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आई, आठले परिवार और मैं : एक

आई, आठले परिवार और मैं : एक

(आई से बिछुड़ने की छठवी बरसी पर संस्मरण की पहली कड़ी)

माँ को लेकर दुनियाभर के लोगों ने अनेक खूबसूरत कविताएँ लिखीं हैं, अनेक उद्धरण रचे हैं और माँ की ‘यूनिकनेस’ पर भावनाओं का समुंदर फैला दिया है। मेरी जन्मदात्री माँ ने अठारह वर्षों तक मेरे जीवन को जो आकार दिया, उसकी कई बातें अब मेरी स्मृति से झर चुकी हैं क्योंकि उसके बाद की ज़िंदगी के चवालिस उथल-पुथल भरे सालों की घटनाएँ ज़्यादा गहरी रेखाएँ छोड़ चुकी हैं। आज मैं बात करना चाहती हूँ अपनी ज़िंदगी के छब्बीसवें वर्ष में प्रविष्ट हुईं अपनी दूसरी ‘आई’ के बारे में।

अजय और मेरा सहजीवन तो परस्पर गुँथा हुआ था ही, जिस पर लगातार लिख ही रही हूँ। अनुकूल, संवेदनशील और ‘केयरिंग’ स्वभाव का जीवनसाथी मिलना किसी भी लड़की के जीवन की बहुत महत्वपूर्ण, खूबसूरत और सार्थक परिघटना होती है मगर उससे भी महत्वपूर्ण होता है किसी लड़की को ‘सपोर्टिव’ ससुराल मिलना। घरेलू प्यार करने वाले, बहू के पारिवारिक जीवन के अलावा अन्य रचनात्मक कामों को सपोर्ट करनेवाले, उसे अपने निजी कामों के लिए ‘स्पेस’ देने वाले लोग बहुत कम दिखाई देते हैं। अजय जैसा जीवनसाथी और अनादि जैसा बेटा मिलना मेरे जीवन का खूबसूरत हिस्सा रहा ही है, मगर उल्लेखनीय और रेखांकित किया जाने वाला हिस्सा रहा है दादा, आई, बेबीआते और पूरे आठले परिवार का सपोर्टिव होना। अपने इस हिस्से पर बात न करना अधूरापन होगा।

आई तथा परिवार के अन्य सदस्यों से परिचय और आत्मीयता के सूत्र शादी के पहले ही गूँथने लगे थे। हमारे पत्रों के कुछ उद्धरणों से पता लगता है कि पति और पत्नी दोनों अपने पार्टनर को कैसे अपने परिवार के सदस्यों से जोड़ते हैं! यह जुड़ने की प्रक्रिया बहुत सहज और आत्मीय हो तो शादी के बाद किसी परिवार में अपनेआप को (पति और पत्नी को अपने-अपने ससुराल में) एडजस्ट करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है। मैंने अजय को लिखा था,

