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यादों के झरोखों से : तेरह

यादों के झरोखों से : तेरह

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। पिछली कड़ी में 2007 की गर्मियों से लेकर 2009 के पन्द्रहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। इस कड़ी में 2009 की गर्मियों से लेकर 2012 के अठारहवें नाट्य समारोह का विवरण प्रस्तुत है। हमेशा की तरह छूट गयी महत्वपूर्ण गतिविधियों का उल्लेख मैंने कोष्ठक में जोड़ दिया है। – उषा वैरागकर आठले )

2009 का ग्रीष्मकालीन शिविर इस बार भी नए साथियों को लेकर आयोजित हुआ। वरिष्ठ साथियों के पास अभी भी समय नहीं था। इस शिविर में ‘होली’ नाटक तैयार करना तय हुआ, जिसकी रिहर्सल टाउन हॉल की सबसे ऊपरी छत पर करनी पड़ी क्योंकि हॉल की रिपेयरिंग चल रही थी। यह नाटक हॉस्टल में रह रहे युवाओं की समस्याओं पर केन्द्रित था। हमने इम्प्रोवाइजेशन के दौरान इसका पूरा मैसेज बदल दिया। इसका पहला प्रदर्शन आशीर्वाद के हॉल में हुआ।

प्रदर्शन ऊर्जा से भरा हुआ था। चूँकि यह कहानी ही छात्रों की थी और ये बच्चे, जो बाल शिविरों से ही हमारे साथ जुड़े थे, अब कॉलेज में पढ़ रहे थे। इन्होंने बहुत स्वाभाविक अभिनय किया। सुरेन्द्र, भरत, अजेश, अमित, गोविंदा, बाबू खान, अमित सुपकार आदि सभी ने अच्छा अभिनय किया। इस शिविर में जी.सी.अग्रवाल सर का नाती, जो दिल्ली से छुट्टियों में आया था, शिविर में भाग लिया और प्रिंसिपल का रोल किया।

2009 की गर्मी में ही श्री राजीव श्रीवास्तव, जो संस्कृति आयुक्त बन गए थे, ने प्रदेश भर के रंगकर्मियों की एक बैठक बुलाई और उसमें यह तय किया गया कि प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार को किसी एक नाट्य दल का संस्कृति विभाग के मुक्ताकाशी मंच पर नाटक होगा। नाट्य दल को आने-जाने के व्यय के साथ दस हजार रूपये की मानदेय राशि भी दी जाएगी। पहले माह में जगदलपुर की टीम का मंचन हुआ। दूसरे माह में हमारा ‘गदहा के बरात’ मंचित हुआ। बरसात के कारण हमारा नाटक रंगमंदिर में रखा गया था।

चक्रधर समारोह की मीटिंग चल रही थी। हमें भी बुलाया गया था। हमने दो-तीन नाटकों की सूची दी थी। राज परिवार का एक धड़ा नाटकों में की जाने वाली राजनैतिक टिप्प्णियों पर अप्रसन्न था और कुछ संवादो को अश्लील भी बता रहा था। मगर भानुप्रताप सिंह जी, जो चक्रधर महाराज के पुत्र हैं, वे हमारे पक्ष में थे। कहने लगे कि थाने में पुलिस जिस भाषा में अपराधी से बात करते हैं, नाटक में वैसा ही तो दिखाना चाहिए। थानेदार अपराधी से साहित्यिक हिंदी में बात करेगा तो नाटक कैसा लगेगा? खैर हमने उस समय ‘दूर देश की कथा’ करवाने का सुझाव दिया था। इस बार पुलिस अधीक्षक नोडल अधिकारी थे। वे डीजीपी के पास गए थे तो अचानक उन्होंने इप्टा रायगढ़ के नाटक के विषय में पूछा और सुझाव दिया कि ‘गगन दमामा बाज्यो’ करवाइये। हालाँकि खुले मंच पर हम इस नाटक को नहीं करना चाहते थे। चक्रधर समारोह के अंतिम दिन फ्रांस की इजाबेला एन्ना की प्रस्तुति थी, जिनके साथ गया के संजय सहाय जी आ रहे थे। उन्होंने मुझे फोन किया और इप्टा रायगढ़ के साथियों से मुलाकात की इच्छा जाहिर की।

