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डाल्टनगंज में पंद्रहवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न : दूसरा दिन

डाल्टनगंज में पंद्रहवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न : दूसरा दिन

उषा वैरागकर आठले

(17, 18 व 19 मार्च 2023 को डालटनगंज में आयोजित इप्टा के पन्द्रहवें राष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्ट तीन किश्तों में प्रस्तुत है। साथी मृगेंद्र सिंह, अर्पिता श्रीवास्तव तथा रवि शंकर की सहायता से रिपोर्ट बनाई गई है। फोटो रजनीश साहिल तथा अजय धाबरडे के सौजन्य से। प्रस्तुत है द्वितीय किश्त। )

15 वें राष्ट्रीय सम्मेलन के दूसरे दिन प्रथम सत्र में समकालीन परिदृश्य से जुड़े मुद्दों और रचना कर्म पर कार्यशाला का आयोजन हुआ। विषय थे – वैज्ञानिक चेतना और तर्क, खेती-किसानी का संकट, सामाजिक न्याय, आर्थिक असमानता व साम्प्रदायिकता, पर्यावरण व जेंडर के सवाल। महासचिव राकेश ने कार्यशाला के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए आरम्भ में ही स्पष्ट किया कि इप्टा को बदलते समय में नए नाटकों, नए गीतों तथा नए प्रस्तुति माध्यमों की आवश्यकता है। कुछ विषयों को चुनकर यहाँ प्रतिनिधियों और विषय विशेषज्ञों के बीच विचार विमर्श किया जाएगा तथा इन विषयों से संबंधित नाटक, गीत आदि तैयार करने संबंधी बीज तलाशे जाएंगे। कम से कम पाँच इकाइयाँ इन थीम्स पर प्रस्तुतियाँ तैयार करने का जिम्मा लेंगी, जो अगले छै महीने में इप्टा के तथा अन्य नाटककारों, निर्देशकों, गीतकारों, संगीतकारों, चित्रकारों की मदद से अपनी प्रस्तुति तैयार करेंगे, जिनके मंचन उसके बाद देश के अनेक स्थानों पर लगातार किये जाएंगे। इस कार्यशाला में अनेक विचारक, साहित्यकार, निर्देशक भी सम्मिलित थे जिनमें पंजाब से डॉ. कुलदीप सिंह ‘दीप’, सुरजीत जज, मुंबई से चारूल जोशी, मसूद अख्तर, केरल से लोकसंगीत विशेषज्ञ मणिलाल तथा जयकुमार, पंजाब से बलकार सिद्धू, उड़ीसा से सुसांत दास व कृष्णप्रिया, कर्नाटक से एच.बी. रामकृष्णा, तेलंगाना से लक्ष्मीनारायण आदि थे।

कार्यशाला के प्रथम सत्र में विषय विशेषज्ञ गौहर रज़ा, जया मेहता, ईश्वर सिंह दोस्त, नासिरुद्दीन तथा मीनाक्षी पाहवा ने संक्षेप में निर्धारित विषयों पर प्रकाश डाला। इस पर प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक प्रसन्ना ने अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा कि, ये पाँचों संकट राजनीतिक संकट नहीं हैं, ये सभ्यता के संकट हैं, इन्हें राजनीतिज्ञों ने बढ़ा दिया है। सत्य और वास्तविकता के बीच के संबंध को समझना ज़रूरी है वरना सिर्फ भौतिक यथार्थ को ही सत्य मान लिया गया है। हमें हाथ और श्रम पर आधारित कला को विकसित करने की ज़रूरत है। इप्टा के उपाध्यक्ष समिक बंदोपाध्याय ने टिप्पणी की कि इप्टा को नए औज़ार खोजने हैं। नया संगीत, नई फिल्में, नए नाटक तैयार करने हैं। नए टूल्स का उपयोग करना होगा। हमें सिर्फ मंच से ही नहीं चिपके रहना है, नए स्पेस खोजने होंगे।

