(इस वर्ष भिलाई इप्टा का 25वाँ साल है बच्चों के साथ काम करने का, इसलिए भिलाई इप्टा ने एक नई योजना बनाई, जिसमें भिलाई के स्थानीय विभिन्न विशेषज्ञों के अलावा इप्टा की विभिन्न इकाइयों के युवा साथी, जो अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, उन्हें कार्यशाला के बीच आमंत्रित किया। इसमें बिलासपुर से साक्षी शर्मा, जमशेदपुर से अर्पिता श्रीवास्तव, दिल्ली से वर्षा आनंद, भोपाल से सचिन श्रीवास्तव और मथुरा से विजय शर्मा सम्मिलित हुए। इन साथियों ने भिलाई की कार्यशाला के अपने-अपने अनुभव साझा किये हैं, जो काफी प्रेरक और नई दिशाओं को खोलने वाले हैं। इन युवा साथियों के अलावा रायपुर निवासी वरिष्ठ साथी ईश्वर सिंह दोस्त भी सम्मिलित हुए और उन्होंने कार्यशाला के प्रतिभागियों से सवाल-जवाब के माध्यम से एकदम बेसिक परन्तु महत्वपूर्ण सवालों पर दिलचस्प तरीके से बात की । ये रिपोर्ट्स भावी कार्यशालाओं के लिए एक गाइडलाइन के रूप में भी देखी जा सकती हैं। इसे कुछ कड़ियों में युवा साथियों के अनुभवों के रूप में यहाँ साझा किया जा रहा है। पहली कड़ी में हमने पढ़ा धर्म, ईश्वर और विज्ञान पर बच्चे तथा किशोर क्या सोचते हैं ! इस दूसरी कड़ी में थोड़ा उल्टा जाते हुए पहले दिन की बहुत ही इंटरेक्टिव गतिविधि के बारे में लिखा है अर्पिता श्रीवास्तव ने ही ।)
भिलाई इप्टा की 25 वीं कार्यशाला में पाँच दिन बहुत कुछ सीखने वाले दिन रहे। कार्यशाला के तीसरे दिन सभी नन्हे, किशोर-किशोरियों और युवा साथियों के साथ उनकी जिज्ञासा शांत करने की कोशिश और उनके सवालों को मिलकर हल करने की कोशिश की। यहाँ यह ज़िक्र करना ज़रूरी है कि पहले दिन जब सभी बच्चों और युवाओं से मुख़ातिब हुए तो उन्हें अपने नाम के साथ माँ का नाम जोड़कर अपना परिचय देने के लिए कहा जिनमें से कुछ नामों का ज़िक्र यहाँ कर रही हूँ – श्रेया प्रिया, शिव एकता, रिया सीमा, कनिष्क ममता, अर्णवेश किरण, निहारिका संगीता, माहिर ऋतु, प्रशस्ति श्वेता, अभि अंजलि, अदीबा तलहत, प्रख्यात श्वेता, अकांश विभा, यासिर तलहत, सिद्धांत सुनीता आदि । सभी के मन में यह विचार लगातार चला कि आख़िर परिचय का यह अंदाज़ क्यों अपनाया गया! जब भी कोई किसी का नाम पुकारता तो साथ में माँ का नाम भी पुकारता, इस बात ने कई बच्चों को उद्वेलित किया । पहले और दूसरे दिन जब समय मिलता, वे आकर पूछते कि बताइए ना अर्पिता सुषमा, आपने हमारे नाम में माँ का नाम क्यों जोड़ा? बीच-बीच में वे स्वयं ही सवाल का जवाब भी देने की कोशिश करते रहे। शुरू के दो दिन कुछ साथी आकर इसकी वजह पूछते और जो जवाब सूझता उस पर सहमति की चाह रखते।
