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इप्टा का 15 वाँ राष्ट्रीय सम्मेलन फूल खिलते रहेंगे दुनिया में : रजनीश साहिल

इप्टा का 15 वाँ राष्ट्रीय सम्मेलन फूल खिलते रहेंगे दुनिया में : रजनीश साहिल

(इप्टा का 15 वाँ राष्ट्रीय सम्मेलन हाल ही में 17 से 19 मार्च 2023 तक झारखण्ड राज्य के पलामू जिले के डालटनगंज (मेदिनीनगर) में संपन्न हुआ। इस सम्मलेन में 18 राज्यों के 275 प्रतिनिधि तथा 150 कलाकार सम्मिलित हुए थे। समूचे सम्मेलन की रिपोर्ट अगली कुछ कड़ियों में साझा करूंगी। इप्टा के सम्मेलन का एक बहुत खूबसूरत और आकर्षक हिस्सा होता है ‘सांस्कृतिक रैली’ या ‘रंगयात्रा’ का। इस रंगयात्रा के अनुभव की शानदार ‘शब्दयात्रा’ की है इप्टा के युवा साथी शायर रजनीश साहिल ने। फोटो रजनीश साहिल और रविशंकर के सौजन्य से। सबसे पहले यही प्रस्तुत है। – उषा वैरागकर आठले)

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 15वें राष्ट्रीय सम्मेलन की कई छवियां ज़ेहन में हैं। शामिल हुए सभी साथियों के ज़ेहन में होंगी। पर कोई पूछे कि इस सम्मेलन की सबसे गहरी छाप छोड़ने वाली और सुखद अहसास से भर देने वाली छवि कौन-सी है, तो मैं एक झटके में कहूंगा – “रंग-यात्रा।”

रंग-यात्रा इप्टा के हर राज्य/राष्ट्रीय सम्मेलन और बड़े आयोजनों का ज़रूरी हिस्सा रहा है। विभिन्न इकाइयों और राज्यों के कलाकार शहर की सड़कों पर अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए गुज़रें तो वह दृश्य अनुपम सांस्कृतिक सौंदर्य से भरपूर होगा ही। पिछले 27 वर्षों में मैं इप्टा की जितनी रंग-यात्राओं का साक्षी रहा हूॅं वे ऐसी ही थीं – सांस्कृतिक सौंदर्य से भरपूर अद्भुत यात्राएं। पर इस सम्मेलन की रंग-यात्रा मेरे लिए ‘अभूतपूर्व’ थी।

आख़िर ऐसा क्या था इस रंग-यात्रा में जो अलग था और जिसने मुझे सुखद अहसास से भर दिया? रंग-यात्रा की तस्वीरें गौर से देखेंगे तो इसका जवाब आपको ख़ुद-ब-ख़ुद नज़र आ जाएगा। पिछले साल झारखण्ड के डाल्टनगंज में ही संपन्न हुई इप्टा की युवा कार्यशाला की टैगलाइन थी – ‘बहुल संस्कृति का एका/Unity of diverse culture’. यूं तो हर बार ही रंग-यात्रा में विभिन्न राज्यों की संस्कृतियां एक साथ दिखाई देती हैं लेकिन इस बार की रंग-यात्रा में युवा कार्यशाला की यह टैगलाइन अपने सम्पूर्ण अर्थ में ज़मीनी हक़ीक़त नज़र आई। इस हक़ीक़त से रू-ब-रू होने के यात्रा के कुछ दृश्य देखने होंगे।

तो दृश्य यूं हैं कि आंध्र प्रदेश के कलाकारों की डफली की थाप पर झारखण्ड के कलाकार नाच रहे हैं। सड़क किनारे खड़े दर्शकों की नज़र में एक ही वेश-भूषा में नाचने वाली ये महिला कलाकार झारखण्ड की हैं लेकिन असल में तो झारखण्ड की इस हरियाली छटा में दिल्ली और छत्तीसगढ़ की साथी भी घुली-मिली हुई हैं। थोड़ी ही दूरी पर बैनर इप्टा जेएनयू का है लेकिन उसके साथ पंजाब के साथी गीत गाते दिखाई दे रहे हैं। मैं कुछ देर उनके साथ चलता हूॅं।

तस्वीरें लेने की ग़रज से आगे बढ़ गया हूॅं। यहाॅं डाल्टनगंज के बैण्ड की ताल पर बिहार के साथी भांगड़ा और केरल के साथी अपना लोकनृत्य कर रहे हैं। नज़र घुमाकर पीछे देखा तो पाया कि झारखंड के पारंपरिक नगाड़ा वादकों के बीच एक अन्य राज्य के साथी अपना खंजीरा लेकर शामिल हो गए हैं।

