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मुंबई में रंगमंच : दस : कार्ल मार्क्स इन कालबादेवी

मुंबई में रंगमंच : दस : कार्ल मार्क्स इन कालबादेवी

उषा वैरागकर आठले

(कार्ल मार्क्स पर केंद्रित तीन नाटकों के प्रेक्षण का अनुभव और इनकी मूल स्क्रिप्ट्स के पठन के बाद यह टिप्पणी लिखी गयी है। तीनों नाटकों को देखने में दर्शकों की भिन्नता, मंचन-स्थल में परिवर्तन, अभिनेता की भिन्न क्षमता तथा मूलतः एक ही स्क्रिप्ट होने के बावजूद पृथक रूपांतरणों के कारण मिलने वाला अनुभव काफी भिन्न भिन्न रहा है। प्रायः सभी फोटो गूगल से साभार लिए गए हैं।)

अमेरिकी नाटककार हावर्ड ज़िन ने 1999 में एक नाटक लिखा ‘मार्क्स इन सोहो’। परिकल्पना है कि प्रसिद्ध दार्शनिक कार्ल मार्क्स समकालीन अमेरिका में लौट आए हैं और अपने बारे में बात करते हुए समसामयिक घटनाओं तथा प्रवृत्तियों पर टिप्पणी भी कर रहे हैं। यह नाटक काफी प्रसिद्ध हुआ। इसका अनुवाद और रूपान्तरण दुनिया की अनेक भाषाओं में हुआ है। मैंने इसके तीन रूपान्तरणों को देखा और सुना।

पहले बात करूँ 09 अगस्त 2022 को पृथ्वी थियेटर में आइडिया अनलिमिटेड बैनर पर मंचित हिंदी-अंग्रेज़ी मिश्रित नाटक ‘कार्ल मार्क्स इन कालबादेवी’ की। मनोज शाह निर्देशित, उत्तम गाड़ा द्वारा रूपान्तरित तथा सद्चित पुराणिक अभिनीत यह नाटक गुजराती मनोरंजनप्रधान थियेटर की तर्ज़ पर डिज़ाइन किया गया है। मनोज शाह शुरु में ही मंच पर आकर बताते हैं कि उन्हें अचानक कालबादेवी में मार्क्स मिले। वे इसलिए भारत आए हैं ताकि वे अपने बारे में व्याप्त गलतफहमियों को दूर कर सकें! सबसे पहले वे मुंबई के मणि भवन जाकर भाषण देना चाहते हैं, मगर वहाँ उपस्थित गार्ड उन्हें लौटा देता है। वहाँ से निकलते वक्त अचानक उन्हें मनोज शाह मिल जाते हैं, जो उन्हें डेढ़ घंटे का समय देकर मंच उपलब्ध करने का आश्वासन देते हैं। बस, उनकी एक ही शर्त है कि उपस्थित दर्शकों का मनोरंजन होना चाहिए।

निर्देशक बताते हैं कि गुजराती समुदाय प्रायः व्यावसायिक है इसलिए उसका मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र या उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ और ‘पूँजी’ से कोई परिचय नहीं है। उन्हें नहीं पता कि मार्क्स का मानना था कि ‘सिर्फ दुनिया की व्याख्या करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि असली बात है कि इस दुनिया को कैसे बदला जाए!’ इसलिए कालबादेवी जैसी व्यावसायिक जगह में मार्क्स को समझना है तो उसे मनोरंजन की चाशनी में लपेटकर ही समझाना होगा। मंच पर आने से पहले मनोज शाह उन्हें कालबादेवी की प्रसिद्ध गुजराती ‘भगत ताराचंद थाली’ खिलाते हैं, जिससे मार्क्स का पेट फूल जाता है। वे इस पर भी हास्यजनक टिप्पणी करते हैं। मनोज शाह की बात मानते हुए हास्य-विनोद का बीच-बीच में तड़का लगाते हुए मार्क्स अपनी बात करते हैं।