माँ का नाम ज़रूरी है याद करना :
अब आते हैं 13 मई, शिविर के तेरहवें दिन। श्रम के बँटवारे पर हल्का प्रकाश डालते ही शिविरार्थी स्त्री-पुरुष की भूमिका समझ गए और इसे आगे बढ़ाते गए। मज़बूत और गहरी समझ रखने वाली किशोरी अदीबा तलहत ने हम सभी को जेंडर डिस्क्रिमिनेशन के बारे में बताया। काम और उनकी सामाजिक भूमिका पर बिंदुवार रौशनी डाली। अदीबा तलहत जब समाज में व्याप्त जेंडर भेद को समझा रही थी तब यही महसूस हो रहा था कि हम कैसे समाज में रह रहे हैं जहां बहुत छोटे से ही भेदभाव की तपिश में तपने के लिए अभ्यस्त बनाया जा रहा है। उसे गहराई से महसूस करती लड़कियाँ इस सवाल से जूझ रही हैं कि सिर्फ लड़की होने से ही हम कितने विशेषाधिकारों से वंचित हो जाते हैं, कितने ही अभ्यास सिर्फ हम पर ही लागू होते हैं? कितनी ही बातें हैं जिन्हें सहज व्यवहार माना गया है और गलत होते हुए भी उन्हें मानने के लिए सामूहिक, सार्वजनिक दबाव से लड़कियों को गुज़रना पड़ता है। असुरक्षित माहौल में जन्म और मरण की नियति आबद्ध है।
बहरहाल इन्हीं सवालों के साथ आगे बढ़ते, बराबरी की दुनिया बनाने की समझ बनाते हुए हम उस पड़ाव में पहुँचे जब उन्हें अपने नाम के साथ माँ का नाम जोड़ने की वजह पर बात करनी थी। इस बातचीत में बीते दो दिन की जिज्ञासा के सभी जवाब बच्चों और युवाओं ने दिए। कई ने अपनी भावना भी अभिव्यक्त की, जो दिल को छू लेने की थी। साथी राजेश लीला जो हमेशा चुपचाप बैठकर सारी गतिविधियों को देखते और जब भी कोई बच्चा पास से गुजरता तो मजाकिया अंदाज़ से बातचीत करते और बच्चों को लुभाते। उन्हें पाँच दिनों में पहली बार देखा कि वे उठकर आए और पूछा कि क्या मैं अपनी बात रख सकता हूं? भावुक हुए साथी राजेश लीला ने साफ़गोई से स्वीकारा कि जब अपने नाम के साथ माँ के नाम को जोड़कर परिचय देने की बात आई तो कुछ पल लगे उनका नाम याद करने में, जाने कितना समय गुज़र गया उन्हें नाम से याद किए। एक समय होता है जब हम माँ के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर पाते और अभी याद नहीं कर पा रहे उनका नाम। जीवन किस तरह से बदल जाता है। कुछ बच्चों को इसमें नयापन लगा और कुछ को इसने इमोशनल किया। इप्टा की राष्ट्रीय समिति के साथी और छत्तीसगढ़ की साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ईश्वर रघुवंश ने कहा कि मैंने अपने नाम के आगे बहुत अरसे पहले दोस्त लगा लिया है, पर आज माँ के नाम के साथ मेरी एक और पहचान कायम हुई। साथी सचिन किरण ने बताया कि बिहार में जब वोटर लिस्ट बनीं थी तो उनके नाम की जगह पप्पू की अम्माँ, बल्लू की चाची, मनवारी की दादी जैसे संबोधन लिखे थे।
