(छत्तीसगढ़ में साल भर सक्रिय रहने वाली इप्टा की महत्वपूर्ण इकाई है भिलाई इप्टा। अपनी नियमित गतिविधियों के अलावा प्रति वर्ष गर्मी की छुट्टियों में बच्चों की कार्यशाला का आयोजन भिलाई इप्टा का रचनात्मक आयाम रहा है। पिछले चौबीस वर्षों से यह क्रम अनवरत चलता रहा, सिर्फ कोविड लॉकडाउन के कारण दो साल बंद करना पड़ा। इस बीच भिलाई इप्टा में बच्चों की कार्यशाला की पूरी एक पीढ़ी युवा होकर नेतृत्वकारी सीढ़ी पर आ गयी है। इस पीढ़ी ने अब निर्देशन और बच्चों की कार्यशाला का संचालन भी भलीभाँति सम्हाल लिया है। राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, सुचिता मुखर्जी आदि साथियों के साथ उनसे बाद की पीढ़ी में शैलेश कोडापे, रोशन घडेकर, संदीप आदि साथी लगातार काम कर रहे हैं, वहीं तीसरी पीढ़ी में चारु श्रीवास्तव, गौरी, गोर्की के साथ बड़ी संख्या में युवाओं का दल तैयार हो गया है।
इस वर्ष भिलाई इप्टा का 25वाँ साल है बच्चों के साथ काम करने का, इसलिए भिलाई इप्टा ने एक नई योजना बनाई, जिसमें भिलाई के स्थानीय विभिन्न विशेषज्ञों के अलावा इप्टा की विभिन्न इकाइयों के युवा साथी, जो अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, उन्हें कार्यशाला के बीच आमंत्रित किया। इसमें बिलासपुर से साक्षी शर्मा, जमशेदपुर से अर्पिता श्रीवास्तव, दिल्ली से वर्षा आनंद, भोपाल से सचिन श्रीवास्तव और मथुरा से विजय शर्मा सम्मिलित हुए। इन साथियों ने भिलाई की कार्यशाला के अपने-अपने अनुभव साझा किये हैं, जो काफी प्रेरक और नई दिशाओं को खोलने वाले हैं। इन युवा साथियों के अलावा रायपुर निवासी वरिष्ठ साथी ईश्वर सिंह दोस्त भी सम्मिलित हुए और उन्होंने कार्यशाला के प्रतिभागियों से सवाल-जवाब के माध्यम से एकदम बेसिक परन्तु महत्वपूर्ण सवालों पर दिलचस्प तरीके से बात की । ये रिपोर्ट्स भावी कार्यशालाओं के लिए एक गाइडलाइन के रूप में भी देखी जा सकती हैं। आगे कुछ कड़ियों में युवा साथियों के अनुभवों से हम सब क्रमशः रूबरू होंगे। पेश है पहली कड़ी अर्पिता श्रीवास्तव की कलम से।)
10 मई को हम चार साथी वर्षा, साक्षी, सचिन और अर्पिता भिलाई पहुँच गए थे। शाम नेहरू सांस्कृतिक केंद्र पहुँचे तो युवा साथियों से मुलाकात हुई। उन्हें देखते, सुनते, काम करते देखकर बहुत कुछ दिलो-दिमाग में आया जिसमें से कुछ पर अपनी बात रखने की ज़रूरत है।
एक लंबा सफ़र तय किया भिलाई इप्टा ने, यह सफ़र बदस्तूर जारी है। कई बच्चे कार्यशाला किए और अपने बचपन, किशोर जीवन की मस्तियों के साथ थियेटर का दामन थामे। इसके साथ वे जीवन का सबसे सुनहरा समय यानी युवावस्था गुज़ारते एक ज़िम्मेदार नागरिक बनने की तहज़ीब लगातार सीख रहे हैं।
