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मुंबई का रंगमंच : ग्यारह : अण्णा भाऊ साठे का नाटक ‘मुंबई कोणाची?’

मुंबई का रंगमंच : ग्यारह : अण्णा भाऊ साठे का नाटक ‘मुंबई कोणाची?’

उषा वैरागकर आठले

लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे के साहित्य को पढ़ना तथा उनके लिखे लोकनाट्यों को देखना एक विलक्षण अनुभव है। अण्णा भाऊ साठे ने औपचारिक शिक्षा के बगैर मराठी में लगभग 35 उपन्यास, अनेक लघु कथाएँ, 15 नाटक, अनेक पोवाडे और लावणियाँ, सोवियत संघ का यात्रा-वृत्तान्त आदि लिखे। उनकी रचनाएँ दुनिया की 27 भाषाओं में अनूदित हुईं। उनके 12 उपन्यासों पर मराठी फ़िल्में बनाई गईं। अण्णा भाऊ साठे ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के ‘लाल बावटा कला पथक’ के माध्यम से शाहीर अमर शेख और द ना गवाणकर के साथ किसानों और कामगारों के बीच गीतों तथा लोकनाट्यों से जन जागरण किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा में भी बहुत सक्रिय थे। 1949 में वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किये गए।

2 अक्टूबर गांधी जयंती के अवसर पर मुंबई इप्टा ने अपना पहला मराठी नाटक ‘मुंबई कोणाची’ रविन्द्र नाट्य मंदिर के मिनी थियेटर, प्रभादेवी में पु ल देशपांडे कला अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में प्रस्तुत किया। इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं महाराष्ट्र के प्रतिबद्ध साहित्यकार कलाकार अण्णा भाऊ साठे द्वारा लिखित, शिवदास घोडके निर्देशित लगभग दो घंटे के लोकनाट्य में जितना जानदार कथ्य था, उतनी ही प्रभावशाली प्रस्तुति थी। बैकड्रॉप पर एम एस सत्थू द्वारा डिज़ाइन किया मुंबई का प्रतीकात्मक चित्र बेहतरीन असर छोड़ रहा था।

लोकनाट्य में गायन-वादन और संगीत का भी बहुत महत्व होता है। एल्गार सांस्कृतिक मंच के संगीतकार धम्मरक्षित रणदिवे की बेहतरीन लोकधुनों और पार्श्व संगीत ने नाटक के कथ्य को और उभार दिया था। सूत्रधार के रूप में सुलभा आर्य के सहज अभिनय और मार्मिक संवादों ने नाटक में नया रंग भरा। प्रबंधन प्रमुख थे मुंबई इप्टा के महासचिव मसूद अख्तर। प्रस्तुत नाटक की प्रमुख विशेषता है कि इसमें अण्णाभाऊ साठे की कई रचनाओं को एकसूत्रता में पिरोया गया है (दो लोकनाट्य, दो लावणी और पोवाडों की कुछ पंक्तियाँ)। इस मायने में यह नाट्य-प्रस्तुति अण्णाभाऊ साठे के लेखन का आइना दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती है। उन्नीस सौ चालीस एवं पचास के दशक में लिखी इन रचनाओं की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है इसलिए ‘मुंबई कोणाची’ की प्रस्तुति बेहद कलात्मक होने के साथ महत्वपूर्ण और ज़रूरी मालूम देती है।

‘मुंबई कोणाची’ नाटक अण्णाभाऊ साठे द्वारा महाराष्ट्र के लोकनाट्य ‘तमाशा’ को प्रबोधनकारी शैली में रूपांतरित कर लिखा और खेला गया था। मुंबई इप्टा ने भी नाटक को उसी शैली में प्रस्तुत किया। नाटक की शुरुआत होती है गण-गायन से। गण में गणेश से प्रार्थना की जाती है कि नाटक को निर्विघ्न रूप से सम्पन्न होने दें। गायन काफी ऊँचे सुर में किया जाता है। मंगलाचरण के तौर पर अण्णाभाऊ साठे द्वारा लिखित निम्नलिखित गण गाया गया, जिसमें गणेश के स्थान पर अपनी मातृभूमि के अलावा शिवाजी और तमाम क्रांतिकारियों और शहीदों का स्मरण किया गया। सुनिए गण-गायन :

