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मुंबई का रंगमंच : दो : ‘ब्रोकन इमेजेस’ : एक अद्भुत अनुभव

मुंबई का रंगमंच : दो : ‘ब्रोकन इमेजेस’ : एक अद्भुत अनुभव

उषा वैरागकर आठले

(मुंबई आने का एक फायदा तो हुआ कि यहाँ होने वाले वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रमों से रूबरू होने का मौका मिला। लगभग एक साल तो कोरोना की दूसरी और तीसरी वेव के लॉकडाउन में बीत गया। मगर फरवरी 2022 से मुंबई के ऑडिटोरियम धीरे-धीरे खुलने लगे। मैंने भी हिम्मत करके मुंबई का रंगमंच देखने-समझने के लिए निकलना शुरू किया। मुंबई के अलग अलग उपनगरों में काफी बड़ी संख्या में ऑडिटोरियम हैं। अधिकांश ऑडी में मराठी या गुजराती के कमर्शियल नाटक निरंतर चलते रहते हैं। मैं जो मराठी अख़बार ‘लोकसत्ता’ लेती हूँ, उसके एक पन्ने पर सिर्फ नाटकों के विज्ञापन होते हैं। हिंदी नाटकों की खोजखबर ‘book my show से मिलती रहती है। इसलिए टिकट बुक करके बहुत आसानी से नाटक देखा जा सकता है।

‘सहयात्री’ की लेखन-यात्रा कुछ दिनों के लिए थोड़ी डाइवर्ट हो गई थी। कुछ दूसरे लेखन कार्यों में संलग्न हो जाने के कारण ब्लॉग-लेखन रूक-सा गया था। अपनी अनुभव-यात्रा का स्वरूप बरकरार रखते हुए इस बीच देखे हुए अनेक हिंदी-मराठी नाटकों पर टिप्पणियों के साथ कुछ कड़ियाँ प्रस्तुत हैं। दूसरी कड़ी है, शबाना आज़मी अभिनीत नाटक ‘दी ब्रोकन इमेजेस ’। सभी फोटो गूगल से साभार लिए गए हैं। )

06 मार्च को सेंट एन्ड्रयूज़ ऑडिटोरियम, बांदरा में गिरीश कर्नाड लिखित, अलेक पदमसी निर्देशित तथा शबाना आज़मी अभिनीत एकल अंग्रेज़ी नाटक ‘ब्रोकन इमेजेस’ देखा। गिरीश कर्नाड के नाटक विशिष्ट अर्थ-छवियों को व्यक्त करते हैं, चाहे उसका कथानक पौराणिक हो, ऐतिहासिक हो, सामाजिक हो या फिर मनोवैज्ञानिक हो! ‘ब्रोकन इमेजेस’ का हिंदी रूपान्तरण ‘बिखरे बिम्ब’ मैं पदातिक नाट्य समूह का यूट्यूब पर देख चुकी थी। साथ ही किशोरावस्था से फिल्मों में शबाना आज़मी के अभिनय की फैन तथा कैफी आज़मी के जन्म शताब्दी वर्ष में एनसीपीए में आयोजित बाबा आज़मी की परिकल्पना द्वारा प्रस्तुत ‘रंग शायरी’ नामक अद्भुत काव्य-पाठ, गीत-संगीत, वाद्य-संगीत और इन्हें पिरोता हुआ शबाना आज़मी और जावेद अख्तर की टिप्पणियों से सजा कार्यक्रम यूट्यूब पर देख-सुनकर मैं शबाना आज़मी का अभिनय मंच पर देखने के लिए बहुत उत्सुक थी। अंग्रेज़ी नाटक भी न के बराबर देखे हैं इसलिए ‘ब्रोकन इमेजेस’ देखने का ज़बर्दस्त कुतूहल था।

ऑडिटोरियम में प्रवेश के साथ ही एक टीवी स्टुडियो का खूबसूरत सेट नज़र आता है और नज़र टिकती है मंच के बीचोबीच लगाए गए एक बड़े स्क्रीन पर। महसूस होता है कि इक्कीसवीं सदी में इलेक्ट्रॉनिक इमेजेस का जादुई असर दिन-प्रति-दिन जनमानस को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री की लोकप्रियता वर्चुअल इमेजेस की निरंतर बम्बार्डिंग का खेल भी है। ऐसे समय में मंच पर स्क्रीन की रंगयुक्ति सिर्फ प्रयोग नहीं लगती, बल्कि नाटक देखने के बाद यह स्क्रिप्ट की ज़रूरत महसूस होती है।

