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जेंडर मुद्दों पर सम्यक दृष्टि प्रदान करने वाला ‘समभाव’

जेंडर मुद्दों पर सम्यक दृष्टि प्रदान करने वाला ‘समभाव’

मूल मराठी लेखक : हरीश सदानी
[email protected]
हिंदी अनुवाद : उषा वैरागकर आठले

(पहले ‘जेंडर’ कहने पर सिर्फ स्त्री और पुरुष का अंतर ही नज़र आता था। ट्रांसजेंडर के लिए काफी गोपनीय तथा घृणास्पद तरीके से उल्लेख किया जाता था। इक्कीसवीं सदी में ‘जेंडर’ के तहत LGBTQIA (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर, इंटरसेक्स, एसेक्सुअल) कम्युनिटी के व्यक्तियों को विश्व के अनेक देशों में मान्यता मिलने लगी। भारत में भी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में 158 साल पुरानी आईपीसी की धारा 377 को निरस्त किया तथा कहा कि, “निजता और अंतरंगता व्यक्ति की निजी पसंद है। यौन प्राथमिकता जैविक और प्राकृतिक है। सहमति से स्थापित समलैंगिक सम्बन्ध समानता का अधिकार है।” जो भी लोग समानता के तत्त्व पर विश्वास करते हैं, स्त्री-पुरुष समानता के लिए संघर्ष करते हैं, उन सभी को ‘जेंडर समानता’ के अंतर्गत स्त्री-पुरुष के अलावा LGBTQIA को भी शामिल करना होगा। ‘इंसान’ की संज्ञा इन सभी पर लागू करनी होगी। इसे ‘नैतिकता’ के रूढ़िग्रस्त ढाँचे से बाहर निकालना होगा। इस अपेक्षाकृत नयी व्यावहारिक अवधारणा के तहत समझ बढ़ाने के लिए इस विषय पर खुलकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ चर्चा करना ज़रूरी है। इस दिशा में किये जाने वाले प्रयासों की चर्चा इस अनूदित लेखनुमा रिपोर्ट में प्रस्तुत है। सम्बन्धित सभी फोटो गूगल से साभार।)

लैंगिक आधार पर किये जाने वाले भेदभाव से प्रताड़ित-पीड़ित अनेक व्यक्तियों की तकलीफ और पीड़ा को वाणी देने वाला ‘समभाव’ नामक चलता-फिरता फिल्म महोत्सव साल में लगभग 6 महीने आयोजित किया जाता है। इस वर्ष ‘समभाव’ चार महोत्सवों के माध्यम से 9 हजार युवाओं तक पहुँचा तथा भारत के बाहर भी आयोजित हुआ। बहुसंख्य युवाओं को सम्मिलित कर उनमें जागृति पैदा करने वाले इस महोत्सव के बारे में यह विवरणात्मक लेखनुमा रिपोर्ट है।

‘‘लगभग 7 साल पहले वाराणसी के एक स्थानीय महाविद्यालय में प्राध्यापक पद पर पदभार ग्रहण करने के बाद मैंने अपने लिए मकान खोजना शुरु किया। उस समय मुझे अनेक सवालों का सामना करना पड़ा – आप विवाहित हैं या अविवाहित? किस जाति की हैं? आदि आदि…। आज एक वृत्तचित्र ‘बैचलर गर्ल्स’ देखते हुए वे तमाम कड़वी यादें ताज़ा हो गईं…।’’

‘‘मेरा परिवार चंडीगढ़ का मध्यवर्गीय परिवार है। मैं अपने पिता की अहसानमंद हूँ कि उन्होंने मुझे स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए क्रमशः बंगलुरू और देहरादून भेजा। उच्च शिक्षा के लिए अवसर देने के साथ-साथ उन्होंने यह भी बताया कि, महाविद्यालय में या अन्य स्थानों पर घूमते-फिरते हुए अपनी सुरक्षा के मद्देनज़र मुझे किन चीज़ों से बचना चाहिए! मगर मुझे याद नहीं आता कि, ‘न करने वाली ये बातें’ मेरे भाई को कभी बताई गईं हों। इस महोत्सव की कुछ फिल्में देखते हुए मैं अपनेआप को कुछ स्त्री पात्रों से ‘रिलेट’ कर रही थी। मेरे घूमने-फिरने पर किसतरह पितृसत्तात्मक ताक़तों का नियंत्रण था, यह बात अब मैं अच्छी तरह समझ सकती हूँ…।’’

