(इप्टा रायगढ़ के लिए 1994 से अब तक का इतना दीर्घ रंगमंचीय सफर तय करना यहाँ के नागरिकों, दर्शकों के प्यार और हर तरह के सहयोग के बिना संभव नहीं था। रंगमंच जैसी सामूहिक कला स्थानीय समूहों के प्रोत्साहन और सहयोग के बिना फल-फूल नहीं सकती। रायगढ़ के लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए यह संस्मरणात्मक लेख प्रस्तुत है।)
रंगमंच का अनिवार्य हिस्सा होते हैं – अभिनेता, नाट्य-मंडली, दर्शक और नाटक का प्रस्तुति-स्थान। इप्टा रायगढ़ एक अव्यावसायिक (यहाँ अव्यावसायिक का अर्थ है कि नाटक करना किसी नाट्यकर्मी का रोज़गार नहीं होता तथा संस्था कोई नाटक अपने आर्थिक लाभ-हानि को ध्यान में रखकर नहीं करती) सांस्कृतिक संस्था है। अतः इसका रंगमंच भी अव्यावसायिक रंगमंच हैं। अव्यावसायिक रंगमंच और दर्शकों का आपस में बड़ा घनिष्ठ संबंध होता है। व्यावसायिक रंगमंच और दर्शक के सम्बन्ध प्रायः इकतरफा होते हैं – टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले और नाटक किसे दिखाया जा रहा है, इससे कोई खास मतलब न होने वाला सम्बन्ध। मगर अव्यावसायिक रंगमंच कभी दर्शक को किसी प्रेक्षागृह या स्थानविशेष पर बुलाकर नाटक दिखाता है तो कभी स्वयं किसी स्थान पर पहुँचकर स्थानविशेष के दर्शकों के बीच नाट्य-प्रस्तुति करता है। ये स्थान हो सकते हैं – शहर के विकसित-अविकसित प्रेक्षागृह, सभागार, कस्बों के खुले मैदान या सामुदायिक मंच तथा गाँवों की चौपाल या कोई आँगन या फिर कोई चौक-चौराहा। यहाँ नाट्य-प्रदर्शन के लिए न कोई मानदेय दिया जाता है और न ही मीडिया वाले उनकी रिपोर्टिंग करने दौड़े-दौड़े आते हैं। और न ही नाट्य-दल और दर्शक के सम्बन्ध सिर्फ टिकट की खरीदी-बिक्री पर आधारित होते हैं। इसलिए ऐसे स्थानों पर नाट्य-प्रदर्शन का स्तर और स्वरूप पूरीतरह दर्शकों पर निर्भर होता है। ऐसे नाट्य-मंचनों में अभिनेता और नाट्यकर्मी नाट्य-प्रदर्शन से पहले, नाटक के दौरान और उसके बाद अपना तामझाम समेटते हुए भी दर्शकों के सम्पर्क में होते हैं। इसलिए उनका ‘नाटक दिखाना’ और दर्शकों का ‘नाटक देखना’ एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं।
इप्टा रायगढ़ लगभग चालीस वर्षों से शहर में रंगकर्म कर रही है। इप्टा चूँकि एक विशेष प्रकार की सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ रंगकर्म करती है अतः उसका मूल उद्देश्य है, अपने नाटकों के माध्यम से जन-चेतना जागृत करना; इसलिए इप्टा के लिए दर्शक बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इप्टा का रंगकर्मी जो कुछ करता है, दर्शक को केन्द्र में रखकर ही करता है। दर्शक का वैचारिक स्तर, उसकी रूचि-अरूचि, उसका आर्थिक-सामाजिक स्तर, उसकी दिनचर्या, स्थानीय सामाजिक रीति-रिवाज़ों में समाज के विभिन्न घटकों की संलग्नता आदि पर उसका पूरा ध्यान होता है।