तकनीकी कल्पना पर आधारित नाटक को बखूबी डिज़ाइन किया गया है। टीवी स्क्रीन एक रंगयुक्ति के रूप में प्रयुक्त हुआ है। शबाना आज़मी दो भूमिकाओं में दिखाई देती हैं – एक, मंच पर जीवंत अभिनय करती हुईं और दूसरा, टीवी स्क्रीन पर प्री-रिकॉर्डेड वीडियो में नायिका की सेल्फ इमेज के रूप में। नाटक काफी हल्के-फुल्के ढंग से शुरु होता है। एक हिंदी लेखिका मंजुला शर्मा अचानक एक अंग्रेज़ी उपन्यास लिखती है और वह ब्रिटिश पब्लिकेशन से छपकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी लोकप्रिय हो जाता है। उसे बहुत जल्दी बहुत प्रसिद्धि और धन प्राप्त हो जाता है। उपन्यास पर एक टेलिफिल्म बनती है और टेलिविजन पर उसके प्रसारण से पहले मंजुला शर्मा का अपने उपन्यास पर वक्तव्य रखा गया है।

कहानी शुरु होती है मंजुला के टीवी स्टुडियो में प्रवेश से, वह आकर निर्धारित स्थान पर बैठती है। टीवी का एंकर उसका परिचय कराने के बाद उसे उद्बोधन के लिए आमंत्रित करता है। अपने संक्षिप्त वक्तव्य में मंजुला दो सवालों के जवाब देती है कि उसने हिंदी में लिखते-लिखते आखिर अचानक अंग्रेज़ी उपन्यास क्यों लिखा तथा उसने एक फिज़िकली चैलेन्ज्ड लड़की की कहानी किस अनुभव से लिखी! इसका जवाब देते हुए मंजुला इसे अपनी व्हील चेयर पर ज़िंदगी गुज़ारने वाली खूबसूरत, प्रतिभाशाली बहन मालिनी की ज़िंदगी का अक्स बताती है। उसका वक्तव्य समाप्त होते ही वह स्टुडियो से बाहर निकलने लगती है तभी स्क्रीन से कोई आवाज़ उसे रूकने के लिए कहती है। पहले उसे लगता है कि वह अभी भी कैमरे के सामने हैं, वह हड़बड़ा जाती है। टीवी स्क्रीन पर दिखने वाला उसका प्रतिरूप उसे बताता है कि वह उसका ही अंतर्मन है। आगे शुरु होता है दोनों के बीच सवाल-जवाब का सिलसिला!

पहले वह समझ नहीं पाती कि ये क्या हो रहा है, मगर उसका अंतर्मन या प्रतिबिम्ब उसे समझाता है कि अंतर्द्वन्द्व से बेहतर है कि वे रूबरू बात करें! दोनों की परस्पर बातचीत से धीरे-धीरे अंग्रेज़ी उपन्यास का भेद सामने आता है कि वह उपन्यास उसकी बहन मालिनी ने लिखा है (जिसे अंग्रेज़ी का ही अभ्यास था), जिसमें उसने अपनी तमाम व्यथा-कथा बहुत कलात्मक अंदाज़ में प्रस्तुत की है। वह बेस्टसेलर उपन्यास हो सकता था, मंजुला उसके इस महत्व को समझती है। वह ब्रिटिश प्रकाशक के पास भेजती है, तो तुरंत स्वीकृति का मेल आ जाता है, साथ ही एक बड़ी-भारी अग्रिम राशि भी। मंजुला उपन्यास अपने नाम से छपवा लेती है। वह उसे इसलिए भी अपने नाम से छपवा लेती है ताकि उसमें चित्रित उसका स्वयं का खलनायकी वास्तविक रूप सामने न आए, बल्कि वह उसे एक अच्छे के विरुद्ध बुरे चरित्र की साहित्यिक तकनीक के रूप में प्रचारित कर सके। वह उसके स्वयं के द्वारा रचा गया काल्पनिक चरित्र दिखाई दे। उससे प्रेम-विवाह करने वाला उसका सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ पति इससे नाराज़ होकर अमेरिका चला जाता है क्योंकि वह मालिनी द्वारा उपन्यास लिखने और टाइपिंग करने की समूची प्रक्रिया का साक्षी रहा है। बहन ने उपन्यास में सिर्फ एम. शर्मा लिखा था, जिसे वह मंजुला शर्मा कर लेती है, जबकि वह विवाह के बाद अपना हिंदी कथा-लेखन मंजुला तिवारी के नाम से करती है। किताब की बहुत बड़ी रॉयल्टी और प्रसिद्धि के कारण वह आत्मसंतुष्ट है, उसने अपनी महाविद्यालयीन नौकरी भी छोड़ दी है।

