उषा वैरागकर आठले
(मुंबई आने का एक फायदा तो हुआ कि यहाँ होने वाले वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रमों से रूबरू होने का मौका मिला। लगभग एक साल तो कोरोना की दूसरी और तीसरी वेव के लॉकडाउन में बीत गया। मगर फरवरी 2022 से मुंबई के ऑडिटोरियम धीरे-धीरे खुलने लगे। मैंने भी हिम्मत करके अनादि के साथ नाटक देखने और कुछ साथियों के साथ यहाँ की गतिविधियों को जानने-समझने की शुरुआत की। तमाम वामपंथी साथियों द्वारा मनाया गया साथी डॉ. श्रीधर पवार का साठवाँ जन्मदिवस बिल्कुल अलग भावनात्मक अंदाज़ में महसूसा। कुछ मराठी और हिंदी लेखों-नाटकों के ‘अभिवाचन’ (एक स्थान पर बैठकर भावभंगिमापूर्ण वाचन) की प्रस्तुति, व्याख्यान और सबसे नियमित देख रही हूँ विभिन्न प्रकार के नाटकों की प्रस्तुतियाँ ।
मुंबई के अलग अलग उपनगरों में काफी बड़ी संख्या में ऑडिटोरियम हैं। अधिकांश ऑडी में मराठी या गुजराती के कमर्शियल नाटक निरंतर चलते रहते हैं। हिंदी नाटक ज़्यादातर पृथ्वी थिएटर जुहू में होते हैं। पृथ्वी थिएटर में नाटक देखने का अनुभव इसलिए ख़ास होता है क्योंकि मंच से लगकर तीन तरफ दर्शकों के बैठने की सीट्स हैं। यहाँ आने वाले दर्शक बहुत अनुशासित होते हैं। पिन ड्रॉप साइलेंस। कोई फोटो नहीं, कोई वीडियो शूटिंग नहीं, अन्य कोई भी हलचल मंच या उसके आसपास नहीं। इसलिए आप पूरी एकाग्रता के साथ नाटक देख सकते हैं। हरेक सीट से नाटक व्यवस्थित दिखाई-सुनाई देता है। यहाँ सीट नंबर नहीं होते। पंद्रह मिनट पहले एंट्री शुरू होती है और जिसको जहाँ बैठना है, बैठ सकता है। बस, अंतिम समय में आनेवाले को अपने चॉइस की सीट नहीं मिलती। दो मिनट देर से आनेवाले को भी एंट्री नहीं मिलती। अगर नाटक इंटरवल वाला है, तो इंटरवल में टिकट दिखाकर ज़रूर प्रवेश मिल सकता है। जिसको कलाकारों से मिलना है, पंद्रह मिनट रुकिए, वे खुद ऑडी के बाहर आकर मिलेंगे। मुझे घर से आने-जाने में लगभग तीन घंटे लग जाते हैं, और नाटक देखने में डेढ़ से दो घंटे, लगभग छह घंटे …हिम्मत जवाब देने लगती है , मगर हफ्ते-दस दिन में कोई न कोई नाटक ‘बुक माय शो’ में दिख ही जाता है कि मैं फिर ऑडी तक की लम्बी यात्रा के लिए तैयार हो जाती हूँ। शनिवार-रविवार को जुहू समुद्र किनारे जाने वालों की भयानक भीड़ में अक्सर ट्रैफिक जाम में भी फँसना पड़ता है।
‘सहयात्री’ की लेखन-यात्रा कुछ दिनों के लिए थोड़ी डाइवर्ट हो गई थी। कुछ दूसरे लेखन कार्यों में संलग्न हो जाने के कारण ब्लॉग-लेखन रूक-सा गया था। अपनी अनुभव-यात्रा का स्वरूप बरकरार रखते हुए इस बीच देखे हुए अनेक हिंदी-मराठी नाटकों पर टिप्पणियों के साथ कुछ कड़ियाँ प्रस्तुत हैं। पहली कड़ी है, मोहन टकळकर निर्देशित नाटक ‘मैथेमैजिशियन’। सभी फोटो गूगल से साभार लिए गए हैं। )
अक्सर नाटक देखते हुए मेरी इप्टाई प्रैक्टिस सबसे पहले नाटकों के कथ्य पर केन्द्रित होती है। मगर नाट्य-मंचन में सिर्फ कथ्य ही तो प्रमुख नहीं होता। प्रस्तुति-पद्धति या शिल्प, अभिनय, निर्देशन, संगीत, लाइट और अंततः नाट्य-प्रस्तुति का प्रभाव भी लम्बे समय तक एक रंगकर्मी या दर्शक की स्मृतियों में कौंधता रहता है। कई बार ऐसा होता है कि जिन नाट्य-प्रस्तुतियों में कुछ नए प्रयोग होते हैं तथा निर्देशक की परिकल्पना में सांकेतिकता ज़्यादा होती है या फिर जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह ‘लार्जर दैन लाइफ’ होता है; या हल्के अंदाज़ में कहें तो ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ होता है, तो नाटक देखकर आने के बाद भी मंच पर देखी हुई इमेजेस, कुछ दृश्य, कोई भंगिमा या फिर कोई ध्वनि अक्सर विचार के नए-नए आयामों को उकसाती है। इसीलिए मुझे ईमानदारी से कहना होगा कि देखे हुए नाटकों पर मेरी टिप्पणी शायद लेखक-निर्देशक-कलाकारों द्वारा प्रस्तुत करने के इरादों या लक्ष्यों से कुछ अलग भी हो सकती है। मगर यह एक रंगकर्मी-दर्शक के अपने रंग-अनुभवों की दृष्टि है, इसके सही होने का दावा कदापि नहीं है। नाटक ‘मैथेमैजिशियन’ देखते हुए मैं जिन संकेतों को जज़्ब कर रही थी, पता नहीं, वे संकेत प्रस्तोताओं के इच्छित थे या नहीं!