शाम को टाउन हॉल में उनके साथ बैठक के दौरान उन्होंने पूछा कि ‘‘आप लोगों का अभी कौनसा नाटक तैयार है?’ ‘गगन दमामा बाज्यो’ बताने पर उनका कहना था कि ‘‘आपका अपना प्रोडक्शन कौनसा है?’’ हमने ‘बकासुर’ के बारे में बताया तो उन्होंने ‘बकासुर’ लेकर गया आने का आमंत्रण दिया। इस आमंत्रण को देखते हुए हमने तय किया कि इस नाट्य समारोह में भी ‘बकासुर’ की ही प्रस्तुति हो। बिल्कुल नए साथियों के साथ इस नाटक की रिहर्सल शुरु हुई। यह नाटक इप्टा रायगढ़ का सदाबहार नाटक है जिसे इप्टा की तीसरी पीढ़ी कर रही थी। नाटक तैयार होते ही इसके तीन-चार शो गाँवों में किये गये।

इस बीच पुराने साथियों युवराज, टिंकू, अनुपम, विवेक, शिवानी, कल्याणी ने योगेन्द्र चौबे के नेतृत्व में ‘गुड़ी’ संस्था में काम करना तय कर लिया था। मैं, विनोद, उषा, अपर्णा, अर्पिता, पापा, हर्ष सिंह, टोनी चावड़ा और सभी नए साथियों ने इप्टा में ही रहना तय किया। हमारी नाट्योत्सव की तैयारियाँ जारी थीं। ऑब्जर्वर के रूप में सुलभ जी ने आने की स्वीकृति दी थी। इस वर्ष पहला शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान भी दिया जाना था। हमने विभिन्न रंगसंस्थाओं और रंगप्रेमियों को पत्र लिखकर नाम मंगवाए थे। उस आधार पर रायपुर के प्रसिद्ध रंग-निर्देशक श्री राजकमल नायक को पहला शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान देना तय हुआ। (राजकमल नायक ने छत्तीसगढ़ में इप्टा की अनेक इकाइयों में लगातार नाटक करवाए थे। वे भारत भवन के रंगमंडल में बी.वी.कारंथ जी के साथ काम करते थे।) राजकमल जी ने इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी।

इस सोलहवें नाट्योत्सव के एक दिन पहले 15 जनवरी 2010 को अंतर विद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता आयोजित थी। इस बार ग्यारह स्कूलों ने भाग लिया था। उन्हें सीनियर/जूनियर दो श्रेणियों में रखा गया था।

दूसरे दिन 16 जनवरी 2010 को राजकमल नायक जी को शाल-श्रीफल के साथ सम्मान पत्र और रू. इक्कीस हजार नकद प्रदान कर सम्मानित किया गया।

इसके पश्चात ‘बकासुर’ का मंचन हुआ।

दूसरे दिन स्वप्निल कोत्रीवार के निर्देशन में ‘एक अराजक की मौत’ का मंचन हुआ। यह बहुत ही सधी हुई प्रस्तुति थी और सब का अभिनय भी कमाल का था। स्वप्निल की विकास यात्रा देखकर हमें बड़ा सुकून मिला।