जिसतरह एक अभिनेता के लिए नाटक करना एक दीर्घकालीन अभ्यास पर आधारित प्रक्रिया है, उसीतरह नाटक देखने और समझने के लिए भी दर्शक का अभ्यास ज़रूरी है। वैसे अगर किसी शहर में नियमित नाट्य-प्रदर्शन होते रहते हैं तो उस शहर का दर्शक धीरे-धीरे नाटक के मर्म को समझता जाता है, उसके ‘देखने’ में भी एक तरह की गहराई आने लगती है। वह एक ‘रसिक दर्शक’ में तब्दील होने लगता है। रायगढ़ इसीतरह के ‘रसिक दर्शकों’ का शहर है।
इप्टा रायगढ़ अपने दूसरे दौर में 1994 से नियमित नाट्य-गतिविधियाँ करती आ रही है। इन विभिन्न नाट्य-गतिविधियों में दर्शक वर्ग भी पृथक-पृथक होता है। बच्चों की परीक्षा समाप्त होते ही प्रायः हरेक वर्ष ग्रीष्मकालीन बाल नाट्य प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जाता है, जिसमें अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग बच्चे इप्टा के सीनियर कलाकारों द्वारा नाटक, नृत्य, संगीत, चित्रकला, क्राफ्ट आदि का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। यह प्रोडक्शन बेस्ड शिविर होता है। 15-20 दिनों के प्रशिक्षण के बाद सभी बाल कलाकारों के विभिन्न कार्यक्रमों की प्रस्तुति एक स्थान पर होती है। बच्चों के इन प्रदर्शनों का दर्शक एकदम अलग होता है। दर्शकों में प्रायः शिविर में प्रतिभागी बच्चों के परिवार के लोग, रिश्तेदार, पड़ोसी और परिचित होते हैं। इसमें बाल-दर्शकों की संख्या भी उल्लेखनीय होती है। यह दर्शक वर्ग बच्चों को मंच पर सहज गतिविधियाँ करते देखकर गद्गद् होता है। इन दर्शकों में अपने बच्चों को प्रोत्साहित करने का भाव सर्वोपरि होता है। इसलिए प्रदर्शन का स्तर, कलाकारों या आयोजकों द्वारा की गई गलतियों पर वे ध्यान नहीं देते, बल्कि बच्चों की प्रतिभा को मंच दिये जाने और बच्चों की सृजनात्मकता को विकसित करने का अवसर दिये जाने से उनका प्रशंसा-भाव ही मुखर होता है। इनके साथ इप्टा के कुछ नियमित दर्शक भी होते हैं, जो खुलकर फीडबैक देते हैं।
बच्चों के बाद नंबर आता है इप्टा के सदस्यों तथा नए कलाकारों के प्रशिक्षण का। इसमें विविधता होती है। तत्कालीन स्थितियों के अनुसार ये कार्यशाला आयोजित होती रही है। कई बार देश के प्रतिष्ठित नाट्य-निर्देशकों को आमंत्रित किया जाता है, कभी इप्टा के निर्देशक ही नई स्क्रिप्ट उठाते हैं तो कभी तीन-चार सदस्य मिलकर नाटक तैयार करते हैं। इनके मंचन के समय अपने समस्त दर्शक वर्ग को निमंत्रण पत्र द्वारा, अखबार में प्रेस-विज्ञप्ति, फोन द्वारा तथा अब सोशल मीडिया द्वारा भी आमंत्रित किया जाता है।
इप्टा के सभी नाट्य-प्रदर्शन निःशुल्क होते हैं। टिकट खरीदकर नाटक देखने की परम्परा हमारे शहर में नहीं पनप पाई है। भले ही दर्शक खुले हाथ से आर्थिक सहयोग दे दें! इस समय स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, नियमित दर्शक और नए कलाकारों से जुड़े नए दर्शक भी आते हैं। विशेषज्ञों के रूप में अरूण पाण्डेय (जबलपुर), संजय उपाध्याय (दिल्ली/पटना), सुमन कुमार (दिल्ली), देवेन्द्र राज अंकुर (दिल्ली), अखिलेश खन्ना, नीरज वाहल (दोनों दिल्ली), अमित बैनर्जी तथा देवकुमार पाल (दोनों कोलकाता), सुमिरन धुर्वे (इंदिरा कला विश्वविद्यालय, खैरागढ़), रंजीत कपूर (दिल्ली), अंजना पुरी (भोपाल) आदि इप्टा के सदस्यों को प्रशिक्षित करने आ चुके हैं। इनके माध्यम से रंगमंच की विभिन्न विधाओं और अंगों का प्रशिक्षण प्राप्त किया गया है। इस कार्यशाला के समापन पर हुए मंचन में प्रायः दर्शकों की संख्या कम होती है क्योंकि रायगढ़ में काफी तेज़ गर्मी पड़ती है, जो रात में भी राहत नहीं देती। 