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आई, आठले परिवार और मैं : दो

आई, आठले परिवार और मैं : दो

प्रसिद्ध जन-चित्रकार भाऊ समर्थ ने कहा था, ‘तुम्हारा घर जितना खुला, बड़ा और हवादार है, वैसे ही परिवारजनों के दिल भी।’ आई के खुले हाथ और उदार हृदय की झलकियाँ मुझे शादी के बाद ही मिलने लगी थीं। बिलासपुर में घर में हम दो ही प्राणी रहते थे, साथ ही रसोई में मेरी खास दिलचस्पी न होने के कारण बहुत बड़े पैमाने पर मैंने कभी कुछ नहीं बनाया था। पहली ही संक्रांति के अवसर पर मुझे चौंकने का पहला अवसर मिला। हमारे घर में गुड़ की रोटी बनाने की परम्परा रही है। यह रोटी बनाना पाकशास्त्रीय दृष्टि से कुछ विशेष कुशलता की माँग करता है। मैं और बेबीआते आई को मदद करने बैठे। गुँथे हुए आटे और भरने के तैयार गुड़ की मात्रा देखकर मैं एकबारगी सहम गई। मैंने आई से पूछा, ‘घर में तो हम पाँच लोग ही हैं, इतना ज़्यादा क्यों बना रही हैं?’ आई ने समझाया था कि घर के सभी सहायकों तथा कुछ निकटस्थ परिवारों को भी देना है। मैं लोई बनाकर गुड़ भरकर आई को दे रही थी, आई उसे बेलकर तवे पर डालती और बेबीआते घी लगाकर सेंकती जाती। हम लगभग तीन घंटे लगे रहे। दूसरे दिन देखा, घर के सदस्यों के लिए जितनी रोटियाँ थीं, उससे ज़्यादा देने के लिए बनाई गई थीं। आई को बनाने और सबको खिलाने का बहुत शौक था। तमाम पकवान बनाने में वे बहुत निपुण भी थीं। उनमें बहुत धैर्य तथा लगन थी, जिसका मुझमें एकदम ही अभाव था।

भाऊ समर्थ

पहले घर में गाय-भैंसे हुआ करती थीं, उसका असर उनके जाने के बाद भी बना रहा। घर में काफी दूध खरीदा जाता, उसकी रोज़ मलाई निकालकर जमाई जाती और आई हरेक रविवार को रसोईघर के एक कोने में गाड़े गए खूँटे में रस्सी डालकर बड़ी-सी मथनी से काफी बड़ी देगची में उस मलाई को मथकर मक्खन निकालतीं, घी पकातीं। इस प्रक्रिया में बहुत छाछ निकलता था। घर में तीन-चार छोटी डंडीवाली बरनियाँ थीं, उनमें छाछ भरकर रखा जाता और पुराने-नए सहायक और एक-दो पड़ोसी आकर ले जाते। बचाए गए छाछ की लस्सी बनाकर पी जाती। प्रायः रविवार की सुबह साथ बैठकर यह कार्यक्रम चलता था। आई की बनाई गई बरफियों और लड्डुओं के साइज़ तो काफी प्रसिद्ध थे। धीरे-धीरे मैं भी उस साँचे में ढलते चली गई मगर रसोई में इतना ज़्यादा वक्त बिताना और मेहनत करना मेरे दिल-दिमाग ने कभी नहीं स्वीकारा। हाँ, यह बात ज़रूर है कि, खाने-पीने के अनेक स्वाद और सामूहिक आनंद मुझे रास आ गया था और आई के साथ मदद करवाते-करवाते कुछ बनाना भी सीख ही गई।

