उषा वैरागकर आठले
(बीसेक साल पहले वरिष्ठ रंग निर्देशक एन के शर्मा के एक्ट वन ग्रुप का नाटक ‘कश्मीर’ रायगढ़ इप्टा के नाट्योत्सव में देखा था, जिसमें कश्मीर में आतंकवाद पर देश के प्रशासन का रवैय्या और तहसनहस होते कश्मीरी परिवारों की स्थिति का मार्मिक प्रस्तुतीकरण था। उसी दौरान निर्देशक और संगीतकार संजय उपाध्याय से पहली बार कश्मीर की कवयित्री हब्बा खातून तथा ललद्यद के बारे में जाना और कश्मीर के लोक संगीत की कुछ झलक उनसे सुनी थी। उसके कई साल बाद 5 अगस्त 2019 को धारा 370 का हटाया जाना और फिर फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ के माध्यम से सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयत्न … ! इस पृष्ठभूमि पर पूर्वा नरेश का कश्मीर की लोक कवयित्री हब्बा खातून पर केंद्रित नाटक देखने की काफी उत्सुकता थी। देखा और लगा कि इस नाटक को और एक-दो बार देखने पर कुछ सन्दर्भ और स्पष्ट होंगे। बहरहाल, यही नाटक ‘मुंबई का रंगमंच’ की आठवीं कड़ी के लिए चुना। गूगल से सिर्फ दो फोटो ही हासिल हो पाए, इसका अफ़सोस है।)
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में मंच पर नाटक के माध्यम से किसी एक प्रदेश का लोकसंगीत, नृत्य, वेशभूषा, बोलीबानी और इतिहास के कुछ अंशों की झलक मिलती है, सांस्कृतिक परिचय मिलता है, तो दर्शक की अपनी क्षेत्रीय अस्मिता का विस्तार होता है। मुझे इसका अनुभव मिला सोलहवीं सदी के कश्मीर और इक्कीसवीं सदी के कश्मीर को एक साथ मंच पर देखने से – आरंभ मुंबई के बैनर पर निर्देशक पूर्वा नरेश द्वारा निर्देशित नाटक ‘रोशे रोशे’ में। एक साथ दो कालखंडों को मंच पर दिखाने का प्रयास पहले भी नाटकों में होता रहा है। इस नाटक में ‘नाटक के भीतर घटता एक अन्य नाटक’ की शैली अपनाई गई है। युद्ध, हिंसा और वर्चस्व की राजनीति किसी भी भूखण्ड के आम आदमी की ज़िंदगी को बद से बदतर बनाती है। उसकी संस्कृति को तहस नहस करने की कोशिश करती है मगर जनसाधारण के आपसी संबंध तथा इंसानियत का जज़्बा हरेक युग में उम्मीद की नन्हीं सी किरण की तरह आशादायी होता है।
पूर्वा नरेश लिखित एवं निर्देशित नाटक ‘रोशे रोशे’ 2019 से खेला जा रहा है। उस समय यह नाटक ‘ज़ून’ शीर्षक से, ‘नूर कश्मीर का’ टैग लाइन के साथ अनेक बड़े मंचों पर खेला गया। कोविड के लॉकडाउन की समाप्ति पर नए रूप में इसकी प्रस्तुति का दौर आरंभ हुआ। पृथ्वी थियेटर में 17 जुलाई 2022 को ‘रोशे रोशे’ देखना कश्मीर और कश्मीरी संस्कृति से रूबरू होने का सम्पन्न अनुभव था। पूर्वा नरेश सुदृढ़ स्त्री-चरित्रों और विचारों की वाहिका रही हैं। इस नाटक में भी स्त्रियों का अपना व्यक्तित्व सभी स्त्री पात्रों के माध्यम से सशक्त किया गया है। इस बाबत एक साक्षात्कार में पूर्वा नरेश ने बताया था, उनके नाटकों में ‘‘तीन मानक हैं, एक – कहानी या फिल्म में दो औरतों के बीच की बातचीत किसी मर्द के बारे में नहीं होनी चाहिए, दो – उन दोनों औरतों के स्क्रिप्ट में नाम होने चाहिए, तीन – उस सीन को अगर हटा दिया जाए तो कहानी या फिल्म में कोई फर्क पड़ना चाहिए।’’(samkaleenjanmat.in/poorva-naresh-on-women-struggle-in-the-field-of-cinema-and-theatre), पूर्वा जी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि, किसी भी स्त्री का चरित्र एक इंसान के रूप में महत्वपूर्ण होना ही चाहिए।
