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यादों के झरोखों से : नौ

यादों के झरोखों से : नौ

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। पिछली कड़ी में वर्ष 1999 और 2000 में हुई गतिविधियों का विस्तृत विवरण अजय ने दिया था। इस कड़ी में लगभग दो वर्षों 2001 और 2002 की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। गतिविधियाँ इन वर्षों में भी अपने पूरे शबाब पर थीं। उनमें न केवल नाटक, बल्कि बच्चों और युवाओं के वर्कशॉप – इसके लिए विशेषज्ञों को बाहर से बुलाया जाना, बहुत महत्वपूर्ण रहा।

अंजना पुरी

बच्चों के वर्कशॉप के लिए रंग विदूषक से अंजना पुरी आयीं। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से आयीं थीं। उन्होंने दो जगहों पर वर्कशॉप लिए – जिंदल स्कूल में और इप्टा के बाल कलाकारों के साथ। जिंदल स्कूल के बच्चों के साथ उन्होंने खुद का लिखा नाटक ‘कुहू रानी की चल गयी चाल’ करवाया और इप्टा के बच्चों के साथ ‘आज़ादी के दीवाने’, इसमें बाद में इप्टा के बाकी सदस्य भी शामिल हो गए। यह नाटक ज़ब्तशुदा क्रांतिकारी नज़्मों पर केंद्रित था। अंजना जी ने उसमें स्थानीय छत्तीसगढ़ी टच आने के लिए शुरुआत बच्चों के छत्तीसगढ़ी ‘फुगड़ी गीत’ से की थी, तो बच्चों को शुरू में ही खेलने में मज़ा आ जाता था। कुछ वर्षों बाद ‘आज़ादी के दीवाने’ विनोद बोहिदार ने चक्रधर समारोह के लिए बड़े साथियों का तैयार करवाया था।’कुहू रानी की चल गयी चाल’ में टिंकू देवांगन ने थर्मोकोल और फुग्गों से पेड़ और कौओं के मुखौटे बनाये थे, जो जिंदल स्कूल में ही दे दिए गए। यह नाटक भी बाद में अर्पिता ने इप्टा के वर्कशॉप में करवाया था। यह ज़िक्र अजय के संस्मरण में छूट गया था। कुछ और छूटी हुई बातें कोष्ठक में जोड़ दी हैं। – उषा वैरागकर आठले )

गर्मियों में बाल नाट्य प्रशिक्षण शिविर की कड़ी में उषा और सुगीता ने केवड़ाबाड़ी के बच्चों को लेकर ‘गणित देश’ किया, ये बच्चे ‘बकासुर’ की रिहर्सल देखने आते थे और बहुत सक्रिय थे। (रिहर्सल देखने आने वाले बच्चों से हम लोगों ने यूँ ही पूछा था कि क्या वे लोग भी नाटक करना चाहेंगे? बच्चे खुशी-खुशी तैयार हो गए। सुगीता और मैंने केवड़ाबाड़ी मोहल्ले में घर-घर जाकर बच्चों के माता-पिता से बात की और वहीँ की स्कूल में हम दोनों ने वर्कशॉप लिया। इसी वर्कशॉप के बच्चे अंजना पुरी के साथ ‘आज़ादी के दीवाने’ में शामिल हुए। सुखद बात यह है कि इस वर्कशॉप से जुड़े हुए भरत निषाद, अजेश शुक्ला, लोकेश्वर निषाद आज भी इप्टा में हैं। भरत ने तो अब रायगढ़ इप्टा के सचिव की ज़िम्मेदारी सम्हाल ली है। वर्कशॉप में जुडी लड़कियाँ पुष्पा, ज्योति, तरुणा, मधु ने भी कुछ वर्षों तक नाटक किया, मगर बाद में सामाजिक दबावों के कारण वे सिर्फ दर्शक ही रह पाईं थी। – उषा ) इसी के साथ मैंने किशोर वय के बच्चों को लेकर शिविर किया और ‘दूर देश की कथा’ तैयार किया। इन दोनों नाटकों का मंचन पॉलिटेक्निक सभागार में हुआ, इसमें राजकमल नायक और उमाशंकर चौबे जी विशेष रूप से उपस्थित रहे।(यह ‘दूर देश की कथा’ की दूसरी पीढ़ी थी, इसमें अजय ने काफी बदलाव कर दिए थे , मगर गानों की धुनें पहले मंचन वाली ही रहीं। पहला मंचन 1995 में अरुण पाण्डेय के निर्देशन में पहली पीढ़ी के साथ हुआ था। ‘दूर देश की कथा’ पूरी तरह इप्टा का नाटक था। इसके लेखक जावेद अख्तर खां भी पटना इप्टा से जुड़े हुए थे। इस नाटक के मंचन हिंदी प्रदेशों में इप्टा की अनेकानेक इकाइयाँ करती रही हैं। यह एक सदाबहार नाटक है तथा इसे तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार आसानी से इम्प्रोवाइज़ किया जा सकता है। – उषा )