कार्यशाला के दूसरे सत्र में सभी प्रतिभागी पाँच पृथक समूहों में पाँच स्थानों पर बैठे। पहला समूह था ‘वैज्ञानिक चेतना और तर्क’ का। इसे मशहूर लेखक व विज्ञानविद गौहर रज़ा तथा वैज्ञानिक अमिताभ पाण्डे ने संचालित किया। इस समूह में प्रतिभागियों के साथ सवाल-जवाब के बीच कार्यशाला की शुरुआत हुई। पहला सवाल यही था कि विज्ञान क्या है? विज्ञान और तकनीकी में क्या अंतर है? संचालकों ने इसका जवाब देते हुए बताया कि हम विज्ञान को तकनीकी से जोड़ देते हैं, यह एक बड़ी समस्या है। तकनीकी से हम काम लेते हैं, जबकि विज्ञान हमें समझदार बनाता है। विज्ञान तर्कशील बनाता है और सवाल पैदा करता है। यही अंतर धर्म और विज्ञान में है। जब आप ‘कैसे’ का सवाल खड़ा करते हैं, तो वहाँ विज्ञान के माध्यम से तर्कसंगत व तथ्यात्मक जवाब मिलते हैं। जब ‘क्यों’ का सवाल आता है तो फिर उसका जवाब घुमाफिराकर आता है और उसे ईश्वर से भी जोड़ दिया जाता है। वैज्ञानिक समझ के साथ किसतरह नाटक आदि तैयार किये जा सकते हैं, प्रतिभागियों ने इस पर चर्चा कर कुछ रचनाएँ तैयार कीं। समूह में लगभग 60 लोगों ने मिलकर चर्चा की। हरेक समूह में विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।

जेंडर के सवाल पर केन्द्रित कार्यशाला का संचालन नासिरुद्दीन और दीपक कबीर ने किया था। प्रतिभागियों को अनेक सवाल देकर उनसे जवाब माँगे गए। इस प्रक्रिया में महिलाओं की समाज में क्या स्थिति है और प्रतिभागी उनके बारे में क्या सोच रहे हैं, उनका व्यवहार क्या और कैसा है, उनके प्रति समाज में सोच का जो बनाबनाया ढाँचा है, उसमें बदलाव कैसे लाया जाए – इस पर बातचीत की गई। एलजीबीटीक्यू जैसे अन्य जेंडर को भी बराबरी का दर्ज़ा देकर उनके साथ मानवोचित व्यवहार करने की ज़रूरत पर बल दिया गया। ‘जूस’, तमन्ना’ फिल्मों की क्लिप्स दिखाई गईं। इन सभी मुद्दों को किसतरह अपने नाटकों और गीतों में शामिल कर बदलाव लाया जाए, इस बात पर विचार विमर्श किया गया तथा प्रतिभागियों को इस पर काम करने के लिए प्रेरित किया गया। राजस्थान इप्टा ने जेंडर मुद्दों पर वर्कशॉप करने का प्रस्ताव रखा। लखनऊ इप्टा ने नाटक लिखने की जवाबदारी ली। अशोकनगर इप्टा आदिवासी स्त्रियों के मानसिक और शारीरिक शोषण पर गीत लिखने का काम कर रही है। साथ ही अब तक हुई तमाम प्रस्तुतियों को जेंडर के प्ररिप्रेक्ष्य में रिवाइज़ करने पर भी चर्चा हुई। इस समूह में लगभग 40 साथियों ने हिस्सा लिया।