थियेटर में प्रवेश करते ही सामान्य रोशनी में दर्शक को दिखाई देता है कि एक व्यक्ति फोल्डिंग कुर्सी पर पाँव चढ़ाए मंच पर नीचे सो रहा है। मंच पर सिर्फ एक टेबल-कुर्सी है और ढेर सारी किताबें इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। उन्हीं के पास एक सूटकेस भी रखा हुआ है। मुंबई के कालबादेवी इलाके में कार्ल मार्क्स सीधे दर्शकों से मुखातिब होते हैं। एक सामान्य इंसान के रूप में वे अपने बीवी-बच्चों के साथ किसतरह रहते रहे और अनेक साथियों से बहस-मुबाहिसों के बीच उन्होंने जिन प्रसिद्ध दार्शनिक सूत्रों का सूत्रपात किया, उन्हें मंच पर पड़ी किताबें उठाकर पढ़ते हुए उनकी पृष्ठभूमि बताते हैं और उन पर फौरी टिप्पणी भी करते हैं। उन्हें उनके जिन अधूरे संदर्भरहित वाक्यों के लिए बदनाम किया जाता रहा है, उनका जवाब देने के लिए भी वे भारत में आए हैं।

पृथ्वी थियेटर में देखे गए इस नाटक पर बात आगे बढ़ाऊँ, उससे पहले यह बताना ज़रूरी है कि हावर्ड ज़िन के इस नाटक के दो रूपान्तरणों को मैं पहले भी देख चुकी थी। सबसे पहली बार देखा था फरवरी 2020 में मध्यप्रदेश इप्टा के राज्य सम्मेलन के अवसर पर अशोकनगर के युवा साथी अनुपम द्वारा प्रस्तुत एकल प्रदर्शन ‘सोहो में मार्क्स’। युवा अभिनेता ने काफी कुछ समझते हुए यथार्थवादी शैली में नाटक प्रस्तुत किया था।

दूसरी बार एकदम नए अनुभव से साबका हुआ – प्रसिद्ध लेखक, अभिनेता, फिल्मकार अतुल तिवारी द्वारा ‘जम्बूद्वीपे भरतखण्डे : महर्षि मार्क्स के हथखंडे’ शीर्षक से अपने लिखे एवं रूपान्तरित किये गये नाटक का अभिवाचन सुनना और देखना। अतुल तिवारी जी ने मार्क्स के जन्मदिन पर 5 मई 2022 को नाटक के चुने हुए अंशों का लगभग एक घंटे में नाटकीय और प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया था।

इसमें उन्होंने ‘ऊपर’ गौतम बुद्ध, गांधी, आंबेडकर, कबीर, तुलसीदास, रविन्द्रनाथ टैगोर, सावरकर, हेडगेवार आदि लोगों से हुई मुलाकातों का दिलचस्प ज़िक्र किया है। (इसमें ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ की तर्ज़ पर दुनिया के महापुरुषों एक हो’ की ध्वनि मुझे सुनाई दी !) ‘साथ ही कथ्य के अनुकूल नज़ीर अकबराबादी, मजाज़, कैफ़ी आज़मी, अज्ञेय आदि भारतीय शायरों की नज़्में, पंक्तियाँ भी नाटक में इस्तेमाल की हैं। किताब के प्राक्कथन में ‘पुनश्च’ के अंतर्गत अतुल तिवारी ने छूट देते हुए जोड़ा है, ‘‘वाम/लेफ्टवर्ड की छापी यह किताब ‘कॉपीलेफ्ट’ में विश्वास करती है, और इस नाटक के सर्वाधिकार सारे रंगप्रेमियों के पास सुरक्षित हैं। आप इसे पढ़िये, खेलिये, इस्तेमाल करिये। हाँ, एक सूचना आप हमें अवश्य भेजें ताकि हम आपसे जुड़ा हुआ महसूस करें।’’ (जम्बूद्वीपे भरतखण्डे : महर्षि मार्क्स के हथखंडे’ : अतुल तिवारी, पृ. 11)

‘कार्ल मार्क्स इन कालबादेवी’ नाटक में मार्क्स जैसे विद्वान अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिशास्त्री की एक सामान्य पारिवारिक इंसान के रूप में बातचीत प्रस्तुत की गई है। इसमें मार्क्स की जीवनसाथी जेनी, मार्क्स के बच्चों, उनकी नौकरानी तथा एंगेल्स, बाकुनिन सहित अनेक मित्रों का ज़िक्र आता है। ऐसा लगता है कि सीमित अर्थों में हम मार्क्स को अपनी खुद की आत्मकथा प्रस्तुत करते हुए पाते हैं। अपनी एक देश से दूसरे देश में विस्थापित होने वाली ज़िंदगी, आर्थिक अभाव, जेनी का पारिवारिक और बौद्धिक साथीपन, आर्थिक बदहाली के कारण उनके दो बच्चों की अकाल मृत्यु, सबसे छोटी बेटी एलिनोर के क्रांतिकारी कारनामे, लंदन और अमेरिका की गरीब बस्तियों का करूण या परिहासयुक्त वर्णन अपनी किताबों के उद्धरणों के साथ वे करते हैं। चूँकि मार्क्स भारत में आए हैं इसलिए गांधी, आंबेडकर आदि के अलावा भारत की समसामयिक घटनाओं के ज़िक्र के साथ कांग्रेस, भाजपा, अड़ानी-अंबानी जैसे कारपोरेट पर भी व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हैं।