इससे पूर्व भी उनके नाटक ‘ओके टाटा बाय बाय’, ‘अफसाने’, ‘आज रंग है’, ‘प्रेत’, ‘लेडिज़ संगीत’ ‘आब-ओ-दाना’, ‘दो दीवाने शहर में’ और कुछ फिल्मों की पटकथा के लिए उनको जाना जाता रहा है। पूर्वा नाट्य लेखन, निर्देशन के अतिरिक्त नृत्य, संगीत, प्रोडक्शन, पखावज वादन में भी सिद्धहस्त हैं।
‘रोशे रोशे’ नाटक की कहानी दो स्तरों पर घटित होती है, जो कभी कभी आपस में घुलते-मिलते भी नज़र आते हैं। पहला स्तर है, सोलहवीं सदी की चर्चित प्रसिद्ध कवयित्री हब्बा खातून और कश्मीर के राजा युसुफ शाह चक की प्रेम कहानी का। हब्बा खातून को ‘कश्मीर की कोकिला’ भी कहा जाता रहा है। इसके तीन रूप नाटक में दर्शाए गए हैं। एक किसान लड़की, दूसरी उसकी अंतरात्मा और तीसरा रूप है रानी का। ज़ून एक किसान की बेटी है, जो आम आदमी के विचारों और भावभावनाओं को अपनी मधुर आवाज़ में व्यक्त करने वाली पहली कश्मीरी महिला रचनाकार है। उसकी निर्भयता, दृढ़ विचार और प्रतिभा कश्मीर के राजा युसुफ शाह चक को आकर्षित करती है। वह न सिर्फ उसके सौंदर्य से प्रभावित होता है, बल्कि उसकी शायरी से भी प्रभावित होता है। अनेक विरोधों के बाद दोनों की शादी होती है। ज़ून को कश्मीर की रानी ‘हब्बा खातून’ का खिताब दिया जाता है। जल्दी ही उसकी खूबसूरती, शायरी और सुमधुर आवाज़ के चर्चे अकबर तक पहुँचते हैं और वह उसे पाना चाहता है। वह कश्मीर आता है और धोखे से चक को गिरफ्तार कर लेता है। वह उसे ज़िंदा रहने का विकल्प देता है, कभी कश्मीर न लौटकर बिहार में रहने का। चक स्वीकार करता है, मगर हब्बा खातून बिहार जाने या फिर अकबर के हरम में रानी बने रहने की बजाय अपना पूर्व किसान-जीवन अपनाती है। चक और हब्बा खातून के संवाद बहुत महत्वपूर्ण हैं। वह बार-बार चक को युद्ध को त्यागने और सामान्य जन के जीवन को खुशहाल बनाने पर ज़ोर देती है। नाटक के इस हिस्से में सोलहवीं सदी की संस्कृति और घटनाओं को सम्मिलित किया गया है। नाटक के अंत में हब्बा खातून पर नाटक खेलने आई अभिनेत्री अपने संवादों को याद करते हुए इन दोनों युगों के बीच के अंतराल के बीच काव्यात्मक संबंध बनाती है।
नाटक का दूसरा स्तर वर्तमान काल में घटित होता है। नाटक की शुरुआत होती है पाँच कश्मीरी विद्यार्थियों से, जिनमें तीन लड़कियाँ और दो लड़के हैं – रज़िया, सालिमा, फातिमा, शुजा और नसीर। वे अपने गाँव में हब्बा खातून पर होने वाले नाटक की तैयारी कर रहे हैं। गाँव के अन्य लोगों में तीन पात्र और हैं – ज़हूर, बीबी और हब्बा। गाँव के आसपास भारतीय सैनिकों की छावनियाँ भी हैं। रज़िया चौकी पर तैनात सैनिकों में से एक सैनिक पर फिदा है। वह दूर से उसे देखते हुए उसका चित्र बनाती है। उसकी सहेलियाँ इसे लेकर काफी हँसी-ठट्ठा भी करती हैं। उस सैनिक की ड्यूटी का आखिरी दिन