2015 और 2016 में इप्टा रायगढ़ ने दर्शकों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से गर्मियों में दो दिन के लघु नाट्य समारोह का आयोजन करने का प्रयोग भी किया। पहले दिन खुद का नाट्य-मंचन और दूसरे दिन बिलासपुर-रायपुर की नाट्य-संस्थाओं के नाटकों का प्रदर्शन किया गया। हालाँकि स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ क्योंकि मौसम बेईमान होता ही था।
इप्टा रायगढ़ के नाटकों का मंचन कभी-कभी दर्शकविशेष को ध्यान में रखते हुए भी किया जाता रहा है। जैसे – ‘नेक्स्ट मिलेनियम’, ‘बी थ्री’, ‘व्याकरण’, ‘गगन दमामा बाज्यो’ आदि संवाद-केन्द्रित नाटकों के लिए गंभीर और बौद्धिक दर्शकों को आमंत्रित किया जाता रहा है; उसी तरह लोक शैली के म्युज़िकल नाटक ‘बकासुर’, ‘गांधी चौक’, मोंगरा जियत हावे’, ‘गदहा के बरात’, ‘अजब मदारी गजब तमाशा’ शहरों के अलावा गाँवों के दर्शक भी पसंद करते रहे हैं। कुछ म्युज़िकल नाटक हर कहीं खेले गए – ‘गगन घटा घहरानी’, ‘बकासुर’, ‘मोंगरा जियत हावे’।
इप्टा रायगढ़ के सदस्यों में अनेक रंगकर्मी आसपास के गाँवों से भी जुड़े हुए हैं, उनके गाँवों में नाट्य-प्रदर्शन करना पहली प्राथमिकता हुआ करती है। इसके दो फायदे होते हैं – पहला, जिस रंगकर्मी का गाँव होता है, वहाँ के दर्शकों को उस रंगकर्मी की रंग-गतिविधि के बारे में पता चलता है, जिससे उसका सम्मान उस गाँव में बढ़ जाता है और दूसरा, सदस्य के परिचित व्यक्तियों के कारण दर्शकों से इंटरेक्शन करने में आसानी होती है। इन मंचनों में कलाकारों को ग्रामीण दर्शकों से बहुत-कुछ सीखने का मौका मिलता है। गलती होने पर कहीं किसी लोकगीत का पारम्परिक रूप सिखाकर सुधरवाया जाता है, तो कहीं नाचा के जोक्कड़ों का अभिनय या उनकी गतिविधियों की विविधता की जानकारी दी जाती है, तो कहीं किसी लोकनृत्य में पदसंचालन या वाद्य का वादन कर कलाकारों की गलतियों को ठीक करवाया जाता है। इप्टा जिस गाँव में मंचन करती है, उनसे किसी प्रकार की आर्थिक माँग नहीं करती, सिर्फ एकमात्र माँग होती है कि, प्रदर्शन के बाद पूरी टीम को भोजन करवाया जाए। इस माँग के पीछे इप्टा का यह स्वार्थ छिपा होता है कि अनेक दर्शकों से भोजन करते हुए नाटक पर चर्चा हो जाती है। वे लोग भी जिसका चरित्र या अभिनय उन्हें प्रेरित करता है, उसे अधिक पूछ-परखकर भोजन कराते हैं। दो-तीन बार महाविद्यालय के एनएसएस कैम्प के दौरान ग्रामवासियों और स्वयंसेवक विद्यार्थियों के बीच भी नाटक किये गये। रायगढ़ के आसपास के ग्राम कुसमुरा, गोरखा, पंडरीपानी, सोंडका, भिखारीमाल, टीनमिनी, बंगुरसिया, डोमनपाली, पटेलपाली, धनागर, ननसिया, बनसिया आदि में ‘गगन घटा घहरानी’, ‘बकासुर’, ‘मोंगरा जीयत हावे’, ‘गाँधी चौक’ आदि के मंचन होते रहे।