दादा, आई, बेबीआते तो बाहर जाकर नहीं खाते थे, मगर हम पर कोई बंधन नहीं था। बिलासपुर में भी हम बाहर बहुत कम खाते थे। मगर अजय खाने-पीने का बहुत शौकीन रहा। सड़क किनारे ठेलों पर समान उत्साह के साथ वह मुझे ले जाता। कई बार हम तिवारी की चाट खाने के लिए जाते। उसके यहाँ की गुजिया चाट और पालक चाट हम विशेष रूप से खाते। अजय को पानीपुरी भी उतनी ही पसंद थी, जितनी भेलपुरी। कई बार गीला और सूखा मसाला मुर्रा भी वह ठोंगे में बनवाकर लाता था। घर में लगभग सभी खाने-पीने के शौकीन थे। 15 अगस्त और 26 जनवरी को बेबीआते प्रायः स्कूल में झंडा फहराने के बाद सुबह लौटते वक्त गर्मागर्म समोसा-जलेबी महावीर मिष्ठान्न भंडार से लाती थीं। हम सब डाइनिंग टेबल पर एकसाथ बैठकर खाते। हमारे यहाँ सुबह के नाश्ते की परम्परा नहीं थी। दादा और बेबीआते दस-साढ़े दस बजे खाना खाकर क्रमशः कोर्ट और स्कूल जाते थे। उसके बाद हम शेष लोग ग्यारह के आसपास एक साथ खाते। अतुल को ऑफिस जाने के लिए और जल्दी खाना पड़ता था। शाम को सबके लौटने पर चाय के साथ प्रायः घर में बनाकर रखा सूखा नाश्ता – चिवड़ा, चकली, सेव, पापड़ी, गाठिया, सलोनी, लड्डू आदि खाया जाता। दादा के रहते तक आई ने कभी बाहर जाकर कुछ नहीं खाया था।

दादा के जाने के बाद हम सब आई को सामान्य रखने के लिए कई प्रयोग करते रहते, उन्हें अपने साथ कई जगहों पर घूमने ले जाते। दादा के अचानक जाने के बाद आई बहुत ज़्यादा हिल गई थीं, घबरा गई थीं। अनादि उनका प्रिय पोता था। पैदा होने के बाद अस्पताल से ही वह उनके साथ हमेशा रहा और दोनों एकदूसरे के बिना नहीं रह पाते थे, इसलिए आई हमारे साथ चली भी जाती थीं। मुझे याद है, हम सबसे पहले आई-बेबीआते को होटल केरला में दोसा खिलाने ले गए थे। उसके बाद सभी को मज़ा आने लगा था। फिर कभी एक अण्णा के ठेले पर दोसा या इडली भी खाई जाती थी। अण्णा की लड़कियाँ बेबीआते की स्कूल में पढ़ती थीं। इसलिए वे भी हमें पूरे सम्मान और ध्यान से खिलाते थे। बाद में पाव-भाजी के ठेले भी रायगढ़ में शुरु हुए तो पाव-भाजी भी जाकर खाई जाती।

जब मैं प्रेग्नेंट थी, हम अक्सर शाम को कोतरा रोड़ पर या स्टेशन से लगे रास्ते पर टहलने जाते थे। उस समय ये दोनों सड़कें काफी कम चहलपहल भरी होती थीं। तब भी अजय सड़क के किनारे उबले आलू, मटर, मिर्च वगैरह डालकर तैयार किये गए भुने हुए फल्लीदाने खरीदता ही था। उसके लिए खूब बातचीत करने, किस्से सुनाने के साथ-साथ कुछ न कुछ खाना-पीना ज़रूरी होता था। उसे चाय, कॉफी, नींबू पानी, लस्सी आदि पीने का भी बहुत शौक था। गर्मियों में जब भी वह सर्वे करने बाहर जाता, खाने की बजाय एक बड़ा गिलास लस्सी पीकर वह तृप्त हो जाता। अनादि छोटा था, अतुल की शादी के कुछ पहले हम पुणे-मुंबई शीलाताई और भारतीताई के पास मिलने आए थे। वाशी में अजय के एक चाचा-चाची रहते थे। अजय चाची का बहुत फैन था। हम रोज़ ही कहीं न कहीं, किसी न किसी के घर मिलने जाते। गर्मी के दिन थे। अजय स्टेशन पर गाड़ी वाला ठंडा नींबू शरबत खुद भी पीता और हमें भी पिलाता। मगर तीसरे दिन बाहरी पानी पीने से उसे डायरिया हो गया। डॉक्टर से दवाइयाँ लानी पड़ीं और हम चाची से मिलने वाशी नहीं जा पाए थे।

