Now Reading
दूसरे से बेहतर की अवधारणा से अन्याय व टकराव की शुरुआत : ईश्वर सिंह दोस्त

दूसरे से बेहतर की अवधारणा से अन्याय व टकराव की शुरुआत : ईश्वर सिंह दोस्त

(इप्टा का 15 वाँ राष्ट्रीय सम्मेलन 17 से 19 मार्च 2023 तक झारखण्ड राज्य के पलामू जिले के डालटनगंज (मेदिनीनगर) में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में 18 राज्यों के 275 प्रतिनिधि तथा 150 कलाकार सम्मिलित हुए थे। समूचे सम्मेलन की रिपोर्ट अगली कुछ कड़ियों में साझा करूंगी। इप्टा के इस सम्मेलन का एक नया और ज़रूरी हिस्सा था विभिन्न विषयों पर केंद्रित कार्यशाला का। सम्मेलन में कार्यशाला आयोजित करने का मूल उद्देश्य था इप्टा द्वारा समसामयिक समस्यामूलक परिस्थितियों पर गहराई से विचार-विमर्श और सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के लिए आधार-सामग्री के बीज एकत्रित करना। इन बीजों को अगले कुछ महीनों में विभिन्न भाषाओं के नए नाटकों, गीतों, कविताओं, नृत्यों और अन्य प्रस्तुतियों में विकसित किया जाना है, जिसके आगे चलकर देश भर में प्रस्तुतीकरण किये जाएँगे। कार्यशाला सम्बन्धी रिपोर्ट की चौथी कड़ी में आपने पढ़ा ‘पर्यावरण’ विषय पर आयोजित कार्यशाला के बारे में। इस पाँचवीं और अंतिम कड़ी में ‘सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानता व साम्प्रदायिकता’ विषय पर संपन्न कार्यशाला की रिपोर्ट के अंश साथी सचिन और अर्पिता ने साझा किये हैं । फोटो रजनीश के सौजन्य से। – उषा वैरागकर आठले)

18 मार्च 2023 को डाल्टनगंज झारखण्ड में आयोजित इप्टा के 15वें राष्ट्रीय सम्मलेन के दूसरे दिन ‘सामाजिक न्याय, आर्थिक असमानता और साम्प्रदायिकता’ विषय पर केंद्रित कार्यशाला संपन्न हुई। कार्यशाला समन्वयक थे ईश्वर सिंह दोस्त और सचिन श्रीवास्तव।

कार्यशाला का आरम्भ करते हुए ईश्वर सिंह दोस्त (रायपुर) ने कहा, न्याय का सिद्धांत टकराव से जुड़ा है। न्याय का पात्र कौन है, यह मुख्य सवाल है। महिला, दलित, मज़दूर और अन्य समूहों के सवाल भी इसमें शामिल हैं। मज़दूर का सवाल आर्थिक न्याय से जुड़ता है। इसी तरह सांप्रदायिक, जाति या धर्म की पहचान भी इससे जुड़ती है। राष्ट्र के साथ गौरव या प्राइड को जोड़ा जाता है। दूसरे से बेहतर की अवधारणा से अन्याय व टकराव शुरू होता है। बातचीत को आगे बढ़ाते हुए मसूद अख्तर (मुंबई) ने कहा, कम्युनल या कम्युनलाइजेशन क्या है? राजनीति और धर्म का गठबंधन होता है तो क्या होता है? कथाकार रणेन्द्र ने बताया कि एजाज़ अहमद साम्प्रदायिकता का कारण सिर्फ संघ-बीजेपी को नहीं मानते। हिंसा की संस्कृति जाति आधारित समाज के कारण है। साथ ही पितृसत्ता ने भी हिंसा की संस्कृति का प्रसार किया है। मुसोलिनी के आने के बाद भारत के बहुत से लोगों की रूचि उसमें हो गयी थी। 1920 के बाद मुसोलिनी का लेखन मराठी में आ गया था। हमारे देश में राष्ट्रवाद के विभिन्न रूप थे। पुनर्जागरण और पुनरुत्थान के बीच बारीक लकीर थी। कई बार पुनर्जागरण वाले पुनरुत्थानवादी हो जाते थे। साम्प्रदायिकता की जड़ें बहुत गहरी हैं। रोमिला थापर कहती हैं कि संघ ने हिन्दू धर्म को एकरूपता देने का प्रयास लगातार किया। मुसलमानों के बिना भारत में संगीत का विकास नहीं हो सकता था। दक्षिण से गोपाल गुरु आते हैं और खुसरो से मिलते हैं, तब संगीत शुरू होता है। संगीत के लोगों का कोई मज़हब नहीं होता।

