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रचनात्मक जीवन का इसी तरह विकास हो…

रचनात्मक जीवन का इसी तरह विकास हो…

पिछले साल जब मैंने अजय के साथ बिताई हुई रचनात्मक यात्रा के संस्मरण लिखना शुरु किया था, उसी समय मेरे एक छात्र बलराम ने उत्सुकताभरी माँग रखी थी कि ‘आप अनादि के बारे में भी लिखिए न!’ उसकी यह माँग मेरे दिल-दिमाग के एक कोने में बरकरार रही मगर वह कार्य रूप में परिणित नहीं हो पाई। दरअसल होता ये है कि हम जिनके साथ रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते होते हैं, उन्हें स्मृतियों में याद करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। या फिर अचानक कोई घटना घट जाए, जिसके कारण लिखने का आंतरिक दबाव महसूस हो!

22 जुलाई 2022 का दिन हमारी ज़िंदगी का इसीतरह का आकस्मिक खुशी का धक्का देने वाला दिन था। शाम साढ़े चार बजे अनादि ने फोन पर मुझे सूचना दी कि उसे ‘बॉर्डरलैंड्स’ डॉक्यूमेंट्री के लिए नॉन फिक्शनल श्रेणी में बेस्ट एडिटिंग का नेशनल अवॉर्ड मिला है। मुझे एक-दो मिनट लगे इस खबर को जज़्ब करने में। उसके बाद लगा कि अचानक खुशियों की बारिश ने भिगा दिया है मुझे! आँखों से आँसू झरने लगे। काश, अजय के सामने यह खबर आती! उसकी खुशियों का ठिकाना नहीं होता…! बहरहाल नेशनल अवार्ड की खबर से हमारे पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गयी।

उसके बाद किसी पल में मन में कौंध उठे अनादि के जन्म से पहले हमारे अहसास से लेकर उसके चौंतीस साल के जीवन के हमारे साथ गूँथे हुए लाखों करोड़ों पल…। अजय और मैंने जीवनसाथी बनने का निर्णय लेने के बाद वैचारिकता, भावनात्मकता और व्यावहारिकता के धरातल पर अपने आगत भविष्य की एक स्थूल परिकल्पना का खाका तैयार करने के लिए परस्पर भरपूर संवाद किया था। अपने व्यक्तित्वों के विकास के साथ ही घर-परिवार, अध्ययन-लेखन, सांगठनिक कामों पर हम लगातार बातचीत करते रहते। इसी सिलसिले में हमने अपनी भावी संतान के बारे में भी एकदूसरे की अपेक्षाओं और सपनों को जाना था और हममें मोटे तौर पर लालन-पालन के बारे में भी एक सहमति बन गई थी। अजय ने एक पत्र में अपना मत प्रकट करते हुए लिखा था, ‘‘बच्चों के ब्रिंगिंग अप के विषय में मैं हमेशा सोचता हूँ कि उनका विकास स्वाभाविक ढंग से हो। हम अपनी आशा-आकांक्षाएँ उन पर लादने का कभी प्रयास नहीं करेंगे। वैसे भी मेरी ये आकांक्षा अभी तक तो नहीं है कि मेरा बच्चा बड़ा होकर इंजीनियर या डॉक्टर बने। एक बेहतर इंसान बने, यही चाहता हूँ। और हाँ, हम लोगों ने अपने पालकों में जिस बात की कमी महसूस की होगी, उसे अपने बच्चों को महसूस नहीं होने देंगे। खासकर संवादहीनता की स्थिति। हम जनरेशन गैप नहीं होने देंगे। हालाँकि यह एक असंभव चीज़ है। गैप तो होगा ही, लेकिन उसे कम करने की कोशिश ज़रूर करेंगे।’’

जब अनादि के आने की आहट हमें मिली, उस दौरान भी हम कई भावनात्मक आयामों से गुज़रे। मैं तो कविताएँ लिखती ही थी, मगर अजय ने पहली बार और अपनी एकमात्र कविता लिखी,

ओ हमारे अनचीन्हे आगन्तुक!
मन भी
कितना पागल होता है
हम अपनी
किसी इन्द्रिय से
तुम्हारे अस्तित्व को
महसूसने में
असमर्थ हैं अभी…
तुम्हारे आगमन की तिथि भी
तो
निश्चित नहीं है अभी
फिर भी
तुमने हमारे सपनों के
कितने बड़े हिस्से को
चुरा लिया है!
कि,
तुम ही तुम
नज़र आने लगे हो
और हमने भी तो
तुम्हारे भविष्य को लेकर
सपने बुनने
शुरु कर दिये हैं!!