मैं तस्वीर क्लिक करके आगे बढ़ा तो देखता हूॅं कि दिल्ली के बैनर के साथ एक महिला चल रही हैं जो दिल्ली की नहीं हैं। उनके हाथ में थमी तख्ती पर साहिर की पंक्ति लिखी है ‘आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते।’ यह कितना हसीन ख़्वाब है जिसमें हम अपनी पहचान और जगह के ठप्पे को भूलकर सबको शामिल कर लेते हैं। बकौल दुष्यंत, “जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।” हम अपने ख़्वाब में सबके लिए गुलमोहर चाहते हैं।

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विविधता में एकता के ऐसे ही कई दृश्य थे इस रंग-यात्रा में। इससे पहले की रंग-यात्राओं में कलाकारों को अपने-अपने राज्य के बैनरों के साथ चलते और अपने दल के साथ प्रस्तुति देते देखता रहा हूॅं। दूसरे राज्य के दल के साथ शामिल होने के दृश्य भी होते थे पर वे ऐसे न थे। यहां तो हर कोई हर राज्य के बैनर तले था और हर दल में शामिल था।

एक दृश्य जो सबसे मोहक और उल्लास से भर देने वाला था वह था कि आंध्रप्रदेश के साथी डफली बजा रहे हैं जिसकी ताल पर पंजाब के साथी पंजाबी में गीत गा रहे हैं। झारखण्ड के बैण्ड का एक साथी उनके साथ संगत करने आ पहुंचा है। उसे अपने ड्रम पर ताल मिलाते देख रहा हूॅं कि तभी पीछे से कांधे पर एक हल्का धक्का पड़ा। जब तक धक्का देने वालों के चेहरे देखता तब तक वे ड्रम बजाने वाले साथी के सामने घेरा बनाकर नाचने लगे हैं। वे केरल, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखण्ड और मुंबई के साथी हैं। धीरे-धीरे वे घेरे से बाहर निकल कर बिखर गए हैं लेकिन नाचना जारी है। युवा, उम्र दराज़ सब नाच रहे हैं। मेरे हाथों में कैमरा है लेकिन मैं तस्वीर नहीं ले रहा। सांस्कृतिक एका का यह दृश्य इतना सुंदर है कि मैं तस्वीर लेना भूल गया हूॅं। बस देखे जा रहा हूॅं।

यही वह छवि है जिसने मेरे लिए इस रंग-यात्रा को अभूतपूर्व बनाया। इप्टा के रंगकर्मियों ने पिछली रंग-यात्राओं की तरह अपने-अपने राज्य की संस्कृति का प्रतिनिधित्व तो किया ही लेकिन उससे कहीं ज़्यादा देश की सांस्कृतिक एकता का प्रतिनिधित्व किया। आज जब राजनीतिक लाभ के लिए तमाम तरह के भेद दिखाकर मनुष्य को मनुष्य से दूर करने की कोशिशें चरम पर हैं, बॉलीवुड बनाम टॉलीवुड जैसी बाज़ार नियंत्रित बहसों से उत्तर और दक्षिण भारतीय संस्कृति की तकरार दिखाई जा रही है, तब ऐसी सांस्कृतिक एकता उस उम्मीद को बल देती है जहाॅं नफ़रत की तमाम ऑंधियों के बरक्स मख़दूम के शब्द गूंजते हैं- “फूल खिलते रहेंगे दुनिया में, रोज़ निकलेगी बात फूलों की।”

देश के अलग-अलग हिस्सों से आए इप्टा के संस्कृतिकर्मियों का यूॅं एक-दूसरे के साथ घुल-मिल जाना मेरे लिए ख़ूबसूरत पल तो था ही पर उससे भी ज़्यादा यह नफ़रत के इस दौर में एक पुरज़ोर वक्तव्य था। काग़ज़ पर लिखे हुए शब्दों से कहीं ज़्यादा प्रभावी, ठोस ज़मीन पर अपने पैर जमाए सड़कों पर गूंजता हुआ वक्तव्य – “हमारी संस्कृति प्रेम है, श्रम है, कला है। धर्म, भाषा, भोज जैसे तमाम फ़र्क हमारे लिए अलग होना नहीं, हमारी सांस्कृतिक विविधता है और इस विविधता के साथ एक-दूसरे का हाथ थामे हुए हम नफ़रत के ख़िलाफ़ खड़े हैं।”

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