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यादों के झरोखों से : चौदह

यादों के झरोखों से : चौदह

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। उसे ही किश्तों में पहले साझा कर रही हूँ। पिछली कड़ी में 2009 की गर्मियों से लेकर 2012 जनवरी में हुए अठारहवें नाट्य समारोह तक की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया था । इस कड़ी में नाट्य समारोह के बाद से लेकर 2014 के इक्कीसवें नाट्य समारोह का विवरण प्रस्तुत है। गतिविधियां नए-नए आयामों में फैलती जा रही थीं। हम गाँवों के साथ शहर के अलग-अलग हिस्सों में जाकर नाटक के साथ जनगीत और अन्य कार्यक्रम करने लगे थे। अपने साथ अन्य संगठनों को भी जोड़ने लगे थे। अनेक आन्दोलनों में सड़क पर भी उतरने लगे थे। अजय द्वारा लिखे हुए इतिहास में अब मुझे ज़्यादा जोड़ने की ज़रुरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि 2017 में छत्तीसगढ़ इप्टा के दस्तावेज़ीकरण अंक में यह प्रकाशित होना था। चूंकि हिंदी टाइपिंग और संपादन मुझे करना होता था, तो मुझे अजय पर जल्दी-जल्दी लिखकर पूरा करने का दबाव डालना पड़ा और अजय को मजबूरन काफी संक्षेप में इसे पूरा करना पड़ा। वर्ना उसकी तेज़ याददाश्त के चलते और बेहतर दस्तावेज़ तैयार हो सकता था। इसलिए हमेशा की तरह छूट गयी महत्वपूर्ण गतिविधियों का उल्लेख मैंने कोष्ठक में जोड़ दिया है। – उषा वैरागकर आठले )

नाट्योत्सव से फुर्सत पाते ही इस वर्ष 23 मार्च को भगतसिंह की पुण्यतिथि पर भाकपा और युवा क्लब चाँदमारी के साथ मिलकर भगतसिंह चौक पर ‘गगन दमामा बाज्यो’ के गीत और जनगीत गाकर श्रद्धांजलि दी गई। डोंगरगढ़ के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में 4 मई को ‘बकासुर’ करने का निमंत्रण मिला। हमने रिहर्सल शुरु की और डोंगरगढ़ जाने से पहले ग्राम धनागर में ‘बकासुर’ का एक शो किया गया।

डोंगरगढ़ से लौटते ही 19 मई से 2 जून 2012 तक बाल रंग शिविर का आयोजन किया गया, जिसे अजेश शुक्ला ने संचालित किया और ‘अपना अपना भाग्य’ नाटक तैयार किया। अजेश शुक्ला मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय भोपाल की प्रथम बैच का डिप्लोमा लेकर लौट चुका था। इस रंग शिविर में संगीत का प्रशिक्षण देवकी डनसेना ने दिया था, जो शहर की संगीत अध्यापिका थीं।

इसका मंचन 2 जून को टाउन हॉल में किया गया। इस नाटक में क्राफ्ट वर्क हितेश पित्रोडा ने किया। (हितेश ने इप्टा का निम्न लोगो थर्मोकोल पर फालतू चीज़ों से बनाया था। हितेश पित्रोदा की यही रचनात्मकता उसे आज मुंबई में आर्ट डायरेक्टर के रूप में स्थापित कर चुकी है।)

25 मई को इप्टा के स्थापना दिवस पर ‘इप्टा और मैं’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

(इस कार्यक्रम में उपस्थित नए-पुराने सभी साथियों ने इप्टा के साथ अपने-अपने अनुभवों को साझा किया। साथ ही स्वप्निल नामदेव और प्रियंका बेरिया ने छत्तीसगढ़ी नृत्य प्रस्तुत किया।)

(इस अवसर पर इप्टा के पुराने नाटकों, कार्यशालाओं के फोटो और रिपोर्टिंग की अखबारी कतरनों तथा पंकज दीक्षित द्वारा बनाये गए कविता पोस्टर्स की प्रदर्शनी लगाई गयी थी।