श्रम से जुड़ी दुनिया का सच
अब बारी थी श्रम पर बातचीत की। सभी से पूछने पर पता चला कि सारे घरेलू श्रम स्त्रियाँ ही करती हैं। उनकी पहचान है माँ, बहन, बेटी, चाची, नानी, ताई, दीदी, भाभी। और घरेलू काम जब व्यावसायिक श्रम का रूप लेता है तो वह काम करते हैं पुरुष। पुरुषों की पहचान उनके नाम से होती है। समाज में व्याप्त गैर-बराबरी को समझने के लिए श्रम के इन रूपों पर बात हुई, जिसे वे बेहतर जानते थे। उनसे सवाल किया कि खाना बनाना, बर्तन-बासन, झाड़-पोंछ, बच्चों और बूढों की देखरेख कौन करता है? तो सभी ने जवाब दिया – माँ। बिल्कुल इसी तरह घर से बाहर इन्हीं कामों को करने वाले होते हैं पुरुष, जिसका बकायदा उन्हें मेहनताना मिलता है। पिता से ही हमें जाति मिलती है और स्त्री की पहचान भी शादी के बाद बदल जाती है। गाँवों में कई घटनाएँ ऐसी दर्ज़ हैं जिनमें जब स्त्रियों को उनके नाम से पुकारा गया तो वे प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं करतीं या वे अपना नाम भूल चुकी होती हैं। नाम इंसान की पहचान होती है पर वही लड़कियों से छिन जाती है। इस छिनी हुई पहचान के साथ वो जीवन भर अपनी चाह और सपने को कभी खाद-पानी नहीं दे पाती। परिवार के जंजाल में फँसकर वे एक दड़बे में बंद रह जाती हैं। घर की नेमप्लेट से लेकर तमाम ज़रूरी निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों का है, जिसमें स्त्रियाँ सहमति जताने का काम करती हैं। ‘पेड’ और ‘अनपेड’ श्रम के बारे में बात करते ही नाम के साथ माँ के नाम को जोड़ने की बात सभी को कुछ हद तक समझ आई।
इस एक्टिविटी के द्वारा ग़ैर-बराबरी की समझ के साथ श्रम के बँटवारे पर भी बात हो पाई। इसे करने के दौरान ही यह आइडिया आया कि क्यों न कार्यशाला-प्रतिभागियों के साथ इप्टा के सभी साथियों को एक बराबर की जी शीट काटकर बाँटी जाए और उसमें उनका यह नाम और इस एक्टिविटी को करने की प्रक्रिया में उन्हें कैसा महसूस हुआ, इसे दर्ज़ करवाया जाए! बच्चे इतने उत्साही कि सुबह शीट दी गई और शाम को कई साथियों ने बड़ी ख़ूबसूरती से इसमें नाम और अनुभव लिखकर निकिता आशा को दे दिया, जिन्होंने शिविर के लगभग 75 बच्चों और अन्य साथियों के लिए बड़े धैर्य से 1 के जी शीट से लगभग 10-12 पीस काटे थे। अब इन ख़ूबसूरत नाम और अनुभवों को शिविर के समापन स्थल पर साथी एक डिस्प्ले में लगाएँगे। अधीरता से इस बात की प्रतीक्षा रहेगी कि अपने नाम बच्चों के साथ जुड़े देखकर तमाम माँओ की प्रतिक्रिया कैसी रहेगी!