उसका अंतर्मन या ‘इमेज’ उससे सवाल-जवाब करते हुए उसके अंग्रज़ी लोकप्रिय उपन्यासकार होने का पर्दाफाश करता है। इसके साथ नाटक में क्रमशः तनाव बढ़ने लगता है। दोनों बहनों के बीच के अंतर और अंदरूनी कुंठा की परतें धीरे-धीरे खुलने लगती हैं। ‘इमेज’ सवाल करती है कि बहन की मौत के मात्र दो सप्ताह के भीतर उसने लगभग साढ़े तीन सौ पेजेस का उपन्यास कैसे लिख और टाइप किया! अगर ऐसा है तो उसका नाम गिनीज़ बुक में दर्ज़ होना चाहिए। अपनी ‘इमेज’ के सामने मंजुला का झूठ टिक नहीं पाता और अपनी प्रतिमा का इसतरह टूटना वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। उसकी मर्मान्तक चीख पर नाटक समाप्त होता है।

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नाटक में मंजुला के माध्यम से भाषाओं की राजनीति तथा अस्मिता के संकट को भी उभारा गया है। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में लिखनेवाले साहित्यकारों को अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन बाज़ार में न उतनी प्रसिद्धि और पैसा मिलता है, बल्कि कुछ अपवादों को छोड़कर उन्हें कुछ हीन भाव से भी देखा जाता है।

शबाना आज़मी का मंच पर जीवंत अभिनय और टीवी की स्क्रीन पर दिखाई देते मंजुला के अंतर्मन से सवाल-जवाब करना न केवल मल्टीमीडिया के कमाल के प्रति मुग्ध करता है बल्कि दोनों के अभिनय, संवाद-अदायगी की टाइमिंग का परफेक्शन तथा मुख-मुद्रा के निरंतर बदलते भाव, बॉडी लैंगवेज का भावनाओं के उतार-चढ़ाव के साथ सूक्ष्मता के साथ बदलना दर्शक को बाँध देता है। मंच पर एक ओर जीवंत अभिनय और दूसरी ओर रिकॉर्डेड ‘इमेज’ की बातों और उसके जीवंत चरित्र के साथ किया गया ‘आई कॉन्टेक्ट’ बिलकुल निर्धारित है, इसलिए शबाना जी के लिए अपनी मंचीय गतियों को इम्प्रोवाइज़ करने का ज़्यादा अवसर नहीं रहता। मगर उनके जैसी अभ्यस्त और अनुशासित अद्भुत अभिनेत्री स्क्रीन के साथ इतना सहज संतुलन बनाती है कि दर्शक देखता ही रह जाता है।

कहानी के खुलते रहस्यों के साथ-साथ बदलने वाली मंजुला की अस्तव्यस्तता और पाखंड की परतें खुलते जाने से हताशा की अभिव्यक्ति शबाना आज़मी ने बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत की है। शबाना आज़मी ने ‘ब्रोकन इमेजेस’ में अपने अभिनय पर बात करते हुए एक साक्षात्कार में कहा था कि वे कभी किसी शो में मंजुला के प्रति सहानुभूति रखते हुए अभिनय कर जाती हैं तो कभी बहन मालिनी के प्रति! यह बात उनकी तात्कालिक मनःस्थिति से अपनेआप हो जाती है। मल्टीमीडिया स्क्रीन और लाइट-साउण्ड के अनूठे प्रयोग से अंत में मंजुला की अपनी प्रतिमा का तड़ककर टुकड़े-टुकड़े हो जाना टेक्नालॉजी का खूबसूरत प्रयोग है।

इप्टा की इस महान अभिनेत्री को मंच पर अभिनय करते देखना वाकई कुछ अद्भुत देखना था। अलेक पदमसी के निर्देशन की बारीकियाँ शबाना जी की अभिनय की गहरी समझ के साथ घुलमिल गई प्रतीत हो रही थीं। (उल्लेखनीय है कि अलेक पदमसी ने कई साल पहले शौकत आज़मी के साथ तीन नाटक निर्देशित किये हैं, जब शबाना जी बच्ची थीं और अपनी उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव में शबाना जी के साथ निर्देशन …)। उम्र के इस पड़ाव पर भी शबाना आज़मी की साफ आवाज़, संवाद-अदायगी की गहरी पकड़ तथा उनके अद्भुत स्टेमिना ने मुझे बहुत अभिभूत किया। यह बात ज़रूर थी कि दो साल बाद ‘ब्रोकन इमेज’ के कल लगातार दो मंचन हुए। हमने अंतिम मंचन देखा, जिसमें उनकी थकान झलक रही थी। अलक पदमसी की बेटी ने बताया कि उसके पहले वे टेक्निकल रिहर्सल भी कर चुकी थीं, जो उनकी आदत में शामिल है। अर्थात एक साथ लगातार तीन मंचन…! 55 मिनट का नाटक इतना कसा हुआ था कि दर्शक मानो साँस रोके देख रहे थे।

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