‘‘मैंने अपनी माँ को आठ साल पहले खोया है और लगातार अकेलापन सालता रहा है इस बीच, यदि तुम्हारी आई मुझे बेटी की तरह स्वीकार करेंगी, मुझे बहुत खुशी होगी उनका प्यार पाकर।’’ अजय किसी भी बात को काफी मज़ाकिया तरीके से ही कहता था। उसने लिखा, ‘‘वैसे भी हमारी आई का ‘मदरली ट्रीटमेंट’ ही रहता है सबके साथ। पूरे मोहल्ले की आई बना रहना पसंद करती है और मोहल्लेवाले भी आई-आई कहकर बेवकूफ बनाते रहते हैं और आई बनती रहती है। छोटी बहन की शादी के बाद अभी तक कोई लड़की हमारे यहाँ नहीं होने के कारण भी आई तुम्हारे लिए बहुत उत्सुक है। तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।’’ अजय की इन पंक्तियों ने मुझे बहुत आश्वस्त किया था। इसी अंदाज़ में उसने अन्य पत्र में लिखा था, ‘‘तुम्हें अब तक सिर्फ आई के ही विषय में लिखा क्योंकि आई से ही ज़्यादा पाला पड़ेगा। वैसे और भी चार प्राणी हैं मुझे मिलाकर। पिताजी, जिन्हें हम दादा कहकर संबोधित करते हैं। प्यार से ज़्यादा डर ही लगता रहा है उनसे, बहुत कम बातें करते हैं। पहले तो हमेशा ही गंभीर रहते थे मगर अब ढलती उम्र के साथ थोड़ा परिवर्तन आ गया है। साथ बैठकर बातें कर लेते हैं। पढ़ा बहुत है उन्होंने, पर उनकी लाइब्रेरी में ज़्यादातर अंग्रेज़ी की किताबें ही हैं। इसलिए मैं ज़्यादा नहीं पढ़ पाया उनकी किताबों को। कोई विशेष किताब जब कहते हैं, तभी पढ़ता हूँ। साथ में बुआ रहती हैं, जिन्हें बेबी आते के संबोधन से जाना जाता है। बेबी सिर्फ नाम रह गया है। उम्र 50 वर्ष के आसपास है। शुरु से आई के साथ रही है इसलिए आई से बहुत पटती है। पॉलिटिक्स में एम.ए. है व स्कूल में टीचर है। शांत स्वभाव की है। तुम्हारी आवाज़ से वाकिफ है। एक बार रायपुर आकाशवाणी से तुम्हें सुना था। शायद दो साल हो गए। छोटा भाई अतुल है, अभी एलएलबी फाइनल में है। सबसे छोटा होने के कारण अभी ज़िम्मेदारी नहीं आई है।’’

कई लोग मानते हैं कि हमारा ‘लव मैरेज’ था। मगर अजय का कहना था कि ‘लव मैरेज’ तो नहीं, मगर ‘लवली अरेन्ज्ड मैरेज’ रहा है। इप्टा के वरिष्ठ साथी मुमताज भारती ‘पापा’ के माध्यम से अजय का शादी के बारे में ‘प्रपोज़ल’ आया तो मुझे एकबारगी बहुत अच्छा लगा था। मैं अन्य साथियों की तरह अजय को जानती थी, कुछ समय तक हम लिखने-पढ़ने और अपनी गतिविधियों के बारे में पत्र भी लिखते रहे थे। मगर हम शादी करने का निर्णय लेने लायक एकदूसरे को नहीं जानते थे इसलिए हमने प्रत्यक्ष मिलकर इस मामले में खुली बातचीत करना तय किया। 19 फरवरी 1986 को अजय बिलासपुर आया। हमने आपस में अपनी-अपनी पारिवारिक स्थितियों, अपनी जीवन संबंधी सामान्य अपेक्षाओं पर काफी ईमानदारी से बातचीत की। उस समय बाबा कॉलेज गए हुए थे। अजय बाबा से भी मिलना चाहता था। बाबा के लौटते ही मैंने बाबा को अजय के बारे में बताया। बाबा भी आठले परिवार के बारे में थोड़ा-बहुत जानते थे। बाबा ने भी अजय से काफी खुलकर बातचीत की और हमने अपने तईं जीवनसाथी बनने का निर्णय ले लिया। अजय ने निकलते वक्त बाबा से सिर्फ एक ही आग्रह किया कि, वे दादा को पत्र लिखेंगे।

अजय के जाने के बाद बाबा ने बहुत आराम से अजय के घर-परिवार के बारे में खोजबीन की। उसके बाद अपने बड़े भाई से सलाह-मशविरा किया। इसमें लगभग दो महीने बीत गए। इधर अजय ने घर में मेरे बारे में बता दिया था और आई-दादा बाबा के पत्र का इंतज़ार करने लगे। एक महीना बीता… दो महीने बीते, दादा ने घोषणा कर दी, ‘प्रोफेसर साहब ने तुम्हें रिजेक्ट कर दिया होगा।’ अजय की मनःस्थिति अजीब हो गई। (क्योंकि हमारे बीच नियमित पत्र-संवाद शुरु हो गया था।) उसने मुझे लिखा, ‘बाबा को कहो, जल्दी पत्र लिखें, मेरी स्थिति घर में संदेहपूर्ण हो रही है।’ मैंने बाबा से कहा। ‘हाँ हाँ, लिखते हैं।’ बाबा ने अपने धीर-गंभीर अंदाज़ में कहा। बाबा ने दादा को पत्र लिखा कि हम मई के प्रथम सप्ताह में रायगढ़ आ रहे हैं। निर्धारित रविवार के एक दिन पहले बिलासपुर में ही रहने वाली मेरी एक दूर के रिश्ते की मौसी की आकस्मिक मृत्यु हो गई, उसी दिन उनका अंतिम संस्कार होने के कारण हमारा रायगढ़ जाना टल गया। 2-3 दिन बाद हम रायगढ़ पहुँचे। अजय और अतुल स्टेशन पर आए थे। रायगढ़ में घर स्टेशन से बहुत पास है। हम पैदल ही घर पहुँचे। दादा, आई, बेबीआते इंतज़ार कर रहे थे। आई की आग्रही, उत्साही और ममताभरी आवभगत से मेरा पहला परिचय हुआ। चाय-पानी, खाना-वाना होने पर सामान्य बातचीत हुई और हम संतुष्ट महसूस करते हुए शाम की गाड़ी से बिलासपुर लौट गए।