सद्चित पुराणिक का गेटअप काफी कुछ मार्क्स की तस्वीरों से मिलताजुलता रखा गया है। पहले वे कोट पहने होते हैं। बातचीत के दौरान कोट उतारकर जैकेट और गैलिस के साथ दिखते हैं और नाटक के अंत तक वह भी उतारकर गांधी की तस्वीर वाले टी शर्ट और पैंट में दिखाई देते हैं।

इसीतरह नाटक के प्रारम्भ में निर्देशक मनोज शाह के संकेत का इंतज़ार करते लेटे रहने वाले मार्क्स अपनी तमाम बिखरी पुस्तकों, अखबारों, पत्रिकाओं को अंतिम के कुछ मिनटों में समेटते हुए बातों को भी लपेटते नज़र आते हैं। दर्शकों से अनेक सवाल-जवाब करता हुआ, मार्क्स को कौन कितना जानता-समझता है, इसकी मानो पड़ताल करता हुआ मंच पर उपस्थित अभिनेता मार्क्स, दर्शकों से संवाद स्थापित करता है। इसके लिए वह आरम्भ में निर्देशक द्वारा दिए गए निर्देशानुसार स्थानीय वातावरण पर चुटकियाँ भी लेता हुआ मंचन को हल्काफुल्का बनाकर चलता है।

नाटक के रूपान्तरणों से कुछ संवाद उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ।

‘‘हाँ, हमने ‘सर्वहारा की तानाशाही’ की बात की थी, किसी राजनैतिक पार्टी की तानाशाही की नहीं, किसी एक आदमी की तानाशाही नहीं, मज़दूरों द्वारा एक अस्थायी तानाशाही की। जो थोड़े समय के लिए सबके हितों को ध्यान में लेकर एक नए समाज की नींव रखे। और जब उसकी ज़रूरत ख़त्म हो जाए, वह खुद को बर्खास्त कर दे।’’ (सोहो में मार्क्स : हावर्ड ज़िन : हिंदी अनुवाद सौरभ राय, पृ. 32-33)

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मार्क्स द्वारा प्रणित साम्यवाद को लोगों ने किसतरह गलत तरीके से व्यवहृत किया, इस बात पर नाराज़ होकर मार्क्स कहते हैं, ‘‘उन्हें पता भी है साम्यवाद का मकसद क्या है? हर इनसान की व्यक्तिगत आज़ादी। ताकि विकास तो हो, मगर इंसानियत भी बची रहे। उन्हें लगता है कि साम्यवाद का मतलब गुंडागर्दी है, खुद से मतभेद रखने वालों की हत्या कर देना है। वह जो खुद को साम्यवादी कहता है और ग़रीबों का दुश्मन बना हुआ है – क्या इसी साम्यवाद की ख़्वाहिश में मैंने अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी!’’ (सोहो में मार्क्स : हावर्ड ज़िन : हिंदी अनुवाद सौरभ राय, पृ. 32)

अतुल तिवारी ने अपने रूपान्तरण में मार्क्स द्वारा न केवल उनके सिद्धांतों का सरल विवेचन प्रस्तुत कराया है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक अर्थनीतियों पर गुस्से से भरी टिप्पणी भी करवाई है। साथ ही महापुरुषों की आपसी नोंकझोंक के माध्यम से इतिहास और वर्तमान के हिंदुत्ववादी नज़रिये को उजागर किया है।

‘‘वाह! मार्केट इकॉनॉमी का मायाजाल – जिसमें इंसान सिर्फ एक बिकने की चीज़ बनकर रह जाता है और उसकी ज़िंदगी का फ़ैसला वो मक़बूल-महान चीज़ करती है जिसका नाम है ‘पैसा – पूँजी – कैपिटल’।’’ (जम्बूद्वीपे भरतखण्डे : महर्षि मार्क्स के हथखंडे’ : अतुल तिवारी, पृ. 35)

