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मराठी लघु फिल्म : कुलुप (ताला)

मराठी लघु फिल्म : कुलुप (ताला)

(लॉकडाउन के दौरान यूँ ही खोजते-खोजते यूट्यूब पर मुझे कुछ मराठी लघु फ़िल्में मिलीं। जिस तरह मराठी में दलित आत्मकथाओं ने भारतीय समाज में व्याप्त जाति-व्यवस्था के एक अंधियारे पक्ष को साहित्य के माध्यम से उजागर किया था, जिससे वर्ण-व्यवस्था के क्रूर चेहरे की अनेक मुख-मुद्राओं से पाठकों को रू-ब-रू होने का अवसर मिला, उसी तरह इन लघु फिल्मों ने महाराष्ट्र की अनेक दबी-कुचली-पिछड़ी-वंचित जातियों के जीवन-संघर्ष, विपरीत परिस्थितियाँ, अन्याय, अपमान और उपेक्षा के बावजूद आत्मसम्मान के नए क्षितिज छूने का विशाल संसार मेरे सामने खोल दिया। चूँकि मैं मराठी से हिंदी अनुवाद के माध्यम से मराठी-हिंदी के बीच पुल का काम करती ही हूँ, इसलिए इस काम को थोड़ा विस्तार देते हुए मराठी की इन लघु फिल्मों से परिचय की कुछ कड़ियाँ साझा कर रही हूँ। तीसरी कड़ी में है – लघु फिल्म कुलुप ।)

‘कुलुप’ में पहले ही स्क्रीन पर झलकता है :
‘‘यह गन्ना-कटाई कामगारों के दुष्कर जीवन से रूबरू करानेवाली कहानी है। इसमें आजीविका के लिए छै-छै महीने का स्थलांतरण तथा उसके कारण होने वाली बच्चों की शिक्षासंबंधी छटपटाहट का वास्तविक चित्रण है।’’

शक्कर-उत्पादन में भारत में महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है। महाराष्ट्र राज्य में लगभग 101 सहकारी तथा 87 निजी शक्कर कारखाने हैं। इनमें लगभग 8 से 10 लाख गन्ना-कटाई कामगार राज्य के विभिन्न क्षेत्रों से स्थलांतरित होकर काम करते हैं। ये 4 से 6 महीने अक्टूबर से अप्रेल तक गन्ना-कटाई का काम करते हैं। इन कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत कुछ सुविधाओं की घोषणा की जाती रही है। इस लघु फिल्म का निर्माण 2017-18 में हुआ है। उस समय तक शायद ‘साखरशाळा’ (शक्कर कामगारों के बच्चों के लिए अस्थायी शाला) चलाई जाती थीं, जो कोविड-काल में बंद हो गई। 2021 में राज्य शासन द्वारा ज़रूर इन स्थलांतरित कामगारों के बच्चों के लिए छात्रावासों के प्रबंध के अलावा अन्य योजनाओं पर चर्चा हुई है।

महाराष्ट्र में बच्चों पर केन्द्रित बहुत बड़ी संख्या में मराठी भाषा की फिल्में बनी हैं। हिंदी में भी काफी फिल्में हैं, मगर मेहनतकशों के बच्चों की जीवन-परिस्थितियों पर बनाई गई फिल्मों का अभाव दिखाई देता है। अक्सर मीडिया में जब भी बच्चों की शिक्षा की बात होती है, मध्यवर्ग या नगरों-महानगरों के निम्नमध्यवर्ग के बच्चों के इर्दगिर्द ही दायरा सिमट जाता है। कोरोना की पहली लहर के दौरान माननीय प्रधानमंत्री द्वारा अचानक लगाए गए लॉकडाउन से यह बहुत बड़ी सच्चाई सामने आई थी कि विभिन्न प्रदेशों में अपनी आजीविका के लिए कितने ही परिवार स्थलांतरित होते हैं। उनके घर-परिवार और बच्चों पर इस स्थलांतरण का क्या असर होता है? पता नहीं, इस पर कोई रिसर्च हुआ हो! बीसेक साल पहले कोलकाता में वरिष्ठ अभिनेत्री-निर्देशक उषा गांगुली के ‘रंगकर्मी’ ने महिला कलाकारों पर केन्द्रित एक वर्कशॉप किया था। उसमें सम्मिलित हुए छत्तीसगढ़ के पूनम और दीपक तिवारी, जिन्होंने काफी लम्बा समय हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर’ के साथ रंगकर्म किया था, उनका वक्तव्य आज भी मुझे बेचैन करता है। अनेक गाँवों-शहरों-विदेशों में निरंतर नाट्य-मंचन करने वाली हबीब साहब की टीम के कलाकार-दम्पति अपने बच्चों को किसतरह जीवन की स्थिरता देकर उनकी शिक्षा-दीक्षा का फर्ज़ पूरा करें, पूनम दी का यह सवाल इस मराठी लघु फिल्म को देखते हुए मुझे फिर झकझोर गया। बार-बार स्थलांतरण को झेलते बच्चे कुछ भले शिक्षकों के लिए भी चुनौती होते हैं। एक ही सत्र में दो-तीन शालाएँ बदलने को मजबूर इन बच्चों की मानसिक स्थिति से गुज़रना तकलीफदेह है। ‘कुलुप’ में बच्चे के साथ उसके माँ-पिता तथा संवेदनशील शिक्षक की बाहय और मानसिक दबावों की क्रिया-प्रतिक्रिया इस ताले की चाबी खोजने में मदद की गुहार लगाती है। व्यवस्था की विसंगतियाँ किसतरह कितने ही परिवारों को अनिश्चित वर्तमान और भविष्य की असुरक्षित मशीनरी में पिसने को मजबूर कर रही है, फिल्म यह अहसास कराती है।

