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लॉकडाउन

लॉकडाउन

(दो दिन पहले माननीय प्रधानमंत्री महोदय द्वारा राष्ट्रपति के अभिभाषण पर दिया गया दीर्घ भाषण पूरीतरह चुनावी था। सभी संवेदनशील लोग इस अति नाटकीय भाषण में विरोधी राजनीतिक दलों पर लगाए गए आरोपों से हतप्रभ हैं। … इतना झूठ … इतना पाखंड … इतनी असंवेदनशीलता !!! इसी परिप्रेक्ष्य में याद आया, 25 मई 2020 को इप्टा रायगढ़ ने तत्कालीन परिस्थितियों पर केंद्रित जन-संस्कृति सप्ताह के अंतर्गत लॉक डाउन से उपजी परिस्थितियों पर एक कविता कोलाज का वीडियो तैयार किया था, जिसमें भरत, अजय, उषा, प्रशांत, सुमित, मयंक, पूनम और अन्य साथियों ने भाग लिया। वही प्रस्तुति-आलेख इस बार प्रस्तुत है।- उषा )

हम भाग रहे थे… तेज़ तेज़ और तेज़… किसी के पास रूकने का वक्त नहीं था… किसी के पास एकदूसरे से बात करने का, एकदूसरे को देखने का समय नहीं था। सब अपने रूटीन में एक यंत्र की तरह अपनेआप खट्ट-खिट्ट खट्ट-खिट्ट करते हुए घूम रहे थे। अचानक जैसे बिजली गोल हो गई हो और अचानक समूची गति पर विराम लग गया हो… हम सब अपनी-अपनी जगह पर रूक गए।

24 मार्च 2020। शाम आठ बजे प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा। ठीक चार घंटे बाद रात बारह बजे से पूरे देश में लॉकडाउन… पहला लॉकडाउन। ओह… आह… आउच्च…। पहला लॉकडाउन 21 दिन। बहुत सी उठापटक… राजकुमार सोनी की इस कविता में प्रस्तुत है –

लॉकडाउन/कर्फ्यू/राशन-पानी
सब्जी-भाजी/फोन/टीवी/पुलिस/डंडा/
सूजन/नमक/लेप/हल्दी/मरहम/पट्टी।

मोदी/थाली/लोटा/गिलास/शंख/
दीया/मोमबत्ती/टॉर्च/रामायण/
महाभारत/चाणक्य/भक्त।

भजिया/पकौड़ी/चिकन/मटन/कबाब/
गाढ़ा/काढ़ा/गौमू़त्र/कारोके/गाना/
बजाना/डांस।

मज़दूर/किसान/नौजवान/सूनसान/
वीरान/सड़क/छाला/हाला/निवाला/
नौकरी/चाकरी/लाचारी/बेकारी/पूड़ा/
पैंकेट/बीमारी।

सिगरेट/गाँजा/भांग/शराब/खाना/
पीना/सोना/जागना/रोना/धोना।

कवि/कविता/कहानी/उपन्यास/
वाट्सएप/फेसबुक।

अंजना/रूबिका/रजत/सुधीर/दीपक/
अमिश/रोहित/अर्णब/साधु/संत/
चीन/ट्रंप/बाराती/हिमाती/जमाती।

टेस्ट/किट/वेस्ट/निगेटिव/पॉजिटिव/
मास्क/दूरी/मजबूरी…
कोरोना शिल्प में कविता पूरी।
चलो बनाए अब हलवा-पूरी।

वाह-वाह-वाह-वाह
कौन करेगा?

(एक बंडल कविता : राजकुमार सोनी)

सभी आह…आह कर उठे। इस बीच देश में कोरोना अपना रंग दिखाने लगा। बाकी उपाय सब फेल। रेलें बंद, बसें बंद। उद्योग-धंधे बंद। सारे देवस्थान बंद। सारे मदिरालय बंद। देशभर के प्रवासी दिहाड़ी और ठेका मज़दूरों में फैली बेचैनी। सब्र का बाँध टूटने लगा। अपने-अपने घर जाने के लिए दौड़-भाग। 14 अप्रेल 2020। प्रधानमंत्री ने सभी परेशान देशवासियों से माफी माँगी और लॉकडाउन … जी हाँ…लॉकडाउन दूसरे चरण की घोषणा कर दी…। 17 दिन… 3 मई तक। पूरे देश के मज़दूर, जो अपने घर से दूर थे, जिनकी नौकरी व छत छिन गई थी… पेट भरने के लिए भिखारी बनना पड़ा… कुछ दिनों तक सरकारी आश्वासनों के सहारे राहत शिविरों में पड़े रहे। मगर कब तक??? सामाजिक दूरी का आह्वान और दड़बे में ठूँसे गये लोग!! अंततः अपने दो पैरों पर भरोसा कर वे पैदल ही चल पड़े… अपनी गठरी-पोटरी-बीवी-बच्चों के साथ…