आसक्त कलामंच, पुणे के बैनर पर मोहित टकळकर निर्देशित गौरी रामनारायण लिखित नाटक ‘मैथेमैजिशियन’ पिछले हफ्ते देखा। यह नाटक 2017 से किया जा रहा है। इसका नैरेटिव महाकाव्यात्मक है और इसमें अनेक प्रकार की ‘स्टाइलाइज़्ड’ रंगयुक्तियों का प्रयोग किया गया है। मंच सज्जा के नाम पर मंच के मिड-लेफ्ट में ऊपर छत से लटकते जिबह किये गये चौपाये का बहुत बड़ा धड़ लटक रहा है, जिसके पेट में एक बड़ा चीरा दिखाई देता है।
उल्टे टंगे हुए इस चौपाये के मुँह से नाटक शुरु होने के पंद्रह मिनट बाद, जब नायक का बधियाकरण किया जाता है, गाढ़ा खून निकलना शुरु होता है, जो अंत तक टप-टप टपकता रहता है। इस खून का इस्तेमाल अनेक स्थानों पर प्रतीकात्मक, बिंबात्मक, रूपकात्मक तथा अभिनय के विभिन्न भावों को ध्वनित करने के लिए कई प्रकार से किया गया है।
मंच की फर्श सफेद रंग के फ्लैक्स से ढँकी हुई है और उस पर टपकने वाला यह चिपचिपा खून अभिनेत्री के पाँवों में चिपककर पूरे मंच पर उसके चलने से एक सिहरनभरी ध्वनि पैदा करता है, उसके पदचिन्हों की छापों के सफेद फर्श पर अंकित होने से सत्ता के क्रूर चरित्र के अनेक आयामों को महसूस किया जा सकता है, अभिनेत्री के हाथों और चेहरे पर लगकर वही खून सत्ता द्वारा भ्रष्ट कर दिये गये एक रचनात्मक, विचारशील तथा प्यारभरा दिल लिए, मगर क्रूर बनते चले जाने वाले व्यक्तित्व के बदलते रंगों को अभिव्यक्त करता है। यहाँ टपकने वाला गाढ़ा खून एक चरित्र की तरह अभिनेत्री के क्रियाकलापों को अनेक अर्थ देता चलता है।
नाटक की कहानी प्राचीन बेबीलोन के एक बच्चे निकर के माध्यम से कही जाती है, जो आगे चलकर एक ‘मैथेमैजिशियन’ माना जाने लगता है – गणित का जादूगर। मात्र 8 वर्ष की उम्र में अपने पिता की स्वीकृति से बधिया कर वह बेबीलोन के सम्राट की गुलामी के लिए भेज दिया जाता है। चूँकि वह ज़हीन होने के कारण अंकों के जोड़-घटाव में तेज़ होता है, अतः वहाँ उसे प्रमुख गणितज्ञ या अकाउंटेंट प्लॉटस की देखरेख में रखा जाता है। वहाँ उसकी मासूमियत किसतरह सत्ता और ऐश्वर्य की जकड़न में पड़कर तिरोहित होती जाती है, मगर उसका मासूम मन पूरीतरह नहीं मरता। वह अपनी उसी मासूमियत के साथ अपनी समूची दर्दभरी क्रूर दास्ताँ बताता जाता है।
उसकी मासूम असहायता धीरे-धीरे उसे अकेलेपन और आतंक के साये में गिरफ्त कर लेती है। इसका एक कथात्मक रूपक बताया जाता है कि उसे एक नन्हा-सा कीड़ा भेंट किया जाता है, जो धीरे-धीरे एक अजगर में बदल जाता है। निकर काफी दिनों तक उसकी पूँछ को नियंत्रण में रखकर उसके पाश का शिकार होने से बचता रहता है, परंतु धीरे-धीरे वह भी उसी क्रूर व्यवस्था का शिकार होकर उस लालच, लालसा, क्रूरता के अजगर की गुंजलिका में जकड़ता जाता है और नाटक के अंत में अजगर उस पर विजय प्राप्त करता हुआ उसकी हड्डियों को चकनाचूर करता हुआ उसकी जीवन लीला समाप्त कर देता है। उसकी हड्डियों की कड़कड़ाकर और चकनाचूर होने की आवाज़ से दर्शक समझ जाता है कि निकर की इंसानियत की ओर वापसी के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं।