फिल्म एक कविता के साथ शुरु होती है, जिसका भावानुवाद इसप्रकार है –

चाबी इस ताले की कहाँ मिलेगी मुझे…
चाबी इस ताले की कहाँ मिलेगी मुझे?

फूलों की खुशबू सोख, पंछियों को सूना किया,
दिये बुझाकर सारे, किताबों को दूर किया…
थमे थे दोस्तों के हाथों में हाथ,
क्यों उन्हें छुड़ा दिया, लगाकर लात…

चाबी इस ताले की कहाँ मिलेगी मुझे…
चाबी इस ताले की कहाँ मिलेगी मुझे?

गन्ने की फसल ने, मिठास तुम्हें दी,
उसके लिए हँसिये को धार हमने दी…
हमारी साँस उखड़ गई
सुख तुम्हारा ढोते हुए…

चाबी इस ताले की कहाँ मिलेगी मुझे…
चाबी इस ताले की कहाँ मिलेगी मुझे?

इस सवाल की भँवर में हमें छोड़कर कैमरा रास्ते पर बढ़ती चली जाती बैलगाड़ी पर जा टिकता है। बैलगाड़ी में अपने माँ-पिता के साथ बैठा बच्चा बहुत अनमने ढंग से क्षितिज पर नज़रें टिकाए हुए है। बच्चा याद कर रहा है अपने गाँव की स्कूल, जहाँ वह अपने दोस्तों के साथ खाने-पीने से लेकर खेलकूद, पढ़ाई-लिखाई में मशगूल रहता है। उसे जिस दिन चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम स्थान के साथ कलर बॉक्स मिलता है, वह बहुत खुशी और उत्साह से अपने घर की ओर दौड़ पड़ता है मगर दरवाज़े से घुसते ही उसे अपने पिता की आवाज़ सुनाई देती है कि मुकादम का बुलौवा आ गया है, उन्हें दो दिनों बाद गन्ना-कटाई के लिए निकलना होगा, सुनकर बच्चे नटु सुनील गटपुटले के हाथों से कलर बॉक्स छूट जाता है।

उसका दिल टूट जाता है… फिर एक बार, अपनी स्कूल छोड़कर उसे दूसरी जगह जाना होगा! दो दिन बाद घर में ताला लगाकर नटु को लेकर उसके माँ-पिता बैलगाड़ी में बैठकर निकल पड़ते हैं। नटु कभी घर के दरवाज़े में लगे ताले को देखता है तो कभी साथ ले जाने वाली पेटी में लगे ताले को!

वे गन्ने के खेतों के पास बनी अस्थाई झोंपड़ियों में पहुँचते हैं। दिनेश ठेकेदार सबको अगले दिन से काम पर आने के लिए कहता है। सुनील नटु को वहाँ के अस्थाई स्कूल में छोड़ने जाता है। नटु क्लास में जाता है मगर तुरंत भागकर पिता के पास वापस आ जाता है और घर लौट जाता है।

सुनील और रत्ना की तरह कई परिवार वहाँ हर साल लगभग छै महीने के लिए गन्ना-कटाई और उससे सम्बद्ध अन्य कामों के लिए आते हैं। उनके लिए अच्छीखासी झुग्गियों की बस्ती बनी हुई है। हर साल आने के कारण गाँव में भी उनकी पहचान है। मगर नटु अब तीसरी में है, उसे पिछले साल की बातें खास याद नहीं हैं। वह नए वातावरण में बहुत उदास है। मगर अगले ही दिन पड़ोस की झुग्गी के हमउम्र बच्चे से उसकी दोस्ती मीठी गोली के माध्यम से हो जाती है।

गाँव के स्कूल के दोस्तों की तरह ही गण्या उसके साथ खेलना और बातें करना चाहता है। गण्या भी नटु की ही तरह छै महीने गाँव में, छै महीने खेत पर रहता है। वह नटु को बड़ों की तरह समझाता है। दोनों बच्चों के मासूम सवाल-जवाब आँखें नम कर देते हैं –

गण्या : तुझे स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता?
नटु : अच्छा लगता है…
गण्या : तो क्यों नहीं आता? क्यों रोता है?
नटु : मुझे अपनी स्कूल में जाना है…
गण्या : ये भी तो तेरी स्कूल है…
नटु : मगर इस स्कूल में मेरे दोस्त सोनू और पप्पू तो नहीं हैं!
गण्या : तुझे वहाँ के दोस्तों की याद आती है?
नटु : हाँ…
गण्या : तू ये क्यों नहीं मान लेता कि वो लोग तेरे वहाँ के स्कूल के दोस्त हैं, यहाँ की स्कूल का दोस्त मैं हूँ!