तीसरे दिन इफ्टा कोलकाता का बंगला नाटक ‘होरी खेला’ आमंत्रित था। यह नाटक बतौर एक प्रयोग के आमंत्रित किया गया था। (हम चाहते थे कि हमारा नाट्य समारोह बहुभाषी हो सके तो, रायगढ़ के हिन्दीतर भाषियों को भी हम इप्टा से जोड़ सकेंगे तथा हमें और हमारे दर्शकों को देश भर के अहिन्दी नाटक देखने का अवसर मिल सकेगा।) सभी बंगाली संगठनों को इसकी सूचना दी थी मगर हमारा यह प्रयोग असफल रहा। नाटक में उतने ही बंगला दर्शक थे, जितने हर साल आते थे। हालाँकि नाटक अच्छा था।

चौथे दिन इप्टा भिलाई का नाटक ‘जब मैं सिर्फ औरत होती हूँ’,

चौथे दिन ही भिलाई इप्टा का नाटक कम समय का होने के कारण अभिनव रंगमंडल का ‘मियाँ की जूती मियाँ के सर’ तथा पांचवें और अंतिम दिन इसी नाट्य दल का संजय उपाध्याय निर्देशित नाटक ‘बड़ा नटकिया कौन’ प्रस्तुत किया गया।

इसी दिन अभिनव रंगमंडल उज्जैन के शरद शर्मा जी ने हमें उज्जैन में होने वाले नाट्योत्सव के लिए आमंत्रित किया। हम ‘बकासुर’ का मंचन उज्जैन में कर चुके थे इसलिए हमने ‘गदहा के बरात’ का मंचन तय किया। इस नाट्य समारोह की विस्तृत रिपोर्ट हृषिकेश सुलभ जी ने ‘कथादेश’ में प्रकाशित करवाई।

(इस सोलहवें नाट्य समारोह के अंतिम दिन हबीब तनवीर पर केंद्रित रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ का विमोचन नाटककार हृषिकेश सुलभ ने किया। 08 जून 2009 को हबीब तनवीर का निधन हुआ था। हम सबके मन में 2003 में नौवें नाट्य समारोह ‘प्रसंग हबीब’ की तमाम स्मृतियाँ उमड़-घुमड़ रही थीं। इसलिए हमने तय किया कि हबीब साहब की उन स्मृतियों को ताज़ा करते हुए ‘रंगकर्म’ का अंक उन्हें ही समर्पित किया जाए। इस अंक में हबीब साहब पर केंद्रित संस्मरण, साक्षात्कार और लेख संकलित किये गए। 2003 में हबीब साहब से विशेष बातचीत के लिए आये हुए सत्यदेव त्रिपाठी और अरुण पाण्डेय के अलावा उषा आठले, राजकमल नायक, इकबाल रिज़वी, अशोक वाजपेई, सफ़दर हाश्मी, महावीर अग्रवाल, मुमताज भारती,कल्याणी मुखर्जी, कृष्णानंद तिवारी और प्रितपाल सिंह अरोरा के लेख प्रकाशित किये गए।)

नाट्य समारोह के बाद हम ‘बकासुर’ और ‘गदहा के बरात’ दोनों नाटकों की तैयारी में व्यस्त हो गये। मगर उज्जैन और गया की तारीखें फँस गईं। हम दोनों में से किसी एक जगह पर ही जा सकते थे। हमने गया जाना तय किया। इप्टा पटना के साथियों से बातचीत की तो वे लोग एक शो पटना में करने के लिए तैयार हो गये। हम निर्धारित तिथि को दानापुर एक्सप्रेस से पटना पहुँचे। इस टीम में सिर्फ टोनी चावड़ा और अपर्णा ही पुराने थे, जो मंच पर उतर रहे थे।

शाम का शो अच्छा रहा। संजय उपाध्याय और हृषिकेश सुलभ जी भी नाटक देखने आए थे। संजय ने कहा, ‘‘नए लड़के अच्छा तैयार हो रहे हैं। अब इनके साथ भी एक शिविर करना होगा।’’ रात को इप्टा के संरक्षक श्री वार्ष्णेय जी ने हमें डिनर पर आमंत्रित किया था। दूसरे दिन सुबह हम गया के लिए रवाना हो गये। वहाँ संजय सहाय जी ने बहुत ही सुंदर ऑडिटोरियम बनवाया है। इसके तीन हिस्से हैं। एक फिल्म स्क्रीनिंग के लिए, एक नाटक के लिए और ऊपर एक छोटा सा संगीत सभा के लिए हॉल है। जहाँ सहाय जी के रेपर्टरी की रिहर्सल होती है। इसी से लगा रेस्तराँ भी है। हमने रिहर्सल की और वहीं पर रेस्तराँ में खाना खाया। हम बाकी तैयारियों के लिए ऑडी में आए।