उसके बाद बाबा ने ताऊजी (अण्णाकाका) को शादी में ‘व्यौहार’ की बातचीत करने बिलासपुर बुलाया। इस बीच मैं अनुवाद के लिए भाऊ समर्थ के चित्रकला संबंधी लेखों को लाने नागपुर गई थी और अण्णाकाका मेरे साथ बिलासपुर आ गए। हम तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार पहुँचे रायगढ़। मुझे पारम्परिक विवाहों की इस ‘बातचीत’ का काफी कटु अनुभव था। रायगढ़ पहुँचकर काका ने शादी के लिए ‘व्यौहार’ की बातचीत शुरु की। पहले अजय के साथ मैं दूसरे कमरे में बैठी थी। मगर मुझे शादी की बातचीत के प्रति निश्चिंतता नहीं थी। कई भाई-बहनों की शादी में इसी बातचीत को लेकर दोनों परिवारों में हुई अनबन की मैं साक्षी रही हूँ। मैं यह नहीं चाहती थी। साथ ही, तब तक मैं आशंकित भी थी। मैंने मानसिक तैयारी कर ली थी कि अजय के घरवालों ने अगर कोई डिमांड रखी तो मैं ऑब्जेक्शन लूँगी। अजय मेरी आशंका पर हँस रहा था, वह एकदम निश्चिंत था। वह तो बैठक में जाने के लिए बिलकुल इच्छुक नहीं था। खैर, मेरे ज़िद करने पर वह तैयार हुआ। सब बैठक के कमरे में बैठे थे। मैं और अजय भी बैठे। 10-15 मिनट में बातचीत समाप्त हो गई। मेरे ताऊजी को बहुत आश्चर्य हुआ था। वे न केवल हमारे परिवार के सबसे बड़े सदस्य थे, बल्कि सभी रिश्तेदारों में भी शादी-ब्याह की बातचीत के लिए उन्हें बुलाया जाता था। उन्होंने कहा था, ‘मेरे पूरे जीवन में मैंने लगभग डेढ़ सौ शादियाँ तय करवाई हैं। मगर इतनी संक्षिप्त और सीधी-सरल बातचीत पहली बार देखी-सुनी। बातचीत में आई ही सक्रिय थीं, दादा की मूक सहमति थी। आई ने दो-तीन मुद्दों में ही बात समाप्त कर दी थी। ‘‘हमें आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। पचास लोगों की बारात आएगी, समारोह अच्छे से कर दीजिएगा। अपनी बेटी को आप क्या गहने पहनाएंगे, मुझे बता दें, ताकि मुझे उसके लिए बनवाने में सुविधा होगी।’’ ताऊजी ने अनेक बातें पूछीं, मगर सारी बातें उसी सहजता से बता दी गईं। 25 मई 1986 को सगाई के लिए दिन तय हुआ। शादी बिलासपुर से होनी थी इसलिए सगाई रायगढ़ में बहुत सादे आयोजन के साथ घर में ही की गई। बिना किसी पंडित के सगाई की सीधी-सादी रस्मों (आई के मार्गदर्शन में) और बहुत गिनेचुने लोगों की उपस्थिति में आयोजन सम्पन्न हुआ। मेरे भाई-भाभी लखनऊ से आ गए थे। इस अनुभव ने आठले परिवार के प्रति मेरे मन में आत्मीयता और आदर भाव पैदा हुआ। सबका खुलापन, सहजता और सादगी देखकर हम सब बहुत खुश थे।