आज शाम 10 मई 2023 को नेहरू केंद्र में जब सभी युवा साथियों से मुलाकात हुई तो यही ख़्याल जेहन में तैरता रहा कि काश! ऐसे केंद्र हर शहर और गांवों में हों जहां मिलने-जुलने पर पाबंदी न हो, वे अपने समय और समाज को बरतने का सलीका सीखते बेहतर दुनिया के सपने को गुनें-बुनें । सब कुछ हासिल है पर अकेलेपन से जूझता युवा कृत्रिम व्यस्तताओं को ही जीवन समझ बैठा है जिसका परिणाम है मानसिक स्वास्थ्य का असंतुलन। बहरहाल यहाँ हँसते, खिलखिलाते, बात-बेबात पर ठहाके लगाती बेफिक्री, फ़िज़ा में महक रही है जो आसानी से खोजे नहीं मिलती। इस ख़ूबसूरती को बचाए रखने और आगे ले जाने के लिए हम बस यूँ ही चलते रहें और ज़िंदा बनें रहने के अपने विश्वास को पुख़्ता करें।
बहरहाल आते हैं 14 मई की सुबह। इस दिन के लिए हम लोग लगातार कहानी-साहित्य पर बात कर रहे थे कि किस तरह से इसे आगे ले जाया जाए तो जेंडर वाले सत्र के साथ ईश्वर रघुवंश के सत्र में इसे कुछ इस तरह से विस्तार मिल गया।
“ऐसा क्यों हो रहा है’ अरूण कमल की कविता के शीर्षक को शिविरार्थियों के बीच यह कहकर साझा किया गया कि एक कविता सबकी अपनी हो और इसे मिलकर साझा बनाया जा सके। इस पर बहुत से लोगों ने प्रतिक्रिया ज़ाहिर की, कुछ पंक्तियां साझा कीं। उम्मीद है कि वह शिविरार्थियों द्वारा निकाले जा रहे अख़बार का हिस्सा बनेगी। इस एक्टिविटी ने समृद्ध किया और शिविरार्थियों के दिलो-दिमाग में चलने वाले सवालों को सामने रखा। जब सवाल सामने होते हैं तो उन्हें हल करने की कोशिश भी होती है और इससे लगा कि शिविर में शामिल साथियों से पूछा जाए उनके अपने जीवन में घट रही पहेलियों और सवालों के बारे में ! वे सभी अपना महत्वपूर्ण समय स्कूल-कॉलेज में बिताते हैं जहाँ कई नियम हैं। जब पूछा कि अगर आपको स्कूल में कोई एक नियम बदलने के लिए कहा जाए तो आप क्या बदलेंगे? अचानक से वातावरण चार्ज-सा हो गया और इस सवाल का जवाब देने की आतुरता उनमें दिखाई कुछ जवाब हैं :
- कॉरीडोर में लड़के और लड़कियों की अलग-अलग पंक्ति बनाने का नियम बदल देंगे.
- एक्टिविटी पीरियड में पढ़ाई का नियम नहीं होगा.
- प्रिंसिपल के पकाऊ लेक्चर बंद कर देंगे.
- असेंबली नहीं होनी चाहिए.
- परसेंटेज के हिसाब से सेक्शन बनना बंद.
- सच बोलने पर ब्लैकलिस्ट में डालने पर रोक.
- लंच टाइम सिर्फ 10 मिनट का नहीं होना चाहिए.
- बाहर जाने के लिए पास नहीं.
- मई में 10 वीं और 12 वीं की एक्स्ट्रा क्लास नहीं होनी चाहिए.
- वॉश रूम से कैमरा हटवा देंगे.
- सुबह 7.40 से क्लास शुरु नहीं होनी चाहिए.
- पढ़ाई का बोझ नहीं होना चाहिए.
- टीचर का पसंदीदा छात्र/छात्रा नहीं होना चाहिए.
- प्रिंसिपल की बेटी को प्रिविलेज नहीं मिलना चाहिए.
