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किसानों की संघर्ष-गाथा : वृत्तचित्र ‘गार’

किसानों की संघर्ष-गाथा : वृत्तचित्र ‘गार’

(सहयात्री की पिछली कड़ी में फिल्मों पर चर्चा शुरू हुई है तो मुझे लगा कि फिल्म-परिचय की कुछ कड़ियाँ साझा की जाएँ। कोवीड के कारण नए फिल्मकारों को नयी थीम्स पर फ़िल्में बनाने के लिए प्रोत्साहित करने वाले राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह ऑनलाइन हो रहे थे। धर्मशाला फिल्म फेस्टिवल उनमें से एक है। इस फेस्टिवल में चयनित लगभग 30 फ़िल्में मैंने देखीं। इस कड़ी में उसमें से एक डाक्यूमेंट्री पर चर्चा कर रही हूँ। )

गत दिनों 4 नवम्बर से 14 नवम्बर 2021 तक धर्मशाला अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की फिल्में ऑनलाइन देखने का मौका मिला। इस फेस्टिवल में नवीनतम समकालीन विषयों पर नए-पुराने फिल्मकारों की फिल्में देखी जा सकती हैं। इसमें कुछ श्रेणियों में फिल्मों को रखा जाता है – शॉर्ट फिल्म, लार्ज शॉर्ट फिल्म, फर्स्ट फिल्म, फीचर फिल्म, इंडियन डॉक्यूमेंट्री तथा इंटरनेशनल डॉक्यूमेंट्री आदि। इसमें 6 मिनट से लेकर लगभग दो घंटे तक की फिल्में शामिल थीं। मात्र 800 रू. के रजिस्ट्रेशन शुल्क के साथ लगभग सौ फिल्में लगातार दस दिनों तक कभी भी देखी जा सकती थीं। इसके अलावा फिल्मकारों या अन्य संबंधितों से सवाल-जवाब तथा समीक्षा जैसी अन्य गतिविधियाँ भी समय-समय पर देखी-सुनी जा सकती थीं।

मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया इंडियन डॉक्यूमेंट्री ‘गार’ ने। एक घंटे एक मिनट की यह फिल्म मध्यप्रदेश के देवास जिले के उदयपुर तहसील के किसानों की खेती-किसानी के समूचे दुष्चक्र को बहुत कलात्मक सफाई के साथ प्रस्तुत करती है। इसके निर्माता पिंकी ब्रम्हा चौधरी, निर्देशक शोभित जैन, छायांकनकार लक्ष्मीनारायण देवड़ा ने इसे एसपीएस कम्युनिटी मीडिया के बैनर तले 2021 में ही बनाया है।

फिल्म की पहली और प्रमुख विशेषता यह महसूस हुई कि किसानों का जीवन ऋतुचक्र के अनुसार किसतरह दुरूह होता जा रहा है, सरकारी योजनाओं और मुआवज़े के जाल में छोटी जोतवाला किसान किसतरह उलझकर रह जाता है, किसतरह वह किसान और मज़दूर की ज़िंदगी एक साथ जीने के लिए मजबूर हो रहा है – इन बातों को बहुत संवेदनाशीलता और सूक्ष्म तथ्यात्मकता के साथ निर्देशक ने चित्रांकित किया है।

वित्तीय वर्ष मार्च-अप्रेल से चालू होता है, उसीतरह फिल्म की शुरुआत बसंत ऋतु में ओले (गार) गिरने से होती है। बड़े-बड़े ओलों से अधिकांश खेतों में गेहूँ और चने की फसल का बुरीतरह नुकसान हो जाता है, घरों के खपरैल या कवेलू टूट-फूट जाते हैं। सर्वे करने सरकारी कर्मचारी आते हैं। खेतों और घरों का भौतिक निरीक्षण करते हैं। सवाल करते हैं –
‘‘खेत में बीज उधार लिये थे या ऋण लेकर? खाद?’’
‘‘कितना बोया था? कितना निकलता?’’
अधिकतर जवाब मिलता है, ‘‘खेत गहन रखकर, उधारी लेकर या ऋण लेकर!’’