‘‘मतलब क्या है ‘फ्री मार्केट इकॉनॉमी’ का? यही ना कि सरकार अपनी सारी ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़ ले, ग़रीबों की तरफ से आँखें फेर ले और सिर्फ़ अमीर उद्योगपति-सरमायेदारों की देखभाल में लग जाए। आज मुनिस्पिलिटी के नल का पानी सीधे पी लेते हैं आप या पहले उसे फ़िल्टर करते हैं? आज क्यों जेनेरेटर-इन्वर्टर लगा है आपके घर में, जबकि सरकार का काम है बिजली देना? पुलिस है ना, फिर क्यूँ आपने अपने बंगले पे प्राइवेट गार्ड रखा हुआ है? इसलिए कि अपनी मूलभूत ज़िम्मेदारियों से पैसा बचाकर सरकार किसी बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट को सस्ते दामों – या मुफ्त में – ज़मीन दे सके, जिससे वो ख़ुद कमाए – और पॉलिटिशियन्स को पैसे देकर इलेक्शन भी जितायें।’’ (जम्बूद्वीपे भरतखण्डे : महर्षि मार्क्स के हथखंडे’ : अतुल तिवारी, पृ. 70)

जब मार्क्स को ‘ऊपर’ से नीचे पृथ्वी पर आने की परमिशन मिल गई तो अनेक भारतीय महापुरुषों ने उनसे बात की। ‘‘डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार! वे बड़े नाराज़ दिख रहे थे। तुनककर बोले, ‘मार्क्सजी, क्या आवश्यकता है आपको जम्बू़द्वीपे-भरतखण्डे जाने की? क्या हथकंडे दिखाने वाले हैं आप हमारे अखंड भारत में? आप हमारी संस्कृति और संस्कारों को खंड-खंड करने का षड्यंत्र तो नहीं रच रहे?’ हःहःहः! मुझे हँसी आ गई और मैं बोला, ‘डॉक्टरजी, भारत वो देश है जिसके संस्कार चालाक अंग्रेज़ शासक भी नहीं नष्ट कर पाए – मेकावले भी वहाँ फेल ही हो गया – फिर मेरी क्या बिसात? तभी तो महात्मा गांधी ने – उन्हें विशुद्ध हिंदुस्तानी तरीकों से बाहर कर दिया।’ तभी महात्माजी खुद वहाँ पहुँच गए। बोले, ‘महर्षि मार्क्स, आप डॉक्टरजी की बात का बुरा न मानिएगा। मैंने भी नहीं माना था। जब सन् तीस में इन्होंने तो मेरे ‘नमक सत्याग्रह’ में हिस्सा लिया पर अपने सारे संगठन को सख़्त ताक़ीद कर दी कि ‘खबरदार, अगर संघ का कोई ग़लती से भी नमक बनाने गया।’ (जम्बूद्वीपे भरतखण्डे : महर्षि मार्क्स के हथखंडे’ : अतुल तिवारी, पृ. 76-77)

मार्क्स अपने धर्म संबंधी प्रसिद्ध सूत्र-वाक्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं, ‘‘ठीक है, दोस्तों, मैंने कहा है कि – ‘धर्म आम जनता के लिए अफ़ीम है।’ पर यहाँ मौजूद कितने लोगों ने पूरा वो वाक्य पढ़ा है? हाथ उठाइये… चलिए, मैं बताता हूँ। मैंने लिखा था, ‘धर्म शोषित-दमित कामगारों की कराह है, इस निष्ठुर-बेदिल दुनिया में एक पसीजता हुआ दिल है, निर्दयी संसार में दया का भाव, यह आम जनता के लिए अफीम है।’ सच है कि अफ़ीम किसी बीमारी का इलाज नहीं होती। पर दर्द के लिए मरहम तो हो सकती है।’’ (जम्बूद्वीपे भरतखण्डे : महर्षि मार्क्स के हथखंडे’ : अतुल तिवारी, पृ. 40)

आज की राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थिति में आखिर कौनसी विचारधारा, कौनसा दर्शन रास्ता दिखा सकता है? सभी पुराने दर्शनों की पुनर्व्याख्या ज़रूरी होती है। कोई दार्शनिक अवधारणा जब व्यवहार में उतारने की बात की जाती है, उसके लिए वर्तमान का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य रोचक ढंग से प्रस्तुत करना ज़रूरी है, खासकर यह पुनर्व्याख्या जब मंच पर साकार करनी हो तो…! उसके लिए हावर्ड ज़िन के ‘सोहो में मार्क्स’ के इन रूपान्तरणों का इसीतरह का लचीला फॉर्म काफी मददगार हो सकता है।

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  • आपका लिखा पढ़ देखने की लालसा बढ़ गई है। नाटक को वर्तमान परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हुए प्रस्तुतियों को देखना सचमुच अलहदा अनुभव होता है।

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