मैं भी अपने उन नूतन अहसासों को शब्दों में गूँथती रहती थी। मैंने दो कविताएँ लिखी थीं।

एक

बार बार दस्तकें देता
अपनी उपस्थिति का अहसास कराता
कुलबुलाता रहता है दिन-रात
वह
हमारा अजन्मा नन्हा जीव
मेरे भीतर…

उसकी हर आहट में
कुछ तुम
और कुछ मैं
नए सिरे से फिर
उगने लगते हैं,
उसमें
क्या तुम्हारा है,
क्या मेरा
और क्या बिल्कुल उसका अपना
हम ढूँढ़ते रहेंगे
उसके पैदा होने पर…

हम दोनों
उसके माँ-पिता होने के साथ
फिर जियेंगे
अपना बचपन
एक नई खुशबू के साथ!!

दूसरी कविता थी,

महीनों से पल-बढ़ रहा है
वह मेरे भीतर
नन्हें से अंकुर से
कोंपलों, शाखाओं, पत्तों में तब्दील होता हुआ
अपने हर परिवर्तन से
मुझे मधुर पीड़ा से भरता हुआ
आने ही वाला है बस
कुछ दिनों में –
इस रंगभरी धरती पर
खुली हवा में साँस लेने के लिए।

अब तक मेरी रगों से
ऊर्जा पाने वाला वह
स्वतंत्र अस्तित्व बन जाएगा
धूप, हवा, फूल और लोग
उसकी दुनिया में बसने लगेंगे
अभी मेरे भीतर
हिलने-डुलने वाले उस नन्हें की दुनिया
कितनी कितनी फैल जाएगी तब
वह आँखों में विस्मय भरकर

जज़्ब कर लेगा हरेक चीज़
और मुस्कुराता रहेगा
अपनी नन्हीं हथेलियों को फैलाकर…

किसी कविता की तरह एक जीतेजागते जीव को इसतरह नौ महीने अपने भीतर महसूसते हुए जन्म देना और फिर उसे पल-दिन-महीनों-सालों नए नए रूपाकारों में विकसित होते देखना, किसी भी माँ-पिता के लिए काफी अनूठा अनुभव होता है। हमारे लिए भी था। न केवल हम दोनों, बल्कि उसे दादा-दादी, बेबीआते (अनादि की बुआ-दादी), चाचा-चाची और चचेरे भाई-बहन की भरीपूरी दुनिया मिली। घर में कारा जैसी दादीनुमा सहायिका थी, अनादि सबके बीच खेलता-कूदता हुआ बढ़ने लगा। अनादि को सब प्यार से ‘चिंगू’ कहते हैं। उसे अपने दादा जी का प्यार महज़ आठ महीने ही मिल पाया। चार-पाँच महीने के चिंगू की बाल-लीलाएँ देखने में पूरा घर-परिवार मगन रहता था। उन्हीं दिनों मैंने उसके लिए यह कविता लिखी थी,

दुनिया के सुंदर और
विस्मयकारी दृश्य
उभरते हैं नन्हें की आँखों में
चमकती हैं उसकी आँखें
मुस्कुराते हैं होंठ
नन्हीं-नन्हीं हथेलियाँ
और छोटे-छोटे पाँव
तेज़ी से चलने लगते हैं
मानो साइकिल चला रहे हों!

नन्हें की दुनिया में
घूमता हुआ पंखा
रोशनी फेंकता बल्ब
और खुला नीला आसमान
सबसे प्यारी चीज़ें हैं
नन्हा इन्हें अपनी आँखों में
बसा लेता है
मुट्ठी में छुपा लेता है
और
हँसता रहता है बार बार
पोपली हँसी
भरता है किलकारियाँ
खुशी और विस्मय के साथ!!!

अनादि के जन्म की कहानी में भी एक रोचक वाकया शाया है। रायगढ़ में किसी घटना के तहत पुलिस की भारी गोलीबारी के कारण दो लोगों की मौत हो गई थी। जनाक्रोश भड़क उठा था। परिणामस्वरूप शहर में कर्फ्यू घोषित हो गया था। बच्चे के जन्म का समय नज़दीक होने के कारण हम सब परेशान हो उठे थे। अजय ने कर्फ्यू पास का इंतज़ाम कर लिया था। समय होते ही मुझे अस्पताल में भरती किया गया और अनादि का सुरक्षित जन्म हुआ 25 दिसम्बर 1987 को। बाद में मुझे पता चला कि अनादि के जन्म के बीस मिनट पहले ही कर्फ्यू उठाया गया था। हँसी-मज़ाक चलने लगा कि अजय-उषा का बच्चा बहुत ही अनुशासनप्रिय है, कर्फ्यू हटने के बाद ही उसने दुनिया में प्रवेश किया!

