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‘दि कश्मीर फाइल्स’ पर कुछ सवाल

‘दि कश्मीर फाइल्स’ पर कुछ सवाल

‘‘धर्म केवल साधना नहीं, कर्तव्य भी है। कर्म भी है। एकता और सद्भावना है धर्म! भेदभाव को त्यागना है धर्म! मानवता है धर्म! हिंसा, घृणा धर्म नहीं है।’’ यह संवाद 2007 में जारी हुई हिंदी फिल्म ‘धर्म’ का है। भावना तलवार निर्देशित तथा पंकज कपूर, सुप्रिया पाठक, पंकज त्रिपाठी, ऋषिता भट्ट, के.के.रैना, दयाशंकर पांडे आदि कलाकारों द्वारा अभिनीत फिल्म में धर्म क्या है? किसी भी धर्म की शिक्षा क्या कहती है? क्या किसी भी धर्म के अनुयायी इन शिक्षाओं का अनुपालन करते हैं? क्या किसी भी धर्म में दूसरे धर्म के अनुयायियों के प्रति नफरत की सीख दी गई है? क्या विभिन्न धर्मों का इस्तेमाल परस्पर घृणा पैदा करने के लिए किया जाना चाहिए?

‘‘जहाँ दया तहाँ धर्म, जहाँ क्रोध तहाँ पाप।
जहाँ घृणा तहाँ नर्क है, जहाँ क्षमा तहाँ आप।’’

फिल्म की शुरुआत में ये निर्गुणपद पंक्तियाँ उभरती हैं।‘‘ साथ ही ये पंक्तियाँ भी –

“This film is a prayer for those who have lost their lives to communal violence… may better sense prevail.”

इस फिल्म की याद आई, इसी महीने रिलीज़ हुई फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के कारण मचे हुए तहलके के कारण। दोनों फिल्मों में तुलना करना मेरा उद्देश्य कतई नहीं है। मगर हिंदू और इस्लाम जैसे दो धर्मों को एकदूसरे के विरोध में ही मानकर सब कुछ ब्लैक एण्ड व्हाइट में तय करने की बजाय उनके बीच के ग्रे हिस्से को समझने की कोशिश करना चाहती हूँ।

‘द कश्मीर फाइल्स’ अभी देखी नहीं है इसलिए उस पर चर्चा करना मेरे लिए उचित नहीं है। मगर एक ओर इस फिल्म का पाँच विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद जारी होना, उस पर मचा हुआ बवाल, प्रधानमंत्री से लेकर अनेक मंत्रियों तक की जाने वाली अनुशंसाएँ, अनेक राज्यों में फिल्म का टैक्स फ्री प्रदर्शन, निर्देशक को दी गई ‘वाई’ सुरक्षा, मीडिया और सोशल मीडिया में फिल्म के पक्ष-विपक्ष में लिखा और बोला जाना, फिल्म द्वारा करोड़ों का व्यापार करना तथा दूसरी ओर इस विवाद के बीच चुपके से अनेक सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी करना, निम्नतम स्तर पर पहुँची अर्थव्यवस्था तथा भयानक बेरोज़गारी को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाना – इस वातावरण से महसूस हो रहा है कि फिल्म में प्रदर्शित किया गया कश्मीरी पंडितों के प्रति अन्याय और असंवेदनशीलता का मुद्दा किसी और दिशा में दर्शकों को बहा ले जा रहा है और मूल सवालों की ओर से ध्यान हटाया जा रहा है।

जब किसी ऐतिहासिक घटना-दुर्घटना पर फिल्म बनाई जाती है तो रिसर्च के दौरान तत्कालीन तमाम मुद्दों, बिंदुओं, व्यक्तियों, किताबों, लेखों और शासकीय दस्तावेज़ों का सहारा लिया जाता है। निर्देशक ने दावा किया है कि उसने और उसकी टीम ने चार साल रिसर्च के बाद प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह फिल्म बनाई है। यह तो अच्छी बात है। मगर किसी भी शोधकार्य में शोधकर्ता का उद्देश्य, उसकी जीवन-दृष्टि, उसके स्रोत तथा अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करने की पद्धति काफी महत्व रखती है। राजनीतिक घटनाओं के साथ हुए रिसर्च में अक्सर यह खतरा पैदा होता है कि शोधकर्ता पहले से तय कर लेता है कि उसे किन बिंदुओं, तथ्यों, सच्चाइयों को सामने लाना है! किस राजनीति का पक्षपोषण करना है। ताज़ा उदाहरण सामने है। अभी-अभी पाँच विधानसभाओं के चुनाव सम्पन्न हुए हैं। अक्सर न्यूज़ चैनलों में भिन्न पक्षधरता या दृष्टि के कारण पृथक-पृथक बातें सामने लाई जाती रही हैं। उत्तर प्रदेश सबसे हाईलाइटेड प्रदेश था, सो उसमें एकप्रकार के सत्तापोषित चैनल्स में सत्ताधारी सरकार के समर्थक तथा उनकी योजनाओं से लाभान्वित लोगों के ही साक्षात्कार लेकर सत्ताधारी दल की जीत की घोषणा की जाती रही; वहीं दूसरे प्रकार के चैनल्स में सत्ता से असंतुष्ट और आक्रोशित मतदाताओं की बातें सामने लाकर सत्ता-परिवर्तन की भविष्यवाणी होती रही। अर्थात, शोधकर्ता अपने शोधकार्य के लिए सामग्री का चयन किस आधार पर करता है, इसका केन्द्रीय महत्व है। इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो स्थिति ‘नरो वा कुंजरो वा’ जैसी हो जाती है।

