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मुंबई का रंगमंच : नौ : गांधी-आंबेडकर

मुंबई का रंगमंच : नौ : गांधी-आंबेडकर

उषा वैरागकर आठले

(राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित ‘भारत रंग महोत्सव’ में रायगढ़ इप्टा के दो नाटक ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ और ‘बकासुर’ क्रमशः 2002 और 2006 में मंचित किये गए थे। उस समय हमने अपने नाटक के बाद अन्य कई रंग संस्थाओं के नाटक भी देखे थे। एक साथ देखे उन नाटकों की सुखद यादों के कारण जब रंग समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी जी ने मुंबई में आयोजित भारंगम का पोस्टर व्हाट्सएप पर भेजा, मुझे बहुत ख़ुशी हुई। हालाँकि स्वास्थ्यगत कारण और दूरियों के कारण मैं सिर्फ एक ही नाटक देख पायी। रविंद्र नाट्य मंदिर का बड़ा ऑडिटोरियम लगभग भरा हुआ था, देखकर सुकून मिला। महाराष्ट्र में आम दर्शक की देखने और सुनने की गंभीर परम्परा के प्रति मैं पहले से ही अभिभूत हूँ। मुंबई में अभी तक 7-8 छोटे-बड़े प्रेक्षागृहों में नाटक देखने का अवसर मिला है। प्रायः सभी में दर्शकों की उपस्थिति भरपूर रही है।

‘मुंबई का रंगमंच’ की नववीं कड़ी में ‘गाँधी-आंबेडकर’ पर स्वानुभूत टिप्पणी प्रस्तुत है। कुछ फोटो ब्रोशर से लिए हैं तो कुछ मेरे मोबाइल के हैं इसलिए उनकी गुणवत्ता के लिए माफ़ी चाहती हूँ।)

स्वतंत्रता-प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर केन्द्र सरकार ने ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मनाने का निर्णय लिया था, जिसके परिपालन में सभी शासकीय तथा शासन पर निर्भर स्वायत्तशासी संस्थाओं ने अनेक आयोजन किये। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा 22 वें भारत रंग महोत्सव को ‘आज़ादी श्रृंखला’ के रूप में 16 जुलाई से 14 अगस्त 2022 तक कुछ गिनेचुने शहरों में पाँच दिनों तक नाट्य प्रदर्शन आयोजित किये गये। इसी कड़ी में मुंबई के रविन्द्र नाट्य मंदिर, प्रभादेवी में पी एल देशपांडे महाराष्ट्र कला अकादमी के सहयोग से 09 से 13 अगस्त तक पाँच नाटकों का मंचन किया गया। इसमें क्रमशः दिनेश नायर लिखित ‘आई एम सुभाष’, प्रेमानंद गज्वी लिखित ‘गांधी-आंबेडकर’, रूपेश पवार लिखित ‘अगस्त क्रांति’, विश्राम बेडेकर लिखित ‘टिळक आणि आगरकर’ तथा भीष्म साहनी लिखित ‘रंग दे बसंती चोला’ नाटकों की प्रस्तुति हुई।

मैं बात करना चाहती हूँ 10 अगस्त को देखे हुए नाटक ‘गांधी-आंबेडकर’ की। प्रेमानंद गज्वी लिखित और डॉ. मंगेश बंसोड निर्देशित इस नाटक को देखने की उत्सुकता के कई कारण थे – प्रेमानंद गज्वी जी से कभीकभार होने वाला व्यक्तिगत संवाद, उनके अनेक नाटकों से परिचित होना, डॉ. मंगेश बंसोड निर्देशित हिंदी नाटक के प्रति जिज्ञासा तथा ‘गांधी-आंबेडकर’ विषय। सबसे पहले इसी विषय पर लिखा हुआ हिंदी के सुपरिचित नाटककार राजेश कुमार का नाटक पढ़ा था और उसके कुछ अंशों का नाट्य-पाठ अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन रायगढ़ के शिक्षक साथियों के साथ किया था और साथ ही कई लेखकों के गांधी-आंबेडकर के परस्पर विरोध संबंधी लेख और किताबें भी पढ़ीं। इसलिए स्वाभाविक उत्सुकता थी कि प्रेमानंद गज्वी ने अपने नाटक में इसे किसतरह प्रस्तुत किया है, साथ ही चिन्मय मांडलेकर द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद को मुंबई विश्वविद्यालय के थियेटर आर्ट्स एकेडमी के सह प्राध्यापक डॉ. मंगेश बंसोड ने मंच पर कैसे उतारा है! बहरहाल, मैंने नाटक देखा और कई बातों से मैं प्रभावित हुई।