अनादि का बचपन काफी लाड़-प्यार में बीतने के बावजूद उसे मेरी कठोर अनुशासनप्रियता का शिकार अक्सर होना पड़ता था। वह इससे कभी कभी कुछ आतंकित भी हो जाया करता था। उम्र के दसेक साल तक रात में उसका बिस्तर गीला हो जाता था। जब शिशुरोग विशेषज्ञ डॉ. एम.एम.श्रीवास्तव ने काउंसलिंग की, तब पहली बार मुझे पता चला कि मेरे अत्यधिक कठोर अनुशासन से वह डरता था। इस कटु सत्य को जानने के बाद मैं बुरीतरह दहल गई थी। मुझे लगा कि इतने अध्ययन-मनन के बाद भी चाइल्ड साइकोलॉजी के मामले में मैं कितनी अज्ञानी थी! अजय की मदद से मैंने अपने व्यवहार में परिवर्तन लाया। अनुशासनप्रियता के नकारात्मक परिणाम तो स्पष्ट थे, मगर मुझे नहीं पता कि अनादि के जीवन में उस कठोर अनुशासन का क्या कोई सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा!

अनादि 25 दिसम्बर को कड़कड़ाती ठंड में पैदा हुआ था। दो-तीन दिन बाद ही उसमें पीलिया के हल्के लक्षण दिखाई दिये और डॉक्टर की सलाह पर मैं उसे लेकर कुछ घंटे धूप में बैठने लगी, जिससे वह जल्दी ही ठीक हो गया। कुछ बड़े होने पर उसे अक्सर सर्दी-जु़काम हो जाता था। खासकर अंगूर या आइस्क्रीम खाने पर। उसके डॉक्टर ने कुछ दिनों की जाँच के बाद उसका कारण प्राइमरी कॉम्प्लेक्स बताया। हम सब परेशान! यह दमे की प्राथमिक अवस्था थी। हालाँकि नियमित दवा से जल्दी ही वह ठीक हो गया। वह मात्र आठ महीने का था, तभी उसके दादाजी ब्रेन हैमरेज से चार दिन अस्पताल रहने के दौरान चल बसे। अनादि के जन्म के बाद मैं दस दिन अस्पताल में थी। उसी दौरान दादा अपने स्वभाव के विपरीत उसे देखने की उत्सुकता के कारण अस्पताल आ पहुँचे थे। हम सब इस घटना को याद कर काफी मज़ा लिया करते थे। उन्हें खुद मच्छरदानी में सोना खास पसंद नहीं था। जब अनादि अपनी फोल्डिंग मच्छरदानी में सबके बीच सोया करता था, उसके थोड़ा सा कुनमुनाने पर भी वे तत्काल उसकी मच्छरदानी हटाकर उससे बात करने लगते।

एक बार की बात है। अनादि तब पाँच-छै महीने का था। मुझे एक इंटरव्यू देने बिलासपुर जाना था। अजय भी मेरे साथ था। हम सुबह की ट्रेन से जाकर रात की ट्रेन से वापस लौटने वाले थे। आई के पास अनादि को रहने-सोने की आदत थी। वह रात को आराम से सोता था। बस, रात में उसे एक बार बोतल से दूध पिलाना होता था। इस दौरान हम उससे कोई बात नहीं करते थे। अगर उससे बात की गई तो फिर वह सोने के बजाय खेलने के मूड में आ जाता और हमारी नींद चौपट हो जाती। आई यह बात जानती थीं। गर्मियाँ थीं। आँगन में सभी खाटों पर सोते थे। हमारी ट्रेन लेट हो गई। अनादि बीच रात दूध के लिए कुनमुनाया। आई ने उसके मुँह में दूध की बोतल लगाई। दादा की नींद खुल गई थी। उसे दूध पीता देखकर वे कुछ कहने ही वाले थे कि आई ने चुप रहने का इशारा किया मगर दादा समझ नहीं पाए और उन्होंने उससे बात शुरु कर दी। बस, फिर क्या था, महाशय आँखें खोलकर दादा को देखकर किलकारियाँ भरने लगे। दादा ने उसे अपने कंधे से लगाया और आँगन में टहलते हुए उससे बात करने लगे। वह भी हुँकारे भरता रहा। कुछ देर के बाद दादा थक गए। उन्होंने आई के पास उसको लिटा दिया। अब अनादि तो खेलने के फुल मूड में आ गया था। आई दादा पर बहुत बरसीं कि जब कहा था, चुप रहो तो माने नहीं। हम सुबह चार बजे पहुँचे तब तक बेचारी आई उसको सुलाने की जी-जान से कोशिश करती रहीं।