साथ ही इप्टा के इतिहास पर जानकारी देने के लिए उषा आठले ने प्रोजेक्टर के माध्यम से प्रस्तुतीकरण दिया।)

सितम्बर माह में अनादि पुणे फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान के चार सहपाठियों के साथ रायगढ़ आया और इप्टा के साथियों के साथ उसने ‘जून एक’ नाम की शॉर्ट फिल्म की शूटिंग की। इस वर्ष हमने शूटिंग के चलते चक्रधर समारोह में कोई नाटक नहीं किया।

पिछले चार वर्षों से हम लगातार महसूस कर रहे थे कि दर्शक कम होते जा रहे हैं। दर्शक वर्ग में आ रही लगातार गिरावट पर चर्चा की गई और यह निष्कर्ष निकाला गया कि नाट्योत्सव के दौरान पड़ रही शीतलहर के कारण दर्शक वर्ग में कमी आ रही है। लिहाजा इस वर्ष उन्नीसवाँ राष्ट्रीय नाट्य समारोह 26 नवंबर से 30 नवंबर 2012 तक आयोजित किया जाए। साथ ही यह तय किया कि प्रतिदिन एक लघु फिल्म का प्रदर्शन भी किया जाए।

पिछले नाट्योत्सव में सुलभ जी ने एक सुझाव दिया था कि सम्मान आप किसी को एक बार ही देते हैं और उसे भी आपसे जीवन में एक बार ही सम्मान मिलना है तो इसे ऐसा बनाइये कि उसे भी हमेशा याद रहे। इसे नाट्योत्सव में ही दिन को अलग से एक सत्र रखकर सम्मानित करें तो ज़्यादा अच्छा होगा। साथ ही अगर उसी दिन उनका एक नाटक भी रख सकें तो अच्छा होगा ताकि दर्शक उनका काम भी देख सकें। हम लोगों को उनका यह सुझाव बहुत अच्छा लगा तो फिर यह तय हुआ कि सम्मान समारोह अलग से आयोजित किया जाए और सम्मानित रंगकर्मी के नाटकों के फोटोग्राफ्स की एक प्रदर्शनी भी लगाई जाए। इस वर्ष यह सम्मान जुगलकिशोर जी को देना तय हुआ था। अचानक विनोद बोहिदार ने प्रस्ताव रखा कि उनके फोटोग्राफ्स और दूसरी सामग्री का उपयोग कर क्यों न एक ऑडियो-विजुअल प्रेजेन्टेशन दिया जाए। अनादि इस काम के लिए तैयार हो गया। यह भी तय किया गया कि शहर की अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं को भी आमंत्रित किया जाए कि वे भी चाहें तो अपनी ओर से शाल-श्रीफल से सम्मानित करें।

इस वर्ष चूँकि टाउन हॉल का मैदान बेहद खराब हो गया था और वहाँ नगर पालिका का सारा कबाड़ पड़ा हुआ था इसलिए समारोह नटवर स्कूल के मैदान में आयोजित करना तय हुआ।

इस वर्ष से सभी आमंत्रित दलों को होटल में ठहराना शुरु किया गया ताकि हमारे कलाकारों पर देखरेख का भार कम हो जाए।

इस वर्ष पहले दिन इप्टा लखनऊ का जुगल किशोर निर्देशित नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’, दूसरे दिन ओजस एस.व्ही. का ‘ले मशालें’, जो मणिपुर की संघर्षशील महिला इरोम शर्मिला पर केंद्रित था।

तीसरे दिन फ्लेम पुणे का ‘लड़ी नज़रिया’,

चौथे दिन हम थियेटर ग्रुप भोपाल का ‘लाला हरदौल’