इप्टा रायगढ़ ने अनेक म्युज़िकल नाटक किये हैं। जब इन नाटकों के प्रदर्शन अन्य शहरों में करने के लिए ट्रेन से यात्रा करनी होती थी, तब तो टीम को मानों हर जगह दर्शक ही दर्शक नज़र आते थे। कबीर के व्यक्तित्व और विचारधारा पर आधारित नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ के लगभग पंद्रह-बीस मंचन दिल्ली, पटना, भोपाल, सागर, इलाहाबाद, उज्जैन, जबलपुर, रायपुर, बिलासपुर, कोरबा जैसे शहरों में हुए। रायगढ़ से गंतव्य तक पहुँचने के लिए कई बार सीधी ट्रेन नहीं मिलती थी, गाड़ी बदलने के लिए किसी स्टेशन पर तीन-चार घंटे गुज़ारने पड़ते थे। या तो वेटिंग रूम में या फिर प्लेटफॉर्म पर ही समय का सदुपयोग करते हुए नाटक के गीतों की रिहर्सल शुरु की जाती थी। धीरे-धीरे दर्शक जुटने लगते थे, फिर दर्शकों की रूचि देखते हुए कभी नाटक का कोई दृश्य या समूचा नाटक ही खेल दिया जाता था। स्थान के अनुसार इम्प्रोवाइज़ेशन अपनेआप हो जाता था। कई बार दर्शकों में से कोई व्यक्ति नाट्य-दल का पता, मोबाइल नंबर ले लेता था, अपने शहर या गाँव में आमंत्रित करने के लिए कितना खर्च होगा, यह भी पूछ लिया जाता था। हालाँकि धीरे-धीरे हमें समझ में आ गया था कि इसतरह के दर्शक हमें बुला तो नहीं पाते, मगर उनके सफर के कुछ पलों को हमने अपनी रंग-गतिविधियों से आंदोलित कर दिया, यह संतोष ज़रूर हो जाता था। ये दर्शक न तो इप्टा के लक्षित दर्शक थे, न नियमित या प्रशिक्षित दर्शक; परंतु उनका नाटक के क्षणों में बँध जाना, तन्मय हो जाना, आकस्मिक किसी अनूठी चीज़ को पा लेने की आभा से जगमगा उठना इप्टा के सदस्यों को नई ऊर्जा दे जाता था।
किसी एक नाटक के विभिन्न स्थानों और दर्शकों के बीच होने का असर किसतरह भिन्न होता है और उसका भिन्न-भिन्न प्रभाव प्रस्तुति की गुणवत्ता पर भी किसतरह पड़ता है, इसका भी अनुभव इप्टा रायगढ़ के कलाकारों ने लिया है। ‘गगन घटा घहरानी’ के चार मंचन नाटक के निर्देशक संजय उपाध्याय ने दिल्ली में तीन दिनों में चार स्थानों पर करवाए थे। पहला मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ‘सम्मुख’ में दोपहर डेढ़ बजे हुआ। हमारी टीम ने पहली बार दोपहर को कोई मंचन किया था। संजय उपाध्याय ने हमारा कस्बाई समय-बोध देखते हुए पहले ही आगाह कर दिया था कि यह मंचन वहाँ के विद्यार्थियों के दो कक्षाओं के बीच के समय में हो रहा है इसलिए अगर हमने नाटक शुरु करने में देर की या नाटक सुस्त होकर झूला तो विद्यार्थी-दर्शक अपने समय पर उठकर चले जाएंगे। समय के इस दबाव में नाटक की वह प्रस्तुति बहुत कसी हुई और अच्छी हुई थी। वहीं दूसरा मंचन उसी दिन शाम को कनाट प्लेस के मुक्ताकाशी रंगमंच पर हुआ। इतना विशाल और फैला हुआ मंच और बिखरकर बैठे दर्शकों को देखकर प्रस्तुति बिखरने ही वाली थी कि वरूण देवता की कृपा से वर्षा होने के कारण मंचन रोक देना पड़ा। तीसरी प्रस्तुति सरदार वल्लभभाई पटेल विद्यालय के विद्यार्थियों के सामने सुबह थी। सुबह का वक्त भी हमारे लिए नया अनुभव था। वहाँ का भव्य मंच और अतिअनुशासित बाल-दर्शकों और शिक्षकों के सन्नाटे से नाटक उनकी समझ में आ रहा