हितेश पित्रोडा ने उनके कारपेंट्री सेक्शन में जाकर कुछ प्रॉप्स भी बनवाए। शो बिलकुल समय से शुरु हुआ और सफल रहा। जिस तरह से शो के बाद लोग मिलने आ रहे थे, वह दर्शाता था कि लोगों को यह नाटक बहुत पसंद आया था। संजय जी ने कहा, दोपहर की रिहर्सल को देखकर मैं थोड़ा आशंकित था क्योंकि पूरा नाटक छत्तीसगढ़ी में था। मगर मेरी आशंका निर्मूल साबित हुई।

इस बार 2010 का ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर अपर्णा ने लिया और प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ तैयार की। इसका मंचन आशीर्वाद के हॉल में किया गया।

अंकुर जी से वार्षिक ग्रीष्मकालीन शिविर बाबत चर्चा हुई तो उन्होंने कहा कि आप ही शिविर ले लो। रानावि आपको मानदेय दे देगी। जून 2010 में युवाओं के लिए शिविर लगा और उसमें ‘चोर निकल कर भागा’ तैयार किया गया।

मगर यह बुरा अनुभव साबित हुआ। पूरे शिविर में सीखने का जज्बा ही नहीं था, लगता था जैसे टाइम पास किया जा रहा है। मोबाइल पर मैसेज मैसेज खेलते ज़्यादा नज़र आ रहे थे।

ये वो समय था, जब यूपीए दोबारा सत्ता पर आई थी। इस बार उस पर वामपंथियों का अंकुश भी नहीं था। ग्लोबलाइज़ेशन अपने जोरों पर था। शॉपिंग मॉल और पी.वी.आर. का जमाना आ रहा था। बैकों ने कर्ज सस्ते कर दिये थे और उधार लेकर मस्ती करने की आदत डाली जा रही थी। हमें याद है कि हम अपने जमाने में साइकिल लेकर घूमा करते थे और एक सिगरेट सात-आठ दोस्तों द्वारा फूँक ली जाती थी। खर्च कुछ नहीं था। पार्टियाँ हाफ कप चाय और एक प्लेट नमकीन में हो जाती थीं। आज का युवा कॉलेज पहुँचते ही मोटर साइकिल पर घूम रहा है, मोबाइल, वह भी दो-दो सिम के साथ उसके पास हैं। खर्च बढ़ गए हैं और उन्हें पूरा करने के लिए नॉन बैंकिंग सेक्टर की नौकरी कर रहा है। समय ही नहीं है उसके पास। देर रात तक जागना और देर से उठना और मौका मिलते ही नाटक में आना, मानों वह भी मौजमस्ती में शामिल हो।

इस बार चक्रधर समारोह में हम लोगों ने ‘मुझे कहाँ ले आए हो कोलम्बस’ करना तय किया। इसमें कई साथी नहीं आए तो हमने गार्जियन एण्ड गाइड स्कूल के बच्चों और इप्टा के साथियों को मिलाजुलाकर यह नाटक तैयार किया। नाटक अच्छा हुआ पर इसके मिलेजुले स्वरूप के कारण इसके और मंचन नहीं हो पाए।

शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान के लिए इस वर्ष हमने एक समिति बना दी, जिसमें सत्यदेव त्रिपाठी, राकेश एवं हृषिकेश सुलभ जी थे। 2011 के शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान के लिए तीनों ने अलग-अलग तीन नाम सुझाए – अरूण पाण्डे, संजय उपाध्याय और जुगल किशोर। हमने इन्हें बारी-बारी से सम्मानित करने का निर्णय लिया। द्वितीय शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान के लिए संजय उपाध्याय का नाम तय किया गया। संजय उपाध्याय अब मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के निदेशक हो गए थे। इसकी पहली बैच में ही इप्टा रायगढ़ के अजेश शुक्ला का चयन हो गया था।

इस बीच संस्कृति विभाग रायपुर द्वारा नाट्य मंचन के लिए हमें आमंत्रित किया गया। हमने अक्टूबर 2010 के दूसरे शनिवार को ‘होली’ का मंचन किया। प्रदर्शन ऊर्जा से भरा हुआ था। चूँकि यह कहानी ही छात्रों की थी और ये बच्चे, जो बाल शिविरों से ही हमारे साथ जुड़े थे, अब कॉलेज में पढ़ रहे थे। इन्होंने बहुत स्वाभाविक अभिनय किया। सुरेन्द्र, भरत, अजेश, अमित, गोविंदा, बाबू खान, अमित सुपकार आदि सभी ने अच्छा अभिनय किया। इस शिविर में जी.सी.अग्रवाल सर का नाती, जो दिल्ली से छुट्टियों में आया था, शिविर में भाग लिया और प्रिंसिपल का रोल किया।(‘होली’ का यह मंचन देखकर दूरदर्शन रायपुर द्वारा इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग नवम्बर में कर दिसंबर 2010 में प्रसारण भी किया गया।) वहीं संस्कृति विभाग के श्री राकेश तिवारी जी ने अपने नाटक ‘राजा फोकलवा’ के बारे में बताया। जब हमने उनसे पूछा कि हमारे नाट्योत्सव के लिए क्या आप इसे संस्कृति विभाग से स्पॉन्सर करवा लेंगे तो उन्होंने सहमति व्यक्त की। हमने संस्कृति विभाग को इस बाबत पत्र लिख दिया। साथ ही संजय सहाय जी के नाटक ‘गवाह’ के लिए भी हमने संस्कृति विभाग को लिखा जिसे स्वीकार कर लिया गया। इसतरह दो नाटक स्पॉन्सर हो जाने से हमारा खर्च काफी कम हो गया।

(इस सत्रहवें नाट्य समारोह के अवसर पर इप्टा रायगढ़ की नियमित निकलने वाली पत्रिका ‘रंगकर्म’ का लोक-नाट्य विशेषांक प्रकाशित किया गया। इसमें ‘लोक’ पर केन्द्रित अजय आठले का लेख ‘मैं कहता आँखिन देखी’, अरुण पाण्डेय का लेख ‘लोक की शास्त्रीयता’, संजीव तिवारी का ‘लोक-कला के ध्वज-वाहक’, हृषिकेश सुलभ का ‘लोक की आवाज़’, निसार अली का ‘नाचा-गम्मत वर्कशॉप’, राहुल कुमार सिंह का ‘छत्तीसगढ़ का रुपहला स्वर’ के साथ साथ छत्तीसगढ़ी लोक-नाट्य नाचा, मध्य प्रदेश की लोक-नाट्य परंपरा(वसंत निर्गुणे), राजस्थानी लोकनृत्य (राहुल तोंगरिया), झारखण्ड के लोकगीत और नृत्य (अर्पिता श्रीवास्तव), महाराष्ट्र का लोक-नाट्य तमाशा (डॉ. साहेब खंदारे), दंडार : लोक-रंगमंच की देन (डॉ. सुनीता धर्मराव), उत्तराखंड की कुमाउँनी रामलीला (डॉ. चंद्रशेखर तिवारी), बिहार के लोकनृत्य (डॉ. उषा वर्मा), लोक-नाट्य नाचा की साखी-परम्परा (डॉ.पीसी लाल यादव), नीलू फुले : लोक-नाट्य को जीने वाला (ज्योत्स्ना भोंडवे) प्रकाशित किये गए।)

