक शुरूआती धुन बनाकर सभी को आगे की धुन के बारे में सोच कर आने को कहा गया।

अगले दिन सभी बच्चों को अपने ‘लगाव’ के ऊपर एक improvisation करने को कहा गया और उसके जरिये emotions पर काम किया गया। दोबारा कहानी पढ़ी गयी – इस बार भिलाई इप्टा के पुराने दोस्त – अपराजित ने अपने एक अलग अंदाज में कहानी सुनाई। अपराजित फिल्मों में लिखते हैं और कार्टूनिस्ट हैं। अपराजित से बहुत कुछ सीखने को मिला।

शाम को कनिष्क के गाने पर काम शुरू हुआ। थोड़े ही समय में पूरा गाना तैयार हो गया। साथ ही साथ बच्चे दिल्ली इप्टा के गाने भी सीखते रहे। शाम के वक्त आमतौर पर समय कम ही मिलता था। इसका पूरा उपयोग हम गाने और म्यूजिक के साथ करते थे। मैंने कुछ बच्चों को ‘स्कूटर’ कहानी के ऊपर रैप लिखने को कहा। कुमकुम, सुधीर और अंशु के साथ-साथ कुछ और बच्चों ने रैप लिखने की कोशिश की। समय की कमी के कारण उसकी भाषा और मीटर पर ज्यादा काम नहीं हो सका, पर बच्चों के प्रयास सराहनीय थे। उनका उत्साह छलक रहा था। जब भी समय मिलता, वे 1-2 लाइन लिखकर मेरे पास ले आते और मुझे सुनाते। मेरे लौटने का वक्त पास आ गया था इसलिए उनपर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाई, इसका दुःख रहेगा।

बाकी के दिनों में भी हम ने improvisation के जरिये अभिनय और उसकी टेक्निक के ऊपर काम किया। शाम का ज्यादातर वक्त म्यूजिक पर ही समय जाता था। गोर्की और मैंने मिलकर नाटक का ढाँचा तैयार किया। हम सबने मिलकर ‘स्कूटर’ पर कनिष्क का लिखा एक गाना तैयार किया। इस गाने में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है, पर एक ढाँचा-सा तैयार हो गया है। बड़ी बात तो यह है कि बच्चे खुद से कुछ नया गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, इनके उत्साह को और प्रोत्साहित करना चाहिए। इसी प्रक्रिया में उन्हें निखारा जा सकता है और एक अच्छा कलाकार बनाया जा सकता है।

रोज सुबह 6:30 बजे से सत्र की शुरुआत होती थी। साक्षी, अर्पिता, सचिन और मुझे अलग-अलग सत्र बाँट दिए गये थे। सवेरे का पहला सत्र साक्षी और अर्पिता लेती थीं, जिसमें बच्चों के साथ खेल के जरिये जेंडर, श्रम विभाजन जैसे विभिन्न विषयों पर बातचीत हुई। इन सत्रों में रायपुर से आये इप्टा के राष्ट्रीय समिति के साथी ईश्वर ने भी अपना योगदान दिया। जेंडर और भगवान के बारे में साथी ईश्वर ने बच्चों के साथ काफी चर्चा की और अलग-अलग उदाहरणों के माध्यम से उनकी समझ को और व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया। बच्चों ने इन सत्रों में बढ़-चढ़ कर सवाल-जवाब किए।

सुबह का दूसरा सत्र लोक संगीत पर था, जिसे परघनियाँ जी, सुचिता जी और मणिमय जी सिखाते थे। तीसरा सत्र इस शिविर के ऊपर न्यूज़पेपर निकालने को लेकर था, जिसका जिम्मा भोपाल के साथी सचिन के ऊपर था। सुबह का चौथा सत्र मेरे ज़िम्मे आया जिसमें मुझे नाटक और अभिनय के बारे में बताना था, और अंत में छत्तीसगढ़ी लोक नृत्य सिखाया जाता था, जिसे भिलाई इप्टा के पुराने साथी रोशन अपनी टीम के साथ मिलकर लेते थे। इन सभी सत्रों में बच्चे उत्साहपूर्वक शामिल होते थे। उनके अंदर सब कुछ सीख लेने की ललक दिखती थी।

हमारे रहने-खाने का इंतज़ाम जबरदस्त था। सबने बहुत अच्छे से ध्यान रखा, खासतौर पर लक्ष्मी जी (राजेश जी की पार्टनर) नागेश जी ने हमारे खाने-पीने में कोई कमी नहीं होने दी। इस शिविर के सफल आयोजन के पीछे कई युवा साथियों का महत्वपूर्ण योगदान है – साथी वाणी, गौरी, निकिता, श्रीकान्त, हर्ष, चारू, रोशन, किशोर, शैलेश, अमिताभ, गोर्की, श्रीनू, और अन्य साथी भी रणदीप, संदीप और देव नारायण जी के साथ मिलकर इस आयोजन में अपनी अहम भूमिका निभा रहे थे।  

भिलाई के रंग शिविर में मेरा अनुभव काफी अच्छा रहा। बच्चों के साथ काम करके बहुत कुछ सीखने को मिला। ऐसे शिविर में भाग लेने के कई फायदे हैं – निजी और सांगठनिक स्तर पर। एक तो अलग-अलग प्रान्त की संस्कृति, लोक कला को जानने, समझने और सीखने का मौका तो मिलता ही है पर साथ ही स्थानीय इकाई की कार्य पद्धति और कार्य शैली का भी अनुभव प्राप्त होता है। संगठन-निर्माण के कई सूत्र हम इसी प्रकार एक दूसरे से सीख सकते हैं। दूसरे राज्यों और इकाइयों के साथियों को अपनी कार्यशाला में शामिल करना एक महत्वपूर्ण कदम है। इस प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण सम्बन्ध बनते हैं, एक दूसरे के बारे में ज्यादा जान-समझ पाते हैं, दो इकाइयों के बीच की दूरियाँ कम होती हैं, और साथ ही भविष्य में एक साथ काम करने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। सांगठनिक स्तर पर ऐसे प्रयास सभी इकाइयों को करना चाहिए।

आने वाले दिनों में हमें ऐसे ही और मज़बूती और एकजुटता के साथ काम करने की ज़रूरत है। ऐसे आयोजन निश्चय ही हमारा हौसला बढ़ाते हैं। ऐसे शिविर आने वाले भविष्य को सुन्दर बनाने के लिए बहुत जरूरी पहल है। उम्मीद करती हूँ कि जहाँ भी संभव हो ऐसे शिविर के आयोजन के बारे में हर यूनिट सोचेगी। राजेश जी और भिलाई इप्टा के तमाम युवा और वरिष्ठ साथियों को इस पच्चीसवें रंग शिविर के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ ! 

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