इसीतरह का किस्सा मेरे बालों का है। मैं जब परिवार की उदारता की बात करती हूँ तो उसमें लड़कियों, खासकर बहुओं के रोज़मर्रा के जीवन में हस्तक्षेप, उनके उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने, बाहर आने-जाने की तमाम आदतों पर समूचे परिवार के हस्तक्षेप को रेखांकित करना चाहती हूँ। जब मैं अपने उम्र की अनेक बहुओं को देखती थी, तो मुझे साफ फर्क महसूस होता था। हमारे समाज में ‘बालकटी औरत’ को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता। धीरे-धीरे काफी बातें बदल रही हैं, मगर शादी के बाद अभी भी बहुसंख्य बहुओं को बाल कटवाने की आज़ादी नहीं है। मुझे इस मामले में भी सबका प्रोत्साहन ही मिला था।

अजय को जीवन के लगभग सभी पक्षों में रस था और रूचि भी। मेरी दिनचर्या और तमाम ज़रूरतों में वह जिसतरह शामिल था, उसे याद करना एक ओर तकलीफदेह भी है तो दूसरी ओर उसके प्रति गहरी कृतज्ञता भी महसूस होती है। पीएच डी करने के दौरान ही मेरे बाल झड़ने लगे थे। मेरे पिता-परिवार में गंजेपन की विरासत भी है। मैं कई सालों तक कसकर जूड़ा बाँधती रही हूँ, शायद उसका भी असर रहा हो। जब हम परस्पर नज़दीक आ रहे थे, उस समय अजय ने मेरे बालों का झड़ना महसूस किया और मुझे सलाह दी थी कि मैं अपने बाल कटवा लूँ! मुझे उसका सुझाव व्यावहारिक लगा था मगर मुझे लम्बे बालों का शौक भी था। फिर लगा कि पारम्परिक शादी के तामझाम में कटे हुए बाल अच्छे नहीं लगेंगे और हमने बात टाल दी। शादी के 2-3 महीने बाद ही अजय ने आई-बेबीआते से सलाह-मशविरा किया मेरे बाल कटवाने के मामले में। मोहल्ले में ही कोकिला दीदी का इकलौता ब्यूटी पार्लर था। अजय खुद मुझे उनके घर ले गया और हम बाल कटवाकर लौटे। आई-बेबीआते ने देखकर खुशी जाहिर की। मेरे साथ दिक्कत ये थी कि मैं ब्यूटी पार्लर जाने से कतराती थी। मुझे इसतरह अपनी साज-सँभाल में समय और पैसे खर्च करना कभी भी पसंद नहीं था। बाल तो कट गए, अब जब बढ़ेंगे, तो उसके बाद क्या? उसी बीच कोकिला दीदी शादी होकर अपने ससुराल चली गईं। अजय ने बहुत आसानी से इसका भी हल निकाल दिया। दादा की कटिंग और दाढ़ी बनाने के लिए भोला नाई प्रायः हर रविवार को आते थे। अजय ने उन्हीं को मेरे बाल काटने के लिए तैयार किया और घर में भी किसी ने विरोध नहीं किया, बल्कि भोलाभैया ही कुछ दिन झिझकते रहे। इस तरह 2-3 सालों तक मेरे बाल भोलाभैया ही काटते रहे। उसके बाद अचानक भोलाभैया के लड़कों ने अपना सलून बेचकर दूसरी जगह जाने का निर्णय लिया और भोलाभैया को भी ढलती उम्र के कारण उनके साथ जाना पड़ा।