सबसे पहले तो मंच पर लगा सेट आकर्षित कर रहा था। मंच को दाएँ-बाएँ दो हिस्सों में बाँटा गया था। दर्शकों के बाएँ हिस्से में आंबेडकर की स्टडी थी। उनकी लाइब्रेरी में किताबों की आल्मारियों को फ्लेक्स प्रिंटिंग के सादे कर्टन से दर्शाया था। उसके सामने सिर्फ एक टेबिल और कुर्सी।

दाएँ हिस्से में आधे बैक कर्टन के रूप में एक चरखा और गांधी की आकृति का फ्लेक्स था। उसके सामने अप मिड के दरवाज़े से आने-जाने के लिए एक दरवाज़ा और उसके सामने एक प्लेटफॉर्म। गांधीजी की एक चौकी मिड डाउन में और अप मिड में एक अन्य चौकी, जो उनके येरवडा जेल के लिए सांकेतिक रूप में रखी गई थी। गांधी के हिस्से में लिखने का एक डेस्क तथा चरखा, पानी का लोटा और ग्लास रखा है। बीच में एक ब्लॉक है, जिसे विदूषक एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाकर बातचीत के काम लाता है।

विशाल मंच के डाउन हिस्से का उपयोग निर्देशक ने नहीं किया है और वह प्रायः निम अंधेरे में ही होता है। मंच की सादगी और बहुत कम प्रॉपर्टीज़ का इस्तेमाल विषय पर ध्यान केन्द्रित रखता है। दृश्यबंध एवं वेशभूषा अभिकल्पक कैलाश वर्नेकर की दृष्टि को सलाम! (ब्रोशर वितरीत करने के कारण समूची टीम के नामों का उल्लेख ठीक ठीक किया जा सकता है। साथ ही फोटो न खींचने संबंधी कोई उद्घोषणा न होने के कारण मैंने खराब फोटोग्राफर होने के बावजूद कुछ फोटो ले लिए।)

इस बात से किसी को इंकार नहीं हो सकता कि मोहनदास करमचंद गांधी तथा डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के विचारों में काफी अंतर था। मगर वे एकदूसरे का बहुत सम्मान करते थे। एकदूसरे के महत्व को समझते थे। इस बाबत कई लिखित संदर्भ मिल जाते हैं। ब्रोशर में नाटक का सार इस प्रकार है, ‘‘नाटक महात्मा गांधी और भारत के संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर के, एक ही उद्देश्य के लिए अलग-अलग वैचारिक व्यवहार और कार्य पद्धति के द्वंद्वात्मक टकराव का एक सशक्त बयान है। महात्मा गांधी के देश, समाज, भारतीय लोग, हिंदू-मुस्लिम, अस्पृश्यता, चातुर्वर्ण व्यवस्था, हिंदू धर्म इन विषयों को लेकर अपने विचार थे, तो इन्हीं विषयों के प्रति डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अपनी सोच थी। यही उनके आपसी मतभेद और वैचारिक संघर्ष का कारण रहा है। महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के बीच एकदूसरे के प्रति आदर-सम्मान था… लेकिन साथ ही अपना अपना अनुभव, अपनी अपनी सोच और विद्वत्ता के कारण दोनों के बीच अंत तक एक वैचारिक संघर्ष होता रहा। नाटक गांधी-आंबेडकर इन दो महान विभूतियों की ओर विदूषक की नज़र से देखने का एक तटस्थ दृष्टिकोण दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करता है।’’ इसीतरह निर्देशकीय वक्तव्य में डॉ. मंगेश बंसोड ने दोनों के अंतर को दो पंक्तियों में व्यक्त किया है, ‘‘महात्मा गांधी देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में अपने अहिंसात्मक तरीके से ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ रहे थे तो डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर भारत की आज़ादी सिर्फ राजनैतिक ही नहीं, सामाजिक और आर्थिक रूप से सभी भारतीयों को बराबरी का हिस्सा मिले, इस पक्ष में थे।’’