8 सितम्बर 1987 को दादा हमें छोड़ गए। उनकी अचानक मृत्यु ने आई को बुरीतरह हिला दिया था। घर के प्रमुख कमाने वाले मुखिया की छत्रछाया अचानक छिन गई थी। ऐसे समय में अनादि आई-बेबीआते का दिल-बहलाव का साधन बन गया था। उन्हीं दिनों मैं भी नौकरी के अलावा अपनी साहित्यिक और रंगमंचीय गतिविधियाँ शुरु कर चुकी थी। अनादि को हम प्रायः आई के पास ही छोड़ जाते थे। अनादि के चार साल के होते होते अतुल की शादी हो गई और अर्चना (जो उस समय की प्रसिद्ध टीवी अभिनेत्री अर्चना जोगलेकर जैसी दिखती थी) अनादि की अतिप्रिय काकू बन गई। वह तब तक एक छोटी स्कूल में के जी में जाने लगा था। उसे स्कूल अच्छा लगता था। वह सिर्फ पहले दिन रोया, मगर बाद में उसके स्कूल में अनेक दोस्त बन गए।

उसके बाद पहली कक्षा से उसका प्रवेश कार्मेल स्कूल में करवाया गया। चूँकि उसका जन्म दिसम्बर का है, उसे छैः महीने देर से प्रवेश मिला। तीन साल तक उसका ठीकठाक चलता रहा, मगर चौथी कक्षा में आते ही हमने देखा कि अचानक वह स्कूल जाने से कतराने लगा। हमने पता किया तो कारण समझ में आया कि उसकी क्लास टीचर केरल निवासी कम उम्र की थी, जिन्हें हिंदी लगभग नहीं आती थी और उनके अंग्रेज़ी के उच्चारण बच्चों की समझ में नहीं आते थे। बच्चे शोर मचाते तो वह बुरीतरह नाराज़ हो जाती। हमारे पड़ोस में ही उस समय उसके स्कूल की चावडा मैडम रहती थीं। हमने उन्हें सम्पर्क किया। वे चूँकि उसकी तीसरी की क्लास टीचर रह चुकी थीं तो उन्होंने सलाह दी कि हम अनादि को उनके पास पढ़ने के लिए भेजें। उनके पास जाने से अनादि काफी सम्हल गया और फिर दोबारा उसे कोई दिक्कत नहीं हुई।

अनादि बचपन से ही हमारे साथ इप्टा की रिहर्सल्स और कार्यक्रमों में जाता था। इप्टा के साथियों का घर में आना-जाना लगा ही रहता था इसलिए इप्टा के सभी साथी उसके लिए पारिवारिक सदस्य जैसे थे। वह किसी को भैय्या कहता, किसी को चाचा, किसी को दीदी तो किसी को बुआ और मौसी ! बड़ी कक्षाओं में जाने तक वह भी नाटकों में भाग लेता। ‘अंधेर नगरी’, हारमोनियम के एवज़ में’, ‘गगन घटा घहरानी’ में उसने अभिनय किया मगर आगे चलकर उसकी रुचि अभिनय में नहीं रही।

वह पाँचवीं में पढ़ ही रहा था कि रायगढ़ में शुरु हुए बड़े औद्योगिक घराने जिंदल स्ट्रिप्स लिमिटेड ने अपनी स्कूल शुरु कर दी। चूँकि अजय का इंश्योरेन्स के काम से जिंदल आना-जाना होता था, वहाँ से आग्रह हुआ कि अनादि को उस स्कूल में भेजा जाए। तब स्कूल फैक्टरी के कैम्पस में ही लगती थी। अपने आरम्भिक दिनों में जिंदल में प्रदूषण अपने चरम पर हुआ करता था। अतः काफी पसोपेश के बाद हमने कार्मेल के आइसीएसई बोर्ड के कोर्स के बजाय जिंदल के सीबीएसई बोर्ड के कोर्स में भेजना उचित समझा। वहाँ प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित थी। अजय ने अनादि को पहले ही साफ कह दिया था कि उसे प्रवेश परीक्षा अपने बूते पर ही पास करनी होगी। अपनी पहचान के बल पर वह उसका प्रवेश नहीं करवाएगा। अनादि का आसानी से प्रवेश हो गया।