‘‘पहले ट्रेन या ट्रैफिक सिग्नल के पास भीख मांगती हुई विषमलिंगी स्त्री (ट्रांसवुमन) को देखकर मैं घबरा जाता था। भीख के लिए उसके बढ़ाए हुए हाथ का स्पर्श मुझे घिनौना लगता था। मगर अपने महाविद्यालय में ‘ट्रांसवुमन’ संबंधी फिल्म देखने के बाद तथा एक ट्रांसवुमन कलाकार से प्रत्यक्ष संवाद के बाद मुझे महसूस हुआ कि उनका जीवन कितना मुश्किल होता है… समझ में आया कि विकास के कई अवसरों से वंचित किये जाने के बाद उन जैसी असंख्य ट्रांसवुमन्स के लिए दिन में भीख माँगने या रात को देहविक्रय करने के अलावा कोई विकल्प समाज नहीं छोड़ता।’’

मेरे द्वारा परिकल्पित तथा आयोजित किये जाने वाले ‘समभाव’ नामक फिल्म महोत्सव में सम्मिलित सहभागियों ने उपर्युक्त अनुभवों को साझा किया है।

29 साल पहले मेरे सहसंस्थापन में स्थापित ‘मैन अगेन्स्ट वायलेन्स एण्ड एब्यूज़’ (मावा) संस्था स्थापित की गई थी। इस संस्था द्वारा ‘समभाव’ नामक भ्रमणशील फिल्म महोत्सव के आयोजन की शुरुआत पाँच साल पहले की गई। इसमें दो दिन सुबह 10 से शाम 6 बजे तक किसी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय या किसी सामाजिक/सांस्कृतिक संस्था के प्रेक्षागृह में लैंगिकता, लिंगभेदभाव, परस्पर संबंध आदि मुद्दों पर केन्द्रित 13-14 देशी-विदेशी फिल्में दिखाई गईं। लगभग 200 विद्यार्थी, प्राध्यापक, संस्था के कर्मचारी तथा अन्य सामाजिक कार्यकर्ता इसमें सम्मिलित होते हैं।

प्रत्येक फिल्म के प्रदर्शन के बाद उपस्थित दर्शकों से संवाद करने के लिए लिंगभेदभाव जैसे सवालों पर काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता, प्राध्यापक, फिल्म निर्देशकों को आमंत्रित किया जाता है। यह समारोह किसी शहर या गाँव में दो दिनों के लिए आयोजित किया जाता है। उसके बाद देश के किसी अन्य शहर या जिले में इसे ले जाया जाता है। यह फिल्म महोत्सव इसी तरह 5-6 महीने जारी रहता है। ‘समभाव’ का प्रथम आयोजन 2017 में हुआ था। उसके बाद चौथे आयोजन का समापन अभी कुछ दिनों पहले हुआ है। इन चार महोत्सवों के माध्यम से 31 शहर और 14 गाँवों तक हम पहुँचे। साथ ही देश के लगभग 9000 युवाओं तक पहुँचने में हम कामयाब रहे।