और अंतिम दिन निर्माण कला मंच पटना का ‘कम्पनी उस्ताद’ प्रस्तुत किया गया।

इसके अतिरिक्त पुणे फिल्म संस्थान के छात्रों द्वारा बनाई गई लघु फिल्में खोया, रिज़वान, तत्पश्चात, द्वन्द्व का प्रदर्शन किया गया।

लखनऊ इप्टा के रंगकर्मी-निर्देशक जुगल किशोर को दिये जाने वाले चतुर्थ शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान का समारोह होटल साँईश्रद्धा के बैंक्वेट हॉल में 26 नवम्बर 2012 को रखा गया था। इस सम्मान को स्थापित करने के पीछे की कहानी पहले बताई गई, फिर प्रभात त्रिपाठी जी, मुमताज भारती जी तथा राकेश जी के उद्बोधन हुए।

फिर जुगलकिशोर जी पर अनादि द्वारा बनाए गए मोंटाज़ का प्रदर्शन किया गया। तत्पश्चात उनका शाल-श्रीफल से सम्मान कर सम्मान पत्र और सम्मान राशि प्रदान की गई।

इप्टा के अलावा चौदह अन्य संस्थाओं द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया गया।

अंत में उनका संबोधन हुआ।

जुगलभाई का गला भर आया था। बाद में भी दो-तीन बार उन्होंने मुझे कहा था ‘‘अजयभाई आप लोगों ने मुझे हिला दिया।’’

फरवरी माह में ये तय किया गया कि कहानियों का मंचन किया जाए। अपर्णा ने उदयप्रकाश के कहानी संग्रह से कहानी ‘छप्पन तोले का करधन’ और अजेश शुक्ला ने ‘रामसजीवन की प्रेमकथा’ का चयन किया।

तय हुआ कि इच्छुक साथियों को लेकर दोनों कहानियों की रिहर्सल शुरु की जाए और इनका निर्देशन अपर्णा और अजेश करेंगे। दोनों नाटकों में पाँच-पाँच पात्र थे। इनका पहला मंचन 10 फरवरी को टाउन हॉल में किया गया। उसकी समीक्षा हुई। फिर दूसरा मंचन विवेकानंद स्कूल के प्रांगण में किया गया। मुख्य शो 24 फरवरी को पॉलिटेक्निक ऑडी में किया गया। ये नाटक अब पूरीतरह पक चुके थे। इनसे इप्टा में नए निर्देशकों की संभावनाएँ भी खुलीं।

इसके बाद ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर अपर्णा द्वारा लिया गया, जिसमें ‘शिक्षा का सर्कस’ नाटक तैयार किया गया। इसका मंचन इप्टा के स्थापना दिवस 25 मई को हुआ।

इस आयोजन में इप्टा के पिछले 25 वर्षों के कार्यों का मोंटाज़ प्रदर्शित किया गया।

इस कार्यक्रम को हमने बीच में ही स्थगित किया क्योंकि बस्तर में नक्सली हमले में अनेक वरिष्ठ कांग्रसी नेताओं के मारे जाने की खबर आ रही थी। दूसरे दिन सारी बातें पता चलीं और इसमें खरसिया के विधायक, जिन्होंने इप्टा को समय-समय पर बहुत सहायता प्रदान की थी, उनके और उनके बेटे के मारे जाने की पुष्टि हुई।

हम चार साथी उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने गए थे। यह एक बहुत बड़ी घटना थी, जिसने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया था।

अप्रेल 2013 में बिलासपुर में प्रगतिशील लेखक संघ की छत्तीसगढ़ इकाई का राज्य सम्मेलन हुआ। रायगढ़ से हम छै साथी सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन में मुमताज भारती ‘पापा’ को सम्मानित किया गया। उन पर मैंने एक लेख लिखकर उसका वाचन भी किया था। (यह लेख ‘पगडंडियों के राही’ शीर्षक से इसी ब्लॉग में प्रकाशित किया गया है)