अनादि छठवीं में पहुँचा ही था कि अजय ने अपने व्यवसाय के लिए पहला डेस्कटॉप कम्प्यूटर खरीदा। अनादि भी उसे आजमाने के लिए बहुत उत्सुक था। उसकी गहरी रूचि देखते हुए हमने उसे एक कम्प्यूटर क्लास में भेजना शुरु किया। उसे भी अजय की तरह नए नए गैजेट्स के प्रति आकर्षण था। शायद वह सातवी-आठवी में रहा होगा, हम उसकी शिकायत के मद्देनज़र पचमढ़ी घूमने गए थे (हम भारंगम में ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ के मंचन के लिए दिल्ली गए थे, उसे दिल्ली घूमने के लिए सुगीता और टीम के साथ भेज दिया था। हम दूसरे कामों में लगे रहे थे। लौटते वक्त उसने ट्रेन में पूरी टीम के बीच शिकायत की कि उसके मम्मी-पापा उसे कहीं घुमाने नहीं ले जाते। टीम के सभी साथियों ने हम पर दबाव डाला कि चिंगू की माँग जायज़ है। हमें भी महसूस हुआ कि हम वाकई अपना समूचा वक्त अपने व्यवसाय और इप्टा को ही देते हैं)। संयोग यह हुआ कि उसी बीच अजय के एक मित्र ने नया वीडियो कैमरा खरीदा था, वे उसकी टेस्टिंग चाहते थे। उन्होंने अजय को दे दिया कि तुम पचमढ़ी ले जाओ और वहाँ इससे शूट कर मुझे रिज़ल्ट दिखाओ। अनादि की कैमरे के प्रति उत्सुकता देखकर अजय ने उसे भी कैमरे के फीचर्स सिखा दिए। वहाँ अजय से ज़्यादा अनादि ने ही शूटिंग की। मैं डरती रही कि दूसरों का कैमरा है, कहीं बच्चे ने गिरा दिया या कुछ गड़बड़ी होगी तो परेशानी होगी। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पचमढ़ी से लौटने पर कुछ ही दिनों में अचानक अनादि ने हमें कम्प्यूटर पर पचमढ़ी-दर्शन का वीडियो दिखाया। उसने खुद कमेन्ट्री रिकॉर्ड कर एक ‘ट्रेवलॉग’ जैसा बना दिया था।

अजय ने भी उसी वर्ष वीडियो कैमरा खरीद लिया और अपनेआप को माँजने के लिए और अपने व्यवसाय के अतिरिक्त अपने इस शौक से कुछ आय होने की चाह में अनेक कार्यक्रमों के और परियोजनाओं के वीडियो बनाने शुरु किये। उन्हें एडिट करना शुरु किया। अनादि नववीं में था, उस समय एक एनजीओ की वाटरशेड परियोजना के कामों की वीडियो रिपोर्ट बनाने का जिम्मा दिया। अनादि का उत्साह और सीखने की धुन देखकर अजय उसकी छुट्टी के दिन उसे भी अपने साथ ले जाता था। अनादि ने इसी तरह के कुछ वीडियो क्लिप्स को लेकर ‘रहिमन पानी राखिए’ शीर्षक की छोटी डॉक्यूमेंट्री बनाई। उन्हीं दिनों सीएमएस वातावरण नामक एक फिल्म फेस्टिवल के बारे में इंटरनेट से पता चलने पर अजय ने बच्चों की श्रेणी में अनादि की यह फिल्म प्रतियोगिता के लिए भेज दी। यह अनादि की पहली फिल्म थी, जिसकी किसी फेस्टिवल में स्क्रीनिंग हुई थी।

उसके बाद जिंदल स्कूल के माहौल में नए नए विषयों को जानते-समझते हुए अचानक एक दिन अनादि ने घोषणा की कि, उसे रोबोटिक्स में आगे की पढ़ाई करनी है। तब तक हमारी जानकारी के अनुसार भारत में कहीं रोबोटिक्स में डिग्री कोर्स नहीं था। हालाँकि अनादि की गणित में उस तरह की रूचि नहीं थी इसलिए उसका यह सपना तो विलीन हो गया। उसके बाद भी अजय के साथ वह कई बार शूटिंग में जाता और वीडियो भी बनाता रहा। फिर उसने सिनेमेटोग्राफर बनने की इच्छा जाहिर की। हमने उसे प्रोत्साहन दिया।