है या नहीं, समझ नहीं आ रहा था। परंतु जैसे ही नाटक समाप्त हुआ, बच्चों की तालियाँ रूकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। हम हतप्रभ थे। उनके प्राचार्य ने मंच पर आकर बताया कि उनके विद्यार्थियों के लिए यह अनुशासन में शामिल है कि ताली बजाना या कोई भी प्रतिक्रिया वे तब तक व्यक्त नहीं कर सकते, जब तक उनके शिक्षक इसकी अनुमति नहीं देते। ऐसा पहली बार हुआ कि नाटक समाप्त होने तक तो विद्यार्थियों ने सब्र किया, पर बाद में वे अनुमति का इंतज़ार नहीं कर पाए और इसतरह तालियाँ बजा बैठे। नाट्य-प्रस्तुति ही ऐसी थी कि सब एनर्जी से भर गए थे। चौथा प्रदर्शन आज़ाद भवन में था, जो सर्वसुविधा से सज्जित प्रेक्षागृह था। वहाँ का दर्शक दिल्ली का आभिजात्य दर्शक था, जिससे हमें कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली मगर हमारे लिए इस मंचन का अनुभव इसलिए ख़ास था क्योंकि इस प्रेक्षागृह की ध्वनि-व्यवस्था (एकॉस्टिक्स) ऐसी थी कि कहीं हलकी-सी आवाज़ होने पर भी अंतिम पंक्ति तक साफ़ सुनाई देता था। हमें विशेष सूचना दी गयी थी कि हमें मंच के विंग्स में या पीछे भी कोई आवाज़ नहीं करनी है। ऐसा प्रेक्षागृह हमने आगे भी प्रायः नहीं देखा।
इसी नाटक का एक मंचन इलाहाबाद में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के प्रेक्षागृह में हुआ था। लगभग एक हजार दर्शकों की बैठक-व्यवस्था वाले उस प्रेक्षागृह में मात्र चालीस-पचास दर्शक आरम्भिक दो-तीन पंक्तियों में बिखरे हुए बैठे थे। हमारी जो प्रस्तुति एक घंटा तीस मिनट में हो ही जाती थी, वह एक घंटा पैंतालिस मिनट तक खिंच गई। दर्शकों से खाली उस प्रेक्षागृह ने मानो हमारी सारी ऊर्जा ही चूस ली थी! ‘गगन घटा घहरानी’ के लगभग तीस प्रदर्शनों में यह हमारा सबसे निर्जीव प्रदर्शन था।
इसके विपरीत, नाटक जब 1997 में एक कार्यशाला में तैयार हुआ था, प्रेक्षागृह के अलावा अनेक मोहल्लों और गाँवों में भी खेला गया। शहर की एक बाहरी बस्ती में जब इसका मंचन हो रहा था, वहाँ दर्शक अभिनय-स्थल से मात्र दो फीट की दूरी पर बैठे थे। हमारा और उनका लेवल भी एकसमान था। हमें उनके चेहरे के भाव और उनकी टिप्पणियाँ भी साफ सुनाई और दिखाई दे रही थीं। आरम्भ में हमें संदेह था कि कम पढ़े-लिखे दर्शक होने से उन्हें नाट्यालेख समझ में आएगा या नहीं! (दरअसल ‘गगन घटा घहरानी’ का नाट्यालेख सुमन कुमार ने मुक्तिबोध शैली में लिखा है।) मगर हमारा संदेह बेकार साबित हुआ। हम तो कबीर पर सिर्फ नाटक कर रहे थे, कबीर गा रहे थे, मगर वे तो कबीर का जीवन-दर्शन समझे-समझाए हुए बैठे थे। इसलिए वे नाटक के एक-एक दृश्य को देखकर अपनी मूक या भावात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। इस मंचन से हमें यह सीख मिली कि दर्शकों का बौद्धिक स्तर सिर्फ उनके शिक्षित या अशिक्षित होने से न मापा जाए, वह तो उनके जीवन-अनुभव और जीवन-दृष्टि पर टिका होता है। इस मंचन में यह भी पता चला कि इस तरह के अनौपचारिक इंटीमेट थियेटर में दर्शकों से सीधे ऊर्जा प्राप्त होती है।