- जिसे पसन्द नहीं किया जाता उसे ताना मारना बंद कराएंगे.
- इंटेलीजेंट बच्चे को क्लास कैप्टन बनाना.
- छुट्टियों का होमवर्क नहीं मिलना चाहिए.
इसी बात पर आगे बढ़ने पर शिविरार्थियों ने ही बताया कि स्कूल में क्या होना चाहिए-- स्कूल यूनिफॉर्म की जगह आम तौर पर पहने जाने वाले कपड़ों में स्कूल आने की आज़ादी मिलनी चाहिए.
- क्लास में ए सी.
- घूमने की आज़ादी.
- लंच के लिए लड़कियों को ग्राऊंड में जाने की आज़ादी.
- फोन की अनुमति.
- खेल नियमित रूप से होने चाहिए.
- पकाऊ क्लास से उठकर बाहर जाने की आज़ादी.
- मैथ्स और साइंस नहीं होने चाहिए।
एक छोटी-सी गतिविधि के माध्यम से हम बच्चों और किशोरमन के किसी बंद दरवाज़े को दस्तक देकर खोल पाए, पर उस अंधेरे और सन्नाटे को तोड़ने के लिए सिर्फ एक गतिविधि नहीं, बल्कि हर स्तर पर काम करने, संवाद करने की ज़रूरत है। स्कूल में किस नियम को बदल देंगे, इस सवाल पर बच्चों की सहज त्वरित टिप्पणी हमें बताती है कि हम कैसी दुनिया बना रहे हैं जो बच्चों को घुटन देती है। बहरहाल बड़ों की समझ में प्रैक्टिकेलिटी इस कदर हावी हो जाती है कि अनुशासन, कायदे-कानून से भरा वातावरण ही बच्चों के लिए सुरक्षित और सही लगता है। जिस खुलेपन और आज़ादी की चाह बचपन और किशोर आयु को चाहिए उसमें कई जकड़न और पाबंदियाँ हैं, जिससे एक दूरी बनती है और आगे चलकर कई ग्रंथियों और परेशानियों से घिरा युवा वर्ग समाज से मुख़ातिब होता है।
(यहाँ एक रोचक बात पर ध्यान दिलाना ज़रूरी लग रहा है। सभी साथियों के नाम बिना सरनेम के दो नाम संयुक्त कर उल्लिखित किये गए हैं। इसका राज़ जानने के लिए अगली कड़ी की रिपोर्ट पढ़नी होगी। जेंडर आधारित एक गतिविधि की गयी थी, जिसमें सभी ने अपने नामों में परिवर्तन कर लिया था।)
इन सवालों के बीच ही ईश्वर रघुवंश को आमंत्रित कर लिया कि शिविरार्थियों के सवालों से आप भी रूबरू हुए, अब कुछ आगे की बात आप करें। जहाँ बात छोड़ी गई थी, वहीं से उन्होंने अपनी बात शुरु की कि, अगर स्कूलों में बातचीत का माहौल रहेगा तो आप कैसा स्कूल चाहते हैं, उस पर बात हो सकती है और वैसे स्कूल को बनाने की आप सोच भी सकते हैं। इसमें सभी लोगों की सहमति थी। उन्होंने सवाल-जवाब शुरु किए जो उसी अंदाज़ में यहाँ दर्ज़ कर रही हूँ :
ईश्वर रघुवंश : भगवान को आप मानते हैं?
जवाब : हाँ.
ईश्वर रघुवंश : कहाँ होते हैं , कैसे होते हैं भगवान?
जवाब: सब जगह होते हैं. मैजिकल होते हैं, सबसे बड़े, आईने की तरह, जहाँ चाहो वहाँ मिलेंगे.
ईश्वर रघुवंश: भगवान से अगर आप मिलना चाहोगे तो कहाँ मिलोगे?