प्रोफेसर मीनाक्षी पाहवा के नेतृत्व में पर्यावरण विषय पर कार्यशाला के अंतर्गत अनेक पहलुओं पर चर्चा की गई। उन्होंने कहा कि पर्यावरण को वृहद परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है। कला के क्षेत्र में पर्यावरण अछूता विषय बनकर रह गया है। इसे पर्याप्त महत्व नहीं मिलता। इस पर इप्टा के साथियों को छोटे नाटकों, गीतों के माध्यम से काम करना होगा। हमें अपने आदिवासी भाइयों से सीखना होगा क्योंकि वे ही पर्यावरण के असली संरक्षक होते हैं। चर्चा के दौरान प्रदूषण के संदर्भ में सबसे ज़्यादा चर्चा प्लास्टिक पर हुई। झारखंड के रंगकर्मी महेश अमन की पेशकश पर युवा साथियों ने प्लास्टिक के उपयोग को रोकने के लिए इम्प्रोवाइज़ेशन कर एक नाटक तैयार किया। साथ ही केरल के साथियों ने पर्यावरण संतुलन पर एक गीत साझा किया। वे काफी दिनों से ‘नदी की कहानी’ नामक नाटक कर रहे हैं, उन्होंने बताया। ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ पर भी बात हुई। पर्यावरण संबंधी नीतियाँ प्रायः कागज़ पर ही रह जाती हैं। उन्हें कार्यरूप में परिणित करने संबंधी जागरूकता फैलानी होगी। महेश अमन ने अगले तीन महीने में एक नाटक लिखकर इप्टा को देने की बात की। केरल इप्टा ने गर्मी की छुट्टियों में ‘लिटिल इप्टा’ के साथ पर्यावरण जागरूकता पर हरेक इकाई में वर्कशॉप करने की योजना बनाई। इस समूह में लगभग 35 प्रतिभागी सम्मिलित थे।

सामाजिक न्याय, आर्थिक असमानता और साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर वर्कशॉप के कोऑर्डिनेटर थे ईश्वरसिंह दोस्त तथा सचिन श्रीवास्तव। इस दौरान बातचीत में तीन नाटकों को तैयार करने पर सहमति बनी – पहली थीम थी, भारतीय शैक्षिक संस्थानों और आधुनिक संस्थानों में सोशल जस्टिस; दूसरी थीम थी, सोशल मीडिया पर फैलती अफवाहें और हमारा समाज तथा तीसरी थीम थी, संगीत और भारत की मिलीजुली संस्कृति। इन तीन मुद्दों पर तीन अलग-अलग ग्रुप्स में बातचीत हुई और यह तय किया गया कि अगले दो महीनों में इन पर नाटक लिखा जाएगा। बातचीत के दौरान ईश्वर सिंह दोस्त ने कहा कि सामाजिक न्याय की अवधारणा हमारी सामाजिक व्यवस्था में जाति और धर्म से जुड़ती है। यह जेंडर और वैज्ञानिकता की परिभाषा को भी जोड़ती है। सामाजिक न्याय की अवधारणा को समझने तथा भारतीय समाज के व्यापक संदर्भ में जानने के लिए हमें गांधी, कबीर, रैदास और टैगोर तक जाना होगा। गांधी जिस हिंसा की बात करते हैं, उसमें कमज़ोर के प्रति हिंसा वायलेंस है, लेकिन वही जब ताकतवर के खिलाफ होती है तो वह हमारा अधिकार होती है और हौसले को बढ़ाती है। इस तरह कई मुद्दों पर बातचीत के दौरान प्रतिभागियों ने सोशल मीडिया के और अपने व्यक्तिगत अनुभवों के जरिए विभिन्न कहानियों को आगे बढ़ाया, जिन पर नाटक लिखे जाएंगे। सचिन श्रीवास्तव, अभिषेक अंशु और हरिओम राजोरिया मिलकर नाटक लिखेंगे तथा नाटक निर्देशन का जिम्मा मुंबई इप्टा के महासचिव मसूद अख्तर ने लिया। इस समूह में लगभग 70 प्रतिभागियों ने भाग लिया।