‘समभाव’ में प्रायः 18 से 25 आयु समूह के युवा सम्मिलित होते हैं। लिंगभेदभाव के अंतर्गत महिलाओं तथा समलिंगी-विषमलिंगी समूहों के बारे में द्वेष या तुच्छता प्रदर्शित करने वाले फिल्मोत्सव देश में होते ही रहते हैं। (‘तृतीयलिंगी’ शब्द का प्रयोग भी किया जाता है परंतु उसमें ‘पृथक लैंगिकता वाले तीसरे’ का अर्थबोध होता है तथा पुरुष के प्रथमलिंगी होने के साथ वर्चस्वशाली होने तथा अन्यलिंगी लोगों के दोयम दर्ज़े का होने का बोध होता है। इसलिए ‘विषमलिंगी’ शब्द उचित होगा)। ‘समभाव’ फिल्म महोत्सव का पृथक महत्व इसलिए है कि लिंगभेदभाव संबंधी फिल्मोत्सवों का आयोजन प्रायः महिलाओं या लैंगिक अल्पसंख्यकों (चाहे वे दर्शकों के रूप में हों या फिर ऐसे विषयों के फिल्म-निर्माता हों) को शामिल कर किया जाता है। मगर महिलाओं और लैंगिक अल्पसंख्यकों के साथ भिन्नलिंगी आकर्षण वाले ‘हैट्रोसैक्सुअल’ बहुसंख्यक पुरुषों को भी प्रमुखतया सम्मिलित करने वाले महोत्सव नगण्य होते हैं। ‘समभाव’ का आयोजन लखनऊ, शिलाँग, कोयम्बटूर, त्रिशूर, इंदौर, भुवनेश्वर, देहरादून, राँची जैसे दूसरे और तीसरे श्रेणी वाले शहरों तथा भंडारा, पिंपरी, संगमनेर और गडचिरोली जैसे ग्रामीण भागों में भी किया गया। फिल्म महोत्सवों में प्रायः प्रवेश शुल्क रखा जाता है परंतु ‘समभाव’ महोत्सव का आयोजन निःशुल्क होता है। देश में हिंदी या किसी मातृभाषा की, प्रादेशिक तथा विदेशी फिल्में (सबटाइटल्स के साथ) सशुल्क देखने वाले तथा सामाजिक सवालों पर सोचने-समझने वाले युवाओं की संख्या बहुत कम है। इसीलिए वे अधिकाधिक आएँ और ‘जेंडर’ के चष्मे से देखने-समझने की संस्कृति का विकास करें, ‘समभाव’ का उद्देश्य यह भी है।

लिंगभेदभाव के कारण पैदा होने वाली विषम दृष्टि, स्त्रियों तथा लैंगिक अल्पसंख्यकों के साथ की जाने वाली हिंसा पर केन्द्रित उत्कृष्ट देशी-विदेशी लघु फिल्में तथा फीचर फिल्में इस महोत्सव में दिखाई जाती हैं। इस महोत्सव में पुरुष, पुरुषत्व, ज़हरीली ‘मर्दानगी’ जैसे विषय पर केन्द्रित फिल्में ‘दि मास्क यू लिव इन’ (अमेरिका), ‘बॉइज़ हू लाइक गर्ल्स’ (फिनलैंड, नार्वे), तथा ‘एली एली लमा सबाचतानी’, ‘ब्रोकन इमेज’, ‘मजमा’ और विद्या बालन सहनिर्मित व अभिनीत फिल्म ‘नटखट’ सराही गईं।

पिछले दिनों सम्पन्न ‘समभाव’ में भारत में व्याप्त जेंडर या लिंगभेदभाव से संबंधित मुद्दे और पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों में व्याप्त मुद्दों के बीच साम्य खोजने की कोशिश की गई। बांगलादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और अन्य दक्षिण एशियाई देशों में स्त्रियों के साथ होने वाली पारिवारिक हिंसा तथा एसिड हमले जैसी अन्य प्रकार की हिंसा, समलिंगी-पारलिंगी व्यक्तियों के मानव अधिकारों का कुचला जाना, पुरुषप्रधानता के कारण दिखाई देने वाली ज़हरीली मर्दानगी के रूपों में काफी समान सूत्र मिलते हैं। इसीलिए मुझे लगता है कि लिंगभेदभाव से संबंधित मुद्दों पर केन्द्रित भारतीय तथा विदेशी फिल्में भारत से बाहर, दक्षिण एशियाई देशों में भी दिखाई जानी चाहिए। वरिष्ठ स्त्रीवादी कार्यकर्ता कमला भसीन, जो पिछले साल गुज़र गईं, उन्होंने इस महोत्सव का उद्घाटन करते हुए इसी आशय का वक्तव्य दिया था। कमलादीदी की वह इच्छा ‘समभाव’ की चौथी कड़ी में इस वर्ष पूरी हुई। देश के 8 शहरों और 2 ग्रामीण जिलों के साथ साथ काठमांडू, नेपाल व बांगलादेश के ढाका शहर की स्थानीय शिक्षण संस्थाओं में तथा कमला भसीन द्वारा स्थापित ‘साउथ एशियन वीमेन्स नेटवर्क’ की समर्पित कार्यकर्ताओं की मदद से ‘समभाव’ का गरिमापूर्ण आयोजन सम्पन्न हुआ। लंदन में जुलाई 2022 में आयोजित दक्षिण एशियाई हेरिटेज में ‘समभाव’ की फिल्मों को प्रदर्शित किया गया।