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नटु को उसकी बात समझ में आती है, वह खुश होकर स्वीकृति में सिर हिलाता है और स्कूल जाने लगता है।

बहरहाल, नटु की इस शाला में कम बच्चे और एक ही शिक्षक है। शायद कक्षा का निश्चित बंधन नहीं है। शिक्षक बच्चों को नियमित आने के लिए प्रोत्साहित करता है और समझाता है कि ‘‘अच्छे से पढ़ो-लिखो ताकि अपने माँ-पिता की तरह विपरीत परिस्थितियों में न रहना पड़े। अपने अभिभावकों के सपने पूरे करो।’’

रविवार की छुट्टी में बच्चे भी गन्ने के खेतों में माँ-पिता का हाथ बँटाते हैं। नटु वहाँ की ज़िंदगी में रम जाता है। देखते-देखते छै महीने बीत जाते हैं। गन्ना-कटाई का काम समाप्त कर अपने गाँव लौटने का दिन आता है। नटु भी अपने स्कूल का झोला सामान के साथ रखता है। उसे फिर ताला लगी पेटी दिखाई देती है। उसे फिर उत्सुकता होती है कि उसमें क्या है! वह एक पाइप से पेटी का ताला तोड़ता है। भीतर उसके चित्र रखे हैं। नटु अपने चित्र निकालता ही है कि गण्या उसे पुकारते हुए आता है कि ‘‘गुरुजी स्कूल में ताला लगा रहे हैं।’’ वह हाथ में कागज थामे हुए ही गण्या के साथ स्कूल की ओर दौड़ पड़ता है। उसके पिता उसे रोकने की कोशिश करते हैं पर बच्चे तेज़ दौड़ते चले जा रहे हैं। वे सीधे स्कूल पहुँचकर रूकते हैं। उनके गुरुजी ताला लगाकर पलटते हैं। इन बच्चों के चेहरे देखकर वे भी पसीजते हैं। उन्हें बहुत स्नेह के साथ समझाते हैं कि यह स्कूल अब छै महीने के लिए बंद हो रहा है, अब तुम गाँव लौटकर वहाँ की स्कूल में अच्छीतरह पढ़ना। हम अगले सीज़न में फिर मिलेंगे। कितना मज़ा है कि तुम लोगों को दो स्कूलों में दो-दो बार पढ़ने का मौका मिल रहा है! बच्चों के आँसू पोंछते हुए शिक्षक उन्हें विदा करता है। नटु के पीछे-पीछे पहुँचा उसका पिता भारी मन से देखता रह जाता है।

और हमें कविता का उत्तरार्द्ध सुनाई देता है, इसका भावानुवाद इसप्रकार है –

छै महीने का रहता है साथ
समूची पीढ़ी को करता परेशान
इंतज़ार करती आँखों को
कब कर सकोगे शांत शांत?

नहीं दे सके कुछ भी अगर,
हमारे हाथों को बल दे दो…
नन्हीं आँखों में तैरते आँसुओं से
नज़र मिलाने की हिम्मत दे दो…
नहीं दे सके हमें मगर
हमारी संतानों को तो अब
इस ताले की चाबी दे दो,
इस ताले की चाबी दे दो…

इस बहुस्तरीय अन्यायपूर्ण व्यवस्था में अनगिनत लोगों की किस्मत पर मुट्ठी भर लोगों ने ताला लगा रखा है। वे सिर्फ और सिर्फ अपनी रोटी-रोजी कमाने के लिए अपना भविष्य गिरवी रखने के लिए अभिशप्त कर दिये गये हैं। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने इस अज्ञान, शोषण, वंचना के ताले को खोलने की चाबी शिक्षा को कहा है। शिक्षा के साथ किसतरह के प्रयोग हो रहे हैं, देख ही रहे हैं। मगर इसतरह के असंगठित मजदूरी वाले रोज़गारों में लगे लोग आंबेडकर की इस बात पर भी अमल नहीं कर पा रहे हैं – संगठित हो और संघर्ष करो। अब तो शिक्षा और संगठन पर सत्ताधारियों के पहरे लग गए हैं, आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए संघर्ष करना भर हाथ में रह गया है।

शैलेश मंडेसा निर्मित इस लघु फिल्म की पटकथा और निर्देशन है विशाल रंजना भीमराव अभंग का तथा कलाकार हैं – अथर्व जावळे, महेन्द्र आंबवले, सुचिता मोरे, संस्कार ननावरे, संदीप गायकवाड़, ओंकार अभंग, सागर चव्हाण, नारायण सरंडे, शिवेन्द्र भोसले आदि। 19 मिनट 50 सेकंड की यह फिल्म सातारा जिले के ग्राम चिमणगाँव, कोपर्डे हवेली में चित्रांकित की गई है। अंग्रेज़ी सबटाइटल्स के साथ फिल्म देखिये :

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