प्रथम मायभूच्या चरणा
छत्रपति शिवबा चरणा
स्मरोनि गातो। कवना।।

पारम्परिक तमाशा में गण के बाद ‘गवळण’ तथा ‘रंगबाज़ी’ प्रस्तुत होती है, तत्पश्चात ‘वग’ अर्थात अभिनय शुरु होता है। चूँकि यह प्रबोधनपरक लोकनाट्य है, इसलिए इसमें गण-गायन के तत्काल बाद सूत्रधार का प्रवेश होता है। सूत्रधार सुलभा आर्य अण्णाभाऊ साठे का परिचय देते हुए उस घटना का उल्लेख करती हैं, जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रूस गए थे। उन्हें वहाँ एक व्यक्ति ने पूछा कि आपके देश में एक बड़े कलाकार हैं, जो शोषित-पीड़ितों के जीवन को अपने साहित्य में बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं, वे कैसे हैं? नेहरू जी अण्णाभाऊ साठे को नहीं जानते थे। लौटने पर नेहरू जी ने पता लगाया। उन्हें पता चला कि अण्णाभाऊ साठे गरीबी-अमीरी के भेदभाव को अपने लोकनाट्य और लेखन के माध्यम से दिखाते हैं। उस समय तमाशा पर बंदी लगाई गई थी। तमाशा से जुड़े सभी कलाकारों का जीना-खाना मुश्किल हो गया था। इस परिस्थिति में अण्णाभाऊ साठे ने तमाशा की बजाय लोकनाट्य शुरु किया। ऐसा लोकनाट्य, जिसमें वर्गीय विषमता और संघर्ष की चेतना मनोरंजक परंतु सवाल-जवाब शैली में जागृत करने की कोशिश है। इस परिचय के बाद सूत्रधार प्रस्तुत नाटक ‘मुंबई कोणाची’ के बारे में सांकेतिक सूचना देकर प्रस्थान करती हैं।

तमाशा का सबसे आकर्षक हिस्सा होता है ‘लावणी’। अण्णाभाऊ साठे ने इस लावणी को भी श्रृंगारिक विषय से परे हटाकर प्रबोधनपरक बना दिया था। उनकी अनेक लावणियों में ‘मुंबई ची लावणी’ बहुत प्रसिद्ध रही है। देश भर के लोगों को अपने में समो लेने वाली मुंबई के समूचे विषमतामूलक वर्गीय चरित्र को अण्णाभाऊ साठे ने अपनी इस लावणी में जिस रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है, उतने ही रोचक तरीके से कलाकारों ने भी मंच पर प्रस्तुत किया। सुनिए ‘मुंबई की लावणी’

मुंबईत उंचावरी। मलबार हिल इंद्रपुरी।
कुबेरांची वस्ती तिथं सुख भोगती।।
परळात राहणारे। रातदिवस राबणारे
मिळेल ते खाऊनी घाम गाळती।।

अर्थात, मुंबई के ऊँचाई पर बसे मलबार हिल इलाके में धनी सम्पन्न लोग रहते हैं, जिन्हें जीवन की सभी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं। वहीं दूसरी ओर परळ के इलाके में रहने वाले श्रमिक कामगार दिन-रात पसीना बहाते हैं, फिर भी उन्हें जैसे तैसे दो जून की रोटी ही मिल पाती है। कलाकारों द्वारा इस ‘मुंबई की लावणी’ के कुछ पदों को गाने के बाद नाटक आरम्भ होता है।

प्रस्तुत लोकनाट्य दो अंकों में विभाजित है। या यूँ कहें कि अण्णाभाऊ के दो लघु नाटकों का समन्वित रूप एक साथ प्रस्तुत है। मध्यान्तर से पहला नाटक ‘मूक मिरवणूक’ (मौन जुलूस) था। मध्यान्तर के बाद ‘मुंबई कोणाची’ (किसकी है मुंबई) शुरु होता है। पात्रों के नाम समान हैं, इसलिए निर्देशक के लिए इन दो नाटकों को जोड़ना आसान रहा होगा।