अछूत मीडिया पर दिखने लगे पैरों के छालें… ओह… मराठी कवि मोहन देस की सोशल मीडिया में पंक्तियाँ दिखाई दीं –

बार-बार मत दिखाओ
सैकड़ों तपे हुए मील के पत्थरों
और उन झुलसे हुए लोगों को
मत दिखाओ उनके बाल-बच्चों को
उनके छालों भरे पाँवों को
देखा नहीं जाता यह सब…
मैं बहुत सेंसिटिव हूँ!

मैं अर्थात्,
महज़ मैं ही नहीं…
हम सब देशवासी…
वे, जो कल्चर्ड हैं
जिनके पास घर है
दरवाज़ा है
दरवाज़े पर बंदनवार है
रंगोली है
खिड़की में थाली, चम्मच
तालियाँ हैं
दिये में तेल है
देह में योग है
प्राणायाम है
छंद है
गंध है
मद्धिम संगीत है
मेडिटेशन है
धुर आनंद है,
इस तरह आप की तरह
मैं भी बहुत सेंसिटिव हूँ!

इसीलिए कहा अर्द्धांगिनी से
बाई नहीं है,
मैं माँज देता हूँ बर्तन
झाडू-पोंछा कर देता हूँ
उससे कहीं बेहतर…
तुम देखना!
स्त्री-मुक्ति!
और साथ-साथ व्यायाम भी…
सुनते ही पत्नी भी
घर में मटर की गुजिया
बनाने के लिए
खुशी-खुशी तैयार हो गई
कितना मोहक और कुरकुरा रिश्ता है हमारे बीच!
बहुत सेंसिटिव हूँ मैं!

फिर भी बेकार में वे लोग
बार-बार
नज़र के सामने आ ही जाते हैं…
अरे, कोई न कोई इंतज़ाम
हो ही जाएगा उनका
सरकार उन्हें खिचड़ी दे तो रही है न
तो और क्या चाहिए उन्हें?
बैठे रहना चाहिए न चुपचाप
जहाँ कहा जाए…
जल्द से जल्द उन्हें
नज़रों से ओझल हो जाना चाहिए
देखा नहीं जाता
पीड़ा होती है
बहुत सेंसिटिव हूँ जी मैं!

सच कहूँ तो उनके बगैर शहर
सुंदर साफसुथरे और शांत लगने लगे हैं
और हाँ, सामाजिक अंतर या दूरियाँ
तो ज़रूरी ही है न?
अरे, यह सब तो सनातन है
हमारी पुरानी चिरपरिचित संस्कृति में
पहले से ही
यह विद्यमान है,
इस सच को छिपाया नहीं जा सकता।
आजकल के प्रगतिशील,
लिबरल्स, वामपंथी, शहरी नक्सल, टुकड़े टुकड़े गैंग वाले…
कहते हैं, नासा ने अब इन शब्दों को
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में
शामिल कर लिया है…
और वो…
क्या कहते हैं उसे…
ओह, याद नहीं आ रहा…
क्या है!
हाँ, मानवाधिकार वाले…
इनमें से कोई भी नकार नहीं सकता
इस सच को!

अमेरिका में बसा हुआ मेरा भाँजा बताता है
वहाँ इस तरह के लोग नहीं मिलते
घरेलू काम, बागवानी मैं ही करता हूँ
घर में रंगरोगन पत्नी-बच्चे करते हैं
मामा, घर भी हमने खुद ही बनाया है
अरे, सब की किट्स मिलती हैं ऑनलाइन…
डॉन को भी हम ही ले जाते हैं बाहर घुमाने
उसकी टट्टी-पेशाब ‘सक’ करने की मशीन लेकर।
सभी काम मशीन से ही होते हैं यहाँ…
हम भी काम करते हैं मशीन की तरह ही
समय बेहतर गुज़रता है!
भाग्यशाली है मेरा भाँजा…
भारत भी बहुत जल्द हो जाए सुपर पॉवर
साथ ही विश्वगुरू भी
इस मामले में मैं ज़्यादा सेंसिटिव हूँ…

अरे ओ बीवी!
ज़रा रिमोट तो देना…
क्यों दिखाते हैं ये फालतू बातें
बिकाऊ मीडियावाले
दुनिया में भारत को बदनाम करते हैं…
बंद करो!
इन पैदल चलने वालों
और उनके छालेभरे पैरों को दिखाना…
क्या ज़रूरत है?