पाँचवें समूह में कृषि के संकट विषय पर कार्यशाला आयोजित हुई। इसका संचालन जया मेहता, विनीत तिवारी तथा सारिका श्रीवास्तव ने किया था। आरम्भ में ही जया मेहता ने कृषि-संकट की प्रमुख दो समस्याओं से प्रतिभागियों को अवगत कराया – 1. हमारी दैनिक आवश्यकता व अर्थ-व्यवस्था के लिए उत्पादन न कर पाना और 2. ज़मीन, पानी आदि संसाधनों की कमी। भारत की कृषि-व्यवस्था को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने हिंदुस्तान के वर्क फोर्स पर प्रकाश डाला कि 140 करोड़ की आबादी पर सिर्फ 46 करोड़ लोग ही कृषि-कार्य कर रहे हैं। साथ ही किसान-विद्रोह, अकाल आदि की जानकारी भी दी गई। साहित्य एवं फिल्मों के अंशों के उदाहरण देकर चर्चा को प्रस्तुतिपरकता की ओर बढ़ाया गया। बंकिमचंद्र बंदोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंद मठ’ के अंश का विनीत तिवारी द्वारा पाठ, ‘धरती के लाल’ फिल्म के अंशों का प्रदर्शन, युवा साथी उजान द्वारा तेभागा आंदोलन पर रिपोर्ट का वाचन, ‘दो बीघा ज़मीन’ फिल्म की क्लिप, नर्मदा बचाओ आंदोलन के बाबा महारिया की चिट्ठी, नरेश सक्सेना की कविता ‘इस बारिश में’ का पाठ साथी लक्ष्य ने, ताहिर द्वारा राजेश जोशी की कविता ‘विकल्प’ का पाठ, सारिका श्रीवास्तव द्वारा आत्महत्या करने वाले किसानों की पत्नियों की आपबीती का पाठ किया। उसके बाद जया मेहता ने कृषि के केरल मॉडल में महिलाओं की साझा कृषि के बारे में बताया कि उसने किसतरह हालात बदल दिए! अंत में सभी प्रतिभागियों ने किसानों के लिए और किसानों की आवाज़ देश के नागरिकों तक पहुँचाने के लिए नाटक लिखने और खेलने का संकल्प लिया। समूह में कर्नाटक, मध्यप्रदेश, केरल, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड और बिहार के लगभग 50 प्रतिनिधि शामिल थे।

कार्यशाला-समापन के बाद सभी समूहों द्वारा मुख्य हॉल में आकर अपने-अपने समूह का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। जेंडर के सवाल पर वर्षा आनंद तथा निमिषा ने, वैज्ञानिक चेतना पर मणिमय मुखर्जी, साक्षी शर्मा ने जानकारी दी तथा सीमा राजोरिया और अंजनी पांडेय ने विषय से सम्बद्ध कार्यशाला के दौरान तैयार गीत प्रस्तुत किये। सामाजिक न्याय, आर्थिक असमानता और साम्प्रदायिकता विषय पर कथाकार रणेन्द्र, सचिन श्रीवास्तव तथा दिलीप घोष ने मुख्य बिंदु साझा किये। पर्यावरण पर पियूष सिंह ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया तथा महेश अमन, शाकिब, विकास यादव आदि ने वर्कशॉप में इम्प्रोवाइज़ किया गया नाटक प्रस्तुत किया। कृषि-संकट पर साहिल राज ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया तथा शेखर मलिक एवं ज्योति ने गीत प्रस्तुत किया। इस तरह अलग-अलग पाँच समूहों में आयोजित कार्यशालाओं को समेकित करते हुए तमाम रंगकर्मियों को नाटक, गीत, चित्र सहित अन्य कला-विधाओं में चर्चित विषयों को समाहित करने के लिए प्रेरित किया गया। आगामी महीनों में इन विषयों पर अनेक नाटक, गीत आदि तैयार किये जाने की ज़मीन इन कार्यशालाओं में तैयार हुई। राज्य सभा सांसद बिनय विश्वम ने इप्टा के इस प्रयास की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस विपरीत समय में इप्टा का सम्मेलन कई आशाएँ जगाता है।

जम्मू से पधारे लकी गुप्ता का एकल नाटक ‘माँ मुझे टैगोर बना दे’ की प्रस्तुति सभागार के बाहर इंटीमेट थियेटर के रूप में हुई। पढ़ने के प्रति गहरी रूचि रखने वाले एक बच्चे के मज़दूर बनने की कथा और उसकी रचनाशीलता की ललक को अभिनेता ने बहुत संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त किया। आसपास बैठे दर्शकों को अपनी कहानी में सम्मिलित करते हुए, उनसे अनेक पात्रों की भूमिकाओं को तत्काल करवाते हुए शिक्षा की दुरावस्था पर अनेक सवाल लकी गुप्ता ने खड़े किये।