सर्वे कर्मचारी नुकसान का एस्टिमेट बनाते हैं। इसमें अक्सर किसी का नाम छूट जाता है, किसी के पिता का नाम गलत लिखा जाता है, कभी व्यक्ति का। इसके अतिरिक्त नुकसान के मुआवज़े का जो समीकरण तैयार होता है, वह चेक के आँकड़ों को देखकर खेती-किसानी से अनभिज्ञ दर्शक भी समझ सकता है कि किसान की लागत और उसके श्रम के मूल्य से मुआवज़ा कितना नगण्य है! उसकी कड़ी मेहनत पर कभी कोई बात नहीं होती। उससे भी तकलीफदेह बात यह है कि, इस मुआवज़े के लिए उन अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित किसानों को इतने प्रकार के फॉर्म भरना, स्टाम्प पेपर पर तमाम तरह के प्रमाणपत्र बनवाने के लिए गाँव से लेकर तहसील तक इतनी दौड़भाग करनी पड़ती है कि जिस किसान को मुआवज़े का चेक मिल भी जाता है, उसकी लगभग उतनी ही राशि मुआवज़ा पाने में खर्च हो चुकी रहती है। निर्देशक ने किसानों, तहसील कार्यालय के कर्मचारियों, अफसरों से लेकर कलेक्टर और मुख्यमंत्री तक की बातों को पूरी प्रतिबद्धता के साथ दृश्यों-संवादों-भाषणों-ध्वनियों के माध्यम से इसतरह सिलसिलेवार ढंग से रखा है कि किसान-आंदोलन क्यों और तेज़ होने की आवश्यकता है, यह बात दिमाग में गूँजती रहती है।

जब किसान इस आधुनिक खेती के चक्रव्यूह में नहीं फँसा था, तब कम से कम अपनी बोनी के लिए अपने बीज सुरक्षित रखता था, मगर अब तो अधिकांश किसानों को बीज खरीदकर ही खेती करनी पड़ती है। मौसम की मार के बाद मुआवज़े की ‘गाजर’ से वे और ज़्यादा परेशान होते हैं। मुख्यमंत्री और कलेक्टर भाषण देकर चले जाते हैं – किसानों की कल्याण-योजनाओं और मनरेगा के कार्यों के बारे में। मगर ज़मीनी हकीकत यह है कि समूचा तंत्र ही इतना अव्यवस्थित और विसंगतिपूर्ण है कि मनरेगा के अंतर्गत सरपंच को काम शुरु करने के आदेश तो मिल जाते हैं, मगर मज़दूरी की रकम रिलीज़ नहीं की जाती, फलतः काम बंद हो जाता है। गाँव के युवा लड़के बड़े शहर इंदौर में टेंट हाउस या शादी-ब्याह के दौरान दैनिक मजदूरी के काम के लिए चक्कर काटते हैं, मगर उन्हें अक्सर दुरदुरा दिया जाता है। वे काम करना चाहते हैं, मगर काम नहीं है। जहाँ काम करवाया जाता है, पैसे ठीक से नहीं दिये जाते। अपनी खेती-किसानी-फसलों के नुकसान की भरपाई के लिए छोटी जोतवाले किसान भी सपरिवार मज़दूरी के लिए शहर की ओर रूख करते हैं। इसे देखकर प्रेमचंद के ‘गोदान’ का गोबर याद आता है।

कहीं कोई काम नहीं… कोई सुनवाई नहीं… बड़ी-बड़ी घोषणाएँ तो होती हैं मगर उनका लाभ इन तक न के बराबर पहुँचता है। फिल्म में एक व्यक्ति का चेक तो बन जाता है, मगर उसके पिता का नाम गलत लिखा है, एक व्यक्ति का वो नाम नहीं लिखा गया, जो उसके आधार कार्ड पर लिखा है, कई बार चेक पर लिखा नाम बैंक की पास बुक, मतदाता परिचय पत्र से नहीं मिलते – इन समस्याओं का समाधान उनके बीच के ही किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के नेतृत्व में करने की कोशिश की जाती है। इनकी समस्याएँ लेकर जब वह शिक्षित व्यक्ति तहसील में अधिकारी-कर्मचारी से मिलता है तो उसे सरपंच या मंत्री से नाम ठीक करवानेवाला पत्र लिखवाकर लाने के लिए कहा जाता है। आवेदन लिखवाने और फोटोकॉपी करवाने में वे उसके पीछे-पीछे घूमते रहते हैं। तहसील कार्यालय या जिला कार्यालय इनके लिए किसी भुलभुलैया से कम नहीं होते। किसानों के युवा अब मोबाइल से ओले की, फसल की हालत की फोटो खींचकर प्रस्तुत भी करते हैं, मगर वही ढाक के तीन पात!