पिछले वर्ष की तरह नाट्य समारोह के पहले दिन 04 जनवरी 2011 को अंतर विद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता रखी गई। इसमें आठ विद्यालयों ने भाग लिया।

सत्रहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के दूसरे दिन 05 जनवरी 2011 को ‘फोकलवा राजा’ का मंचन हुआ। बेहतरीन छत्तीसगढ़ी नाटक इसे कहा जा सकता है।

तीसरे दिन निर्माण कला मंच के ‘हरसिंगार’ का मंचन हुआ

तथा इसी दिन संजय उपाध्याय जी को द्वितीय शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से सम्मनित किया गया। इप्टा के अलावा ‘गुड़ी’ ने भी उनका सम्मान किया। चौथे दिन नीरज कुंदेर ने इंद्रावती नाट्य समिति सीधी के नाटक ‘तैया तैयम’ की प्रस्तुति दी और पाँचवें दिन अलखनंदन जी के नाटक ‘सुपनवा का सपना’ की बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति हुई।

हालाँकि इस बार टीम के साथ अलखनंदन जी नहीं आ पाए, उनकी तबियत अचानक खराब होने के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया था। अंतिम दिन संजय सहाय जी के निर्देशन में रेनेसाँ रेपर्टरी गया द्वारा ‘गवाह’ नाटक मंचित किया गया।

संजय सहाय जी से बातचीत के दौरान ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ नाटक की चर्चा चली। वे इसके लिए उत्सुक हुए। जब हमने यह भी बतलाया कि इसका मंचन भारंगम में सन् 2002 में हो चुका है, उन्होंने इस नाटक को गया लाने के लिए कहा। हम लोगों ने उत्साहित होकर हामी भर दी।

2011 की गर्मी में हमने अपने इस पुराने नाटक ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ को नई कास्ट के साथ करना तय किया और इसकी रिहर्सल शुरु कर दी। उषा, मैं और विनोद को छोड़कर बाकी कास्ट नई थी। इसका पहला मंचन टाउन हॉल में ही किया गया। हम गया का कार्यक्रम बना ही रहे थे कि पता चला अपर्णा को एम.एड. के सिलसिले में बाहर रहना होगा और दो साथियों की भी समस्या है। तब यह कार्यक्रम स्थगित ही हो गया।

इस बार चक्रधर समारोह 2011 के लिए नाटक के चयन पर विचार विमर्श चल रहा था। विनोद ने अंजना पुरी द्वारा पहले तैयार करवाए गए जब्तशुदा नज़मों पर आधारित नाटक ‘आज़ादी के दीवाने’ करवाने का सुझाव दिया और उसके पुनर्जीवन और रिहर्सल का जिम्मा ले लिया। नए-पुराने लोगों को मिलाकर यह नाटक तैयार हुआ।

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चक्रधर समारोह में मंचन से हमें अच्छी खासी रकम हासिल हो जाती थी, जिसके कारण हमें बाकी साल भर की गतिविधियों को संचालित करने में सहूलियत हो जाती थी। चक्रधर समारोह का एक बहुत बड़ा फायदा यह भी था कि उसमें बहुत बड़ी संख्या में दर्शक मिलते थे। पूरे कार्यक्रम का प्रसारण स्थानीय चैनल से भी होता था और बाद में तो यू-ट्यूब से भी प्रसारण होने लगा।

चक्रधर समारोह के बाद एक दिन दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र नागपुर से फोन आया कि वे रायगढ़ में नाटक का वर्कशॉप करना चाहते हैं मगर उनके पास फंड सीमित है। मैंने उन्हें सुझाव दिया कि ‘‘आप एनएसडी को लिखेंगे तो वहाँ से डाइरेक्टर आ जाएगा, स्थानीय व्यवस्था हम कर लेंगे। प्रदर्शन का खर्च आप उठा लीजियेगा।’’ उन्हें यह प्रस्ताव उचित लगा। अचानक एक दिन संजयभाई का फोन आया कि ‘‘मैं रॉबिन दा के पास बैठा हूँ। हम प्रवीण गुंजन को भेज रहे हैं।’’