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सम्मेलन की विशेषता रही कि इसमें इप्टा के प्रमुख दो व्यक्तियों पूर्व महासचिव कैफी आज़मी तथा वर्तमान संरक्षक एम एस सत्थ्यू पर केन्द्रित डॉक्यूमेंट्रीज़ दिखाई गईं। गांधी स्मारक भवन में 16 मार्च को शबाना आज़मी व मिजवाँ वेलफेयर सोसाइटी द्वारा निर्मित, सुमंत्रा घोषाल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कैफीनामा’ का स्क्रीनिंग किया गया तथा 18 मार्च को मुंबई इप्टा के वरिष्ठ निर्देशक मसूद अख्तर के निर्देशन में इप्टा के संरक्षक प्रसिद्ध फिल्मकार निर्देशक एम. एस. सत्थ्यू के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बनाई गई डॉक्यूमेंट्री ‘कहाँ कहाँ से गुज़रे’ की स्क्रीनिंग की गई। इन फिल्मों के माध्यम से इप्टा के प्रतिनिधियों को अपने वरिष्ठ साथियों के बारे में जानने-समझने का मौका मिला।

इप्टा के पंद्रहवें राष्ट्रीय सम्मेलन के दूसरे दिन सांस्कृतिक संध्या के दौरान नीलाम्बर पीताम्बर लोकरंग महोत्सव में सबसे पहले बिहार इप्टा के कलाकारों ने संगीत निर्देशक सीताराम सिंह के नेतृत्व में ‘इप्टा के कलाकारों की फिल्मी दुनिया में धमक की गूँज’ थीम पर ‘साथी हाथ बढ़ाना’, ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा’ आदि जनगीतों की सामूहिक प्रस्तुति दी। उसके बाद तेलंगाना इप्टा ने पल्ले नरसिम्हा के नेतृत्व में पारम्परिक वाद्ययंत्रों के साथ लोकगीतों की धमाकेदार प्रस्तुति दी। खास बात यह थी कि भाषा से अपरिचित होते हुए भी श्रोता झूमने और थिरकने लगे थे। यही माहौल केरल, बंगाल और आंध्रप्रदेश इप्टा की प्रस्तुति के दौरान देखने को मिला। पूरे सांस्कृतिक आयोजन में भाषा की रूकावट कहीं देखने को नहीं मिली।

केरल इप्टा के कलाकारों ने मंच पर गमछे के माध्यम से आकृतियाँ रचते हुए लोकगीत की कहानी को प्रस्तुत किया।

छत्तीसगढ़ इप्टा के कलाकारों ने रोशन घड़ेकर के निर्देशन में करमा लोकनृत्य तथा डंडा लोकनृत्य के कम्पोज़िशन को प्रस्तुत किया। बिहार इप्टा की श्वेता भारती ने गोदना लोकनृत्य की भावभीनी प्रस्तुति दी।

पंजाब इप्टा के साथियों ने किसानों के समर्थन में शौर्यभरे जनगीतों को प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के अंत में उत्तर प्रदेश इप्टा आजमगढ़ के साथियों ने लोक गायक बैजनाथ गँवार के निर्देशन में सुनील, रविन्द्र, बृजलाल, दीपू, मंचन ने जाँघिया और धोबिया लोकनृत्यों की शानदार प्रस्तुति दी। बैजनाथ के ठेठ गँवई अंदाज़ में भोजपुरी भाषा में लोकगायकी और नक्कारा वादन व हारमोनियम के साथ घुँघरु बाँधे मंच पर नृत्य करते और करतब दिखाते कलाकारों ने समां बाँध दिया। इप्टा के 15 वें राष्ट्रीय सम्मेलन में लोकरंग का स्वरूप खिलता जा रहा था।

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  • शानदार रपट के लिए धन्यवाद ऊषा जी

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