उषा वैरागकर आठले
(रंगमंच पर प्रस्तुत किया जाने वाला यथार्थ अगर फोटोग्राफिक होगा, यथातथ्य चित्रण करने वाला होगा, तो उसे देखने में दर्शक को खास दिलचस्पी नहीं होती। मगर जब उसी यथार्थ को उसकी बहुआयामी परतें खोलते हुए नाटकीयता के साथ, नए रचनात्मक प्रयोगों के साथ प्रस्तुत किया जाता है, तो उसका ज़्यादा गहरा असर दर्शक पर पड़ता है। मेरी इस समझ को पुख़्ता किया ‘राम’ नाटक ने। मुंबई में देखे गए नाटकों के नाट्य-परिचय की सातवीं कड़ी साझा की जा रही है। सभी फोटो 2019 में जयपुर में पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र द्वारा आयोजित ‘जयरंगम’ में हुए मंचन के वीडियो से लिए गए हैं। पहला फोटो गूगल से साभार। अंत में जयपुर के मंचन की यूट्यूब पर उपलब्ध वीडियो रिकॉर्डिंग की लिंक साझा की गयी है।)
मकरंद देशपांडे मराठी और हिंदी थियेटर का जानामाना नाम है, साथ ही साथ फिल्मों का भी। वे प्रायः समसामयिक विषयों को इतिहास-बोध के साथ जोड़ते हुए अपने नाटकों को वैचारिक के साथ गहरा भावात्मक अर्थ प्रदान करते हैं। पृथ्वी थियेटर में अंश थियेटर मुंबई के बैनर पर 14 जुलाई 2022 को मैंने मकरंद देशपांडे लिखित, निर्देशित एवं अभिनीत नाटक ‘राम’ देखा। पिछले कुछ वर्षों में राम के नाम का इस्तेमाल कर किसतरह राम को कट्टर हिंदुत्व के उन्माद के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है, इस पर इस नाटक में काफी टीका-टिप्पणी की गई है, अनेक सवाल उठाए गए हैं। ऐसा करते हुए पौराणिक काल को आधुनिक संदर्भों से जोड़ते हुए भारत के लोकप्रिय महाकाव्यों ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के साथ जादुई और अतिनाटकीय ‘ट्रीटमेंट’ अपनाते हुए अनेक सवाल खड़े किये गये हैं।
नाटक की कथा बहुस्तरीय है। वह शुरु होती है एक पागल से दिखने वाले व्यक्ति की एंट्री से। मंच मध्य के पीछे की तरफ बनी सीढ़ियाँ राम मंदिर को दर्शाती हैं। बैक स्क्रीन पर प्रकाशित राम राम रामनामी चादर की याद दिलाता है। पागल मंदिर की सीढ़ियों पर सो जाता है। अनेक ‘भक्त गण’ आरती के लिए पधारते हैं। उसे धक्का देकर भगा देते हैं और शुरु कर देते हैं शोरगुलभरी आरती। पागल बार-बार सीढ़ियों पर चढ़कर आरती में शामिल होना चाहता है पर वे लोग उसे हर बार धक्का देकर घुसने नहीं देते। अंत में नीचे ही बैठकर वह ‘मरा मरा’ का जप ज़ोर ज़ोर से शुरु कर देता है। भक्तगण तुरंत उस पर चढ़ बैठते हैं, उसे चुप करते हैं। फिर से आरती का शोर शुरु हो जाता है। पागल अब उन्हें चीरते हुए ऊपरी सीढ़ी पर पहुँचकर ज़ोर से चिल्लाता है, ‘ये राम मेरा भी है।’ उसकी बात अनसुनी कर भक्तगण उसे फिर नीचे धकेल देते हैं। वह चुनौती देते हुए कहता है, ‘पागल क्या कर सकता है, जानते हो?’ सब पूछते हैं, ‘क्या कर लेगा तू?’ वह चिल्लाकर कहते हुए समूचे ऑडी में भागने लगता है, ‘मैं तुम्हारे राम को ले भागूँगा। तुम मुझे राम से नहीं मिलने दोगे तो मैं राम को ही बाहर बुला लूँगा।’ भगदड़ मच जाती है। शोरगुल सुनकर एक हवलदार आता है। उससे सभी भक्त माँग करते हैं कि पागल को जेल में डाल दिया जाए, क्योंकि वह देशद्रोही है। ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाकर वे अपनी बात को पुष्ट करते हैं। पागल कहता है कि आज रामराज्य का सपना दिखाकर बातें की जा रही हैं। संदर्भ बदल गया है इसीलिए तो मुझे ‘राम’ की जगह ‘मरा’ सुनाई दे रहा है। हवलदार के पूछने पर वह स्पष्ट करता है कि ‘मैं मूर्ति क्यों चुराऊँगा? मैं तो उसकी आत्मा को ले जाऊँगा।’’ हवलदार भी ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाकर भक्तगण को शांत कर मंदिर में भेजता है। पागल को भी समझाकर चला जाता है। पागल राम को मंदिर से बाहर आने को पुकारता है और मानो वे बाहर आ रहे हैं, दिखाते हुए मंदिर के सामने की खाली जगह पर माथा टिकाते हुए उनकी जयजयकार करता है। उसके बाद भक्तगण को ललकारते हुए उनसे ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की तरह रामायण संबंधित सवाल पूछता है। कोई जवाब नहीं दे पाता। सब चले जाते हैं।
रामकथा संबंधी प्रसंगों को नाटकीयता के साथ बयान करते हुए मंच के बीचोबीच एक ईंट पर ‘जय राम’ लिखकर स्थापित करता है। उस अमूर्त राम से कहता है, ‘देखो मंदिर तो बंद हो गया। आप बाहर तो आ गए हो, अब कैसे जाओगे अंदर? मैं ही आपके खाने-पीने का बंदोबस्त करता हूँ।’ ईंट के आसपास फल-फूल सजा देता है। हवलदार आता है। उसके बाद उसके और पागल के बीच रामकथा संबंधी प्रसंगों पर रोचक बातचीत शुरु हो जाती है। पागल मुक्तिबोध का ‘ब्रह्मराक्षस’ का प्रतिनिधि लगता है। पागल द्वारा सुनाई रामकथा को बेकार कहते हुए हवलदार असली रामकथा रामानंद सागर के रामायण को बताता है। पागल उसे विभिन्न भाषाओं में लिखी गईं 300 रामायणों की जानकारी देता है। हवलदार आम आदमी का प्रतिनिधि है, जो ज्ञान की विरासत को जानने की बजाय मीडिया द्वारा परोसी गई जानकारी को ही परम ज्ञान मान बैठा है। कथाओं के दौरान पागल हवलदार को उसके विभिन्न पात्रों की भूमिका निभाने ‘ऑडिशन देने’ के लिए कहता है। धीरे-धीरे हवलदार के अलावा दर्शकों में भी प्रसंगों के प्रति उत्सुकता बढ़ने लगती है। पागल संवाद उछालता है, ‘इस युग में राम को समझना है तो पागल होना पड़ेगा।’ आगे की बातचीत के दौरान हवलदार रामायण और महाभारत की कथाओं और पात्रों में गफलत करने लगता है। पागल उसे दिलासा देते हुए कहता है कि, रामायण और महाभारत दोनों अपनी ही है इसलिए हम इन दोनों को मिलाकर अपनी कहानी गढ़ सकते हैं। चलो, तुम्हें दिखाता हूँ।