‘समभाव’ के अब तक सम्पन्न हुए आयोजन में अभिनेत्री कल्कि कोचलिन, सोनाली कुलकर्णी, राजश्री देशपांडे, वीणा जामकर द्वारा उपस्थित रहकर युवाओं के साथ संवाद किया गया। इतिहासज्ञ उमा चक्रवर्ती, स्त्रीवादी कार्यकर्ता डॉ. मनिषा गुप्ते, शुभदा देशमुख, खुशी कबीर, ट्रांस व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़नेवाली दिशा पिंकी शेख, गौरी सावंत, फिल्म निर्देशक हर्षवर्धन कुलकर्णी, उमेश कुलकर्णी, निशांत रॉय-बोम्बार्डे, रोहन कानवडे, पटकथा लेखिका मनिषा कोरडे ने ‘समभाव’ के माध्यम से युवाओं के साथ बातचीत की तथा लिंग समभाव, लैंगिक विविधता के स्वीकार संबंधी ठोस संदेश दिया।

महाराष्ट्र में विदर्भ अंचल के ग्राम कुरखेड़ा गडचिरोली के अतिदुर्गम आदिवासीबहुल इलाके में ‘समभाव’ का आयोजन दिसम्बर 2021 में किया गया। गोविंदराव मुनघाटे कला व विज्ञान महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. राजू मुनघाटे के विशेष प्रयासों से ‘हम हमारे स्वास्थ्य के लिए’ नामक सामाजिक संस्था के साथ मिलकर महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं के लिए ‘समभाव’ का आयोजन किया गया। सिर्फ टीवी पर फिल्म देखने वाले आदिवासी विद्यार्थियों ने किसी सिनमा हॉल में जाकर शायद ही कोई फिल्म देखी हो! ऐसे विद्यार्थियों को लघु फिल्में देखने की बहुत उत्सुकता थी। महोत्सव आरम्भ होने के कुछ घंटों बाद ही महाविद्यालय का सभागृह खचाखच भर गया था। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा विषय पर सीधी सरल बातचीत शुरु करने पर आरम्भ में संकोची शर्मीले लगने वाले विद्यार्थी खुलकर बोलने लगे। आदिवासी समूहों में, खासकर गडचिरोली के गोंड समुदाय की स्त्रियों में मासिक धर्म के दौरान उन्हें कुर्माघर में रखा जाता है। यह घर से काफी दूर एक झोपड़ी होती है, जिसमें किसी प्रकार की मूलभूत सुविधा नहीं होती। ऐसी जगह में मासिक धर्म के दौरान उन्हें 5-6 दिन रहना पड़ता है। यह प्रथा उनके स्वास्थ्य और जीवन दोनों के लिए खतरा पैदा करती है। इस विषय पर तथा इसी तरह के अन्य संवेदनशील मुद्दों पर फिल्म-प्रदर्शन के बाद लड़कियों ने सवाल करने शुरु किये। मुझे महसूस हुआ कि ‘समभाव’ के माध्यम से आदिवासीबहुल क्षेत्र के लड़के-लड़कियों को एक पृथक दिशा तथा सम्यक दृष्टि प्रदान करने के काम में हमें सफलता मिल रही है।