इस बीच उषा पुणे गई थी, वहाँ से बहुत सी मराठी स्क्रिप्ट्स लाई थी। उसमें एक माधव साखरदांडे द्वारा अनूदित ‘यंत्र मानव लि.(लिमिटेड)’ थी, जो कैरेल चैपक के ‘आर.यू.आर.’ का अनुवाद था।

कैरेल चेपेक

कुछ दिनों पूर्व ही बिल गेट्स का भारत आगमन हो चुका था और उन पर एक लेख छपा था, जिसमें टिप्पणी थी कि बिल गेट्स का जीवन कैरेल चैपेक के नाटक आर.यू.आर. के नायक की तरह है। यह टिप्पणी दिमाग में थी इसलिए तुरंत इस नाटक को पढ़ गया। पढ़कर मैं बेहद उत्तेजित था। हमने सोचा कि इस नाटक को किया जाना ज़रूरी है। मैंने और उषा ने मिलकर अनुवाद शुरु कर दिया। आधा अनुवाद हो चुका था। एक दिन बंसीदादा से फोन पर बातचीत हो रही थी। उन्होंने कहा कि कभी वे भी यह नाटक करना चाहते थे। इसका हिंदी अनुवाद निर्मल वर्मा ने किया है, जो साहित्य अकादमी से छप चुका है। हमने इस अनुवाद को मंगवा लिया मगर अपना अनुवाद ही जारी रखा क्योंकि निर्मल वर्मा का अनुवाद बहुत साहित्यिक भाषा में था। जब हमने इसकी पहली रीडिंग की तो एक अंक पढ़ने के बाद ही लगा कि बाकी लोगों की प्रतिक्रिया अपेक्षित नहीं है। सभी लोगों ने कहा कि बड़ा बोझिल नाटक है। हमें इसे नहीं करना चाहिए। मैंने सबसे अनुरोध किया कि कल मैं अपना अनुवाद पढ़कर सुनाऊँगा, फिर निर्णय लेंगे। दूसरे दिन उन्हें हमारा ड्राफ्ट पढ़कर सुनाया। साथियों को यह सरल लगा और समझ में भी आया परंतु झिझक बनी हुई थी। बिना किसी निर्णय के बैठक समाप्त हो गई।

यह नाटक हमारे दिमाग से नहीं हटा। कुछ दिन बाद मैंने सबको बुलाया और कहा कि यह नाटक मैं करना चाहता हूँ, और कौन कौन करना चाहता है। मुझे मुख्य पात्रों के लिए पाँच वैज्ञानिक चाहिए। युवराज, विवेक, स्वप्निल, अंजय पाण्डे और विनोद बोहिदार तैयार हो गए। महिला पात्रों के लिए उषा और सुगीता पहले से ही तैयार थीं। नाटक की रीडिंग शुरु हुई। यह एक फैंटेसी थी, जो 1920 में लिखी गई थी। इसमें पहली बार ‘रोबोट’ शब्द का इस्तेमाल हुआ था और बढ़ते जा रहे कम्प्यूटरीकरण से मानव जीवन में कैसी उथलपुथल हो सकती है, इसकी कल्पना की गई थी। पूरा नाटक टैक्स्ट आधारित था इसलिए ज़्यादा रीडिंग की ज़रूरत थी। ‘बिट्विन द लाइन्स’ अर्थ ढूँढे जा रहे थे।

रिहर्सल करते हुए अब अर्थ खुलने लगे और लोगों को मजा आने लगा कि नाटक को और ज़्यादा समझने की ज़रूरत है तब यह तय किया गया कि प्रलेस के साथी जयप्रकाश साव का ‘वैश्वीकरण का कला पर प्रभाव’ विषय पर व्याख्यान रखा जाए। वे आए। जयप्रकाश जी ने बहुत सरल शब्दों में वैश्विक परिस्थितियों पर चर्चा की और उसके बाद सभी कलाकारों ने बैठकर नाट्य पाठ किया। प्रभात त्रिपाठी और मुमताज भारती ने इस पर चर्चा की।