बात को आगे बढ़ाते हुए ईश्वर सिंह दोस्त ने कहा कि राकेश लिखित ‘रामलीला’ नाटक मिलीजुली संस्कृति की अभिव्यक्ति है। सचिन श्रीवास्तव का कहना था, महिला हिंसा के मामले घरों में ही दबा दिए जाते हैं। न्याय-व्यवस्था में भी वही लोग बैठे हैं। एक दिक्कत पुलिस की भी है। पुलिस क्रिमिनल एक्ट के परिपालन के लिए बनी है मगर न्याय क्या है, किसी को नहीं मालूम है। हरिओम राजोरिया ने ज़ोर देते हुए कहा कि क्षेत्र की बुनियादी समझ होगी तभी कोई नाटक लिखा जा सकता है। सिर्फ थ्योरी से कुछ नहीं हो सकता। पंजाब के साथी के एन एस शेखों ने कहा कि हमें नाटक कहाँ ले जाना है, इसकी समझ ज़रूरी है। दर्शक क्या ले जायेंगे? अगर कुछ न ले जा पाएँ तो नाटक करने का कोई फायदा नहीं है। छत्तीसगढ़ के साथी निसार अली अपने औज़ार तैयार रखने पर ज़ोर दिया। जीवन का डर, हमले का डर और मौसम का डर दूर करने के लिए यात्राएँ करनी होंगी। छत्तीसगढ़ के साथी बालकृष्ण अय्यर ने कहा कि फासीवाद का मुकाबला करने के लिए हमें अपने टूल्स और टार्गेट्स बदलने होंगे। सोशल मीडिया को भी लपेटना होगा। इनके अलावा मध्य प्रदेश के साथी राहुल भाई जी, केरल के साथी साजू, उत्तर प्रदेश के साथी बैजनाथ यादव ने भी अपनी बातें साझा कीं।

इस सामूहिक चर्चा के बाद भोजनोपरांत उपस्थित प्रतिभागियों के तीन समूह बनाये गए। पहला समूह संगीत और मिलीजुली संस्कृति पर, दूसरा समूह सामाजिक न्याय पर और तीसरा समूह सोशल मीडिया पर केंद्रित रहा।

कार्यशाला के दौरान जो पहला अलग समूह बना था, उसमें मुंबई से रूचि, पंजाब से जसराज और भरत के अलावा उड़ीसा से कलिंग दा, पटना से विनोद, छत्तीसगढ़ से बीके अय्यर जी, मुंबई से मसूद अख्तर जी, मध्य प्रदेश से हरिओम राजोरिया, सचिन श्रीवास्तव और अभिषेक अंशु शामिल थे। इसका प्रतिवेदन सचिन श्रीवास्तव ने प्रस्तुत किया है।

बातचीत के पहले हिस्से में सभी ने अपने अपने अनुभव सुनाए और फिर एक कहानी पर बातचीत हुई। तय हुआ कि इस कहानी को मध्य प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष और कवि—नाटककार हरिओम राजोरिया दो महीने में लिखेंगे। इसके बाद समूह के सभी सदस्यों से उसे साझा किया जाएगा। जो भी कमेंट आएंगे, सुझाव ​होंगे, उन पर हरिओम आगे काम करेंगे और फिर एक फाइनल नाटक तैयार होगा। मसूद अख्तर जी इस नाटक में अपनी भूमिका करेंगे यह भी समूह में तय किया गया।