मुंबई में रहने के लिए जगह मिलना काफी कठिन होता है। विष्णु और पुतळा पति-पत्नी हैं। विष्णु कपड़ा मिल कामगार है। नाटक की शुरुआत होती है, एक पहेली से कि, ‘एक वस्तु के दो मालिक हैं, उस वस्तु का नाम क्या है?’ जवाब है ‘खोली या कमरा’। जवाब पाते ही पुतळा को याद आता है कि घर मालिक ने कमरा खाली करने के लिए कहा है। यहाँ से बात शुरु होती है गरीबों की रहने की समस्या पर। किसतरह ज़मीन की कीमतें, पगड़ी आदि के कारण गरीब कामगार किराये की खोली में भी रह नहीं पाते और उन्हें बेजा कब्जे में झोंपड़ी बनानी पड़ती है। वरळी और चेंबूर की खाली जगहों में बनाई गई ऐसी हजारों झोंपड़ियाँ सरकारी आदेश से वक्त-बेवक्त जला दी जाती हैं। पुतळा इन बातों से आश्चर्यचकित हो जाती है। विष्णु उसे मानव सभ्यता के इतिहास में आवास के क्रमशः विकसित रूपों का विवरण संक्षेप में बताता है। किसतरह पूंजीवाद के आने पर पूंजीपतियों द्वारा अपने पूंजी के बल पर कामगारों को लेकर नए घर बनाए और जो उनका किराया दे सकते हैं, उन्हें ही वे घर देते थे। आगे चलकर पगड़ी की प्रथा शुरु हुई। ऐसी स्थिति में जिन लोगों के पास घर किराये पर लेने के लिए भी पैसा नहीं होता था, वे सभ्यता के पुराने चरणों की ओर बढ़े और उन्होंने फिर झोंपड़ियाँ बनानी शुरु कीं। बातचीत के बीच ही विष्णु का भाई रामू, जो गाँव से कुछ दिनों पहले ही मुंबई में आया हुआ है, राशन की थैलियाँ लेकर आता है। साथ ही कामगार नेता उपासे भी आता है। अन्य कामगारों के आने पर उपासे की बेकार नेतागिरी पर चुटीली टिप्पणी करते हुए बातचीत करते हैं। उसी समय उस खोली का मूल किरायेदार दत्तू आता है और बताता है कि चाल दो दिन में खाली की जाने वाली है इसलिए विष्णु को तत्काल कमरा खाली करना पड़ेगा। सुनकर नेता उपासे अगले दिन हड़ताल करने के लिए सब कामगारों को इकट्ठा होने के लिए कहता है।

अगले दृश्य में कामगारों की आपसी बातचीत है, जिसमें वे संघर्ष के कारणों की चर्चा करते हैं। कारण खोजते हुए वे इंसान की भूख, बढ़ती हुई जनसंख्या, श्रम का शोषण आदि तक पहुँचते हैं। समूची बातचीत छोटे-छोटे सवाल-जवाबों के रूप में रोचक, सहज और चुटीली शैली में होती है। अगले दिन नेता उपासे के साथ बैठक में सवाल किया जाता है कि जो किरायेदार और मालिक भी नहीं हैं, आखिर उनकी पहचान क्या है? वे किस अधिकार के तहत हड़ताल करेंगे! ‘आखिर हम जैसे लोग हैं कौन?’ इस सवाल के जवाब में उपासे कहता है कि मार्क्स की शब्दावली में तुम लोग सर्वहारा हो, जिसका सब कुछ हर लिया गया हो। कामगार सवाल करते हैं कि हम, जो मेहनत का काम करते हैं, हम ही उत्पादन करते हैं, तो आखिर हमारा कोई तो हक होगा! मगर नेता उपासे उनके इस सवाल को परे हटाकर उनसे चाल और कमरे पर केन्द्रित चर्चा करने पर ज़ोर देता है। सभी कामगार सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए जुलूस निकालने का सुझाव देते हैं, मगर नेता कहता है कि सीधे संघर्ष करने की बजाय पहले हमें हस्ताक्षर अभियान कर आवेदन देना चाहिए। विष्णु तर्क करता है कि उनका कोई पता-ठिकाना नहीं है तो आखिर आवेदन का जवाब आएगा, तो किस पते पर? इस तर्क के सामने हस्ताक्षर अभियान का आइडिया फेल होकर जुलूस का विचार पक्का होता है। उपासे एक शर्त रखता है कि मौन जुलूस निकालना होगा। कोई भी कुछ भी नहीं बोलेगा। सब दो-दो की लाइन में मौन जुलूस निकालते हैं।

