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मराठी लघु फिल्म : कातडं (The Skin)

मराठी लघु फिल्म : कातडं (The Skin)

(लॉकडाउन के दौरान यूँ ही खोजते-खोजते यूट्यूब पर मुझे कुछ मराठी लघु फ़िल्में मिलीं। जिस तरह मराठी में दलित आत्मकथाओं ने साहित्य में भारतीय समाज में व्याप्त जाति-व्यवस्था के एक अंधियारे पक्ष को उजागर किया था, जिससे वर्ण-व्यवस्था के क्रूर चेहरे की अनेक मुख-मुद्राओं से पाठकों को रू-ब-रू होने का अवसर मिला था, उसी तरह इन लघु फिल्मों ने महाराष्ट्र की अनेक दबी-कुचली-पिछड़ी-वंचित जातियों के जीवन-संघर्ष, विपरीत परिस्थितियाँ, अन्याय, अपमान और उपेक्षा का विशाल संसार मेरे सामने खोल दिया। चूँकि मैं मराठी से हिंदी अनुवाद के माध्यम से मराठी-हिंदी के बीच पुल का काम करती ही हूँ, इसलिए इस काम को थोड़ा विस्तार देते हुए मराठी की इन लघु फिल्मों से परिचय की कुछ कड़ियाँ साझा कर रही हूँ। पहली कड़ी में है – लघु फिल्म कातडं या चमड़ा। )

भारत में जाति-व्यवस्था की श्रेणीबद्धता की सबसे घटिया बात है जातियों की ऊँच-नीच तथा जाति का जन्मना होना। इससे समाज में जो सबसे गंदे, बदबूदार और कड़े परिश्रम वाले काम हैं, वे आज भी कुछ तयशुदा निम्न जातियों के लिए अनिवार्य माने जाते हैं। नालियों-पाखानों की गंदगी साफ करना, मरे हुए जानवर को उठाकर ले जाना, उनका चमड़ा आदि उतारना, तमाम तरह की झाड़-पोंछ करना – इन जैसे कामों के लिए कुछ जातियों के लोग आरक्षित हैं। इस आरक्षण से किसी आरक्षणविरोधी को तकलीफ नहीं होती।

जाति-व्यवस्था की इस अमानवीय सच्चाई में जीते इंसानों की ज़िंदगी पर साहित्य-कला-सिनेमा और अब सोशल मीडिया पर भी बहुत कुछ कहा-सुना जा रहा है। मगर जिस अनुपात में अमानवीय हरकतें आज भी घटित होती हैं, उसका एक हजारवाँ हिस्सा भी सामने नहीं आता। पहले प्रायः कुछ सवर्ण पढ़े-लिखे लोग, जो अपनी संवेदनशीलता के कारण जाति-व्यवस्था के इस यथार्थ को क्रूर मानते थे, वे ज़रूर इसके खिलाफ अनेक माध्यमों से अभिव्यक्त होते थे मगर पिछले कुछ वर्षों से वे लोग भी, जो स्वयं इस क्रूर यथार्थ का शिकार रहे हैं, इसतरह के जातिगत अपमान, असमानता, वर्चस्ववाद के खिलाफ खुलकर सामने आ रहे हैं, उनकी रचनाएँ दिल दहला देने वाली हैं। चाहे वे आत्मकथाओं की शक्ल में हों, नाटक, पेंटिंग्स, सिनेमा के रूप में ही क्यों न हो! जो सवर्ण शहरी युवा बहुत सहजता के साथ आज कह देते हैं कि भारत में अब जाति हैं कहाँ? उनकी आँखें खोल देने वाली घटनाएँ अब लगातार समाचार की शक्ल में और कला-माध्यमों से भी बाहर आने लगी हैं। इस संदर्भ में मैं मराठी लघु फिल्मों पर बात करना चाहती हूँ। इक्कीसवीं सदी की बात करें तो मराठी में नागराज मंजुले की फीचर फिल्म ‘फैन्ड्री’ आई और उसके बाद ‘सैराट’ आई, उन्होंने लोकप्रियता अर्जित करने के साथ-साथ दर्शकों के दिल-दिमाग को भी झकझोरा।