प्रवीण गुंजन

2011 की दशहरे दीवाली की छुट्टियों में वर्कशॉप तय हुआ। प्रवीण गुंजन ने अपने साथ आर्ट डायरेक्टर टी.कुमार दास को भी जोड़ लिया था, जो उनके आने के दो दिनों बाद आने वाले थे। वर्कशॉप दोपहर तीन बजे से शाम आठ बजे तक रखा गया था। प्रवीण गुंजन ने यह वर्कशॉप डिवाइस प्रोडक्शन पर आधारित रखा और बहुत से इम्प्रोवाइजेशन और कविताओं का उपयोग कर नाटक तैयार करवाया। इसमें लाइट और प्रोजेक्टर का भी उपयोग किया गया था। यह नाटक कुछ लोगों को कुछ खास नहीं लगा पर यह देखा गया कि युवा वर्ग इस नाटक से बेहद प्रभावित था। प्रवीण गुंजन ने बताया कि मुझे यहाँ संजय भैया ने इसलिए भिजवाया है कि मैं आप लोगों के कागज़ात ठीक करवाऊँ और प्रोजेक्ट बनवा कर भिजवाऊँ ताकि संस्कृति विभाग दिल्ली से आप लोगों को सहायता मिल सके। हमने भी अपने सारे कागजात व्यवस्थित किये और सांस्कृतिक समारोहों को मिलने वाली ग्रांट के लिए आवेदन किया।

26,27,28 दिसम्बर 2011 को इप्टा का तेरहवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन भिलाई में होना तय हो गया था। इस सम्मेलन में इप्टा रायगढ़ के लगभग पंद्रह साथियों ने भाग लिया।

(अपने राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर हमने रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ का विशेषांक भारत सरकार के विभिन्न नाट्य प्रशिक्षण संस्थानों, विभिन्न विश्वविद्यालयों के नाट्य विभागों, केंद्र सरकार के सभी क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों के अलावा देश भर की व्यावसायिक और शौकिया नाट्य-संस्थाओं की जानकारी पर केंद्रित तैयार किया था, जिसका विमोचन सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर किया गया।)

इस सम्मेलन के कारण हमने अपने नाट्योत्सव की तारीखें आगे बढ़ाकर 10 से 15 जनवरी 2012 कर ली थीं। 10 को अंतरविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता रखी थी। भिलाई से लौटते ही खबर मिली कि दिल्ली संस्कृति विभाग से दो लाख अस्सी हजार रू. की सहायता मिल गई है। हमारे लिए यह बड़ी रकम थी और हम आर्थिक क्षेत्र में निश्चिंत हो गए।

10 जनवरी 2012 को प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। अठारहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में 11 जनवरी को हमने प्रवीण गुंजन निर्देशित ‘ओह ओह, ये है इंडिया’ का मंचन किया।

12 जनवरी को अरूण पाण्डेय को तृतीय शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान प्रदान किया गया तथा उनका नाटक ‘निठल्ले की डायरी’ का मंचन हुआ। इस नाट्योत्सव में रंगकर्मी सम्मान चयन समिति के दो सदस्य श्री सत्यदेव त्रिपाठी और श्री हृषिकेश सुलभ भी उपस्थित रहे।

13 जनवरी को प्रोबीर गुहा जी का नाटक ‘बिषाद काल’,

14 जनवरी को डोंगरगढ़ इप्टा का ‘बापू मुझे बचा लो’

तथा अंतिम दिन प्रवीण गुंजन निर्देशित ‘समझौता’ मंचित हुआ।

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