जुलाई माह में अनादि अपनी शॉर्ट फिल्म ‘जून एक’ लेकर आया, जिसका स्क्रीनिंग आशीर्वाद होटल में किया गया। इसमें इप्टा के अलावा रायगढ़ शहर के अनेक लोग भी थे।

चक्रधर समारोह में इस वर्ष ‘दूर देश की कथा’ के मंचन की योजना बनी। रिहर्सल शुरु हुई।

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर

इसी बीच 20 अगस्त को डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या हो गई। इसके विरोध में सभी जन संगठनों ने गांधी चौक में धरना प्रदर्शन किया, जिसमें इप्टा के सभी कलाकार सम्मिलित हुए। यहीं घोषित किया गया कि 31 अगस्त को डॉ. दाभोलकर को श्रद्धांजलि स्वरूप इप्टा रायगढ़ द्वारा ‘दूर देश की कथा’ का मंचन किया जाएगा। पॉलिटेक्निक में इसका मंचन हुआ। चक्रधर समारोह में भी इसका मंचन सम्पन्न हुआ।

हीरा मानिकपुरी

हीरामन मानिकपुरी मुंबई से वापस आ गया था और जिंदल स्कूल में ड्रामा टीचर के रूप में पदस्थ हो गया था। हमने उससे इप्टा के साथ काम करने के लिए कहा, उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मैंने प्रेमानंद गज्वी के मूल मराठी नाटक ‘व्याकरण’ का हिंदी में अनुवाद कर लिया था। हमें यह बहुत ज़रूरी नाटक लग रहा था। हीरामन को भी नाटक पसंद आया। यह बांध विस्थापितों की व्यथा पर लिखा हुआ नाटक है। इस नाटक की रिहर्सल बांध विस्थापन संबंधी तमाम चर्चाओं के साथ काफी समय लेकर पूरी हुई। पहला मंचन पॉलिटेक्निक में, दूसरा मंचन इप्टा डोंगरगढ़ के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में किया गया।

डोंगरगढ़ से लौटकर सभी साथी बीसवें नाट्योत्सव की तैयारियों में लग गए। यह चुनावी साल होने के कारण नवम्बर की बजाय दिसम्बर में 26 से 30 दिसंबर 2013 तक पूर्ववत नाट्योत्सव का आयोजन करना पड़ा। ठंड की आशंका को देखते हुए हमने इसे श्याम टॉकिज में आयोजित किया।

इस वर्ष का शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान सीमा बिस्वास को दिया जाना तय हुआ। 26 दिसम्बर को दिन में सम्मान कार्यक्रम था और इसी दिन शाम को उनका एकल नाटक ‘स्त्रीर पत्र’ का मंचन होना था। यह एकल नाटक रबिन्द्र नाथ टैगोर की कहानी पर आधारित सीमाजी द्वारा ही निर्देशित एवं अभिनीत था।

इस बार सम्मान कार्यक्रम में तीस संस्थाओं ने हिस्सा लिया। अनादि ने सीमा जी पर आठ मिनट का मोंटाज़ बनाकर प्रदर्शित किया। सीमा जी ने अपने उद्बोधन में इस समारोह को अद्भुत बतलाते हुए प्रतिवर्ष रायगढ़ आने की इच्छा जाहिर की।

इस बार नाट्य समारोह का उद्घाटन जिलाधीश श्री मुकेश बंसल द्वारा किया गया। उन्होंने अपने उद्बोधन में वादा किया कि ‘‘अगले वर्ष तक शासकीय ऑडिटोरियम का निर्माण पूरा हो जाएगा और इप्टा अपना नाट्योत्सव वहीं करेगी।’’ (इस अवसर पर इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ का विमोचन भी जिलाधीश महोदय ने किया। दूसरे दिन जेएनयू इप्टा का नाटक ‘चार्वाक’ का मंचन था, इसलिए इप्टा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और निर्देशक मनीष श्रीवास्तव भी मंच पर आमंत्रित थे।)