गांधी और आंबेडकर की मात्र तीन प्रत्यक्ष मुलाकातों में उन्होंने बहुत साफगोई के साथ परस्पर चर्चा की थी। वे भले ही अपने-अपने मत पर दृढ़ थे, फिर भी इन मुलाकातों ने दोनों के विचारों में विस्तार आया था। यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि गांधी के विचारों में आंबेडकर से चर्चाओं के बाद काफी परिवर्तन आया था। उनके लेखों, पुस्तकों में इसका उल्लेख मिलता है। नाटककार प्रेमानंद गज्वी ने अनेक संदर्भों का अध्ययन कर यह नाटक लिखा है और दोनों के विचारों के एकांगी पहलुओं पर सवाल उठाने के लिए एक विदूषक को सूत्रधार के रूप में उतारा है। यह इस नाटक का सबसे आकर्षक पहलू है। नाटक की शुरुआत में विदूषक अपनी परिचित वेशभूषा-रंगभूषा में एक ग्लोब से गेंद की तरह खेलते हुए मंच पर आता है। अपना परिचय देता है और फिर मंच के दो समानांतर हिस्सों में स्थापित किये गये आंबेडकर और गांधी के घरों में आते-जाते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। गंभीर बहसों को हास्य-व्यंग्य तो कभी प्रसन्नता और कभी करूणा, चिंता, दुख के साथ जोड़ता हुआ भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण आयामों और दो महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों और उनके विचारों तथा कार्य-शैलियों को रेखांकित करता चलता है।

नाटक दो अंकों में विभाजित है। पहले अंक में दोनों की पहली मुलाकात मणिभवन में तब हुई, जब गांधी 62 वर्ष के थे और आंबेडकर 40 के। गांधी धोती और चादर लपेटे हुए और आंबेडकर सूट-बूट और टाई से लैस। कांग्रेस से आंबेडकर को जो शिकायतें थीं, उन्हें समझने के लिए गांधी ने उन्हें बुलाया था। आंबेडकर ने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए जब कहा था कि मुझे महसूस होता है कि मेरी कोई मातृभूमि नहीं है। मुझे यह देश पराया मानता है। सुनकर गांधी बहुत व्यथित हुए थे। मगर वे यह मानने को तैयार नहीं कि, उनसे बड़ा देश के अछूतों से सहानुभूति रखने वाला भी कोई है। वे अपने को अछूतों का प्रतिनिधि कहते थे। वे वर्ण-व्यवस्था को भारत का मूल स्वभाव मानते थे मगर अस्पृश्यता दूर करने के लिए कृतसंकल्प थे। आंबेडकर अछूतों को देश के मुस्लिम या सिख समुदाय की तरह ‘पृथक मतदाता संघ’ देने बाबत अंग्रेज़ों को सहमत करते हैं, जिसका गांधी विरोध करते हैं। उनका मानना है कि हिंदू समाज बिखरना नहीं चाहिए। हमें इसमें आंतरिक सुधार करने होंगे। गांधी मानते थे कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म पर लगा काला धब्बा है, जिसे सवर्ण लोगों को ही आगे बढ़कर मिटाना होगा। इन बिंदुओं पर दोनों में काफी तीखी बहस होती है और आंबेडकर नाराज़ होकर लौट जाते हैं। दूसरे अंक में आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित ‘स्वतंत्र मतदाता संघ’ के विरोध में गांधी आमरण अनशन कर देते हैं, तब कस्तूरबा और गांधी का बेटा उनसे गांधी के प्राण बचाने का आग्रह करते हैं और आंबेडकर को बहुत आहत मन से मानवीयता को ध्यान में रखकर अपना प्रस्ताव वापस कर समझौता करना पड़ता है। इसे ही ‘पूना पैक्ट’ कहा गया है। इस घटना से संबंधित तमाम सवाल-जवाब, संदेह और तर्क विदूषक के माध्यम से नाटककार ने उठाए हैं। विदूषक बारी-बारी से गांधी और आंबेडकर के पास जाकर उनसे अनेक सवालों के माध्यम से उनके विचारों की परतों को खोलता जाता है। आंबेडकर बहुत दुखी मन से कहते हैं कि मुझे अपने समाज पर होने वाले अन्याय को दूर करने के लिए अंग्रेज़ों का हाथ इसलिए थामना पड़ा है क्योंकि हमारे हाथों को थामने के लिए कोई भी तैयार नहीं है।