मोहित टकळकर ने कथाकथन के शिल्प में रंगमंच की सभी विधाओं का अर्थपूर्ण उपयोग कर एक अकेले अभिनेता के साथ प्रकाश, नेपथ्य से गूँजता ‘नरेशन’, अनेक प्रकार के ध्वनि-प्रभाव (अनेक संवाद, निकर के दिमाग में उभरनेवाली प्रतिध्वनियाँ तथा ग्रीक संगीत के टुकड़े) और दृश्य-प्रभाव, रूपसज्जा, वस्त्रसज्जा (कालनिरपेक्ष, लिंगनिरपेक्ष तथा समूची आंगिक गतियों के लिए अनुकूल) जेंडरलेस डिज़ाइन के लिए बहुत उपयुक्त, अभिनेत्री की मुख-मुद्रा, देह-बोली की सूक्ष्म मुद्राएँ, आवाज़ों के अनेक लेवल्स के उतार-चढ़ाव तथा पॉजे़स – इन सभी को विभिन्न चरित्र प्रदान किये हैं, जो कथाकथन को बहुत रोचक बनाने के साथ मानवजाति द्वारा की जाने वाली अमानवीय हिंसा, हत्या, गुलामी, श्रम और बौद्धिक शोषण के साथ सत्ता-पिपासुओं द्वारा की जानेवाली निर्मम क्रूरता के अनेक आयामों में प्रकट होते हैं।
जिसतरह अभिनेता की हरेक गतिविधि, हरेक उच्चरित ध्वनि, हरेक अंग-संचालन, हरेक संवाद-अदायगी, उससे ध्वनित होने वाले अर्थ-संदर्भ सत्ता के क्रूर चरित्र और व्यवहार के प्रति गहरा निषेध व्यक्त करते है, उसीतरह हरेक दृश्य-श्रव्य घटित उसमें और भी पुख्ता अर्थ पैदा करते हैं।
पुणे की अभिनेत्री इप्सिता चक्रवर्ती सिंह का अभिनय और मोहित टकळकर द्वारा निर्देशक के रूप में एक बहुत परिपक्व परंतु सपाट रंगभाषा का निषेध रचती हुई नाटकीयता दर्शक के सामने घटित होती है। समूची टीम (निर्देशक और अभिनेत्री के साथ तमाम बैक स्टेज आर्टिस्ट) की गहरी बौद्धिक समझ तथा रंग-समझ कुछ लोगों को अमूर्त लग सकती है, मगर विश्व राजनीतिक इतिहास का क्रूर से क्रूरतम की ओर सूक्ष्म होते चलना संवेदनशील और जागरूक दर्शक के लिए एक त्रासद चिंतन पैदा करता है। नाटक देखकर दर्शक तटस्थता या प्रसन्नता से घर नहीं लौट सकता, उसे अपने आसपास घटनेवाली तमाम राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं की मर्मान्तक क्रूरता, असंवेदनशीलता तथा अमानवीयता बुरीतरह सालने लगती है। वह गहरी बेचैनी से भर उठता है। शायद निर्देशक मोहित टकळकर का यही उद्देश्य भी है।
यह एक अजीब संयोग है कि ‘मैथेमैजिशियन’ का पूरा खाली मंच देखकर मुझे पीटर ब्रुक का ‘एम्प्टी स्पेस’ याद आया था और दूसरे दिन ही पीटर ब्रूक की दुखद मृत्यु का समाचार मिला। पीटर ब्रुक के महान प्रयोगों को सलाम !
बहुत अच्छी टिप्पणी।
UshaJi ! A truely Consious Personality!
Truth of d System n Common Men’s life (especially the emotional ones) !
Marhemagician is not for so pathetc end !
We need a Sober Version in which the “Mathemagician” fills up the empty space with Mathematical Oprarions n its result is D Solution!
Remedy from the “supressions of the system” !We must find Characters with whom he fulfills the Stage and be able to escape from the Python/System!
Salute to the Writer ,Director n all the Dramatists!