(वर्ष 2013 का ‘रंगकर्म’ का अंक विभिन्न रंग-व्यक्तित्वों पर केंद्रित था। इसमें अनेक रंगकर्मी-निर्देशकों के साक्षात्कार प्रकाशित किये गए थे। ‘विरासत’ शीर्षक के अंतर्गत बलराज साहनी का प्रसिद्ध लेख ‘सिनेमा और नाटक’ तथा गुरुशरण सिंह पर लिखा पुंजप्रकाश का लेख ‘इंकलाब का संस्कृतिकर्मी’ के अलावा इप्टा के संस्थापक सदस्य रेखा जैन और गुलबर्धन का मैंने और अजय ने लिया हुए साक्षात्कार तथा बीबीसी के लिए वेदिका त्रिपाठी का लिया हुआ साक्षात्कार हमने साभार प्रकाशित किया था। उड़ीसा से धीरेन्द्र मलिक का, महाराष्ट्र व मुंबई से प्रेमानंद गजवी, शशिकांत बरहानपुरकर, शैली सथ्यू, सत्यदेव त्रिपाठी तथा मंजुल भारद्वाज के साक्षात्कार, मध्य प्रदेश से अरुण पांडेय, छत्तीसगढ़ से राजकमल नायक, उत्तर प्रदेश से जुगल किशोर, बिहार से परवेज़ अख्तर, संजय उपाध्याय, तथा मोना झा, आंध्र प्रदेश से कठपुतली रंगमंच की पद्मिनी रंगराजन के साक्षात्कार इस अंक में प्रकाशित हुए। इस अंक के संपादन के लिए अपर्णा ने भी बहुत मेहनत की थी।)

दूसरे दिन लघु फिल्म ‘आबिदा’ के प्रदर्शन उपरांत जेएनयू इप्टा के नाटक ‘चार्वाक’ का मंचन हुआ।

तीसरे दिन ‘फिरदौस’ लघु फिल्म के पश्चात इप्टा रायगढ़ के नाटक ‘व्याकरण’ का मंचन हुआ। चौथे दिन ‘प्रभात नगरी’ लघु फिल्म के प्रदर्शन के उपरांत इप्टा जयपुर का ‘सांध्यकाले प्रभातफेरी’ का मंचन किया गया।

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‘संध्याकाले प्रभातफेरी’ नाटक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह जी द्वारा लिखा हुआ था। वे भी अपनी टीम के साथ आये हुए थे। मंचन के बाद उन्हें मुमताज भारती ने स्मृति-चिह्न प्रदान किया।

अंतिम दिन हीर गंजवाला निर्देशित लघु फिल्म ‘रीति’ का प्रदर्शन और इप्टा भिलाई द्वारा ‘आधी रात के बाद’ का मंचन हुआ।

इस नाट्य समारोह में दर्शकों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जो पिछले चार-पाँच सालों से कमी महसूस हो रही थी, वह दूर हो गई। यह भी महसूस हुआ कि इस बार काफी नए दर्शक आए थे।

2014 में हमने निर्णय लिया कि भगतसिंह की पुण्यतिथि कमला नेहरू उद्यान के सामने खुले चौक पर मनाई जाए। रायगढ़ के युवा संगीतकारों की एक टोली ‘अंटिल वी लास्ट’ से सम्पर्क किया, उन्हें अपनी योजना बताई, उन्होंने भी उत्साह दिखाया। हमने कुछ क्रांतिकारी गीत उन्हें दिये, जिनकी धुनें उन्होंने बनाईं। कुछ गीत हमारे साथियों ने तैयार किये। ‘एक शाम शहीदों के नाम’ शीर्षक से इस कार्यक्रम का संचालन अपर्णा ने किया, जिसने इन तमाम गीतों को अपनी कॉमेन्ट्री में पिरोया। सुनने के लिए अच्छे खासे दर्शक इकट्ठा हो गए थे। पुराने नुक्कड़ नाटकों की याद आई।