पुलिस आती है और बताती है कि पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट के अंतर्गत कोई भी जुलूस नहीं निकाल सकता। दस मिनट में जुलूस तितरबितर हो जाना चाहिए। उपासे पुलिस के कान में फुसफुसाता है और सभी से जुलूस बंद कर वापस जाने के लिए कहता है। कामगार नहीं मानते। कामगार नारे लगाने लगते हैं, पुलिस उन पर लाठीचार्ज करती है। विष्णु को पुलिस पंद्रह दिनों के लिए गिरफ्तार कर लेती है। मंच खाली हो जाता है। सूत्रधार प्रवेश करती हैं। वे कुछ कहें, इसके पहले ही पुतळा उनके पास आकर उनके कान में कुछ कहती है। सूत्रधार सुनकर दर्शकों से रूबरू होती हैं। वे बताती हैं कि पुतळा बता रही है कि विष्णु को पंद्रह दिनों के लिए जेल में बंद किया गया है। उसे वापस आने में कुछ देर लगेगी, इसलिए आप लोग भी पंद्रह मिनट के लिए अपने जो भी काम हों, उन्हें निपटाकर आइये। सुलभा जी के बेहद दिलचस्प और संयत पर मस्तीभरे अभिनय ने मुझे चमत्कृत कर दिया।

दूसरे अंक में फिर मुंबई के वर्णन-विवरण के गीत से अण्णाभाऊ साठे के मूल नाटक ‘मुंबई कोणाची’ शुरु होता है। निर्देशक ने जिस तरह इन दोनों नाटकों को जोड़ा है, वह बेहद सराहनीय है। यह नाटक संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के दौरान लिखा गया था, जो आज की परिस्थिति पर भी सटीक लागू हो रहा है। औद्योगिक नगरी मुंबई को गुजरात में शामिल करने की कोशिशें चल रही थीं परंतु राज्य की जनता के साथ साहित्यकार, कलाकार, बुद्धिजीवी भी मुंबई को महाराष्ट्र में ही बनाए रखने के लिए संघर्षरत थे। इन दिनों फिर एक बार मुंबई को केन्द्रशासित राज्य बनाने की कोशिश सामने आ रही है। एक कामगार कहता है, ‘‘अरे, कुछ लोग जी-जान से कोशिश कर रहे हैं मुंबई को पृथक करने की! सभी कामगारों को इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए। मुंबई मराठी अंचल के कलेजे का टुकड़ा है!’’

नाटक की शुरुआत ही कुछ कामगारों की इस बातचीत से होती है कि उन्हें शिवाजी पार्क में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की सभा में जाना है मगर उनका एक साथी विष्णु बेरोज़गारी से परेशान होकर दर-दर की ठोकरें खा रहा है। जब तक वह नहीं आ जाता, तब तक अंतू को ‘पोवाडा’ गाने का सभी आग्रह करते हैं। अंतू ‘कालाबाज़ारी का पोवाडा’ गाता है। विष्णु आता है, बाळकू उसे जय बालाजी केमिकल कंपनी में काम दिलवाने की बात करता है, जहाँ वह खुद काम करता है। वह बताता है कि काम इसलिए कठिन है कि वहाँ का मैनेजर जुनून की हद तक ‘इतिहासप्रेमी’ है। इस पर विष्णु कहता है कि वह ज़रूर काम करना चाहेगा। दुसरे दृश्य में मुनीम एक बड़े व्यापारी लाडोबा मिसाळ को इतिहास की महत्ता समझाते हैं। वह कहता है, ‘‘देखो मिस्टर मिसाळ, दुनिया में अनेक प्रकार के वाद और वादी भी हैं – हिंसावादी, अहिंसावादी, विद्रोहवादी, क्रांतिवादी, चरखावादी, खादीवादी आदि; इनके बीच मैं एक इतिहासवादी हूँ।’’ व्यापारी कबूल करता है कि उसने तो व्यापारवाद के अतिरिक्त किसी भी वाद का अध्ययन नहीं किया है। मुनीम समझाता है कि ‘‘व्यापारवाद का भी एक इतिहास है।’’ सौ साल पहले मुनीम के पूर्वज सिर्फ लोटा और रस्सी लेकर मुंबई में आए। आकर यहाँ उन्होंने ब्याज-बट्टे का काम शुरु किया और आज वह इस कंपनी के बड़े हिस्सेदार हैं। उसी समय बाळकू विष्णु को लेकर आता है। मुनीम विष्णु से पूछताछ करते हैं। विष्णु बताता है कि पाँचवीं तक पढ़ते हुए उसे इतिहास में विशेष रूचि रही है। मुनीम खुश होकर उसे रख लेता है। यहाँ मुनीम का इतिहासवाद ‘नए मनु’ से प्रेरणा लेकर नया इतिहास गढ़नेवाला है, मुनीम के गाने से पता चलता है।

