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मुंबई का रंगमंच : पाँच : पिताजी प्लीज़

मुंबई का रंगमंच : पाँच : पिताजी प्लीज़

उषा वैरागकर आठले

(पृथ्वी थिएटर में नाटक देखने का अर्थ ही होता है, मंच पर घटने वाले हरेक क्रियाव्यापार को नज़दीक से देखना-महसूस करना। यह नाटक मैंने मंच से लगी हुई पहली सीट पर बैठकर देखा। यहाँ कलाकार कभी कभी आपसे मात्र दो फ़ीट की दूरी पर होता है और आप उसके एक एक एक्सप्रेशन को टीवी या लैपटॉप के स्क्रीन की तरह देख सकते हैं। मेरे इस पहले अनुभव में जहान कपूर इसीतरह सामने आकर डाउन स्टेज पर एक लम्बा संवाद बोलता है। एक्टर के इतने नज़दीक बैठे होने के अहसास ने मुझे कुछ अतिरिक्त रूप से सतर्क कर दिया था। मैं एकदम फ्रीज़ होकर बैठी थी ताकि मेरी किसी हलकी सी हलचल से भी उसकी एकाग्रता भंग न हो जाए , वह डिस्टर्ब न हो जाए ! अपनी इस आकस्मिक प्रतिक्रिया पर बाद में मुझे हँसी भी आई, लेकिन एक कलाकार होने के नाते एक अच्छे दर्शक का फ़र्ज़ भी मैं निभाना चाहती थी।

बहरहाल, ‘सहयात्री’ की पाँचवी कड़ी में प्रस्तुत है मकरंद देशपांडे लिखित एवं निर्देशित हिंदी नाटक ‘पिताजी प्लीज़’! सभी फोटो गूगल से साभार !)

परिवार में अभिभावकों की सोच क्या है? उनके सामाजिक सरोकार कैसे हैं? उनका परस्पर व्यवहार कैसा होता है? उनके परस्पर संबंध कैसे हैं? उनका अपने बच्चों के प्रति रवैया कैसा है? इसतरह के बहुत से सवाल अक्सर उठते हैं, खासकर तब, जब युवाओं की दिशाहीनता की बात बहुत आसानी से कहकर अधेड़ पीढ़ी उठनेवाली समस्याओं को टाल जाती है। मगर जब किसी माता-पिता पर अपने बेटे-बेटी के मूलभूत सवालों का जवाब देने का अवसर आता है, तब उन्हें पहले अपने भीतर भी झाँक लेना चाहिए! इससे कई बार समस्या का समाधान हो जाने की संभावना पैदा हो जाती है। नाटकवाला बैनर पर अंश थिएटर ग्रुप मुंबई का मकरंद देशपांडे लिखित और निर्देशित हिंदी नाटक ‘पिताजी प्लीज़’ में पिता के बद्धमूल साम्प्रदायिक विचारों के बदलने की खूबसूरत कहानी है।

एक ऐसे परिवार में, जिसमें माँ की मृत्यु के बाद पिता और बेटा दोनों काफी आत्मीय संबंधों के साथ रहते हैं। उसमें उनके संबंधों को और दृढ़ करती जाती है, उनके घर में ही रहनेवाली सहायिका हीराबाई। नाटक की शुरुआत में बेटे के बैग में लगी चींटियाँ पिताजी निकालने की कोशिश कर रहे हैं। जब वे बैग खोलकर देखते हैं तो उन्हें बैग में अल्लाह का ताबीज, आब-ए-जमजम अर्थात मुसलमानों का पवित्र पानी और प्रसाद का हलुआ मिलता है। वे एकदम चौंक जाते हैं। अपना बेटा किसी गलत दिशा में जा रहा है, सोचकर वे परेशान हो जाते हैं। उनका पूर्वाग्रही हिंदू मन बुरीतरह आशंकित हो जाता है। अक्सर उसे बाइक पर एक लड़की छोड़ने आती है, तो क्या वह उसकी गर्लफ्रेन्ड है? क्या वह मुस्लिम है, क्या बेटा भी मुस्लिम होने जा रहा है? आदि सवालों से पिता का माथा ठनकने लगता है। चूँकि दोनों के बीच काफी घनिष्ठ मगर कोमल संबंध हैं, इसलिए पिताजी नहीं चाहते कि उनके द्वारा गलत सवाल किये जाने से मातृविहीन बेटा आहत हो जाए या फिर उन्हें छोड़कर ही चला जाए!