2004 में अचानक पुणे फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान के एडिटर संकल्प मेश्राम रायगढ़ के पास भेलवाटिकरा गाँव में बच्चों की फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ शूट करने आए। उन्हें रायपुर के रंगकर्मी अनिल काळेले से इप्टा रायगढ़ के बारे में पता चला। साथ ही उन्हें यह भी पता चला कि इप्टा प्रति वर्ष बच्चों का वर्कशॉप भी लेती है और हमारे पास कई बच्चे हैं। संयोग यह हुआ कि जिस दिन वे रायगढ़ हमारे घर आए, उस दिन हमारा रायपुर में ‘बकासुर’ का शो था। अनादि कम्प्यूटर पर किसी वीडियो की एडिटिंग कर रहा था। जब संकल्प जी ने एक बच्चे को एडिटिंग करते देखा तो उन्हें बहुत उत्सुकता हुई। उन्होंने काफी देर अनादि से बातचीत की। उन्हें बच्चे का इस तरह काम करना काफी प्रभावित कर गया। खैर, उसके बाद तो ‘छुटकन की महाभारत’ में रायगढ़ इप्टा के कई बड़े-छोटे कलाकारों ने अभिनय किया। अजय तो महीने भर की शूटिंग में रोज़ ही जाता था। उसका कुछ बड़ा रोल भी था और वह फिल्म-निर्माण को नज़दीक से देख-समझ-सीख भी रहा था। अनादि भी अकसर स्कूल की छुट्टी के दिन चला जाता। उसी समय हमने संकल्प जी से एफटीआईआई के प्रवेश एवं कोर्सेस के बारे में पता किया। वहाँ सिर्फ पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स ही थे।

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यह तो तय हो चुका था कि अनादि को एफटीआईआई पुणे ही भेजना है मगर अब समस्या थी कि बारहवीं के बाद उसे किस डिग्री कोर्स के लिए भेजा जाए! हमने काफी रिसर्च की और अनादि की रूचि के अनुकूल डिज़ाइनिंग या कम्प्यूटर के कोर्स में ग्रेजुएशन के लिए भेजने की तैयारी शुरु की। अनादि ने बारहवीं में रहते रहते एनआईडी अहमदाबाद की प्रवेश परीक्षा दी मगर उसमें उसे सफलता नहीं मिली। उसके उल्हास मामा उस समय दिल्ली में एक इंस्टीट्यूट चलाते थे। अनादि को हमने उनके पास भेज दिया। उनकी बेटी श्रुति भी बारहवी में ही थी। वहाँ अनादि ने छुट्टियों में कम्प्यूटर का एडवांस कोर्स भी किया और मामा-मामी के मार्गदर्शन में अनेक प्रवेश-परीक्षाएँ भी दीं। दिल्ली के दो-तीन महीनों के निवास में उसे काफी एक्सपोज़र मिला तथा उसके आत्मविश्वास में भी बढ़ोतरी हुई।

रायगढ़ लौटने के बाद उसे प्रमुख दो स्थानों का सिलेक्शन लेटर मिला – पहला, मणिपाल यूनिवर्सिटी का जर्नलिज़्म एण्ड मास कम्युनिकेशन के डिग्री कोर्स तथा सिम्बियॉसिस पुणे में डिज़ाइनिंग का। हम और अनादि भी पसोपेश में थे कि कहाँ एडमिशन लें! हमने फिर उल्हास दादा से सलाह ली। उसने प्लेसमेंट की दृष्टि से मणिपाल को बेहतर बताया। पहले अनादि को कुछ टैबू था कि वहाँ बीए की डिग्री मिलेगी मगर बाद में उसने मणिपाल यूनिवर्सिटी की वेबसाइट खंगाली और मास कॉम स्कूल की जानकारी से वह बहुत प्रभावित हुआ। उसकी ओर से हरी झंडी मिलते ही अजय ने ऑनलाइन उसकी फीस जमा की। शेष डॉक्यूमेंट्स लेकर अभिभावकों के साथ बुलाया गया था। हम मणिपाल गए, सभी औपचारिकताएँ पूरी कर, सब कुछ देखभालकर लौटे। अगस्त में अनादि मणिपाल चला गया।

पहली बार घर से इतनी दूर भेजने पर उसकी दादियों सहित हम भी काफी चिंतित थे। वे बहुत भावुक हो गए थे। मणिपाल में अनादि को प्रवेश के समय मेरिट स्कॉलरशिप मिली, जिसमें उसकी पूरी फीस लौटा दी गई। बेहद रचनात्मक माहौल मिला अनादि को मणिपाल में। विद्वान पत्रकारों-फिल्मकारों-कलाकारों को देखने-सुनने का मौका मिला।