12 मई को शिविर समाप्त होने से ठीक पहले पहुंचे ईश्वर सिंह दोस्त। हम सभी खुश हुए कि उनसे बातचीत और उनके सत्र से जुड़कर हम सभी कुछ सीख पाएँगे। जब कोई साथी ऐसा हो, जो हमेशा इंटरेक्टिव सत्रों के माध्यम से हमें कुछ सोचने-विचारने का अवसर देता हो तो हम ख़ुद को टटोल पाते हैं, अपनी समझ को तौल पाते हैं कि हमें किस अभ्यास को शुरु करना है। पिछले दो दिनों यानि 11 और 12 मई को हम चार साथी साक्षी, वर्षा, सचिन और अर्पिता सुबह सवा छह से साढ़े छह बजे के बीच नेहरू सांस्कृतिक केंद्र पहुँच जा रहे थे। आज यानि 13 मई को भी पहुँचे पर आज हमारे साथ थे साथी ईश्वर रघुवंश, जिनके सत्र की हम सभी को प्रतीक्षा थी।
13 मई 2023 को साक्षी और अर्पिता ने मिलकर जेंडर डिस्क्रिमिनेशन पर बातचीत करनी शुरु की, जब उनसे पूछा गया कि जेंडर से क्या समझते हैं, आपको कौन-कौन सी बात दिखती है जो जेंडर डिस्क्रिमिनेशन में आती है? जिस पर शिविरार्थियों ने ही एक-एक करके जवाब देकर हमें राहत दी और यह भी एहसास हुआ कि शिविर में शामिल साथी संवेदनशील हैं। तो कई जवाब और उससे जुड़े कई टर्म भी आए जैसे, लड़का-लड़की, थर्ड जेंडर, स्टीरियोटाइप, काम का अवसर, पढ़ाई, ग़ैर-बराबरी, रात के घर से बाहर नहीं निकल सकते, पार्टी नहीं कर सकते, स्कूल में कॉरीडोर में लड़कियाँ अलग और लड़कों का अलग पंक्ति में चलना, खेल के मैदान में लड़कियाँ नदारद (जैसे फुटबॉल, क्रिकेट), लड़कियों के लिए लंबे बाल रखना, पिंक लड़कियों के लिए और ब्ल्यू लड़कों के लिए, बड़े होकर लड़कों को कमाने का दबाव आदि कई बातें आईं। इस पर बातचीत हुई। दो कविताएँ साक्षी ने सुनाईं और उस पर चर्चा की। पहली शैलजा की कविता ’ज़िन्दगी तू ही बता तेरा इरादा क्या है’ और दूसरी शरद कोकास की ’कही-अनकही’। इस चर्चा के माध्यम से कविता से परिचय हुआ पर जैसा कि होता है, बचपन में तुक वाली कविताओं को ही हम कविता समझ लेते हैं! इसके अलावा कविता पढ़ा जाना, रचा जाना, पोस्टर के फॉर्म में लगाया जाना, गाया जाना क्यों ज़रूरी है, इस पर बात करने के लिए हमने ईश्वर रघुवंश को आमंत्रित किया। जिस जगह साक्षी ने कविता पढ़कर छोड़ा था, वहीं से उन्होंने अपनी बात शुरु की।
कविता क्या है?
हम सब से रूबरू होते हुए उन्होंने कहा कि पिछली बातों के बाद कविता की बात करते हैं। उन्होंने पूछा कि क्या हम जंज़ीरों से जकड़े हैं? घर में ऐसी कोई जंजीर दिखाई देती है? जिसका जवाब तुरंत ही शिविरार्थियों से मिला- चूड़ी और पायल। इसे आगे बढ़ाते मंगल सूत्र और सिर में मांग भरने को भी एक जंज़ीर माना गया। जीवन में बहुप्रचलित इस जंज़ीर को किशोरियों ने बखूबी समझा।
कविता में मेटाफर/रूपक समझाने का तरीका उन्होंने इस सवाल में ही रख दिया। हमेशा के लिए स्मृति में दर्ज़ हो जाने वाला एक अन्य उदाहरण भी दिया। उन्होंने तीन सवाल पूछे कि क्या इंदिरा गांधी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं? क्या इंदिरा गांधी इंग्लैंड की पी एम थीं? सभी ने जवाब दिया नहीं। जब तीसरा सवाल पूछा कि इंदिरा गांधी सूरज-सी चमकती हैं? तो सबने कहा हाँ। इसमें सूरज-सी चमक है यह ही वो मेटाफर है, जो हम कविता में इस्तेमाल करते हैं। बालमन को इतनी सहजता से कविता में मेटाफर की समझ देने के बाद एक वाक्य लिखा –