एक बात बहुत अच्छी है
कि
यह रिमोट मेरे जैसा ही सेंसिटिव है।

मैं बहुत सेंसिटिव हूँ : मोहन देस

हिंदी अनुवाद : उषा वैरागकर आठले
(अनुवाद के लिए मूल कविता सोशल मीडिया से साभार)

शहर के महफूज़ छतों-दीवारों-भरी जेबों वाले लोग समझ नहीं पा रहे हैं इन श्रमिकों-छोटे कामधंधे वालों का गाँव-प्रेम। वे नाराज़ हो रहे हैं लॉकडाउन का पालन नहीं करने और सरकार द्वारा खाने का इंतज़ाम करने के बावजूद इन बेवकूफ श्रमिकों पर…। तमाम प्रयासों के बावजूद श्रमिक हैं कि अपने गाँव जाने के लिए अड़े हुए हैं। उनके रेले के रेले चल पड़े हैं, बिना रेलों के – एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर, रोजी-रोटी वाले शहर से अपने-अपने गाँव की ओर… रोज़ खबरें बढ़ती ही जा रही हैं… सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। कहीं पैदल सड़क पर, कहीं साइकिल या रिक्शे पर… कहीं रेल की पटरियों पर, कहीं पैसा देकर ट्रक में, बस में… थोड़े-बहुत ‘श्रमिक ट्रेन’ में भी… कोई घायल हो रहा है, थक कर चूर हो रहा है और कोई-कोई तो रास्ते में दम भी तोड़ रहा है। प्रसिद्ध कवि विष्णु नागर अपनी ‘गाँव की ओर’ कविता में लिख रहे हैं…

जैसे आँधी से उठी धूल हो
लोग शहर से गाँव चले जा रहे हैं
जैसे 1947 फिर आ गया हो
लोग चले जा रहे हैं
भूख चली जा रही है
आँधी चली जा रही है
गठरियाँ चली जा रही हैं
झोले चले जा रहे हैं
पानी से भरी बोतलें चली जा रही हैं
जिन्होंने अभी खड़े होना सीखा है
दो कदम चलना सीखा है
जिन्होंने अभी-अभी घूँघट छोड़ना सीखा है
जिन्होंने पहली बार जानी है थकान
सब चले जा रहे हैं गाँव की ओर

कड़ी धूप है
लोग चले जा रहे हैं
बारीश रूक नहीं रही है
लोग भी थम नहीं रहे हैं
भूख रोक रही है
लोग उससे हाथ छुड़ाकर भाग रहे हैं
महानगर से चली जा रही है उसकी नींव
उसका मूर्ख आधार हँस रहा है

उसका बेटा चला जा रहा है
मेरी बेटी चली जा रही है
आस टूट चुकी है
आँखों में आँसू थामे
चले जा रहे हैं लोग
बदन तप रहा है
लोग चले जा रहे हैं
चले जा रहे हैं कि कोई
उन्हें देख कर भी नहीं देखे
चले जा रहे हैं लोग
आधी रात है
आँखे आसरा ढूँढ़ना चाहती हैं
पैर थकना चाहते हैं
भूख रोकना चाहती है
क्हीं छाँव नहीं है
रूकने की बित्ता भर ज़मीन नहीं है
लोग चले जा रहे हैं

सुबह तब होगी
जब गाँव आ जाएगा
रोना तब आएगा
जब गाँव आ जाएगा
थकान तब लगेगी
बेहोशी तब छाएगी
जब गाँव आ जाएगा
हाथ में बिड़ी नहीं
चाय का सहारा नहीं होगा
800 मील दूरी फिर भी
पार हो जाएगी
गाँव आ जाएगा

एक दिन फिर लौटने के लिए
गाँव आ जाएगा
फिर आँधी बन लौटने के लिए
गाँव आएगा
मौत आ जाएगी
शहर की आड़ होगी
गाँव छुप जाएगा।

(गाँव की ओर – विष्णु नागर)