अब मुनीम और लाडोबा में व्यावसायिक बातचीत शुरु होती है। यह बातचीत बीते हुए कोरोना काल में घटे चिकित्सा व्यवसाय के मुनाफे के आयामों को भी खोलती है। लाडोबा पूछता है, ‘‘आपकी कंपनी में कोई नई दवा बनी है क्या?’’ मुनीम जवाब में बताते हैं, ‘‘जब तक बाहर नई बीमारी नहीं आती, तब तक नई दवा कैसे तैयार होगी? इधर नई बीमारी आई, उधर नई दवा तैयार!’’ मुनीम लाडोबा से कहते हैं कि वह नई बीमारियों का कारखाना शुरु करे। अभी आई मंदी नामक बीमारी पर भी उनके पास दवा है। उसे एक ‘बी एम’ का और एक ‘मेड इन वॉरटाइम इंडिया’ का इंजेक्शन दे दो। लाडोबा नहीं समझता। मुनीम उसे समझाता है कि बी एम मतलब ब्लैक मार्केट; इसे अपनाने पर धंधा एकदम उछलकर दौड़ने लगेगा। बाद के दृश्य में संयुक्त महाराष्ट्र परिषद का आंदोलन आरम्भ होने के कारण मुनीम बुरीतरह से चिढ़ जाता है और वह दावा करने लगता है कि मुंबई ‘आज़ाद’ है, वह महाराष्ट्र या किसी राज्य की नहीं है। ‘हम अपनी समूची बुद्धि, सम्पत्ति और शक्ति दाँव पर लगाकर मुंबई को बचाएँगे। मुनीम विष्णु से भी पूछता है, ‘‘संयुक्त महाराष्ट्र परिषदवाले कहते हैं कि मुंबई महाराष्ट्र में ही रहेगी। साथ ही उनका दावा है कि इस माँग का समर्थन सभी कामगारों ने भी किया है। तू बता, मुंबई किसकी है?’’

यह सवाल नाटक का टर्निंग पॉइन्ट है। विष्णु ज़ोर देकर कहता है, ‘‘मुंबई मराठी अंचल की ही है! हमारी ही!’’… ‘‘आपको इसलिए यह नहीं पच रहा है क्योंकि आपका इतिहास कच्चा है।’’ मुनीम इस बात पर शर्त लगाने के लिए कहता है। विष्णु उससे कहता है कि आप मुझे समझा दीजिए कि मुंबई स्वतंत्र है!’’ मुनीम और उसमें इतिहास के तथ्यों पर शास्त्रार्थ शुरु हो जाता है, जो नाटक का दिलचस्प हिस्सा है। यह तय होता है कि दोनों अपने-अपने तर्क प्रस्तुत करेंगे और कोई भी बीच में चिढ़ेगा नहीं। मुनीम पहला तर्क प्रस्तुत करता है कि ‘मुंबई को अंग्रेज़ों ने एक द्वीप कहा है। इस पर विष्णु एक सियार की कहानी सुनाता है कि जब वह पानी में डूबने लगता है तो समूची दुनिया डूबने का शोर मचाने लगता है। वैसा ही कुछ अंग्रेज़ों ने किया। वे चोर थे। इस बात पर मुनीम पूछता है, ‘‘तो तुम लोगों ने चोर को घुसने कैसे दिया? दो सौ सालों तक कैसे राज करने किया?’’ विष्णु जवाब देता है, ‘‘हमने कहाँ घुसने दिया? वे तो पहले ‘सूरत’ में आए!’’ (इस वाक्य का निहितार्थ समझकर दर्शकों ने ज़बर्दस्त तालियाँ बजाईं।) ‘‘हमने तो दो सौ सालों में दो सौ विद्रोह किये।’’ मुनीम इसका ऐतिहासिक प्रमाण माँगता है। विष्णु बताता है कि ‘‘अठारह सौ छब्बीस से उन्नीस सौ छियालिस के नाविक विद्रोह तक हरेक साल में एक विद्रोह हुआ। इतिहास पढ़िये ज़रा!’’ मुनीम मुंबई के बहुभाषी चरित्र को लेकर सवाल करता है कि ‘‘जब सबने मिलकर मुंबई का विकास किया है, तो इसे सिर्फ मराठी अंचल की क्यों कहा जाए?’ विष्णु प्रतिप्रश्न करता है कि क्या सब लोगों को हमने चिट्ठी लिखकर आमंत्रण दिया था?’’ मुनीम खुद का उदाहरण देता है कि, उन्होंने भी लगभग सौ साल अपनी ज़िंदगी मुंबई के लिए खपा दी। विष्णु का युक्तिवाद है कि जिसतरह अंग्रेज़ अपने स्वार्थ के लिए यहाँ आए और दो सौ साल रह गए, उसी तरह आप भी अपने स्वार्थ के लिए आए और मुंबई में बस गए। यह कोई अहसान नहीं किया। इसी तरह विष्णु मुनीम के सभी सवालों का तथ्यपरक और तर्कपूर्ण जवाब देता है, जिससे अंत में मुनीम चिढ़ जाता है।