जयप्रकाशभाई ने कहा था कि जो बातें मैंने व्याख्यान में कही, वे सारी बातें तो आप लोगों ने इस नाटक के माध्यम से कह दीं। इस व्याख्यान के बाद सभी कलाकारों को नाटक समझने में बहुत मदद मिली। सेट कैसा होगा, इसे मैंने ड्रॉइंग से समझाया, फिर अनादि ने उसका मॉडल थर्मोकोल से बना दिया। कॉस्ट्यूम्स पर भी चर्चा हुई। रोबोट्स के कॉस्ट्यूम कुछ जापानी शैली के कराटे जैसे बनाए गए। पहली बार हमने ऑडिटोरियम दो दिनों के लिए बुक कराया और एक दिन पहले पूरा सेट लगाकर कॉस्ट्यूम्स के साथ ग्रैण्ड रिहर्सल की। इस बीच छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के एक वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में पहला राज्योत्सव होने वाला था। इस हेतु दिल्ली की एक संस्था को राज्य की गतिविधियों पर एक डॉक्यूमेंटरी बनाने का काम दिया गया था। वे लोग नाटक शूट करना चाहते थे। सुभाष मिश्र ने उन्हें रायगढ़ जाने की सलाह दी। यह संयोग था कि वे जिस दिन आ रहे थे, उसी दिन हमारी ग्रैण्ड रिहर्सल थी। उन्होंने हमारे कुछ दृश्य शूट किये और हमसे कुछ बातचीत भी की।

दूसरे दिन शो था। दोपहर की रिहर्सल के बाद भी सभी आशंकित थे क्योंकि यह पहला इतना बड़ा नाटक था, जो केवल टैक्स्ट पर आधारित था। शो प्रभावशाली हुआ। दर्शकों से अच्छा रिस्पांस मिला। प्रभात दा ने अलग बैठक कर नाटक पर चर्चा की और बहुमूल्य सुझाव दिये। उन्हें यह नाटक इतना पसंद आया था कि उन्होंने इसके रायगढ़ में हुए सभी मंचन देखे। इस नाटक को पक्का करने के लिए इसका एक और प्रदर्शन किया और हम सब नाट्योत्सव की तैयारी में लग गये। चंदा करना शुरु हो गया था। इस बीच नगर पालिका ने पहली बार हमसे उस खाली मैदान का शुल्क पंद्रह हजार रूपये मांग लिया। हम जिलाधीश से मिले पर उन्होंने नगर पालिका के मामले में हस्तक्षेप करने में असमर्थता जाहिर की। हमने शुल्क पटा दिया। मगर अपने सभी बैनर और पोस्टर्स में लिखवा दिया ‘‘रायगढ़ की जनता के सहयोग से और नगर पालिका के असहयोग से आयोजित अष्टम राष्ट्रीय नाट्य समारोह में आपका स्वागत है।’’

हमारे इस कलात्मक प्रतिरोध की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। लोगों के बीच यह चर्चा का विषय बना, अखबारों में इसके खिलाफ सभी संगठनों ने विरोध भी जाहिर किया मगर नगर पालिका अध्यक्ष अपनी जिद पर अड़े रहे। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप लोगों ने हमें ज़्यादा चंदा दिया।

इस बार उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि के रूप में देवेन्द्र राज अंकुर जी आए थे। वे अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के डाइरेक्टर हो गए थे। उनके साथ वरिष्ठ साहित्यकार प्रयाग शुक्ल भी विशिष्ट अतिथि के रूप में आए थे। पहले दिन उनके सामने ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ का प्रदर्शन हुआ। उन्होंने नाटक की सराहना की। साथ ही पत्रकारों से चर्चा में अंकुर जी ने इस खाली जगह का किराया लिये जाने को अनुचित बताया। दूसरे दिन अग्रज नाट्य दल बिलासपुर का नाटक ‘खपसूरत बहू’ हुआ। तीसरे दिन विवेचना जबलपुर का ‘मैं नर्क से बोल रहा हूँ’ हुआ।

नवीन चौबे ने भी पत्रकार वार्ता में नगर पालिका की आलोचना की। चौथे दिन मंच पटना से विजय कुमार का नाटक ‘हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं’ होने वाला था। वे पहले से आ चुके थे। वे हमारे कुछ साथियों के साथ गाने की रिहर्सल कर रहे थे। मगर हम सब बहुत आशंकित थे कि आखिर वे करने क्या वाले हैं! तभी शाम को अंतिम दिन के मंचन के लिए एक्ट वन दिल्ली की टीम आ गई। जब उन्हें इस नाटक के बारे में पता चला तो उन्होंने बताया कि यह तो सिर्फ आधे घंटे का नाटक है। फिर शर्मा जी ने कहा कि फिक्र मत करो, हम एक नाटक खेल देंगे। धर्मशाला पहुँचकर चाय-नाश्ते के बाद वे लोग रिहर्सल में लग गए। हमने विजय कुमार को बताया तो वे थोड़े नाखुश लगे। मगर हमने उन्हें बता दिया कि पहले उनका ही नाटक होगा।