अब फिर सवाल उठा, मेरे बाल काटने का क्या? अब अजय ने सीधे घोषणा कर दी कि मैं ही काट दिया करूँगा। वह बाजार गया और नाई-कैंची खरीदकर ही लौटा। उस दिन से जो सिलसिला चल निकला, वो सितम्बर 2020 तक चला। अजय बिना ऊबे मेरी ज़रूरत के अनुसार कटिंग-सेटिंग करता रहा। उसकी हाइट के कारण उसे कटिंग के लिए खास व्यवस्था करनी पड़ती थी। हमारे पास चार मोल्डेड प्लास्टिक की कुर्सियाँँ थीं। अजय उन्हें एकदूसरे पर चढ़ाकर मुझे बैठाता और फिर मेरे चारों ओर घूम-घूमकर कटिंग करता। अक्सर इस अवसर पर वह कुछ न कुछ शरारत करने से बाज नहीं आता था। मुझे भी उस पर झूठमूठ का नाराज़ होने में मज़ा आता था। हाँ, एक बात है कि, मुझे अपने दिखने के प्रति, हेयर स्टाइल के प्रति उसतरह का कोई पैशन नहीं था इसलिए अजय जैसे भी बाल काटता, मैं उससे संतुष्ट रहती। यहाँ तक कि, एक-दो बार मुझे किन्हीं कारणों से ब्यूटी पार्लर जाकर बाल कटवाने पड़े मगर मुझे उनसे संतुष्टि नहीं मिली और न ही अजय को मिली। पहले जो शोल्डर कट बाल कटे थे, वे धीरे-धीरे बॉय कट होते चले गए। चूँकि सिर पर बाल कम थे इसलिए अजय बहुत ध्यान से कटिंग करता था कि कहीं मेरी खोपड़ी न दिखाई देने लगे। एक बार ऐसा हुआ भी कि गलती से एक तरफ ज़्यादा बाल कट गए तो उसे बैलेंस करने के लिए उसे दूसरी ओर भी बाल कम करने पड़े। उस दिन वह बार-बार मुझे देखकर दुखी होता रहा कि यार, बाल गलत कट गए। मैं ही उसे सांत्वना देती रही कि ‘क्यों चिंता करते हो, मेरे बाल तो तेज़ी से बढ़ते हैं, चार दिनों में ठीक हो जाएंगे। एक बात और मज़ेदार थी। वह कुछ भी काम करता था, तो उसे एप्रिसिएशन ज़रूर चाहिए होता था। जब मैं खरसिया जाती थी, कटिंग के दूसरे दिन लौटते ही उसका सवाल होता, ‘कॉलेज में बालों पर कौन क्या बोला?’’ खरसिया में अर्चना शुक्ला मेरी आत्मीय सहेली थीं। वे तुरंत पकड़ लेतीं कि मेरी कटिंग हुई है और अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर देतीं। अजय सुनकर बहुत संतुष्ट और खुश हो जाता। चूँकि मुझे सजने-सँवरने में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी तो मैं कहीं बाहर जाते वक्त सिर्फ कंघी फिराकर निकल जाती। मगर यदि अजय कहीं आसपास होता, तो मुझे कंघी करते देखता रहता और अगर उसे लगा कि ठीक से कंघी नहीं हुई, तुरंत कंघी मेरे हाथ से लेकर बाल अपने तरीके से सेट करता। इस समूची प्रक्रिया में कहीं भी यह भाव नहीं होता था कि मेरी पार्टनर व्यवस्थित और खूबसूरत दिखे, बस, उसकी सौंदर्य-दृष्टि बाधित न हो। इस मामले में हम दोनों कभी पज़ेसिव नहीं रहे।

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उसे घूमने का शौक मुझसे कहीं अधिक था। मैं कुछ हद तक इस मामले में भी आलसी थी। मगर उसकी इच्छा रहती थी कि मैं हमेशा उसके साथ जाऊँ! ऐसी कोई घटना याद नहीं आती कि उसने कहा हो कि तू मत आ, मैं अकेले जाऊँगा। या फिर मुझे ले जाने में उसकी स्वतंत्रता का हनन हो जाएगा, यह भी उसे कहीं नहीं लगा। हालाँकि मैं भी हमेशा उसके साथ ही कहीं भी जाना चाहती थी। हमें साथ-साथ देखने की आदत हो गई थी लोगों को भी। कभी हम अकेले कहीं जाते तो तुरंत पूछते लोग! अजय ने कभी कहीं भी जाने से रोका नहीं मुझे। सिर्फ अनादि के 2-3 महीने का ही होने के कारण सक्सेना सर की बेटी की शादी में नहीं जा पाए थे हम। मुझे बहुत अफसोस था क्योंकि सक्सेना सर और उनके परिवार का मेरे समूचे व्यक्त्तित्व-विकास में महत्वपूर्ण योगदान था।