मुझे और अजय को पारम्परिक शादी के रस्मो-रिवाज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी। हमने विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे का ‘भारतीय विवाह-संस्था का इतिहास’ पढ़ा था। बाबा भी रजिस्टर्ड विवाह चाहते थे। मगर शादी की बातचीत में आई ने यही एक मांग रखी थी कि वे अपनी बहू को तमाम रस्मो-रिवाज़ और बाजेगाजे के साथ घर लाना चाहती हैं। उनकी बाकी बातों के कारण बाबा काफी अभिभूत थे इसलिए उन्होंने भी स्वीकार कर लिया। इस तरह के विवाह के लिए मानसिकता बनाने में मुझे और अजय को कई दिनों का समय लगा।

22 दिसम्बर 1986 को शादी हुई। इसका भी मज़ेदार किस्सा है। अजय आँकड़ों में अक्सर फेरफार करता था। पहले हमारी शादी की तारीख 24 दिसम्बर तय हुई थी। मगर विवाह घर जाजोदिया धर्मशाला बुक करने जब बाबा पहुँचे तो उन्हें बताया गया कि 24 की पहले से बुकिंग हो चुकी थी। 22 को धर्मशाला खाली थी। बाबा ने दादा को तुरंत फोन लगाकर तारीख बदलने के बारे में पूछा और 22 दिसंबर फाइनल हो गई। अजय की स्मृतियों में कई बार 24 दिसंबर ही चमकता था, उसे टोकने पर वह तुरंत कहता, ‘‘अरे भई, पहले तो 24 दिसंबर ही तय हुआ था न, मेरी याददाश्त में तो वही बस गया है।’’

शादी के लिए रायगढ़ से बिलासपुर आठले परिवार अपने कुछ रिश्तेदारों व मित्र-परिवार के साथ एक बस में पहुँचा था। अधिकांश परिजन सीधे बिलासपुर पहुँचे थे। अजय के भी छै-सात दोस्त थे। उनमें से मैं रविन्द्र चौबे को अच्छी तरह जानती थी। बाकी साथियों के नाम सुने थे। लगभग सभी दोस्त इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। आई ने आते ही बाबा से कह दिया था कि जब तक मैं आपसे कुछ न कहूँ, आप अन्य किसी की बातों पर ध्यान मत दीजिये। क्योंकि सभी के परिवार में भिन्न-भिन्न किस्म के लोग होते हैं, शादी-ब्याह में अनेक बातें होतीं हैं। बाबा आई की बातों के कायल हो गए थे। उसके बाद आई-दादा के विशाल हृदय की अनेक झलकियाँ हमने देखीं। हमने शादी की रस्में बहुत एन्जॉय की थीं। दरअसल जो पंडित ‘वैशंपायन गुरुजी’ थे, वे हम दोनों परिवारों के निकट परिचय के थे। अजय ने उनसे पहले ही पूछा था, ‘काका! आप शॉर्टकट में निपटा नहीं सकते क्या? उन्होंने भी बहुत सौम्यता के साथ अजय को समझाया था कि, वे आधुनिक पंडित नहीं हैं। फिर अजय में और उनमें एक समझौता हो गया कि वे अधिकांश मंत्रों और रस्मों को हमें मराठी में समझाते जाएंगे। उन्होंने वैसा किया भी। एक खुशमिजाज़ माहौल में हमारा विवाह सम्पन्न हो गया था।

हमारी शादी को लेकर काफी मज़ेदार टिप्पणियाँ भी हुई थीं। रायगढ़ के लोग कहा करते थे कि अजय जैसे लड़के के साथ एक सीधी, भोली-भाली लड़की फँस गई है और बिलासपुर के मेरे परिचित कहा करते थे कि इतनी तेज-़तर्राट लड़की के साथ एक सीधा लड़का फँस गया है। हम दोनों इस पर खूब हँसते और मज़ा लेते थे।