न जाने कितने बरस बीत गए… विकास की आँधी में जंगल कटते चले जा रहे हैं, आदिवासियों का घर छिनता चला जा रहा है। गाँव में खेती का रकबा घटता जा रहा है, किसान या तो आत्महत्या कर रहा है या शहर की ओर भाग रहा है। छोटे-छोटे कारीगर, कुशल-अर्द्धकुशल-अकुशल मज़दूर गाँव में रोज़ी न पाकर शहर चले जा रहे हैं भाग्य आजमाने के लिए। श्रमिक रहता ज़रूर शहर में है मगर न तो उसका पल्ला छूटा है गरीबी से, अभावों से और न ही उसे सम्मानजनक स्थान मिल पाया है… उसे सिर्फ विकास की मंज़िलें तय करने में ‘यूज़’ किया जा रहा है एक सामान की तरह। लॉकडाउन ने इस सच्चाई को पूरीतरह उघाड़कर रख दिया है। मनीषा दुबे मुक्ता को सोशल मीडिया पर इसीलिए लिखना पड़ा है… तुम लौट कर मत आना। उनकी कविता पर कोई राजनीति न हो इसलिए उन्हें कोष्टक में लिखना भी पड़ा है (ये मेरे अपने मनोभाव हैं, कोई भी राजनैतिक टिप्पणी न करें प्लीज़)…

वो तुम ही थे ना
जो ईंटों पर ईंट चढ़ा
दीवारें खड़ी करते रहे!

वो तुम ही थे ना
जो बेखौफ़ हो कर
ऊँची टॉवरों पर चढ़ते रहे!

वो तुम ही थे ना
जे मशीनों के साथ
कारखानों में जूझते रहे!

वो तुम ही थे ना
जे सबकी गंदगी
साफ करते रहे!

वे तुम ही थे ना
जे बिना मास्क भी
गटर में उतरते रहे!

वो तुम ही थे ना
जे पथरीली राह को
सड़क में तब्दील करते रहे!

वो तुम ही थे ना
जो अँधेरों में रहकर भी
सबकी दुनिया रौशन करते रहे!

लेकिन शायद तुम्हारी
ज़रूरत न रही यहाँ,
किसी ने ना पूछा होगा तुमसे
कि जा रहे हो कहाँ!!

सुनो ना,
जहाँ तुम्हारी ज़रा भी ना हो क़दर
जहाँ सभी तुम्हारी मेहनत से हो बेख़बर
जहाँ फर्क ना पड़ता हो तुम्हारे होने ना होने से
जहाँ ना हो किसी को तुम्हारे भूखे पेट की फ़िकर…

बेहतर है, वहाँ से तुम्हारा चले ही जाना
और हो सके तो अब लौटकर मत आना।।

कितनी पीड़ा छिपी है इन शब्दों के पीछे… श्रमिकों के साथ किया गया अमानवीय व्यवहार… ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ की थ्योरी पर अमल करते हुए कोरोना महामारी के लॉकडाउन में उन्हें बेदखल करने वाले, उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने वाले उनके मालिक… आदेशों-निर्देशों के मकड़जाल में फँसा सरकारी अमला और अपने-अपने जुमलों में कैद देश के कर्णधार। इस समय ये श्रमिक उनके लिए ‘वोट’ तक नहीं रह गए हैं… छोड़ दिये गए हैं एक अवांछित वस्तु की तरह।

बहुत से संगठन, व्यक्ति इस अफरातफरी में उनके लिए साधन जुटाने में लगे हुए हैं मगर वे समुद्र में बूँद की तरह हैं। उनकी सद्भावनाएँ और मदद के हाथ नहीं रोक पा रहे हैं श्रमिकों को। उनका दर्दनाक पलायन जारी है। 93 प्रतिशत श्रमिक असंगठित हैं, इनकी आवाज़ उठानेवाला कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया है। क्रोनी कैपिटलिज़्म तमाम श्रम कानूनों को बेअसर कर चुका है। अब तो इस लॉकडाउन में तीन प्रदेशों में श्रमिकविरोधी कानून लागू हो चुके हैं। अगर वे लौटते हैं तो उन्हें 8 की जगह 12 घंटे काम करना होगा रोज़गार की गारंटी के बगैर। क्या रास्ता है अब उनके सामने सम्मानजनक ज़िंदगी जीने का?? एक ही रास्ता है… उन्हें अपने गाँवों में ही शुरु करने होंगे नए रोज़गार और काम-धंधे… गांधी जी के नारे की ओर लौटना होगा – हर गाँव को एक आर्थिक इकाई बनाना होगा।सहकारिता की ओर बढ़ना होगा… नए रास्ते खोजने होंगे… नई कुशलताएँ विकसित करनी होंगी।

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