समूचे नाटक में नाटककार ने गांधी और आंबेडकर, दोनों के विचारों को बहुत संतुलित तरीके से प्रस्तुत किया है। इसमें कोई शक नहीं है कि निर्देशक डॉ. मंगेश बंसोड़ ने विचारों की प्रस्तुति की एकरसता के खतरे को विदूषक के पात्र के जीवंत अभिनय तथा चुटीले संवादों के माध्यम से तोड़ा है। विदूषक अपनी बातचीत, गतिविधियों और छोटी-मोटी विदूषकीय हरकतों से कथा के ग्राफ को बहुत रोचक बना देता है। तीन पात्रों का नाटक होने के बावजूद आंबेडकर और गांधी की भूमिका में नमंतर कांबले तथा अरशद सैय्यदी ने बेहतरीन अभिनय और संवाद अदायगी की है। विदूषक की भूमिका में नेहा पाटिल नाटक की जान साबित हुईं। गांधी और आंबेडकर के बीच के संघर्ष से उपजी बेचैनी और तड़प को नेहा दर्शक के दिल-दिमाग तक पहुँचाकर झकझोरती हैं। गांधी और आंबेडकर के जीवन के अनेक छोटे-छोटे प्रसंगों पर विदूषक द्वारा सवाल करना और उनके जवाबों को दर्शकों तक प्रेषित करना अद्भुत है।

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नाटक के कुछ महत्वपूर्ण संवाद उद्धृत हैं :

1.गांधी के अस्पृश्य-प्रेम पर आंबेडकर टिप्पणी करते हैं – ‘‘गांधी जी के मन में अछूतों के प्रति जो आत्मीयता है, उसके लिए मैं उनका अहसानमंद हूँ, मगर बताइये कि, दाई और माँ के प्यार में कौनसा श्रेष्ठ माना जाएगा? गांधी जी दाई की तरह प्यार से हमारे सिर पर हाथ तो फेरते हैं, मगर माँ की तरह गोद में लेकर प्यार करने की बजाय हमें दूर ठेल देते हैं। अगर यह सच न होता तो, अपने स्वाभिमान को जागृत करने के हमारे संघर्ष का वे विराध नहीं करते।’’ (प्रेमानंद गज्वी : गांधी-आंबेडकर, पृ. 11, हिंदी अनुवाद मेरा)