न केवल दर्शकों से, बल्कि आयोजन या मंचन से जुड़े लोगों से भी रोचक कमेन्ट्स मिलते थे। रायगढ़ के प्रसिद्ध चक्रधर समारोह में बर्टोल्ट ब्रेख्त लिखित नाटक ‘लुकुआ का शाहनामा’ के मंचन के बाद सेट्स को समेटते हुए हम सब उस दिन के प्रदर्शन पर भी चर्चा कर रहे थे। वहाँ ड्यूटी पर उपस्थित नगर निगम के पानी पिलाने वाले कर्मचारी ने हमारी बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए कहा था, ‘‘इस नाटक में यह सही बताया गया है कि जो इस दुनिया में अन्याय करता है, उसे भले ही यहाँ सज़ा न मिले, मगर ऊपर जाकर उसे जवाब तो देना ही पड़ता है।’’ पूरे नाटक का सार अपने शब्दों में उसने जिस सहज तरीके से व्यक्त किया, वह ‘काव्यगत न्याय या पोएटिक जस्टिस’ की उसकी अपनी खोज थी। इससे और आगे बढ़कर औरंगाबाद में कैरेल चैपक के नाटक का हिंदी रूपान्तरण ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ के मंचन के बाद जो कार चालक हमें स्टेशन ले जा रहा था, जो यूनिवर्सिटी का कर्मचारी था, उसने बहुत अभिभूत होकर कहा था, ‘‘यह नाटक आज की युवा पीढ़ी को ज़रूर दिखाया जाना चाहिए। औद्योगीकरण और यांत्रिकीकरण का क्या दुष्परिणाम हो सकता है, उन्हें समझ में आना चाहिए।’’ ‘ऐसे’ दर्शकों के ‘ये कमेन्ट्स’ इप्टा के रंगकर्म को बहुत बल प्रदान करते हैं। यही तो जन-चेतना की जागृति है।
दर्शकों की विविध प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जानने का सबसे बड़ा कार्यक्रम होता है इप्टा रायगढ़ का पाँच दिवसीय नाट्य समारोह। यह शहर की बहुप्रतीक्षित तथा लोकप्रिय सांस्कृतिक गतिविधि है। इसके दर्शक सिर्फ दर्शक नहीं होते, वे हमारे फाइनेन्सर, प्रचारक-प्रसारक, सलाहगार तथा मददगार भी होते हैं। हरेक वर्ष के अंतिम चार महीने इनसे इंटरेक्शन रूबरू होता रहता है। दशहरे-दीपावली के आसपास हम अपने छै सौ दानदाता दर्शकों को एक शुभकामना पत्र के साथ आगामी नाट्य समारोह की तारीखों तथा सम्मिलित होने वाले नाट्य दलों की जानकारी देते हैं तथा यह अपील भी कि ‘‘इस वर्ष भी आपका आर्थिक और अन्य सहयोग हमें मिलेगा।’’
नाट्य समारोह के एक-डेढ़ महीने पहले प्रतिदिन शाम को डेढ़-दो घंटे एक-एक मोहल्ला और गली-सड़क में जाकर रसीद देकर सहयोग राशि इकट्ठी की जाती है। पत्र मिलने के बाद अधिकांश लोग इंतज़ार करते रहते हैं कि इप्टा के कलाकार अब तक कैसे नहीं आए! यह सहयोग राशि 10 रुपये से लेकर 5000 तक हो सकती है। मज़ेदार बात यह है कि हम किसी पर यह ज़बरदस्ती नहीं करते कि उन्होंने पिछले साल जो राशि दी थी, इस वर्ष भी दे! कोई पूछता तो अंदाज़न बता दिया जाता था। मगर हमारे पास रकम सम्बन्धी ऐसी कोई व्यवस्थित सूची नहीं होती थी। इस अभियान में नए-पुराने तमाम सदस्य निकलते हैं। अगर आमंत्रण पत्र छप चुके हों तो वह भी साथ-साथ देते चलते हैं (यह आइडिया भी हमारे एक दानदाता ने ही दिया था)। इस जन-सम्पर्क और आर्थिक-संग्रहण-अभियान में दर्शकों से बातचीत भी होती चलती है। कभी दर्शक टीम में जुड़े नए कलाकार की पूछताछ करते हैं तो कभी किसी पुराने साथी बाबत भी पूछते हैं। कभी पिछले वर्ष हो चुके नाटकों की अच्छाई-बुराई पर भी चर्चा करते हैं। अचानक कोई दर्शक शिकायत करने लगता है कि कई वर्षों से ‘रंग विदूषक’ को क्यों नहीं बुलाया! रायगढ़ में अनेक उद्योगों के आरम्भ होने के बाद अनेक बिहारवासी भी शहर में बस गए हैं। वे पटना इप्टा या संजय उपाध्याय का भोजपुरी नाटक आ रहा है या नहीं, इस बाबत उत्सुक होते हैं।