2014 के ग्रीष्मकालीन शिविर में अपर्णा के निर्देशन में विवेकानंद स्कूल में बच्चों का नाटक ‘राजा की पोशाक’ तैयार किया गया। हीरामन मानिकपुरी द्वारा इप्टा के कलाकारों के दो नाटक ‘टैक्स फ्री’

और ‘पहल’ में प्रकाशित एक कहानी ‘टुम्पा’ को कहानी का रंगमंच शैली में तैयार करवाया गया। इन सभी नाटकों का एक साथ मंचन हुआ।

इस बीच मैंने प्रल्हाद जाधव जी लिखित मराठी नाटक ‘शेवंता जित्ती हाय’ का अनुवाद ‘मोंगरा जियत हावे’ किया। नाटक पहले हिंदी में ही अनूदित किया था। तीन-चार दिन की रिहर्सल के बाद ऐसा लगा कि इसे छत्तीसगढ़ी में किया जाए तो ज़्यादा अच्छा होगा। यह तय होते ही सभी ने अपने-अपने हिस्से के डायलॉग छत्तीसगढ़ी में बोलने शुरु कर दिए। यह भी पूरीतरह टैक्स्ट बेस्ड नाटक था और डिज़ाइन भी बॉक्स टाइप था।

अभी हम लोग संवाद याद ही कर रहे थे कि एक दिन हीरामन ने कहा कि इस नाटक को लोकशैली में किया जाता तो ज़्यादा मज़ा आता। तो हमने इसे लोकशैली में ढालने के लिए हर दृश्य के बीच नाचा शैली और जोकड़ों के संवाद बनाए।

बीच में पंडवानी और पंथी के लिए भी जगह बनाई और छत्तीसगढ़ी गीतों की भी रचना की, मगर शो की तारीख तय हो चुकी थी। हमारे नाटक के पहले दिन इप्टा रायपुर का नाटक ‘पंछी ऐसे आते हैं’ को भी आमंत्रित कर लिया था। 25-26 जुलाई 2014 को एक लघु नाट्य समारोह के तहत इनका मंचन होना था।

लिहाजा यह तय हुआ कि इसका पहला मंचन छत्तीसगढ़ी में ही हो पर टैक्स्ट बेस्ड ही हो, इसके बाद इसे लोक शैली में ढाला जाए।

इस मंचन के बाद हम इसे लोक शैली में खेलने की तैयारी में जुट गए। तीन प्रवेशों के लिए छैः जोक्कड़ बनाए गए। पंथी नृत्य और पंडवानी का एक पीस जोड़ा गया। पंडवानी गायन के लिए हमने ‘अंटिल वी लास्ट’ ग्रुप की लड़की संगीता चौहान से सम्पर्क किया। वह तैयार हो गई। वह सचमुच बहुत अच्छा गाती थी और अपने काम के प्रति समर्पित थी।पहले मंचन में सिर्फ चार कलाकारों में यह नाटक हो गया था, अब इसमें कलाकारों की संख्या बढ़कर बीस हो गई। चक्रधर समारोह में इसका बेहद सफल मंचन हुआ। यह अब तक का सबसे चर्चित नाटक हो गया।

14 से 16 नवम्बर 2014 तक इप्टा का चौथा छत्तीसगढ़ राज्य सम्मेलन रायपुर में होना था। यह मुक्तिबोध नाट्य समारोह के साथ जुड़कर होना था। चूँकि यह राज्य सम्मेलन था इसलिए हमने उसमें ‘मोंगरा जियत हावे’ के मंचन के लिए दावेदारी प्रस्तुत की।

सम्मेलन के पहले दिन ही हमारा मंचन था। शाम को झंडारोहण के बाद राज्य सम्मेलन का उद्घाटन कार्यक्रम था, हम मेकअप में लग गए। नाटक ने शुरु से ही गति पकड़ ली थी। मंचन प्रभावशाली रहा। हीरामन रात को ही लौट गया, उसके पास छुट्टी नहीं थी। मगर बाकी सारे साथी सम्मेलन के लिए रूके और हर गतिविधि में उन्होंने हिस्सा लिया। अंतिम दिन चुनाव हुए। मिनहाज असद अध्यक्ष चुने गए तथा महासचिव पुनः राजेश श्रीवास्तव ही रहे।