2.1935 में आंबेडकर धर्म परिवर्तन का निर्णय लेते हैं। गांधी उनके निर्णय से चिंतित होते हैं। मगर वे अपने विचारों पर अडिग रहते हुए कहते हैं, ‘‘मैं नहीं जानता, जाति की उत्पत्ति कहाँ से हुई और आध्यात्मिक अनुभूति के लिए मुझे यह जानने की आवश्यकता भी नहीं है। वर्णाश्रम धर्म में मानवता के हित के लिए ही पारम्परिक व्यवसायों का बंधन निर्धारित है। कोई भी व्यवसाय हीन दर्जे का नहीं होता। आध्यात्मिक शिक्षा देने वाला ब्राह्मण और भंगीकार्य करने वाला भंगी दोनों का व्यवसाय समान योग्यता रखता है। ब्राह्मण आत्मा की स्वच्छता के लिए कार्यरत है तो भंगी का कर्तव्य है समाज की शारीरिक स्वच्छता का ध्यान रखना। सौंपा गया काम यथायोग्य तरीके से करने पर दोनों को ही एकसमान पुण्य मिलता है।’’ इस युक्तिवाद का जवाब देते हुए आंबेडकर कहते हैं – ‘‘पुण्यात्मा महात्मा जी, जातिसंस्था के विनाश के लिए मैं कृतसंकल्प हूँ, मगर आपकी जाति का उल्लेख कर रहा हूँ इसलिए कृपया नाराज़ मत होइयेगा। आप चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अंतर्गत वैश्य या बनिया जाति से हैं। लोगों द्वारा महात्मा कहलाने से पहले जब आपके सामने काम का सवाल उठा तो हाथ में तराजू लेने की बजाय आप कानून की पढ़ाई कर बैरिस्टर बने। आपने अपने पूर्वजों का व्यवसाय कभी नहीं किया। बावजूद इसके, आप दूसरों से कहते हैं कि वे पूर्वजों का ही व्यवसाय करें! तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि दलाल की संतानें दलाली ही करें और वेश्या के बच्चे वेश्यागिरी ही करें?’’ (प्रेमानंद गज्वी : गांधी-आंबेडकर, पृ. 31.32, हिंदी अनुवाद मेरा) इसके बाद आंबेडकर गांधी को आगाह करते हुए कहते हैं कि वे ज़रूर ब्राह्मणों समेत सभी का प्रतिनिधित्व करने की बात करते हैं मगर जब तक गांधी उनके हितसंबंधों की रक्षा कर रहे हैं, तब तक तो ठीक है, मगर जब ब्राह्मणों को लगेगा कि आप उनके हितों की बजाय अन्य लोगों के हितों का पक्ष ले रहे हैं, वे आपको छोडेंगे नहीं। आंबेडकर की यह बात सही निकली। 30 जनवरी 1948 को हिंदू-मुस्लिम एकता और छुआछूत का विरोध करने वाले गांधी की हत्या एक चित्पावन ब्राह्मण गोपाल गोडसे द्वारा की जाती है।


3.भारत-पाकिस्तान विभाजन के वक्त आंबेडकर समेत अनेक नेताओं का मानना था कि जब जिन्ना मुसलमानों के लिए पाकिस्तान चाहते ही हैं तो इस देश में रहने वाले सभी मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ! मगर गांधी दंगों को शांत करने के लिए अनशन तो करते ही हैं साथ ही वे ज़ोर देकर विदूषक से कहते हैं, ‘‘…जो व्यक्ति जहाँ पैदा हुआ, पला-बढ़ा और जिसकी दृष्टि अन्य किसी भी देश की ओर नहीं उठती, इस तरह के सभी लोगों का देश है भारत! वह जितना हिंदुओं का है, उतना ही पारसियों, यहूदियों, ईसाइयों, मुसलमानों और अन्य सभी गैरहिंदुओं का भी है। देखो विदूषक, स्वतंत्र भारत हिंदू राज्य नहीं बल्कि भारतीय राज्य है।’’ (प्रेमानंद गज्वी : गांधी-आंबेडकर, पृ. 55, हिंदी अनुवाद मेरा)

इसतरह के गांधी-आंबेडकर विवाद के अनेक पहलुओं को ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के आधार पर नाटककार प्रेमानंद गज्वी ने काफी तार्किक संवादों के माध्यम से स्पष्ट किया है। साथ ही निर्देशक डॉ. मंगेश बंसोड और अभिनेताद्वय नमंतर कांबले तथा अरशद सैय्यदी ने उतनी ही समझ और ताकत के साथ दोनों के चरित्रों को जीवंत किया है। स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक विचारधाराओं और कार्य पद्धतियों को अनेक व्यक्तियों और संगठनों द्वारा अपने-अपने तरीके से क्रियान्वित किया गया था। उनमें आपस में मत-वैविध्य और कहीं कहीं टकराव भी था मगर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे महान व्यक्ति एकदूसरे के शत्रु थे। अक्सर तात्कालिक राजनीतिक लाभों के लिए इन ऐतिहासिक व्यक्तियों को एकदूसरे के विरोध में खड़ा कर अधकचरे संदर्भों के साथ प्रस्तुत कर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश की जाती है। इस घटिया कोशिश को ध्वस्त करने के लिए इस तरह के संतुलित और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से लिखे और खेले हुए नाटकों की ज़रूरत हमेशा बनी रहेगी।

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