इप्टा रायगढ़ के नाट्य समारोह में शहर के अधिकांश लोग इन्वॉल्व होते हैं। कुछ दुकानदार, छोटे होटेल मालिक, पानवाले या नाई अपनी दुकानों में बहुत शौक से नाट्य समारोह के छोटे पोस्टर टाँगते हैं तथा जिज्ञासु व्यक्तियों को जानकारी भी देते हैं। ये दर्शक और इप्टाप्रेमी किसतरह रंगकर्मियों से प्यार करते हैं, हमें बाहर से आई टीमों के सदस्य बताते रहे हैं। भोपाल का एक रंगकर्मी अपने बाल कटवाने नाई की दुकान पर गया था, बातचीत में जब उसे पता चला कि वह नाट्य समारोह में नाटक करने आया है तो उसने पैसा लेने से साफ इंकार कर दिया। इसीतरह चाय की दुकान पर चाय-नाश्ते का पैसा भी कई बार नहीं लिया जाता था। लखनऊ इप्टा के साथ घटी एक घटना का ज़िक्र दिलचस्प है। सात-आठ साल पहले वे ‘रात’ और ‘माखनचोर’ दो नाटक लेकर रायगढ़ आ रहे थे, झाँसी से उनकी कनेक्टिंग ट्रेन छूट गई। वे लोग बहुत परेशान हुए कि रात का सफर, और अब बिना रिज़र्वेशन के कैसे जा सकेंगे! झाँसी में जिस टीटीई से उनकी बात हो रही थी, जब उसे पता चला कि वे लोग इप्टा रायगढ़ के नाट्य समारोह में मंचन के लिए जा रहे हैं, तो उसने बाकायदा उन्हें बर्थ दिलवाई। हमें जब जुगलभाई ने बताया तो हम भी आश्चर्यचकित थे। हालाँकि रायगढ़ के चार-पाँच बंगलाभाषी ‘टीटीई दादा’ हमारे नियमित दर्शक थे और वे अलग-अलग रूट की गाड़ियों में ड्यूटी करते थे, यह हमें पता था। इससे पहले भी जब बारह-पंद्रह साल पहले कम दूरी की यात्रा के लिए रिज़र्वेशन का प्रचलन नहीं था, तब ये ‘दादा’ लोग ही रायपुर, बिलासपुर, भिलाई के रंगकर्मी साथियों को ट्रेन में सामान रखवाने से लेकर उनके बैठने की व्यवस्था भी करवा देते थे। कई वर्षों तक युवराज सिंह ‘आज़ाद’ रेल्वे के कर्मचारी-दर्शकों की बदौलत किसी भी टीम के स्टेशन पहुँचते ही आनेवाली टीम के स्वागत की उद्घोषणा रेल्वे अनाउंसमेंट सिस्टम से कर देता था।
इप्टा के नाटकों के दर्शकों में जहाँ छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी रहे हैं, वहीं पूर्व डीजीपी विश्वरंजन, पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार एवं एस.के.मिश्र, रायगढ़ के पूर्व जिला न्यायाधीश अनिल कुमार शुक्ला और अनेक बुद्धिजीवी स्वेच्छा से आते रहे, वहीं ऑब्ज़र्वर के रूप में पटना से हृषिकेश सुलभ, मुंबई से सत्यदेव त्रिपाठी, इंदौर से सत्यनारायण व्यास, जमशेदपुर से कॉम. शशिकुमार, घाटशिला के युवा कथाकार शेखर मलिक, पुणे के डॉ. अजय जोशी ने भी दर्शक की भूमिका निबाही। तीसरी ओर सुदूर मोहल्लों और आसपास के गाँवों के दर्शक भी आते रहे हैं क्योंकि इसमें टिकट नहीं होने तथा बिना किसी भेदभाव के ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की तर्ज़ पर दर्शक-दीर्घा में बैठा जा सकता था।