बातचीत की शुरुआत में मसूद अख्तर जी ने बॉम्बे ब्लास्ट के बाद के अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा कि होटल में ब्लास्ट के बाद उन्होंने अपने एक दोस्त को फोन किया, जिसकी शॉप उसी पांच सितारा होटल (नाम जानबूझकर नहीं लिखा जा रहा है, आप सभी वाकिफ हैं) में थी। यह उसी दिन की बात है। उसी मनहूस दिन की। लेकिन उस दिन मसूद भाई के दोस्त का लहजा दोस्ताना नहीं था। दोस्त को उनके नाम से तकलीफ थी। याद रहे यह 2014 के अमृतकाल के पहले की बात है। इसके बाद उन्होंने स्वयंप्रकाश जी (मरहूम स्वयं जी, भोपाल में उनकी गंभीर आवाज गुलमोहर के पेड़ों से लगकर अरेरा कॉलोनी के सबसे आखिरी कोने तक सुनाई देती है। उनके रचना शिविरों में मौजूद साथी जानते हैं, स्वयं जी की आवाज की धार को) उफ फिर भटक गया।

तो मसूद जी ने कहा कि आजकल जो नुक्कड़ के जमाने के दोस्त हैं, जो उस धारावाहिक के दौरान किस्से कहानियों, मजाकों में शामिल होते थे, आज वो मिलते नहीं हैं। वे एक्स्ट्रीम राइट की तरफ से सोच रहे हैं। और मेरा नाम मसूद अख्तर है, तो मेरे लिए उनके जज्बात बेहद कमजोर हो गए हैं।

इस घटना पर सभी साथियों ने चर्चा की। मजेदार चर्चा हुई। सभी की बातों का उल्लेख नहीं कर रहा हूँ। वह पल जिन्होंने जिया है, जिन्होंने महसूस किया है, वह जानते हैं कि वहां उम्र के सबसे युवा दौर और बसंतों के छह दशक देख चुके साथी एक साथ जिस प्यार, एहतराम और इज़्ज़त अफ़ज़ाई से एक दूसरे से मुखातिब थे, वह हमें संगठन के मूल्यों की याद दिलाता है। बीच में टोक भी रहे थे, लेकिन सुन भी रहे थे। वक्त कम था, लेकिन सबको सुनने की ज़िद भी थी। बात यहाँ से शुरू हुई और फिर कहानी पर बात आई, तो कुछ इस तरह का ड्राफ्ट जैसा कुछ निकला। सभी ने इस कहानी को आगे बढ़ाया।

कहानी कुछ यूं हैं। कच्ची सी। इसे पूरा शेप देना है, वह हरिओम करेंगे।

5 से 6 बेरोजगार हैं। उन्हें रोजगार की तलाश है। एक साथी उन्हें काम पर लगाता है। काम होता है झूठ को फैलाना। यह जैसा भी है काम है और काम के पीछे दाम है। यह सभी अलग अलग बैकग्राउंड से आए हैं। सबकी अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं, सबकी अपनी कहानियाँ हैं। सबके अपने लड़कपन हैं। आखिर सभी में दोस्ती हो जा​ती है और वे झूठ फैलाने में माहिर होने लगते हैं। उपकरणों, यंत्रों के साथ तकनीक की ताकत तो मिली ही होती है, लेकिन उनका अपना जीवन अनुभव भी है। हर झूठ के साथ वह उनके जीवन के किसी हिस्से से जुड़ा लगता है, लेकिन आखिरकार उसे झटककर वह नौकरी पर बढ़ जाते हैं। पैसा आखिर जज्बात पर हावी हो ही जाता है।