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शादी के बाद रायगढ़ आने पर मुझे एडजस्ट करने में बहुत कठिनाई नहीं हुई थी। अजय ने बहुत तेज़ और रीतिरिवाज़ों को न मानने वाली लड़की के रूप में आई और बेबीआते के सामने मेरी इमेज बनाई थी। उन्होंने जो कल्पना की होगी, उससे शायद मैं ज़्यादा ठीक-ठाक निकली थी। बावजूद इसके, यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि सभी ने जिस उदारता और प्यार से मुझे अपनाया, उससे मेरे जीवन का एकाकीपन दूर हो गया। घर में एक प्रकार का पढ़ने-लिखनेवाला माहौल तो था ही। बेबीआते गर्ल्स स्कूल में लेक्चरर थीं। दादा शहर के जानेमाने एडवोकेट थे। अतुल एल.एल.बी. कर रहा था। आई की औपचारिक शिक्षा आठवी तक होने के बावजूद वे अखबार और अनेक पुस्तकें-पत्रिकाएँ पढ़ती थीं। मुझे और अजय को छोड़कर अन्य सभी सामान्य धार्मिक व्यवहारों पर विश्वास करते थे, मगर घर में कोई विशेष तामझाम वाले पूजा-पाठ का प्रावधान नहीं था। सबसे बड़ी बात, सभी लोग कट्टर परम्परावादी विचारों से परे थे। आई तो घर में आने वाले हरेक प्रकार के लोगों को खूब खिलाने-पिलाने की शौकीन थीं। पहले काफी नौकर-चाकर, गायें आदि रही थीं। उस समय के काम करने वाले सहायकों के परिवारजन और बच्चे आदि आते रहते और आई-बेबीआते सबके दुख-सुख का ख्याल रखते।

आई ने मुझे कभी घर-बाहर साड़ी पहनने के लिए नहीं कहा, न ही खास पूजा-पाठ करने के लिए कहा। एक और मज़ेदार वाकया है। शादी के तुरंत बाद ही पुराने सहायकों के परिवार की औरतें ‘बहू देखने’ आई थीं। उन्होंने जब मुझे देखा कि मैं पूरे परिवार के साथ बिना दुपट्टे का सलवार कुर्ता पहने ताई लोगों के साथ मटर छीलते हुए गपशप में लगी थी, उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उनमें से एक के मुँह से निकल भी गया, ‘ये तो बहू जैसी लगती ही नहीं!’ यह बात सही थी कि अजय के घर का माहौल मेरे घर से कुछ अलग तो था, पर मुझे उसमें कहीं कोई दिखावा, या कोई बंधन या किसी प्रकार के परायेपन का भाव नहीं मिला था। हालाँकि शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि शादी से पहले मैं बाबा के साथ तीन बार रायगढ़ हो आई थी, पहली बार सिर्फ बाबा के साथ मिलने, दूसरी बार बाबा और ताऊजी के साथ शादी संबंधी बातचीत पक्की करने और तीसरी बार सगाई के लिए। अतुल कई बार बिलासपुर किसी न किसी काम से आता रहता था और उसके बाद अक्सर घर भी आ जाता था मिलने के लिए। शादी की साड़ियाँ खरीदने के लिए आई और अजय बिलासपुर आ गए थे। उस समय आई दो दिन घर में रहीं और उनसे मेरी बहुत अच्छी बातचीत होती रही। बेबी आते तो खैर, घर की तीन पीढ़ियों की ‘फैमिली फ्रैंड’ ही थीं और चूँकि वे भी खूब पढ़ने की आदी थीं, तो उनसे भी मेरी जल्दी ही छनने लगीं। कई बार हम कोई कहानी या उपन्यास या कोई लेख पढ़कर आपस में लम्बी चर्चा करते रहते। दादा को पढ़ने वाले लोग बहुत पसंद थे। उन्हें बाबा प्रोफेसर हैं और मैं पीएच.डी. के लिए थीसिस जमा कर चुकी हूँ, सुनकर ही बहुत खुशी हुई थी।