कुछ वर्षों तक हमने प्रेक्षागार के प्रवेश द्वार पर एक रजिस्टर भी रखा था। उसमें दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ और उनके फोन नंबर्स भी रखे जाते थे। नाट्य समारोह की समीक्षा बैठक में इन प्रतिक्रियाओं का सामूहिक वाचन होता था। दर्शक इप्टा और उसके रंगकर्मियों से किसतरह जुड़े हुए थे, इसका अक्स हमें 2001 के नाट्य समारोह में साफ दिखाई दिया।
उस समय तक नगर निगम के प्रांगण में बड़ा टेन्ट लगाकर उसे ऑडिटोरियम की तरह शर्मा टेन्ट हाउस की मदद से तैयार किया जाता था। तब तक यह प्रांगण आवेदन देने पर हमें निःशुल्क मिल जाता था। अचानक 2001 में निगम ने हमसे 16500 रूपये किराए के रूप में माँग लिए। इप्टा अपने नाट्य समारोह पूरी तरह जन सहयोग से ही करती थी इसलिए उस समय इतनी बड़ी रकम देना बहुत कठिन था। निमंत्रण पत्र छप चुके थे, सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं; शहर में कोई और जगह ऐसी नहीं थी, जहाँ तुरंत नाट्य समारोह को शिफ्ट किया जा सकता! सो, उस समय तो इप्टा ने समूची राशि जमा कर दी परंतु नगर निगम के इस आकस्मिक रवैये के प्रति प्रतिरोध जताते हुए प्रवेश द्वार पर बैनर लगाया गया – ‘‘जनता के सहयोग से एवं नगर निगम के असहयोग से आयोजित’’।
उस वर्ष रजिस्टर में बड़ी संख्या में दर्शकों ने अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए नगर निगम के रवैये की भर्त्सना की थी। स्थानीय विधायक ने दर्शकों की प्रतिक्रिया को देखते हुए समापन के दिन मंच पर आकर अपने विधायक निधि से 16000 रूपये इप्टा को प्रदान करने की घोषणा की। इस घटना से इप्टा के रंगकर्मियों के बीच यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि अगर हम निरंतर अच्छा रंगकर्म कर रहे हों, तो हमें दर्शकों का प्यार और विश्वास ज़रूर मिलेगा।
दो-तीन उदाहरणों के बिना नियमित दर्शकों और इप्टा के नाट्य समारोहों की घनिष्टता की बात पूरी नहीं हो सकती। चूँकि दर्शक की सीट आरक्षित नहीं होती थी तो सामने की या मनचाही सीट पाने के लिए अनेक प्रकार की जुगत भी भिड़ाई जाती थी। शहर के नाट्यप्रेमी शिशु रोग विशेषज्ञ अपनी व्यस्तता के बावजूद रोज नाटक देखने आते थे। वे अपने क्लिनिक से एक सहायक को अपनी सीट रोकने के लिए आधा घंटा पहले भेज देते थे। उनके आने पर वह उनके लिए सीट छोड़कर खड़ा हो जाता था। इसीतरह पाँच पेंशनर दोस्तों में से कोई एक-दो लोग आकर बीच के दरवाज़े के पास वाली सीटें रोक लेते थे। दरवाज़े के पास इसलिए, क्योंकि एक दोस्त डायबिटिक है।
अक्सर नाट्य समारोह में सभी मंचन हाउसफुल होते थे। इसलिए बच्चों और इप्टा के सदस्यों के लिए मंच के सामने ज़मीन पर गद्दे या मैट बिछाए दिये जाते थे ताकि वे भी नाटक ठीक से देख सकें और दर्शकों के लिए भी कुर्सियाँ उपलब्ध हो। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि छब्बीस साल से निरंतर होने वाले नाट्य समारोह तथा वर्ष भर की अपनी गतिविधियों के कारण इप्टा और दर्शकों के अंतर्सम्बन्ध हमेशा बहुत घनिष्ठ बने रहे। इप्टा की यही ताकत है। (समाप्त)