है और उसकी लापरवाही से रखी बंदूक सालिमा और फातिमा लेकर कहीं छिपा देती हैं, जो अचानक शुजा को मिलती है। शुजा और नसीर उसे लेकर काफी उत्तेजित होते हैं। चाचा ज़हूर उन्हें काफी समझाते हैं कि कहीं कोई उन्हें बंदूक लेकर देख लेगा तो बेवजह आतंकी होने के कारण पकड़ लेगा। मगर युवाओं की उत्तेजना उन्हें बंदूक नहीं छोड़ने देती। इसी बीच सैनिक अपनी बंदूक की तलाश के लिए आ पहुँचता है और काफी नाटकीय परन्तु वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक विडम्बनाओं को खोलने वाली बातचीत के बाद बंदूक उसे मिलती है। बातचीत में सैनिक को महसूस होता है कि, आतंकियों और सैनिकों के बीच फँसी कश्मीरी निरीह जनता को हिंसा, मौत, अशांति और असुरक्षा का किस तरह सामना करना पड़ रहा है, सैनिकों के हाथ से भी अनेक निरीह मौत का शिकार बनते हैं। ज़हूर और सैनिक के बीच इन बातों पर अनेक सवाल-जवाब कश्मीर की मूल समस्या और वर्तमान राजनीति पर उंगली रखते हैं।
ये दोनों कहानियाँ उस तरह से एकदूसरे से सम्बद्ध नहीं हैं मगर हिंसा का विरोध और इंसानियत से प्रेम की दृढ़ता दोनों को आपस में जोड़ती है। नाटक प्रस्तुत करने वाली अभिनेत्री बार-बार कहती है, ‘‘देश सिर्फ नक्शा नहीं होता, देश बनता है वहाँ रहने वालों से।’’ सरहदें बनती बिगड़ती हैं, और बनती बिगड़ती सरहदों के बीच राजा से देश छूट सकता है, लेकिन बोली, भाषा, संस्कृति और लोगों से प्यार करने वाले से उनका देश नहीं छूट सकता; ज़ून अपने देश और अपने लोगों से प्यार करती है इसलिए वह वहीं रह जाती है। सत्ता बनती-बिगड़ती रहती है मगर वहाँ के लोग हमेशा परस्पर प्रेम और शांति के साथ बने रहते हैं। पूर्वा ने अपने पिता नरेश सक्सेना की कविता ‘घास’ की लयात्मक प्रस्तुति से नाटक को और भी सार्थकता प्रदान की है –
धरती भर भूगोल घास का, तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास।
हब्बा खातून जितना अच्छा लिखती या गाती थीं, उतना ही शानदार उनका व्यक्तित्व भी था। गरिमापूर्ण, स्वाभिमानी और ज़मीन से जुड़े अपने दृढ़ विचारों से जगमगाता हुआ। अभिनेत्री ईप्शिता चक्रबर्ती सिंह ने हब्बा के चरित्र के सभी संभव पहलुओं को अपने संवेदनशील अभिनय, अद्भुत गायन तथा सहजता से जीवंत किया। कश्मीरी वाद्यों के साथ लाइव म्युज़िक ‘रोशे रोशे’ की अन्यतम विशेषता मालूम हुई। दो पृथक कालों को दिखाने के लिए ऊपर से नीचे गिरने वाले सुनहले जालीदार खूबसूरत पर्दे मंच को अप और डाउन स्टेज में बाँटकर महल और रनिवास को दर्शाते थे और डाउन स्टेज पर रखे दो लंबे बड़े संदूक दोनों कालों में आने-जाने वाले पात्रों की प्रॉपर्टीज़ रखने तथा लेवल्स के रूप में भी बखूबी प्रयुक्त हो रहे थे। दोनों कालों में फर्क कलाकारों की गतियों और क्रियाकलापों से भी स्पष्ट किया गया है। न केवल लोकसंगीत, नृत्य, कश्मीरी कॉस्ट्यूम, बल्कि भाषा और बोलने की लय में भी कश्मीरियत लाने के बेहतर प्रयास तथा कहीं कहीं खालिस कश्मीरी संवाद भी नाटक की प्रादेशिकता से रूबरू करा रहे थे। ‘रोशे रोशे’ शायद दो-तीन बार भी देखा जा सकता है।