जवाब : स्वर्ग, दिल, मन, मंदिर, माँ-पापा में, ऊर्जा में, हर व्यक्ति के अंदर, आध्यात्मिक रूप से अंदर झाँकना होगा.
ईश्वर रघुवंश : क्या क्रिमिनल के अंदर भगवान होते हैं?
जवाब : मिलाजुला आया, सहमति थी और निरुत्तर से रहे.
ईश्वर रघुवंश : आपका स्कूल कैसा होना चाहिए?
शिक्षक कैसा होना चाहिए?
भगवान कैसा होना चाहिए?
मंदिर और मस्जिद का भगवान एक है?
इन सवालों के साथ उन्होंने अपनी बात भी रखी कि स्कूल में शिक्षक और प्रिंसिपल खड़ूस नहीं होना चाहिए। उन्होंने ‘तोतोचान’ का ज़िक्र किया जो एक ज़रूरी किताब है। एक साथ कई सवाल भगवान से संबंधित आ गए तो उन्होंने 6 समूह बनवा दिये और उन्हें 10 मिनट का समय दिया कि वे आपस में बात करके सबको बताएँ कि उनका भगवान कैसा होना चाहिए, उनमें कौन से गुण होने चाहिए, कौन से मूल्य होने चाहिए साथ ही उन्हें क्या करना चाहिए! अब 6 समूह अलग-अलग बैठकर बाकायदा आपसी विचार-विमर्श से भगवान के गुण-मूल्य और खूबियों के बारे में बात करने लगे। 10-12 मिनट बाद सभी समूह के शिविरार्थी आए और एक-एक करके अपने समूह में तय किये हुए भगवान के बारे में सभी को बताया।
समूह 1- डिवाइन पॉवर – निहिरा प्राजक्ता और प्रख्यात श्वेता
समूह का नाम स्वयं शिविरार्थियों ने दिया। उनके अनुसार उनके भगवान में यह गुण होना चाहिए :
सभी को स्वस्थ बनाना चाहिए.
अमीर-गरीब का भेद नहीं होना चाहिए.
पापा जैसा होना चाहिए जो हमारी मांगें पूरी करे.
माँ जैसा होना चाहिए जो हमारा दुख समझती हैं.
नेकदिल होना चाहिए.
सबके साथ इंसाफ़ होना चाहिए.
सबको सदबुद्धि दे.
भगवान को स्वर्ग और नरक का भेद नहीं करना चाहिए.
समूह 2 – निहारिका संगीता और आदित्य सीमा
भगवान भी इंसानी जीवन जीकर देखे.
टीचर के जैसे सही रास्ता बताना चाहिए.
अभिमानी नहीं होना चाहिए.
जो व्यक्ति लायक हो वही अमीर बनें .
अपने सारे रहस्य बताए.
भगवान को कभी देखा नहीं है, पता नहीं है और कल्पना में भी नहीं है इसलिए उन्हें एक बार धरती पर आना चाहिए.
ब्रह्मांड में जो रहस्य है, विज्ञान है, वो आकर हमें सब बातें बताएँ।
समूह 3- कुमकुम आशा और विशाल उमा
पिछला जन्म याद होना चाहिए ताकि हम गलतियाँ दोहराएँ नहीं.
हमारी तकदीर हमसे पूछकर लिखनी चाहिए.
जानवर और इंसान एक ही भाषा बोलें यानि एक-दूसरे की भाषा समझ सकें.
हम अपनी ज़िंदगी दान कर सकें यानि डोनेट कर सकें.
भगवान को एक बार आकर कहना चाहिए मनुष्यों से कि तुमने हमारा सिस्टम खराब कर दिया.
भगवान को हम बताएँ कि हम कैसी ज़िन्दगी चाहते हैं.
वैसे कहा जाए तो अपुनीच भगवान हैं.