ओले से नष्ट फसल का मुआवज़ा गर्मी में सूखा पड़ने तक नहीं मिल पाता। गाँव से शहर की ओर पलायन कर वे कोई भी काम कर अपने परिवार का पेट पालना चाहते हैं। बच्चे सूखी रोटी खाते हुए दिखते हैं। माँ-पिताओं की सूनी आँखें किसी की भूख नहीं मिटा पातीं। ग्रीष्म ऋतु के बाद बारिश का कहर… बीज बोने के लिए फिर ऋण का चक्कर, जब बारिश चाहिए तब होती नहीं और फसल पकने या कटने के वक्त तेज़ बारिश से उनका सब कुछ फिर बरबाद हो जाता है। अरहर और मक्के की फसलों की दुर्दशा के दृश्य दहला जाते हैं। असमय बारिश से अरहर की फलियों में भरे बीज ही अंकुरित हो जाते हैं, जो किसी काम के नहीं हो सकते। छोटे-छोटे संगठन बनाकर धरना-आंदोलन का भी सहारा लिया जाता है। फसल बीमा के बाद भी लागत को ध्यान में रखकर मुआवज़ा नहीं मिलता – इसकी कोई सुनवाई नहीं। मुख्यमंत्री की सभा में भीड़ जुटाने के लिए गाँव-गाँव से आवेदन लेकर किसानों को बुलाया जाता है, मगर सभा में बड़ी-बड़ी योजनाएँ और आश्वासन के ‘गाजर’ तो मिलते हैं, किसानों की ओर ध्यान तक नहीं दिया जाता। किसी मंत्री के पास उनके आवेदन लेने तक का समय नहीं होता। सभा में एक रूपये किलो अनाज देने, ज़ीरो परसेंट ब्याज पर ऋण देने की घोषणा तो की जाती है, लेकिन किसानों द्वारा मेहनत से उगाई गई फसल का उचित मूल्य देना या फसल बीमा की घोषणा के बाद उचित मुआवज़ा देने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं। जब कैमरा अधिकारी से जानना चाहता है, अधिकारी बड़ी विनम्रता से कह देता है कि ‘‘बहुत बड़े कामों में कुछ मानवीय चूक तो हो ही जाती है।’’ वे चूक स्वीकार तो लेते हैं, मगर उसे ठीक करने के क्रियान्वयन का ईमानदार प्रयास कोई नहीं करता।

कुछ दृश्य रूपकों की तरह प्रयुक्त हुए हैं। गर्मियों में जब युवा किसान शहर में काम खोजने आते हैं और उन्हें काम नहीं मिलता, वे टाइमपास के लिए प्राणी संग्रहालय पहुँचते हैं। वहाँ कहीं उन्हें उल्लू अपनी ओर घूरते नज़र आता है और कहीं तंदुरूस्त दिखते शेर-चीते-भालू… आदमी की तंदुरूस्ती की किसे फिक्र है? फिल्म बसंत में टेसू (पलाश) के दहकते फूलों से शुरु होकर वहीं समाप्त होती है। इसे देखकर राजेन्द्र शर्मा की एक कविता की अंतिम पंक्तियाँ याद आती हैं –

‘‘जिस दिन फूलेगा, आग लग जाएगी।’’

फिल्म के अंत में कर्मचारी-अधिकारी किसानों को यही समझाते हुए दिखते हैं कि ‘‘साल में एक बार पटवारी के पास जाकर अपना नाम वगैरह चेक करवा लिया करो, कम्प्यूटर में कभी वाइरस घुस जाता है तो कभी और कुछ हो सकता है…!’’ नौकरशाही और नेताओं के दिल-दिमाग तो पहले ही ‘वाइरस से करप्ट’ हो चुके हैं, उसको वाइरसमुक्त करने के लिए पिछले साल भर चले एकजुट किसान-आंदोलन का और भी विस्तार ज़रूरी है, फिल्म देखकर यही बात शिद्दत से महसूस होती है।

मथुरा के कवि महेश जैन ‘ज्योति’ की व्हाट्सएप्प पर पढ़ी एक कविता इसी अहसास को बखूबी व्यक्त करती है। ओले पड़ने से बर्बाद हुई फसल के पश्चात् एक किसान की पत्नी अपनी विवाहित बेटी को पत्र में लिखती है –

व्यथा सुनाऊँ री

भादों नहीं अषाढ़ न सावन, नभ में काले घोर घिरे घन,

बिजली कड़की गरजे-बरसे, ओले पड़े बताऊँ री !

हुई फसल बर्बाद हमारी, कैसे व्यथा सुनाऊँ री !

ऐसे ओले पड़े खेत में, बिछी बिछौने-सी सरसों,

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बाल झड़ी गेहूँ की सारी, देखीं खेतों में परसो,

कहाँ से क़र्ज़ चुकाएँ तेरा, बाबुल बिटिया सोचूँ मैं,

ब्याज चुका पाने में शायद, हमको लग जाएँ बरसों,

कहाँ से खर्च चलेगा घर का, सोचूँ सो नहीं पाऊं री,

हुई फसल बर्बाद हमारी, कैसे व्यथा सुनाऊँ री !

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