इन सवाल-जवाबों में अनेक आधारभूत बातें शामिल हैं। किसतरह कामगारों के पसीने से ही मुंबई का सुख-सुविधापूर्ण औद्योगिक विकास हुआ मगर उन्हीं कामगारों को जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं से भी वंचित रखा जाता है, बहुत ही सरलता के साथ ये बातें सामने आती हैं। निरूत्तर होने पर मुनीम व्यापारी मिसाळ से मदद माँगता है। दोनों मिलकर विष्णु को फँसाने की योजना बनाते हैं और उसे गिरफ्तार करवा देते हैं। इस बीच आसपास के तमाम कामगार इकट्ठा होते हैं और विष्णु के साथ एकजुटता जाहिर करते हैं। कर्टन कॉल में इप्टा के तत्कालीन तीनों दिग्गज कलाकार – अण्णा भाऊ साठे, शाहीर अमर शेख तथा कॉमरेड गवाणकर की चिरपरिचित ‘ढपली बजाती देहमुद्रा’ तथा ‘अन्य कलाकारों की नर्तन मुद्रा’ स्थापित कर अभिवादन किया गया।

अण्णाभाऊ साठे की विशेषता है कि वे छोटे-छोटे संवादों में तत्कालीन राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र पर लोकभाषा में चुटीली टिप्पणी करते जाते हैं। अनेक कहावतों और ठेठ देसी अंदाज़ में प्रकट होने वाली कामगारों की सहज बुद्धि उनकी सूक्ष्म चेतना को व्यक्त करती है। वर्तमान में भले ही ट्रेड यूनियन आंदोलन बिखर गया हो, नए श्रम कानूनों ने श्रमजीवियों के हाथ बाँध दिये हों, मगर किन नीतियों के तहत कुछ पूंजीपति-कार्पोरेट दुनिया के सबसे अमीर लोगों में ऊँचे होते जा रहे हैं और उत्तरोत्तर ज़्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे धकेले जा रहे हैं – 1950 के दशक में अण्णा भाऊ साठे द्वारा लिखा यह नाटक इस यथार्थ पर बेहतरीन प्रकाश डाल रहा है। आज भी उनके ये नाटक प्रासंगिक बने हुए हैं, यह एक पृथक दुखद पहलू है। संदर्भ आज भी वही है, उनका रूप बदल गया है। एकजुट होकर सामूहिक संघर्ष का रास्ता आज भी एकमात्र रास्ता है।