उसके इस कोर्स में जाने के पहले की एक गतिविधि का ज़िक्र भी ज़रूरी है। वह जब ग्यारहवीं-बारहवीं में था, जे के रोलिंग्स के मशहूर रोचक उपन्यासों की सीरिज़ हैरी पॉटर अपने लोकप्रियता के चरम पर थी। अनादि के दोस्तों में भी उसका क्रेज़ था। उसने और उसके दोस्तों ने मिलकर एक अखबार ‘हॉगवर्ड टाइम्स’ का प्रकाशन शुरु किया था। सामग्री सभी दोस्त मिलकर जुटाते, अनादि अपने कम्प्यूटर पर पेज सेटिंग से लेकर डिज़ाइनिंग और प्रिंटिंग तक करता था। हमें उनके इस किशोर जुनून पर हँसी भी आती, मगर उनकी रचनात्मकता और काल्पनिक उड़ान की क्षमता को देखकर हम खुश भी होते।

मणिपाल में अनादि ने न केवल प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बारीकियों को सीखा, बल्कि उनका दैनिक जीवन में उपयोग भी किया। उसने इप्टा रायगढ़ के प्रति वर्ष होने वाले नाट्योत्सव में पोस्टर, ब्रोशर, फ्लैक्स डिज़ाइनिंग कर आर्थिक बोझ हल्का होने में मदद की, बल्कि हमारी वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ के कवर पेज और अंदर की डिज़ाइनिंग का जिम्मा भी सम्हाल लिया। बाद में मेरी कुछ किताबों और रिसर्च रिपोर्टों की डिज़ाइनिंग भी उसने की। एफटीआईआई में आने के बाद इप्टा रायगढ़ द्वारा शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान जिस भी रंगकर्मी को दिया जाता, उसके व्यक्तित्व-कृतित्व पर अनादि 7-8 मिनट की फिल्म बनाकर प्रदर्शित करता।इप्टा लखनऊ के वरिष्ठ रंगकर्मी जुगलकिशोर से यह सिलसिला शुरु हुआ, जो सीमा बिस्वास, रघुबीर यादव, बंसी कौल, सीताराम सिंह, मिर्ज़ा मसूद तथा पूनम विराट तक चला। जब अजय की स्मृति में उसे अपने पिता पर इसीतरह की फिल्म बनानी पड़ी, तब उस पर क्या बीती होगी, सोचकर मैं काँप जाती हूँ।

मास कॉम के अंतिम वर्ष में उसने संकल्प मेश्राम के साथ इंटर्नशिप की। इस दौरान संकल्प मेश्राम के मार्गदर्शन में उसने बहुत कुछ सीखा। तब तक उसने एडिटिंग में आगे बढ़ने का निश्चय कर लिया था। डिग्री कोर्स होने के बाद दुर्भाग्यवश एफटीआईआई में नई बैच के प्रवेश पर बैन लगा और ज़ीरो ईयर घोषित हुआ। इस ज़ीरो ईयर के कुछ महीने तो अनादि ने रायगढ़ में एफटीआईआई की प्रवेश-परीक्षा की तैयारी करते लगातार फिल्में देखीं और तत्संबंधी अध्ययन किया। मगर पूरा साल भर बिताना उसे मुश्किल लगने लगा, तब हमने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि वह मुंबई जाकर संकल्प जी को असिस्ट करे! अजय ने संकल्प से बात की, उन्होंने भी बहुत उदारता के साथ इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया।

संकल्प मेश्राम

अनादि की बुआ माहिम में रहती थीं। अनादि उनके घर में रहते हुए रोज़ मलाड जाकर काम करते हुए सीखने लगा। संकल्प मेश्राम के साथ-साथ उनके पास आने वाले अनेक अनुभवी और जानकार लोगों से उन दिनों में अनादि को भरपूर सीखने का अवसर मिला। साथ ही उसे प्रवेश परीक्षा और इंटरव्यू के लिए बहुत-सी टीप्स भी बातों-बातों में मिल जाती थीं। उसकी अपनी मेहनत, ग्रहणशीलता के अलावा इस माहौल ने भी एफटीआईआई में उसके प्रवेश का रास्ता संभव बनाया।

एफटीआईआई के पहले वर्ष में ही उसने मूक लघु फिल्म ‘ख्वाब’ बनाई, जो गुलज़ार की एक नज़्म की दो पंक्तियों पर आधारित थी। इसकी पटकथा मणिपाल के सीनियर सम्वर्थ साहिल ने लिखी थी।

शार्ट फिल्म ‘ख्वाब’