मराठी लघु फिल्मों के क्षेत्र में भी उपेक्षित-वंचित जातियों के लोग अब फिल्मकार के रूप में सामने आ रहे हैं। यह बेहद उल्लेखनीय बात है कि इनके माध्यम से दिखाई जाने वाली सच्चाई उनके अपने अनुभव-संसार से छन कर आती है इसलिए इनमें जन-जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को समझने का मौका मिल रहा है। यू ट्यूब पर इस तरह के विषयों पर केन्द्रित मराठी लघु फिल्मों का ख़जाना है।

अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में सराही गयी अमित नरवडे निर्देशित-संपादित मराठी लघु फिल्म ‘कातडं’ (चमड़ा/स्किन) गुजरात में ऊना में घटी घटना तथा महाराष्ट्र के रायगड जिले में घटित घटनाओं पर आधारित है। फिल्म तीन हिस्सों में प्रस्तुत हुई है। फिल्म का पहला हिस्सा पूर्वरंग के रूप में मंदिर-प्रवेश और छुआछूत सम्बन्धी, दूसरा हिस्सा मूल कथा का कि जिसमें मरे हुए जानवरों को उठाने और उनका चमड़ा छीलने वाली जातियों के साथ होने वाला अपमानजनक हिंसक व्यवहार तथा पिछले कुछ सालों से हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा नैतिक पुलिसिया अंदाज़ में की जानेवाली हिंसा के साथ पुलिस के गठजोड़ की बर्बरता को प्रदर्शित किया गया है; तीसरे हिस्से में, देश में घटनेवाली इसतरह की अनेक घटनाओं की प्रिंट तथा वीडियो रिपोर्ट्स के अंश।

फिल्म के शुरुआती पहले हिस्से में मरे हुए जानवरों का चमड़ा छीलने वाले जाति के एक दूल्हे की बारात का चित्रण है। फिल्म का टाइटल आने के पहले इस आरम्भिक हिस्से में ही कुछ संवादों में जातिगत श्रेणीबद्धता के संघर्ष की झलक दिखाई देती है। जब एक दूल्हा बाजे-गाजे के साथ पैदल गाँव की सीमा से प्रवेश कर रास्ते में दिखने वाले गँवई मंदिरों में माथा टेकता जाता है। रास्ते में पड़ने वाले गणेश मंदिर में जब वह दर्शन करना चाहता है तो कुछ सवर्ण वर्चस्ववादी युवकों द्वारा उसे रोक दिया जाता है। वहीं उपस्थित एक मास्टर हस्तक्षेप करता है परंतु उसे डाँट-डपटकर चुप कर दिया जाता है और दूल्हे को अपमानित कर भगा दिया जाता है।

इस दृश्य के कुछ संवाद हैं :

“शिक्षक : भगवान का दर्शन करने की उनकी इच्छा है तो उन्हें दर्शन लेने दीजिये न! देखिये, जैसे ये अपना मंदिर है, वैसे ही उनका भी है। वैसे भी अपने देश के संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं।

पहला सवर्ण युवक : मास्टर, ये सब बातें स्कूल जाकर बच्चों को पढ़ाना, हमें नहीं। चार किताबें पढ़कर मास्टर बन गया तू, तो क्या अब हमको सिखाएगा?

दूसरा सवर्ण युवक : ये गाँव है गाँव, शहर नहीं! (उन लोगों से) हो गया न दर्शन? अब फूटो यहाँ से। (मास्टर से) तुम्हें नहीं पता, कैसे गंदे हैं ये!

दूल्हा : कैसे गंदे हैं हम? हम गन्दगी साफ़ करते हैं, इसलिए तुम लोग साफ़ रह पाते हो वरना उसी गन्दगी में सड़कर मर जाते !