आगे रामायण-महाभारत के पात्र और वर्तमान काल के पात्रों के माध्यम से सांस्कृतिक-राजनीतिक संदर्भों का रोचक कोलाज बनता है। रामायण काल के लिए सीता के पात्र द्वारा पुरानी फिल्म ‘सम्पूर्ण रामायण’ के मधुर गीतों का उपयोग किया गया है। इसके कन्ट्रास्ट में महाभारत के पात्र वर्तमान राजनीति के एब्सर्ड तत्वों के अनुसार उछलकूद करने लगते हैं। मकरंद देशपांडे ने इन दृश्यों में ‘स्टाइलाइज़्ड’ गतियों और ताल-गतियों का उपयोग किया है। हवलदार और पागल मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर देख रहे हैं। दृश्य खत्म होते ही हवलदार कहता है कि अपनी ज़िंदगी में पहले कभी मैं इतना नहीं हँसा था। पागल समझाता है, ‘देखा तू ने? यहाँ विष्णु के दोनों रूपों को एकदूसरे के विरोध में खड़ा किया गया है… राम विरुद्ध कृष्ण…!’ हवलदार पूछता है, ‘मगर रावण तो था न?’ पागल कहता है, ‘था और अब तो रावणों की संख्या बहुत बढ़ गई है।’ रात को कंट्रोल रूम से हवलदार के पास सूचना आती है कि पास में कहीं जातीय दंगे शुरु हुए हैं। हवलदार पागल से कहता है, ‘‘ये जात-पाँत के मसले का कुछ करना पड़ेगा। तेरा राम क्यों नहीं करता कुछ? इस जात-पाँत को खत्म क्यों नहीं करवाता?’’ पागल जवाब देता है, ‘‘अब राम मेरा हो गया? अब तक तो तुम्हारा था? … अगर कुछ करना है तो हमें ही करना पड़ेगा। अपने भीतर से शुरु करना पड़ेगा। हमें अपनी ‘रामायण’ खुद लिखनी होगी। जो नियम नहीं चाहिए, उसे हटा दो।’’
फिर मंच पर रामायण के पात्र आते हैं। राम-रावण युद्ध में जामवंत के मरने पर उसके अंतिम संस्कार से सुग्रीव इंकार करता है। वह कहता है, मैं जामवंत की जाति का नहीं हूँ इसलिए मैं नहीं करूँगा। ‘रामायण काल में ये सब कहाँ से आ गया?’ – अन्य पात्रों द्वारा पूछे जाने पर सुग्रीव कहता है, यह भविष्य में होने वाला है। आपसी बातचीत के बाद सुग्रीव की आँखों के सामने छाए काले बादलों को हटाने के लिए अन्य लोग गले मिलते हैं और सब मिलकर वानर का अंतिम संस्कार करते हैं।
अगले दृश्य में भक्तों का समूह फिर मंदिर में आता है। पागल को वहीं देखकर चिढ़ जाता है और हवलदार से उसे मार भगाने के लिए धमकाता है। हवलदार द्वारा इंकार करने पर वे मॉब लिंचिंग में उसे खत्म करने की बात कहकर ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने लगते हैं और उसे उकसाते हैं कि आखिर वह भी तो हिंदू है। अंततः हवलदार पागल पर डंडा लेकर पिल पड़ता है। भक्त संतुष्ट होकर चले जाते हैं। हवलदार पागल से माफी माँगता है और अपने जीवन की कई घटनाओं को याद करता है, जहाँ वह उन्माद को रोक सकता था पर नहीं रोक पाया।
पागल हवलदार से घोषणा करने के लिए कहता है कि ‘राम आ रहे हैं। जिन्हें मुक्ति चाहिए वे एक तरफ और जिन्हें भक्ति करनी है, वे एक तरफ हो जाएँ।’’ हवलदार रामलीला की तरह रावण के सिर लगाकर आता है। रामायण और महाभारत के तमाम पात्र भी आते हैं। पागल धनुष्य लेकर राम के रूप में आता है। पौराणिक-समसामयिक कालों में आते-जाते पात्रों, संदर्भों, संवादों का एक घमासान मच जाता है। पागल के तर्कपूर्ण ज्ञान से प्रभावित हवलदार भी अपने पागल होने की घोषणा करता है। ‘एक पुलिसवाला पागल हो गया।’ अंत में पागल सभी भक्तों को आमंत्रण देता है कि वे भी पागल बन सकते हैं। मगर सब साफ इंकार करते हैं क्योंकि उन्हें राम के नाम पर बहुत से राजनीतिक काम करने हैं। ‘हमें बहुत काम है’ का कोरस गूँजने लगता है। भीड़ पागल और हवलदार को फाँसी पर चढ़ा देती है और फिर से मंदिर की सीढ़ियों पर कर्ण-कर्कश शोर के साथ राम की आरती में लग जाती है। राम की वेशभूषा में दर्शकों के एक ओर से एक अभिनेता आता है। सीढ़ियों पर जाकर कुछ क्षण ठहरकर भक्तों को देखता है और नीचे उतरकर फाँसी चढ़े दोनों को देखते हुए दर्शकों के बीच जाकर विलीन हो जाता है। भक्तों का उन्माद आरती के साथ बढ़ता जाता है।
पागल (मकरंद देशपांडे) और हवलदार (नागेश भोसले) के अलावा अन्य सभी अभिनेता लोक नाटक, आधुनिक नाटक, नुक्कड़ नाटक के स्तरों पर आते-जाते हुए प्रतीकात्मक वेशभूषा अपनाते हैं। ‘जय रामजी की’ की जगह ‘जय श्रीराम’ के नारे तक के समूचे राजनीतिक विकास के क्रम को कभी नाटकीय तो कभी गहरे फलसफे के साथ, कभी सीधे संवाद तो कहीं सांकेतिक संवादों के साथ वर्तमान के घालमेल को एक घंटे पचास मिनट में दर्शाया गया है। नाटक रोचक होने के बावजूद ज़्यादा लम्बा लगता है। ध्वनि-प्रभाव समय की आक्रामकता को लगातार महसूस करवाते हैं। सीढ़ियों के पीछे बैक कर्टन पर राम राम का जाप रामनाम की चदरिया के मैली होने का अहसास कराता है।
नाटक के संदर्भ में एक साक्षात्कार में मकरंद देशपांडे का वक्तव्य है, ‘‘अक्सर कहा जाता है कि नाटक की अच्छी स्क्रिप्ट नहीं लिखी जा रही हैं। मगर ऐसा नहीं है। हम आज भी पकीपकाई स्क्रिप्ट की खोज में होते हैं और पुरानी-धुरानी स्क्रिप्ट को उसी तत्कालीन समय में ही खेल देते हैं। मैंने यह स्क्रिप्ट ‘राम’ के बारे में फैलाई गई भ्रांति को दूर करने के लिए लिखी है।’’ मकरंद का मानना है कि दर्शक में यह विचार प्रक्रिया शुरु हो कि गलत बातों को हटाने के लिए समाज में बदलाव कैसे हो! ‘इतिहास अपनेआप को जैसा का तैसा नहीं दोहराता’ बल्कि उसके विकास की गति सर्पिल होती है। कोई विषय या समस्या हमें सतही तौर पर पुरानी भले ही दिखाई देती रहे, मगर उसके वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संदर्भों में बदलाव आ ही जाता है। इसीलिए हमें अपने आसपास के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक जीवन में हुए परिवर्तनों को ध्यान से देखना होगा। ‘राम’ इसीतरह रचा गया है। आज राम के नाम पर हिंदुत्ववाद और धार्मिक उन्माद की जो एब्सर्डिटी घटित हो रही है, उसका निषेध रचते हुए एक घंटा पचास मिनट (इंटरवल के साथ) तक दर्शकों के दिल-दिमाग को मथा गया है। पागल द्वारा बार बार याद दिलाया जाता है कि अपने अपने दिमागों को गिरवी न रखें, पुराणों और इतिहास की गलत व्याख्या से भारतीयता को बँटने न दें। विश्वास या आस्था में भी अंधविश्वास की जगह तर्क और कारण होने चाहिए।