इस फिल्म को इटली में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित किया गया। अनादि का वह प्रथम विदेश प्रवास था। ‘ख्वाब’ की स्क्रीनिंग अटलांटा और नेपाल के फिल्म फेस्टिवल में भी हुई थी। द्वितीय वर्ष में उसने रायगढ़ के ही कलाकारों और संसाधनों को लेकर ‘जून एक’ का निर्देशन किया। इसमें उसके जिंदल स्कूल के दोस्त, एफटीआईआई के दोस्त, इप्टा रायगढ़ के साथी तथा रायगढ़ के परिचितों ने उदारता से सहयोग दिया। एफटीआईआई के तीसरे वर्ष में उसके तीन बैचमेट्स – करमा टकापा, हीर गंजवाला तथा अभिषेक वर्मा के संयुक्त निर्देशन में, सोनू के कैमरे तथा इप्टा रायगढ़ के कलाकारों के साथ मिलकर छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘मोर मन के भरम’ रायगढ़ में ही शूट की। इसे मामी फिल्म फेस्टिवल 2015 में स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड मिला तथा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में इसकी स्क्रीनिंग हुई। इसकी स्क्रीनिंग में रायगढ़ इप्टा के कलाकार अजय सहित टिंकू देवांगन, अपर्णा, युवराजसिंह आज़ाद, भरत निषाद, श्याम देवकर, लोकेश्वर निषाद आदि मुंबई आकर शरीक हुए थे।

2015 में अनादि एफटीआईआई का प्रशिक्षण पूरा कर मुंबई शिफ्ट हुआ। एडिट की हुई उसकी डिप्लोमा फिल्म थी मनोज के निर्देशन में ‘सीक एण्ड हाइड’, जिसे ज्यूरी स्पेशल मेंशन नेशनल अवॉर्ड मिला था। मुंबई आने से पहले और बाद में उसने अनेक भाषाओं की फिल्में एडिट कीं – 2011 में ‘ज़ीरो बाय ज़ीरो’, ‘ख्वाब’, 2012 में ‘मुखबिर’, 2014 में ‘सीक एण्ड हाइड’, 2015 में ‘दारवठा’, ‘काजवा : ए मिलियन लैंटर्न्स’, ‘मोर मन के भरम’, 2017 में ‘रालंग रोड’, ‘कैंडीफ्लिप’, ‘द अनरिज़र्व्ड’, ‘डीटूर’, 2018 में ‘वी द पीपल, ‘हिस्ट्री टीवी18 प्रेज़ेन्ट्स ओएमजी! ओडिशा’, 2020 में ‘कनेक्टेड’, 2021 में ‘बॉर्डरलैंड्स’, 2022 में ‘ग़ैर’। इसके अलावा अभी निकट भविष्य में कुछ वेब सीरिज़ में भी अनादि एसोशियेट एडिटर के रूप में दिखाई देगा।

2018 में पीयूष ठाकुर के निर्देशन में एक लघु फिल्म रायगढ़ में बनी है। करमा टकापा के निर्देशन में भी एक फिल्म बनी। इन दोनों फिल्मों की जल्दी ही स्क्रीनिंग होगी। दोनों फिल्मों में रायगढ़ इप्टा के कलाकारों के साथ क्रू भी शामिल है।

कैमेरा एण्ड शॉट्स के साथ अनादि ने कुछ डॉक्यूमेंट्रीज़ बनाईं, जिनमें समर्थ महाजन के निर्देशन में ‘अनरिज़र्व्ड’ डॉक्यूमेंट्री को 2018 का नेशनल अवॉर्ड मिला था, अब उसी समर्थ महाजन के निर्देशन और नुपूर शर्मा के सहायक निर्देशन में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री ‘बॉर्डरलैंड्स’ के लिए अनादि को 2020 का बेस्ट एडिटिंग अवॉर्ड 30 सितम्बर 2022 को राष्ट्रपति महामहिम द्रौपदी मुर्मू द्वारा प्रदान किया गया। हमारे परिवार और रायगढ़ इप्टा के लिए यह वाकई गौरव का क्षण था कि अनादि ने अपनी 34 वर्ष की उम्र में इस तरह का राष्ट्रीय महत्व का सम्मान प्राप्त किया। उसके रचनात्मक जीवन का विकास सार्थक फिल्मों के निर्माण में हो, वह इसी तरह बेहतर इंसान बना रहे, इसी शुभकामना के साथ…

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  • लगातार चलते जाने, परिश्रम करते जाने के जज़्बे को सलाम!!
    जीवन में अपनी धुन और अपनी पसंद का काम करते रहना ही अपने आप में बहुत बड़ी सौगात है और इसमें जब सामाजिक मुहर ( राष्ट्रीय सम्मान जैसा पुरस्कार) लगे तो यह बहुत ही खुशी का सबब बनता है।
    इससे आगे जाओगे इसकी उम्मीद और संभावना महसूस होती है।

  • पुरानी यादें 👍👍 कुछ घटनाएं भावुक कर गईं. सभी फोटो में कैप्शन होता तो पाठकों को पहचानने में आसानी होती

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