दूसरा सवर्ण युवक : ए पक्या, तेरी इतनी औकात हो गयी कि हमें पलटकर जवाब देगा! फूट यहाँ से वरना …

दूल्हा : वरना क्या करेगा? (उसके साथ बारात में आया उसका सजातीय माधव उसे रोकता है)

माधव : चल पक्या यहाँ से, क्या दर्शन दर्शन की रट लगा रखी है! क्या हमारे मंदिरों में भगवान नहीं हैं? सब भगवान एक-से होते हैं, आदमी उन्हें अलग-अलग कर देता है।”

दूसरे हिस्से में लघु फिल्म की मूल कथा है। यह कथा गुजरात के ऊना में घटित घटना पर आधारित है।

एक बच्चा नामदेव, स्कूल से अकेले लौटते वक्त पिचकी प्लास्टिक की बोतल से खेलते हुए घर लौट रहा है। तभी पीछे से बच्चों का एक समूह उसे ‘कातड्या कातड्या’ (चमरा… चमरा…) चिढ़ाता हुआ उससे धक्कामुक्की करता है। उसके खाने का मज़ाक उड़ाते हुए उसे घेर लेता है। बच्चा बुरी तरह अपमानित महसूस करते हुए घर पहुँचता है। गाँव में किसी सवर्ण घर में शादी है। वहाँ माइक पर घोषित किया जाता है कि “मेहमानों का खाना हो चुका है इसलिए बस्ती के अछूत जाति के लोग अब आकर भोजन कर लें। ” घर आते ही नामदेव अपना बस्ता झोंपड़ी में रखकर माँ से खाना माँगता है। माँ उससे कहती है कि थाली-कटोरी लेकर शादी-घर जाकर खाना ले आए! वह मना करते हुए कहता है कि वहाँ बचा-खुचा-जूठा खाने वह नहीं जाएगा और माँ भी न जाए। इस पर माँ उसके सामने मोटी रोटी लाकर पटक देती है। बच्चा कहता है, वह कल से स्कूल नहीं जाएगा। माँ गुस्सा होकर कहती है कि “बाप चमड़ा छीलता है तो बेटा भी छीलेगा।” पिता द्वारा कारण पूछने पर नामदेव बताता है कि सब उसे चमार… चमार… कहकर चिढ़ाते हैं, पास आने पर नाक दबा लेते हैं। पिता उसे समझाता है कि किसी के कुछ भी कहने पर उसे कान नहीं धरना चाहिए! उसे तो पढ़ना ही होगा, बड़ा आदमी बनना ही होगा। वह अपने बेटे को चमड़ा छीलने का काम हर्गिज़ नहीं करने देगा।

तभी पिता के दो दोस्त आते हैं। वे सभी चिंतित हैं कि उनकी आजीविका कैसे चलेगी! वे मज़दूरी करने की बात करते हैं। मगर दूसरी ओर वे इस बात से भी चिंतित हैं कि उन्हें उनके पारम्परिक काम करते रहने पर मजबूर किया जाता रहेगा।

इस दूसरे हिस्से की कथा के बीच एक अन्य छोटी कथा भी जुड़ जाती है सम्पत की। एक बैलगाड़ी में किसी की लाश लेकर एक औरत जा रही है। नामदेव का पिता माधव उसे देखकर दुखी होकर सम्पत के बारे में बताता है कि बेचारे ने अपनी जमीन स्कूल के लिए दी थी। स्कूल चली नहीं, तो गाँववालों ने उस पर दबाव बनाया कि वह उस जमीन को गाँव के नाम कर दे। उसके द्वारा इंकार करने पर गाँववालों ने और पंचायत ने उसे जाति-बाहर कर उसका बहिष्कार कर दिया। दुकानदार ने सामान देना बंद कर दिया। यहाँ तक कि उसके बच्चों से तक कोई बच्चे नहीं खेलते थे। उसके शव को कंधा देने तक कोई नहीं आया। गाँवों में व्याप्त जातिगत राजनीति और ऊँच-नीच की नींव पर खड़े मजबूत किले की घेरेबंदी की परिणति है सम्पत की कथा।