राज्य सम्मेलन से लौटकर हम लोग 26 से 30 दिसंबर 2014 तक आयोजित अपने इक्कीसवें नाट्योत्सव की तैयारियों में जुट गए।

इस वर्ष रंगकर्मी सम्मान मानव कौल को देना तय हुआ था। (मानव कौल युवाओं में काफी लोकप्रिय नाम था, न केवल हमारी टीम बल्कि छत्तीसगढ़ इप्टा की शेष टीमें भी उनको लेकर काफी उत्तेजित थीं। मानव कौल ने भी रायगढ़ जैसे छोटे शहर को बहुत एन्जॉय किया था। उनके साथ कुमुद मिश्रा थे, जो ‘शक्कर के पाँच दाने’ एकल मंचन के अभिनेता थे।दिन में उनका सम्मान हुआ। लगभग पच्चीस सांस्कृतिक-सामाजिक संस्थाओं ने मंच पर आकर उन्हें अपने स्मृति-चिन्ह तथा शॉल-श्रीफल से सम्मानित किया)

शाम को मानव कौल निर्देशित एवं कुमुद मिश्रा अभिनीत नाटक ‘शक्कर के पाँच दाने’ का मंचन हुआ।

दूसरे दिन हमारा ‘मोंगरा जियत हावे’,

तीसरे दिन अग्रगामी नाट्य समिति रायपुर का ‘एक और द्रोणाचार्य’,

चौथे दिन अंजोर पुणे की सुषमा देशपांडे का एकल नाट्य ‘हाँ, मैं सावित्रीबाई फुले’

और अंतिम दिन समागम रंगमंडल जबलपुर का ‘सुदामा के चावल’ तय हुए।

इस वर्ष प्रत्येक नाटक के बाद दर्शकों से बातचीत का सत्र भी रखा गया। समागम रंगमंडल हेतु संजय उपाध्याय का विशेष आग्रह था और समागम वालों ने हमसे वादा किया था कि वे भी हमें बुलाएंगे। तब से आज तक नर्मदा में न जाने कितना पानी बह चुका, हम उनके आमंत्रण की बाट जोह रहे हैं। जबलपुर के पानी में ही कुछ खासियत है।

इस वर्ष अचानक हमें पता चला कि श्याम टॉकिज के मालिकों में आपस में झगड़ा हो गया है और मामला कोर्ट-कचहरी तक पहुँच गया है तब हमें चिंता हुई कि अब समारोह कहाँ किया जाए क्योंकि पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम का रिनोवेशन चल रहा था, नया ऑडिटोरियम तीन साल से बन ही रहा है और दिसंबर की ठंड में हम खुले में करवाने की सोच भी नहीं सकते हैं। तभी रामविलास टॉकिज के संचालकों ने अपनी टॉकिज़ हेतु स्वीकृति दे दी। हमारे साथियों का मानना था कि इस स्थान पर भीड़ कम हो सकती है, दर्शक शायद ज़्यादा न आएँ मगर यह शंका निर्मूल साबित हुई। कुल 600 की बैठक व्यवस्था वाले हॉल में हर रोज कुछ लोगों को खड़े होकर नाटक देखना पड़ा।

इस साल छत्तीसगढ़ इप्टा के अध्यक्ष मिनहाज असद और भिलाई इप्टा के साथी भी समारोह देखने आए थे।

मिनहाज का कहना था कि ‘‘तुम्हारे यहाँ यह अच्छी परम्परा है कि रात के भोजन के बाद सभी लोग बैठते हैं और प्रस्तुति पर गहन चर्चा होती है।(क्रमशः)

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