निर्देशक शिवदास घोडके ने दर्शकों को बताया कि इस नाटक में हमने अण्णा भाऊ साठे की लिखी किसी पंक्ति को नहीं बदला है। उन्होंने इप्टा मुंबई के साथ इस नाटक को करने की पृष्ठभूमि भी बताई। दो साल पहले अण्णा भाऊ साठे के जन्म शताब्दी वर्ष में मुंबई विश्वविद्यालय के साथ उनके नाटक खेलने की योजना बनी थी, मगर लॉकडाउन के कारण उन पर कोई भी बड़ा कार्यक्रम नहीं हो पाया, सिर्फ ऑनलाइन ही कार्यक्रम हुए। इसीलिए जब पु ल देशपांडे कला अकादमी के अध्यक्ष श्री रोकडे से रमेश तलवार की चर्चा हुई तो उन्होंने रमेश जी से सवाल किया कि 80 सालों में मुंबई इप्टा ने कोई मराठी नाटक क्यों नहीं खेला? रमेश जी ने सहजता से कह दिया, चलिये, खेलते हैं। मुझे जिम्मा दिया गया। दर्शकों की उत्साहभरी प्रतिक्रिया देखकर मुझे लग रहा है कि नाटक बेहतर तैयार हुआ है।

‘मुंबई कुणाची’ पच्चीस दिनों की रिहर्सल में तैयार किया गया। तीन प्रकार के कलाकार इसमें शामिल थे, पहले, मुंबई इप्टा के कलाकार, दूसरे, मुंबई विश्वविद्यालय की नाट्य अकादमी के कलाकार और तीसरे, निर्देशक के साथ पूर्व में कार्यशाला में प्रशिक्षण प्राप्त कलाकार। प्रस्तुति में कहीं भी महसूस नहीं हुआ कि वे एक नाट्य दल के कलाकार नहीं हैं। सभी की आपसी समझ, उनकी केमिस्ट्री, समस्त गतियाँ, संवाद-गीत-नृत्य में सहज लोक-लय ने दर्शकों से बार-बार तालियाँ पिटवा लीं। कलाकार हैं – सूत्रधार : सुलभा आर्य, विष्णु : सिद्धार्थ प्रतिभावंत, पुतळा : दिपाली बड़ेकर, मुनीमजी/तात्या : मनोज चिताडे, मिसाळ : निखिल राठोड, रामू/शाहीर : संबुद्ध, धोंडी/अंतू/दामले : सुशांत पवार, लीडर उपासे : नारायण सोनकांबळे, गणप्या/चाल की महिला : रेणुका धावळे, बाळकू/बूढ़ा : आकाश खळे, रहीमू/भैया : सुमित त्रिपाठी, पुलिस/इंस्पेक्टर : आशुतोष देशमुख, चालनिवासी : रवि गुप्ता।

इस रचनात्मक और बेहतरीन पहल के लिए मुंबई इप्टा को बार बार सलाम !!

मुंबई इप्टा का नाटक ‘मुंबई कोणाची’ रविन्द्र नाट्य मंदिर के मिनी थियेटर में खेला गया। हॉल खचाखच भरा हुआ था, सिर्फ यही कहना पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि वास्तविकता यह थी कि थियेटर की हर बैठने योग्य जगह पर दर्शक अपनी उम्र का खयाल किये बिना बैठे थे। नाटक की समाप्ति के बाद भी काफी देर तक मंच पर दर्शक-कलाकार-निर्देशक-प्रबंधक संवाद होता रहा। चूँकि नाटक टिकिटविहीन था, सहयोग राशि ही ली गई थी, मगर बाद में भी मुंबई इप्टा के महासचिव द्वारा की गई अपील पर दर्शकों ने स्वतःस्फूर्त रूप में इप्टा की ‘झोली’ में अपना आर्थिक सहयोग डाला।

अण्णा भाऊ साठे द्वारा उस समय प्रस्तुत किये लाने वाले इन लोकनाट्यों को कितना ज़बर्दस्त रिस्पॉन्स मिलता होगा, इस नाट्य-प्रस्तुति ने उसका आभास उपस्थित लोगों को करवाया। इस नाटक के समूचे महाराष्ट्र में मंचन होने चाहिए तथा इनके हिंदी अनुवाद भी अन्य प्रदेशों की इप्टा की इकाइयों द्वारा विभिन्न नाट्यशैलियों में तैयार किये जाने चाहिए, यही अण्णा भाऊ साठे को विपरीत परिस्थितियों के कारण देर-सवेर ही सही, सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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