एक दोस्त का मोबाइल बजता है। वह सुनता है और उत्साह से बताता है कि गाँव के बाहर कॉलेज से आगे एक जानवर मरा पड़ा है, उससे बहुत बदबू आ रही है। नामदेव और उसकी माँ के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल जाती है कि कल के खाने का जुगाड़ हो गया। वे ऑटो रिक्शे में बोरा, प्लास्टिक का बारदाना और रस्सी आदि लेकर चल पड़ते हैं। बच्चा भी ज़िद करके अपने पिता के साथ जाता है। वे बमुश्किल मरी हुई गाय को निकालकर ऑटो रिक्शा में लादते हैं। उन्हें दूर से कुछ भीड़ उनकी ओर आते हुए दिखाई देती है। उन्हें समझ में नहीं आता, माजरा क्या है! सभी युवकों के हाथ में लाठी, हॉकी, डंडे हैं। वे आते ही उन पर आरोप लगाते हैं कि वे जानवर को मारकर माँस की तस्करी कर रहे हैं। वे उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि वे तस्करी वगैरह नहीं करते बल्कि मरे हुए जानवरों का चमड़ा छीलने वाले हैं, उसी पर उनका पेट चलता है। मगर युवक नहीं सुनते, पुलिस को फोन कर बुला लेते हैं और रिक्शे के पीछे उन्हें बाँधकर क्रूरता के साथ पीटते हैं। इस बीच पुलिस आती है। पुलिस युवकों को रोकने की बजाय रिक्शे के साथ माधव वगैरह को थाने ले चलने के लिए कहती है।

कैमरा उन चार-पाँच युवकों पर टिकता है जो तमाशबीन बने देख रहे थे। उन लोगों ने पूरी घटना का मोबाइल पर वीडियो बनाया है और वे उसे देख-देखकर खुश हो रहे हैं कि क्या बढ़िया वीडियो बना है! इसे वाइरल करना है, फेसबुक पर और यू-ट्यूब पर डालना है। वे सपने बुन रहे हैं कि हमें बहुत लाइक्स मिलेंगे और किसी चैनल को बेच देंगे तो पैसा भी मिल जाएगा। नामदेव देखता ही रह जाता है। एक ओर वह और उसकी माँ फूट-फूटकर रोने लगते हैं, दूसरी ओर वे युवक खुश होकर पिटाई की रिकॉर्डेड घटना को सोशल मीडिया पर वाइरल करने की योजना बनाते हुए ठहाके लगाते रहते हैं। एक मार्मिक आलाप के साथ फिल्म का दूसरा हिस्सा खत्म होता है।

फिल्म के तीसरे हिस्से में स्क्रीन पर यथार्थ घटनाओं से सम्बद्ध ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ तथा अन्य अखबारों की रिपोर्ट दिखाई और सुनाई देने लगती है, जिनका इस फिल्म में चित्रण किया गया है। दाईं ओर कास्ट और क्रू स्क्रॉल होने लगता है। अंत में ऊना में मरे हुए जानवर उठाने और चमड़ा कमाने से इंकार करने और आरोपियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिये जाने का वक्तव्य उभरने लगता है।

29 मिनट 29 सेकंड की यह फिल्म जाति-विशेष पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ उठाई गई आवाज़ की सशक्त अभिव्यक्ति है। भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन आज और ज़्यादा निर्लज्जता के साथ किया जा रहा है।

अमित दत्ता फिल्म प्रोडक्शन द्वारा निर्मित यह लघु फिल्म रूपेश परटवाघ तथा अमित नरवडे ने प्रोड्यूस की है। सिनेमेटोग्राफर हैं शरद शिंदे। संगीत दिया है नितीन शिराले और अमित नरवडे ने। फिल्म की कथा लिखी है हर्षवर्द्धन बांघुले ने। कला निर्देशन है पंकज लोखंडे तथा रामेश्वर देवरे का। सहायक निर्देशन है असलम शेख का तथा अभिनय किया है अश्विनी वावळ, रावबा गजमल, गणेश मुडे, रत्नदीप वाहुले, रूपेश परटवाघ, प्रकाश तुपसुंदर, ज्योति काळे, साहिल ईनामदार आदि ने।

अंग्रेज़ी सबटाइटल्स के साथ प्रदर्शित यह लघु फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए।

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