See Also

इस दौरान पुराने विश्वासों पर बात होती है। मुसलमान को हिंदू बनाकर पेश करना हो या हिंदू को मुसलमान। सभी युवा यह चु​टकियों में करते हैं। कंस ने एक बच्चे को मारा लेकिन उसमें उन्हें मामा दिखाई दिया और दुनिया के सारे मामा खल पात्र कर दिए गए। फिर इसमें कंस एक खलनायक नहीं रह गया। इसी तरह और घटनाएँ आती हैं।

एक प्रसंग है कि जो भ्रांति हैं। लाल चीटी हिंदू है, तो कहीं काली चींटी मुसलमान। बातचीत में युवा यह भी जिक्र करते हैं कि हर समाज में अलग अलग चीटिंयां हिंदू मुसलमान हैं। मुसलमान कट्टर हैं, वे काटकर खाते हैं। हिंदू शाकाहारी है, इसलिए अधिक मानवीय हैं, जैसे प्रचलित जुमले अलग ढंग से कहानी में आते हैं।गौहत्या, मुस्लिम की मौत लिंचिंग में, अश्वमेघ यज्ञ की कहानी, बलि देने की प्रथाएँ, प्रसाद का अनुष्ठान, पशुपतिनाथ मंदिर, भीष्म साहनी की ‘अमृतसर आ गया’ कहानी, मोहन राकेश की ‘मलबे का मालिक’, रजिया सज्जाद जहीर की ‘नमक’ आदि कथाएँ बैकग्राउंड में चलती हैं। युवाओं को अपने काम से अब नाइत्तफाक़ी होने लगती है। अब उन्हें बेरोजगारी से आगे की बातें समझ आने लगती हैं। मल्टीनेशनल कंपनी, कॉरपोरेट और राजनीति का उससे गंठजोड़ दिखाई देता है।


इस बीच एक घटना जो दिल्ली दंगे के दौरान हुई थी। उसमें एक हिंदू लड़का घर लौट रहा था, और वह पत्थरबाज़ी में मारा जाता है। इस घटना पर इन झूठ फैलाने वाले ल़ड़कों में बहस होती है। वह लड़का हिंदू लड़का मुस्लिम मोहल्ले में मारा गया था, तो आखिरकार उसे दंगों से जोड़ा जाता है और उसे दंगाई कहने के लिए मुस्लिम साबित किया जाता है। यह झूठ फैल तो कामयाबी से जाता है, लेकिन उस परिवार से जब हमारी कहानी के पात्र मिलते हैं, तो वे ग्लानि से भर जाते हैं।

इसी क्रम में कुछ शांत होती कहानी में तब हलचल होती है, जब इनके एक झूठ से एक लड़की आत्महत्या कर लेती है। महिलाओं के बारे में फैलाए जा रहे झूठ के साथ इन्हें तड़का लगाने के लिए तस्वीरों की जरूरत थी और उस लड़की की तस्वीर से यह एक झूठ फैलाते हैं, जिसका नतीजा आत्महत्या में मिलता है। इसके बाद यह युवा काम छोड़ने का फैसला लेते हैं और इस पूरे झूठ से लड़ने की तैयारी करते हैं। इसके लिए वे अन्य बेरोजगारों, सताए हुए लोगों से मिलते हैं। इनके पास पहले से ही डाटा, तकनीक और मुद्दों पर एकाग्र होकर काम करने का हुनर था, उसे अपने अन्य साथियों के बीच साझा करते हैं और फिर शुरू होती हैं इनकी सत्ता के झूठ से लड़ाई।

इस लड़ाई को सिर्फ चंद चार छह युवाओं के बजाय समाज की बेचैनी में बदलने का काम हरिओम राजोरिया करेंगे। फिलहाल साथियों ने इतनी ही कहानी को तैयार किया है। आगामी दो महीने में हरिओम इस पर काम करके साझा करेंगे।

What's Your Reaction?
Excited
0
Happy
0
In Love
0
Not Sure
0
Silly
0
Scroll To Top