समूह 4- सिद्धांत सुनीता और अंशुमान आरती
इन्होंने भगवान को कैसा होना चाहिए यह बताने के साथ-साथ मनुष्य क्या-क्या करते हैं , उन्हें क्या नहीं करना चाहिए, यह भी बताया,
भगवान से अपेक्षा नहीं कि वो हमेशा हमारे साथ हों क्योंकि इससे हमें जीवन का अनुभव नहीं होगा. पर बुरे समय में साथ रहे.
जो लोग आत्महत्या करते हैं उनके पास तो बिलकुल भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि वे लोग ख़ुद की वजह से ही आत्महत्या कर रहे हैं.
जो लोग भगवान को नहीं मानते वे उन्हें कॉस्मिक एनर्जी मान सकते हैं.
वो ’ओ माई गॉड’ जैसा न हो जिसमें भगवान बाइक में चला रहे हैं.
भगवान मदद करते हैं यदि वो चाहते तो कोरोना दुनिया से खत्म हो जाता.
अगर भगवान से सहायता चाह्ते हो तो पहले मेहनत करो। कम से कम यह संतुष्टि तो रहेगी कि मेहनत की।
अकसर लोग परीक्षा के समय मंदिर में टाइमपास करने चले जाते हैं एग्ज़ाम के समय चले जाते हैं पर जब परिणाम आता है तो नहीं जाते।
समूह 5- चैतन्या रश्मि और ऋषभ लोचन
इन्होंने कहा कि यदि उन्हें भगवान को डिज़ाइन करने दिया जाए तो उनके भगवान में यह गुण होंगे,
उपदेशक जैसा हो जो हमें रास्ता दिखाए.
हर इच्छा पूरी करे.’
हमारी उम्र का हमउम्र दोस्त जैसा ही हो.
ज़रूरत के समय आ जाए.
भगवान कभी धोखा न दे.
याददाश्त ज़बरदस्त हो.
जब भगवान के साथ रहूं तो दुख और तकलीफ़ भूल जाएँ.
सबके कॉमन भगवान यानि एक ही भगवान सबके होने चाहिए.
समूह 6- प्रशस्ति श्वेता और अक्षत श्याम
इन साथियो का मानना था जो बोओगे वही काटोगे, शास्त्र में भी यही लिखा है. गीता में भी लिखा है। समस्या है तो उसका समाधान भी होता है।
भगवान कोतवाल नहीं है हमारी लाइफ जैसी है बढ़िया है. टीचर जब परीक्षा में सवाल नहीं बताते तो भगवान क्यों मदद करेंगे!
ज़िन्दगी में जब अच्छा होता है तब तो भगवान को नहीं बोलते कि भगवान ने अच्छा किया. जब अच्छी लाइफ़ चलती रहती है तब भगवान का हाल कोई नहीं पूछता पर जब भगवान के पास जाओगे तो हमेशा मांगने का काम करते हो. इस समूह के अनुसार उनका गॉड परफेक्ट हैं।
इन बातों के आने के बाद अलग-अलग प्रतिभागियों ने अपने विचार भी रखे जिस पर आपसी विचार-विमर्श हुआ. प्रशस्ति ने भगवान को लेकर एक कमेंट किया कि भगवान ने दुनिया बनाई, कितनी सुन्दर पेंटिंग बनाई है! इस पर अदीबा तलहत ने यह बात रखी कि जब भगवान को किसी ने नहीं देखा तो पेंटिंग किसने बनाई है यह कैसे पता चला? आस्था ने कहा कि चूँकि मनुष्य भगवान का सिस्टम बिगाड़ रहा है इसलिए भूकंप और बाढ़ आ रही है. इसमें भी तार्किक जवाब अदीबा ने दिया कि हम वंश दर वंश प्रकृति को बिगाड़ रहे हैं. एक समूह में यह बात आई थी कि भगवान कैसे दिखते हैं उन्हें एक बार धरती पर आना चाहिए तो प्रख्यात ने इस पर कहा कि वेदव्यास ने गणेश को सब बताया है और उन्हीं से पता चलता है कि भगवान कैसे दिखते है !