पिताजी काफी सावधानी से उसकी गर्लफ्रेन्ड के बारे में पूछते हैं। बेटा संजू उसे पिताजी से मिलवाने लाता है और स्वाति नाम बताकर परिचय करवाता है। संजू की माँ का नाम भी स्वाति ही है। बातचीत में पता चलता है कि इस स्वाति और माँ स्वाति की कई बातें काफी एक जैसी हैं। पिताजी काफी राहत महसूस करते हैं। मगर संजू यह सच छिपाता है कि स्वाति का असली नाम सानिया है और वह मुसलमान है। वहीं दूसरा पेंच यह भी है कि वह सानिया के घर शाहिद बनकर जाता है। दोनों अपने प्यार को बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं। मगर दोनों को विश्वास है कि वे अंततः अपने घरवालों को मना लेंगे।

मकरंद देशपांडे लिखित और निर्देशित इस नाटक में मूल समस्या तो वही घिसीपिटी है, भिन्नधर्मीय प्रेम की; मगर उसका ट्रीटमेंट उन्होंने काफी कुछ ‘ऐसा होना चाहिए/हो सकता है’ वाले अंदाज़ में किया है। इस मामले में मकरंद देशपांडे का कथन है,
‘‘हिंदु-मुस्लिम समस्या पर किये जाने वाले नाटक और फिल्मों में हमें हमेशा हिंसा ही दिखाई देती है। मुझे नाटक में हिंसा की बजाय हिंसक विचार और पूर्वाग्रह को दिल-दिमाग से हटाना था इसलिए मैंने बतौर लेखक दो कदम उठाए, पहला, मृत माँ को जीवित किया। वह आधुनिक विचारों की थी। उसके कारण पिताजी का मत बदलता है। दूसरा, ‘दूसरा’ पक्ष भी ‘अच्छा’ है, इस विचार को प्रस्थापित किया। जब लड़की के घर में सच पता चलता है तब लड़की का भाई उस पर इसलिए नाराज़ होता है कि, ‘तू हमें क्या अनपढ़ समझती है, जो हम तेरे प्यार में अडंगा लगाएंगे!’ लड़की के अम्मी-अब्बा कहते हैं कि जो लड़का शाहिद बनकर हमारे घर आता है, वह हमारी लड़की से सच्चा प्यार करता है, हमें पता है। इसलिए तुम लोग जैसा चाहो, उस तरीके से शादी करो और खुश रहो।’’ (मकरंद देशपांडे : loksatta.com/lokrang/article-on-pitaji-please-hindi-play-natakwala-article-makrand-deshpande/22/12/2019 से साभार उद्धृत)

आज के ज़हरीले वातावरण में किसी को यह समस्या का सरलीकरण लग सकता है, परंतु संकुचितता की जगह क्या उदारता और मनुष्यता लाने की ज़रूरत आज नहीं है! और फिर हमारे समाज में आज ज़रूर परस्पर नफरत और हिंसा फैलाई जा रही है, परंतु इसका मूल तानाबाना साझी संस्कृति, प्रेम, उदारता और सहृदयता का ही रहा है। सैकड़ों घटनाएँ और कहानियाँ इसकी साक्षी हैं।

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सहायिका हीराबाई

तो होता ये है कि सहायिका हीराबाई के बाप-बेटे के बीच पुल बनने से, दोनों को एकदूसरे के मन की आशंकाओं की बजाय सीधे संवाद करने के लिए बहुत हल्के-फुल्के, मगर गहरी बातों से प्रेरित करने के कारण पिताजी को अपने मन की अतल गहराई में छिपे साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह पहचान में आते हैं और वे काफी कशमकश के बाद उनसे मुक्त होने का प्रयास करने के लिए तैयार होते हैं। इसमें स्वाति उर्फ सानिया के दिलकश स्वभाव, दोनों ‘स्वातियों’ में बेहतरीन गायन-क्षमता, शेरो-शायरी के शौक का योगदान भी हो जाता है। अपनी पत्नी के इन गुणों से समानता रखने के कारण पिताजी बरबस सानिया को स्वीकारते जाते हैं।