“सूरज की तरह चमकती है बेटियां”
और इस वाक्य के बाद शिविरार्थियों ने एक-एक करके इसमें पंक्तियाँ जोड़ दीं, जो आगे दर्ज़ कर रही हूँ :
“सूरज की तरह चमकती है बेटियाँ
चांद की तरह शीतल हैं बेटियाँ / चाँद की तरह चमकती हैं बेटियाँ
तारों की तरह दमकती हैं बेटियाँ
फूल की तरह खिलती हैं बेटियाँ
कमल की तरह कीचड़ से निकल कर उभरती हैं बेटियाँ “
इस तरह एक वाक्य लिख देने के बाद एक-एक वाक्य बोलते कविता रचने की बुनियादी समझ के बीज बो दिए साथी ईश्वर रघुवंश ने। निश्चित ही शिविर के सभी साथी इस प्रक्रिया से खुश हुए होंगे क्योंकि यह खुशी किसी अनजान चीज़ को सीख लेने की, जान लेने की थी। अब इससे आगे बढ़कर उन्होंने फिर एक सवाल किया,
कविता क्या है? कविता हथौड़ा है क्या? इस वाक्य में समवेत स्वर में सहमति जताई गई। क्या कविता से पत्थर तोड़ा जा सकता है? कुछ किशोरमन ने हाँ कही, पर जब पूछा गया कि सचमुच का पत्थर तोड़ा जा सकता हैं? तो वे सभी सहज ही सोचने की तरफ बढ़ गए। बातचीत को शुरू करने का यह अंदाज़ रोचक लगा, ज़्यादा कुछ कहे बगैर ही दो बातें स्पष्ट रूप से संप्रेषित हुईं । एक पक्ष यह कि हम कह रहे हैं और मान भी रहे हैं कि कविता हथौड़ा है और दूसरा यह कि पत्थर तोड़ने के लिए सचमुच का हथौड़ा चाहिए; यानि विज्ञान और भावनाओं के मेल से भी कविता बनती है।
तथ्य और भावना के साथ समझ को स्पष्टता से रखते, औरों की समझ को समृद्ध करते अपने सुपरिचित अंदाज़ में उन्होंने बात आगे बढ़ाई कि कविता की ज़रूरत क्यों है? कविता पढ़ने और रचने की ज़रूरत क्या है? हम कविता के साथ धीरे-धीरे कैसे बदलते हैं? तुकबंदी से निकल आज रची जा रही कविता पर अपनी चिरपरिचित संवाद शैली में आज शिविर के नन्हे शिविरार्थियों के साथ-साथ भिलाई इप्टा के वरिष्ठ साथियों से भी मुख़ातिब हुए ईश्वर रघुवंश।
छोटे सरल वाक्यों की कविताएँ आसानी से स्मृति में दर्ज़ होती हैं और इन कविताओं में पैठी गंभीरता हमारे जीवन को और हमें प्रभावित करती है। गुलज़ार के लिखे गीत ‘मेरा कुछ सामान लौटा दो’ का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि अन्य गीतों की तरह टाइमिंग नहीं है पर सुनने में यह अच्छा लगता है। अभी ए आर रहमान, गायक जावेद अली और गीतकार गुलज़ार भी इस दायरे को बढ़ाते हैं।
आज के सत्र में बहुत कम समय में ही उपरोक्त बातें हुई जो दिलो-दिमाग में रजिस्टर हो गईं। इस सत्र के अंत में एक वाक्य “ऐसा क्यों हो रहा है” शिविरार्थियों को दिया गया, जिस पर वे सिर्फ एक वाक्य ही लिखकर लाएँ जेंडर पर्स्पेक्टिव से या अपने आसपास के जीवन में घटित हो रहे बेचैन सवाल के माध्यम से। यहाँ यह बताना चाहेंगे कि यह वाक्य “ऐसा क्यों हो रहा है” अरुण कमल की एक कविता से लिया गया है। जैसे ही यह वाक्य शिविरार्थियों तक पहुँचा वे शुरु हो गये कि ऐसा क्यों हो रहा है!