आई ने मेरे लिए कई परम्पराओं को तोडा था। शादी के बाद पाँच साल तक ‘मंगलागौर’ की पूजा करना ज़रूरी माना जाता था। मगर मेरा विश्वास नहीं है, जानकर आई ने मुझे तैयार कर लिया कि मैं सिर्फ पहले साल ही पूजा करूँ, उसके बाद वे ‘उद्यापन’ करवा देंगी। रायगढ़ के महाराष्ट्रीयन परिवारों में आई ने यह कदम पहली बार उठाया था। उसके बाद अनेक परिवारों ने सुविधाजनक मानकर इसे अपना लिया। उसी तरह ‘वट-सावित्री’ की पूजा भी मैंने सिर्फ एक साल आई के साथ की। उसके बाद उन्होंने कभी आग्रह नहीं किया। मुझे गहने पहनने का भी शौक नहीं था, इस मामले में भी आई का एक ही कहना था कि दिवाली में बस पहन लेना। आई के जीवन पर्यन्त मैंने भी उनका मान रखा।

यह बात बहुत मायने रखती है कि किसी दूसरे परिवार की एक लड़की, जो किसी परिवार में बहू बनकर आती है, उससे किसतरह का प्रारम्भिक दिनों में व्यवहार किया जाता है! मुझ जैसी मातृविहीन अकेली लड़की के लिए तो घनिष्ठ बन चुके जीवनसाथी के साथ बहुत खुले दिल का भरापूरा परिवार भी गिफ्ट में मिल गया था। अठारह वर्ष की उम्र में अपनी माँ को खोने और भाई के ग्यारहवीं के बाद से ही बाहर चले जाने के बाद बाबा के साथ मैं आठ साल अकेले ही रही थी। बाबा से मेरा संवाद बहुत सीमित था। मुझे पहले काफी डर था कि मैं अजय के परिवार में एडजस्ट हो पाऊँगी या नहीं! काफी सालों पहले मेरे मामाजी रायगढ़ में थे। उस समय मैं कोई 6-7 साल की थी। भाई और मैं, कई बार रायगढ़ आते थे और मामी जी के साथ आठले लोगों के घर भी आना-जाना होता था। उस समय अजय का संयुक्त परिवार था। उसकी दादी, चचेरी दादी, चचेरी बुआ आदि सब साथ में रहते थे। बहुत बड़े घर की रसोई में बड़ा सा चूल्हा और खाना पकाती घर की औरतें मेरे स्मृति में अटकी हुई थीं।

मैं एकदम एकल परिवार में पली-बढ़ी, आई-बाबा ने प्रायः किसी भी बात पर कभी किसी काम के लिए मनाही नहीं की थी, न ही ज़बर्दस्ती की थी। मुझे और भाई को सारी सुविधाएँ और मौके एकसमान मिलते। हम दोनों अलग-अलग निजी मिशन स्कूलों में पढ़े। भाई मेरे साथ तमाम ‘लड़कियों’ वाले खेल खेलता, रंगोली बनाता, कभी आई को रसोई में मदद भी करता, वहीं मैं भी गिल्ली-डंडा से लेकर भौंरे तक सभी खेल भाई के साथ खेलती। इससे मेरे व्यक्तित्व में उस तरह का ‘लड़कीपन’ काफी कम था। मैं अपनेआप को किशोरावस्था में टॉम बॉय जैसा मानती थी। काफी साहसी, निडर और मुँहफट भी थी। दुनिया की सभी चीज़ों में मुझे दिलचस्पी थी। मैं भाई की तरह सभी कामों में हाथ आजमाना चाहती थी, आजमाती भी थी। मेरी आई थोड़ी धार्मिक थी, मगर बाबा काफी तटस्थ थे। इसलिए बचपन में सामान्य और सार्वजनिक धार्मिक क्रियाकलाप हमने सीखे, उनमें भाग लिया, परंतु श्रद्धा-भक्ति की बजाय उसमें निहित मज़ा या सामूहिकता का भाव हमें आकृष्ट करता था। मुझे अक्सर अपनी छब्बीस साला ज़िंदगी के उन्मुक्त वातावरण के कारण आशंका बनी रहती थी कि बहू से की जाने वाली अपेक्षाओं को मैं पता नहीं कहाँ तक पूरा कर पाऊँगी!! मगर मैं कब आठले परिवार में रच-बस गई, मुझे भी पता नहीं चला। (क्रमशः)

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