इस फिल्म में दिखाई गई और प्रचारित की गई ‘सच्चाई’ पर कुछ सवाल मेरे दिमाग में उठ रहे हैं।


पहला, क्या कश्मीर-समस्या का मूल 1947 में हुए भारत-पाक विभाजन से है? क्या कश्मीर जैसे विपुल प्राकृतिक संसाधनों वाले प्रदेश पर भारत और पाकिस्तान दोनों अपना-अपना अधिकार चाहते हैं?

दूसरा, क्या हरेक क्षेत्र में बहुसंख्यक धर्म/जाति वाले लोग अपना वर्चस्व चाहते हैं? क्या यह सही है?

तीसरा, दो धर्मों/जातियों/सम्प्रदायों के बीच हुए वैमनस्यपूर्ण हमलों में क्या बहुसंख्यक समूह के शत-प्रतिशत लोग शामिल होते हैं या उसके समर्थक होते हैं?

चौथा, 1989-90 में हुए कश्मीरी पंडितों के पलायन के कारणों की पड़ताल करने के लिए क्या कोई जाँच आयोग गठित किया गया था? यदि हाँ, तो उसके द्वारा क्या रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी?

पाचवाँ, क्या सिर्फ कश्मीरी पंडित ही कश्मीर से स्थलांतरित हुए या अन्य हिंदू, मुसलमान, सिख आदि भी स्थलान्तरण के लिए बाध्य हुए?

छठवाँ, 1990 से लेकर 2021-22 तक इन कश्मीरी स्थलान्तरित लोगों के पुनर्वास के लिए या उन्हें वापस कश्मीर घाटी में भेजने संबंधी भारत सरकार ने क्या-क्या कदम उठाए?

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सातवाँ, 5 अगस्त 2019 को धारा 370 हटाने के बाद कश्मीरी नागरिकों का जीवन बेहतर तथा न्यायपूर्ण बनाने के लिए क्या-क्या नीतियाँ बनाईं तथा अपनाई गईं? क्या कश्मीरी पंडितों का अपनी मातृभूमि लौटने का कोई तरीका लागू हुआ?

आठवाँ और सबसे महत्वपूर्ण सवाल, किसी भी प्रदेश में आतंकवाद की शुरुआत क्यों होती है? क्या इसमें सिर्फ और सिर्फ धार्मिक भावनाएँ ही ज़िम्मेदार होती हैं? क्या उस प्रदेश की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थिति का इसमें कोई रोल नहीं होता?

और सबसे अंतिम सवाल, स्वयं कश्मीरी पंडित या फिल्म देखकर बहुत दुखी होने वाले, नारेबाज़ी करने वाले दर्शक या अन्य लोग कश्मीरी पंडितों के स्थलांतरण-समस्या का क्या समाधान चाहते हैं?

इतिहास में जब कोई दुर्घटना होती है तो उससे संबंधित सभी वर्गों को दुर्घटना के दोबारा न घटने, दुर्घटना से सीख लेने, दुर्घटना का शिकार हुए लोगों को जल्दी से जल्दी राहत पहुँचाने की ओर अग्रसर होना चाहिए। अगर हमेशा एक समूह दूसरे समूह से बदला ही लेगा और इसमें राजनीतिक लाभ लेने की प्रवृत्ति ही बनी रहेगी तो ऐसी घटनाएँ बार-बार होंगी तब यह नहीं कहा जा सकेगा कि अंग्रेज़ों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति से हमें बाँट दिया है। विश्वगुरु बनने के लिए तैयार देश को अपना दृष्टिकोण विस्तृत करना होगा। अपनी बहुसांस्कृतिक लोककल्याणकारी विरासत को समझते हुए राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उचित दिशा देनी होगी।

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