नाटक में ‘दूसरा’ पक्ष मंच पर ज़्यादा नहीं आता। सिर्फ पिताजी, संजू और सानिया के संवादों से ही आशंका और तनाव पैदा होकर कहानी साम्प्रदायिक हिंसा की ओर तो नहीं बढ़ जाएगी, इस बात से दर्शक चिंतित होने लगते हैं। जैसा मकरंद का उपर्युक्त कथन है, उन्होंने तमाम आशंकाओं का समाधान ‘हैप्पी एण्डिंग’ में किया है। तथाकथित ‘लव जिहाद’ जैसे विषय पर केन्द्रित यह नाटक मुझे इसलिए महत्वपूर्ण लगा कि पिछले कुछ वर्षों से हिंदू-मुस्लिम नफरत से लबालब ‘स्टीरियोटाइप’ बनाकर समाज पर आरोपित किये जा रहे हैं। जबकि अधिकांश लोग धार्मिक रूप से आस्थावान होने के बावजूद साम्प्रदायिक नहीं होते। भारत की आज़ादी के साथ-साथ विभाजन की त्रासदी से जुड़े साम्प्रदायिक विद्वेष से उठा धुआँ विरल करने में सभी भाषाओं के साहित्य में मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत गैरसाम्प्रदायिक चरित्रों और घटनाओं का विवरण देती रचनाएँ लिखीं गईं और साम्प्रदायिकता के पीछे छिपे राजनैतिक लाभ-लोभ का भंडाफोड़ किया गया है। मगर पिछले तीसेक बरसो से फिर से साम्प्रदायिक विद्वेष को हवा देकर उस पर राजनैतिक रोटियाँ तो क्या, पराँठे-पूड़ियाँ सेंकी जा रही हैं। और अब तो इसकी आड़ में देश की अर्थव्यवस्था को दाँव पर लगाकर, वोटों की फसल काटने के लिए हरप्रकार के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। ऐसे हालात में भी क्या कुछ लोग ऐसे नहीं हैं, जो धर्म-जाति के परे जाकर प्रेम, सद्भाव, भाईचारे और मानवता की स्थापना का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ‘पिताजी प्लीज़’ नाटक में यही अपील युवा प्रेमियों के प्रति उनके परिवारों के उदार व्यवहार विकसित होने में दिखाई देती है। विपरीत परिस्थितियों में इसतरह की घटनाएँ और पात्र कहीं न कहीं जनसामान्य को प्रभावित अवश्य करते हैं। भले ही वह नफरत के समुंदर में प्यार के अमृत की एक बूँद ही क्यों न हो!

पिताजी की भूमिका में प्रसिद्ध गायक और अभिनेता स्वानंद किरकिरे थे, वहीं उनके बेटे संजू की भूमिका निभाई जहान कपूर ने। जहान शशि कपूर के पोते हैं और यह उनका पहला नाटक रहा है। मगर कहना होगा कि उनके अभिनय का ताज़ापन स्वानंद किरकिरे जैसे सिद्धहस्त कलाकार को भी फीका कर रहा था। सानिया की भूमिका में आकांक्षा गाडे ने उर्दू और हिंदी के उच्चारणों को बहुत मेहनत के साथ साधे रखा। मूल स्वाति की भूमिका में गायिका स्नेहा मालगुंडकर और आकांक्षा गाडे के सुमधुर गीत नाटक के तनावपूर्ण कोहरे को हटाने का काम करते हैं। साथ ही पिताजी को अनेक मशहूर शायरों के शेरों को समझाना, उन पर चर्चा करना, नाटक को बहुत मानवीय और कलात्मक अर्थ देता है। माधुरी गवळी ने हीराबाई के रूप में हास्य-व्यंग्य की बारीक समझ को (जिसे मैं सर्वहारा की मानववादी दृष्टि कहूँ तो शायद आरोपण नहीं होगा) ‘कॉमिक रिलीफ’ के टुकड़ों में प्रस्तुत किया है, वह काफी सराहनीय है। दो मंज़िला पर सादा सेट और कुछ रंगयुक्तियों को अपनाने के कारण नाटक रोचक भी लग रहा था।

पृथ्वी थियेटर में देखा गया मेरा यह पहला नाटक मुझे यह सोचने पर बाध्य कर रहा था कि पुरानी और उलझी हुई समस्याओं पर किये गये नाटकों में नए और ताज़ा तरीके से सोचा जाना और उसे नए सकारात्मक प्रभाव की ओर ले जाना ज़्यादा बेहतर होगा। मंच पर जब यथार्थ दिखाया जाता है, उसे ‘इतिहास को दोहराने’ की बजाय ‘आज और आने वाले कल’ पर भी फोकस करना चाहिए। प्रेमचंद की ये पंक्तियाँ ‘साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।’’ मकरंद देशपांडे के इस नाटक को देखते हुए मुझे बरबस याद आ रही थीं। साम्प्रदायिक नफरतों को सुलगाने की पुरज़ोर कोशिशों वाले माहौल में आम आदमी अपनेआप से, अपने परिवार और समाज से किसतरह के सवाल करे, अपने भीतर के मनुष्य को किसतरह ज़िंदा रखे, इसकी प्रेरणा ‘पिताजी प्लीज़’ जैसे नाटक देते हैं।

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