कारा अनादि के साथ

अनादि के जन्म के बाद मुझे कुछ कोफ्त होने लगी थी कि उसके कारण मैं काफी फँस जाती हूँ घर में और कई अन्य पसंदीदा काम नहीं कर पाती। आई-बेबीआते हमेशा ही तैयार रहते थे उसको साथ रखने के लिए, सम्हालने के लिए, मुझे ही कुछ संकोच होता। मगर बहुत जल्दी ही आई-बेबीआते के पास अनादि को छोड़कर नाटक, गोष्ठी, साक्षरता अभियान आदि में जाने लगे थे हम। उन लोगों ने भी कभी मना नहीं किया मुझे। अब जब ‘जेंडर संवेदनशीलता’ पर पढ़ती या बोलती हूँ तो अपनेआप को बहुत खुशकिस्मत मानती हूँ (हालाँकि किस्मत की अवधारणा पर ख़ास विश्वास नहीं है मुझे) कि घर में आई-बेबीआते ने बहू होने के नाते भी कभी नहीं रोका मुझे रिहर्सल में जाने से, या फिर नौकरी के लिए खरसिया अप-डाउन करने से और न ही अन्य कामों से। चूँकि हम सब महिलाएँ मिलजुलकर काम करते थे और सामान्य कामों के लिए दिन भर कारा (जो अजय के जन्म से ही काम करती थी, पहले वह रात को अपने भाई के घर सोने जाती थी, मगर बाद में वह वहीं पीछे के आँगन में बने एक कमरे में रहती थी) होती ही थी। घर के कामों का कभी ज़्यादा तनाव नहीं रहा मुझे। वरना आठले परिवार की जो प्रतिष्ठा थी रायगढ़ में, उसके तहत इस तरह की रोकटोक संभव, यहाँ तक कि पारम्परिक दृष्टि से जायज़ हो सकती थी मगर वाकई आठले परिवार का सिर्फ घर ही बड़ा नहीं था, दिल भी बहुत बड़ा था। भाऊ समर्थ की यह बात वाकई सही थी।

आई को मैं अपनी ‘दूसरी आई’ इसलिए भी मानती हूँ क्योंकि जिसतरह अपनी आई से मेरे संबंध थे, उसी तरह यहाँ आई के साथ भी बने। मैंने अपनी खोई हुई आई को उनमें पाया था। अक्सर जब भावुक होकर मैं कुछ कहती, तो आई टोक देती थीं। कहती थीं, ‘माँ हमेशा माँ ही होती है, सास कभी उसकी जगह नहीं ले सकती।’ मगर मैं इससे असहमत होती। हद की बात यह थी कि मैं जिस तरह अपनी आई की बताई या कही गई कई बातें स्वीकार न कर उससे बहुत बहस करती थी, वही बात यहाँ आई के साथ भी जारी रही। अब पलटकर इस उम्र में ‘उस समय’ को देखने के बाद महसूस होता है कि मैंने अपनी कई बहसों से आई-बेबीआते के विचारों, भावनाओं और स्थिति को भी ठेस पहुँचाई होगी, मगर मुझे जिस आत्मीयता और सद्भाव के साथ अपनाया सभी ने कि, शायद मुझमें ‘बहूपन’ की ‘मर्यादा’ उस तरह से विकसित नहीं हो पाई। जितना सोचती हूँ अब, उनके प्रति मेरे मन में गहरी कृतज्ञता ही महसूस होती है। शादी के बाद मेरे व्यक्तित्व के विकास में परिवार का बहुत बड़ा सहयोग रहा है।

मुझे जो बात सही लगती थी, उसके बारे में निर्णय मैं ले सकती थी, अजय भी प्रायः पूरा साथ देता था। हालाँकि मैं हमेशा ही कोई नई बात या विचार मन में आते ही अजय को बताकर ही चैन लेती थी और उसकी स्वीकृति या उसके द्वारा किये गये संशोधन के बाद उस पर अमल भी कर लेती थी। जब ‘इन जनरल’ सोचती हूँ कि घर में निर्णय का अधिकार किसके पास होता है, तो भीतर से कहीं आवाज़ आती है कि इस मामले में भी हमारा घर अपवाद था। हमारे घर में हम महिलाएँ अधिकांश निर्णय ले सकती हैं, लेती हैं। आज जब सोचती हूँ तो लगता है कि मेरी ज़िंदगी बहुत ही भरीपूरी और खुशियों से भरपूर रही है। ससुराल का आतंक, डर, ज़बर्दस्ती, पिसना – ये सब मेरे साथ कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि बहुत खुले माहौल में, काफी लाड़-प्यार-दुलार के साथ ससुराल में मुझे अपनाया गया। काश ऐसा माहौल सबके घर में हो ! (क्रमशः)

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