इस तरह की चर्चाओं के बाद ईश्वर रघुवंश ने फिर सामूहिक रूप से कुछ सवाल रखे-
भगवान की जाति क्या होनी चाहिए?
कौन से धर्म का भगवान होना चाहिए-हिन्दु, मुस्लिम, यहूदी, आदिवासी या कोई और?
धर्म-निरपेक्ष होकर जब आदमी इंसानियत की बात करता है तो भगवान को क्या करना चाहिए?
मंदिर कहाँ मिलना चाहिए?
भगवान को अमीर-गरीब, किसान-मजदूर, टीचर-प्रिंसिपल, कारपेंटर क्या होना चाहिए ?
क्या भगवान को ज़मींदार होना चाहिए या राजा होना चाहिए?
भगवान किस वर्ग का होना चाहिए? अमीर, किसान, ज़मींदार या पूंजीपति वर्ग से या वर्गविहीन होना चाहिए?
न्यायी या अन्यायी होना चाहिए?
संविधान को मानना चाहिए?
भगवान को चुन तो नहीं सकते पर नियम होना चाहिए, तो वो क्या होना चाहिए?
यदि भगवान दयालु नहीं तो मनुष्य दयालु कैसे होगा?
भगवान की जाति नहीं तो इंसानों की जाति क्यों? धर्मों को किसने बनाया?
इन तमाम सवालों के जवाब शिविरार्थियों ने दिये, जिसमें एक भगवान होना चाहिए। सभी लोग एक ही धर्म, जाति और एक ही भगवान मानने वाले होने चाहिए। भगवान राजा, गुरु, मिडिल क्लास का होना चाहिए। भगवान इंसान हो, रहनुमां हो, भौतिकवादी चीज़ों से ऊपर हो, शांत होना चाहिए, किसान हो, भगवान को भगवान होना चाहिए, न गरीब और न अमीर होना चाहिए।
इस एक्टिविटी में किसी भी प्रकार से कोई ज्ञान-विज्ञान, तर्क और विचार शिविरार्थियों के बीच ईश्वर रघुवंश ने नहीं थोपा, बल्कि शिविरार्थियों की अपनी परवरिश और सामाजिक-पारिवारिक माहौल का एक जायज़ा लेने की कोशिश की और इस माध्यम से कुछ शिविरार्थियों के दिमाग में सवाल भी पैदा हुए और उम्मीद है कि, वे आने वाले समय में इससे ख़ुद-बख़ुद रूबरू होकर तार्किक जवाब की दिशा में बढ़ेंगे। आख़िरी सवाल बहुत ज़रूरी सवाल है जिसकी नींव पर ही हमारे समाज में अराजकता फैली हुई है। बराबरी, समता और सद्भाव के गुण ही हमारे समाज को सुन्दर और बेहतर बना सकते हैं और यह ऐसे मूल्य हैं जिनके लिए इस तरह की कोशिशों को हमें अलग-अलग तरह से अपनाना होगा। जब यह एक्टिविटी चल रही थी तो यही ख़्याल आ रहा था कि बचपन से इंसान अपने पुरखों से हासिल किये गए ज्ञान को बिना तर्क की कसौटी पर कसे ही वंश दर वंश सौंपते चलते जाते हैं जिसकी वजह से सामाजिक अंध-विश्वास, ग़ैर-बराबरी का व्यवहार और तमाम बुराईयाँ फलती-फूलती हम तक पहुँचती जा रही हैं. पढ़ना-विचार करना, तर्क की समझ विकसित करना और उसे व्यवहार में लाने का अभ्यास अपनेआप में क्रांति है। आखिर इस अभ्यासगत व्यवहारिक परिवर्तन के बाद ही हम किसी तरह का कांक्रीट बदलाव ला सकते हैं।