संगमनेर में भाऊसाहेब सं. थोरात महाविद्यालय के प्राध्यापक तुळशीराम जाधव ने भी ‘समभाव’ का आयोजन ‘लोकपंचायत’ नामक सामाजिक संस्था के संयुक्त तत्वावधान में किया। दो दिनों तक विभिन्न फिल्मों पर चर्चा करने के अलावा दिशा पिंकी शेख के ‘कुरूप’ कविता संग्रह पर आधारित नाट्य प्रस्तुति भी की गई। लेखक-नाटककार जमीर कांबळे के निर्देशन में प्रस्तुत किये गये इस नाटक को विद्यार्थियों के साथ स्थानीय बस्ती की स्त्रियों ने भी देखा। लोकपंचायत संस्था की कार्यकर्ता नलिनी उनवणे ने इस पर अपना वक्तव्य देते हुए कहा, ‘‘किसी के नाम के साथ ‘छक्का’ विशेषण का जुड़ना अशुभ माना जाता था। मगर ‘समभाव’ महोत्सव की फिल्मों और ‘कुरूप’ नाट्य प्रस्तुति ने मेरे कुरूप विचारों के लिए मुझे लज्जित किया। क्या हम वाकई मनुष्य से मनुष्य जैसा व्यवहार करते हैं? यह सवाल मन को कुरेदने लगा।’’

समभाव महोत्सव ने देश भर के असंख्य नवयुवाओं को लिंगभेदभाव संबंधी सवालों पर बेझिझक बात करने का सुरक्षित स्थान प्रदान किया है। इस महोत्सव में अनेक लड़कियों को आत्मविश्वास से बोलते हुए लड़के देख रहे थे। अनूठे, सकारात्मक, समानता पर आधारित समाज की दिशा की ओर ले जाने वाले विचार लड़के व्यक्त कर रहे थे, लड़कियाँ भी सुन रही थीं। पृथक लैंगिक पहचान रखने वाले युवा भी अपने अनुभव, अपनी असुरक्षा की चर्चा कर रहे थे। इस महोत्सव के आयोजन में विद्यार्थी संगठनों की सहभागिता भी उल्लेखनीय रही। महोत्सव का पोस्टर नए तरीके से बनाकर उसका अलग-अलग मंचों से प्रचार किया गया। उन्होंने न केवल लगभग 150 से 200 सहपाठियों को सम्मिलित किया, बल्कि महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, सामाजिक संस्थाओं द्वारा आयोजन के खर्च तथा आवश्यक संसाधन व सुविधाएँ जुटाने में भी कहीं कसर न छोड़ी। पेण के भाऊसाहेब नेने महाविद्यालय ने, संगमनेर के भाऊसाहेब थोरात महाविद्यालय ने ‘समभाव’ के समापन के उपरांत अपने महाविद्यालय में नियमित फिल्म-प्रदर्शन के लिए एक क्लब शुरु कर नए अभियान का सूत्रपात किया। यह एक अनपेक्षित फल था।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि फिल्म जैसे सशक्त माध्यम द्वारा युवाओं में एक वैचारिक मंथन की परम्परा ‘समभाव’ ने शुरु की। आसाम के तेजपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली युवती निकिता बुरागाहाई कहती हैं, ‘‘इस महोत्सव ने पहचान, मनुष्य की अस्मिता तथा समूचे मानव जीवन के प्रति समझ और दृष्टि को विकसित करने में मेरी मदद की है। लुबना युसूफ द्वारा निर्मित फिल्म ‘मैदा’ मुझे आज भी बेचैन करती है। ग्रामीण बिहार की गोरे रंग की एक लड़की ‘उजाला’ को ‘मैदा’ नाम से चिढ़ाए जाने के कारण मासिक धर्म शुरु होते ही स्कूली शिक्षा से हाथ धोना पड़ा। सोलहवें साल में ही मर्ज़ी के बगैर उसकी शादी कर दी गई। भोजपुरी गीत के माध्यम से अपनी पीड़ा को अनायास व्यक्त करने वाली इस लड़की का उदास चेहरा मुझसे लगातार यह सवाल पूछता रहता है कि, मैं तो उपाधि तक शिक्षा ग्रहण कर सकी, मगर उजाला जैसी असंख्य लड़कियों की आकांक्षाओं का क्या हो रहा है…?’’
(मुंबई से प्रकाशित दैनिक ‘लोकसत्ता’ : 17 सितम्बर 2022 के शनिवार के परिशिष्ट ‘चतुरंग’ से साभार)

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