विजय कुमार का नाटक एकल और फ्लेस्ज़िबल था तो उन्होंने उसे डेढ़ घंटा खींच दिया। फिर जब शर्मा जी के नाटक की बारी आई तो रात काफी हो चुकी थी इसलिए दर्शक भी कम हो गए थे। रात के खाने के दौरान शर्मा जी ने विजय जी की चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘मैं तेरी बदमाशी अच्छी तरह समझता हूँ, दिल्ली में मिलकर खबर लेता हूँ।’’ अंतिम दिन हमारे विधायक एवं मंत्री श्री कृष्णकुमार गुप्ता जी का फोन आया कि वे समापन में रहेंगे और समापन में उन्होंने मंच से घोषणा की कि ये पंद्रह हजार रूपये उनकी जनसम्पर्क निधि से वे प्रदान करेंगे। (समापन अवसर पर अतिथि निर्देशक एवं सफ़दर हाशमी के साथी एन.के.शर्मा ने कहा, ”रायगढ़ आना मेरी बाध्यता है। इप्टा के साथ मेरे जो गहरे सम्बन्ध स्थापित हो गए हैं, उसके कारण मैं इन्हें मना नहीं कर सकता।- उषा)

इसके बाद एक्ट वन के ‘अनहद बाजा बाज्यो’ का मंचन हुआ। पंजाब के लोक गायक की जीवनी पर आधारित यह नाटक बेहद प्रभावशाली था।

रात को शर्मा जी की टीम और हमारी टीम साथ-साथ बैठी। गाना-बजाना चलता रहा। शर्मा जी ने हमारे नाटक के फोटोग्राफ्स भी देखे, उन्हें इस नाटक को लेकर बड़ी उत्सुकता थी। उन्होंने सुझाव दिया कि अंकुर जी से बात करो। अगर उन्हें यह नाटक अच्छा लगा है तो वे भारंगम में बुला सकते हैं।

(2002 के नाट्योत्सव से हमने एक वार्षिक पत्रिका-प्रकाशन का काम भी शुरू किया। इसका नाम तय नहीं किया था और इसे ‘स्मारिका’ के नाम पर प्रकाशित किया गया। यह अंक हमने मंच-पार्श्व या बैक स्टेज पर केंद्रित किया था। इसमें न केवल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ‘रंगप्रसंग’ से बैक स्टेज विशेषज्ञों के उद्धरण संकलित किये गए थे, बल्कि ‘नटरंग’ के किसी पुराने अंक में देवेंद्र राज अंकुर द्वारा प्रस्तुत की गयी रंगमंच-सम्बन्धी शब्दावली भी साभार प्रकाशित की थी। इसके अलावा रायगढ़ इप्टा के बैक स्टेज कलाकारों के अनुभवों को साझा किया गया था। इस पत्रिका का विमोचन प्रसिद्ध साहित्यकार तथा ‘रंग प्रसंग’ के संपादक प्रयाग शुक्ल ने करते हुए कहा, ”बैकस्टेज रंगकर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे प्रायः फोकस नहीं किया जाता।” 2002 से जारी रंगकर्म पर केंद्रित पत्रिका-प्रकाशन का यह सिलसिला 2019 तक ‘रंगकर्म’ वार्षिक पत्रिका के रूप में जारी रहा।)

दो तीन दिनों बाद अंकुर जी से बात की तो उन्होंने पूछा कि कौन कौनसे नाटक तैयार हैं? मैंने बताया, ‘बकासुर’ और ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ तो उन्होंने कहा, ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ मैंने देखा है। इसके लिए आवेदन भेज दो। हमने आवेदन भेज दिया और जल्द ही हमें नाटक के भारंगम 2002 में शामिल किये जाने की सूचना मिली। सब लोग बेहद उत्साहित हो गए कि इतने महत्वपूर्ण समारोह में हमें मौका मिल रहा है। तभी मुक्तिबोध नाट्य समारोह का आमंत्रण रायपुर से भी मिला। चूँकि राज्योत्सव नवम्बर में हुआ था इसलिए मुक्तिबोध नाट्य समारोह हमारे समारोह के बाद आयोजित हुआ था। हमारा नाटक उद्घाटन के दिन ही रखा गया था। शो बहुत अच्छा हुआ। रमाकांत श्रीवास्तव, ललित सुरजन, प्रभाकर चौबे आदि साहित्यकार भी इस शो में उपस्थित थे। मिर्ज़ा मसूद जी ने हमें वैज्ञानिकों के कॉस्ट्यूम्स को लेकर सुझाव दिया कि अगर ये भी उसी काल के हों तो ज़्यादा अच्छा लगेगा। उनका यह सुझाव हमें भी पसंद आया और पापा ने सबके लिए अलग-अलग डिज़ाइन के टेल कोट खुद ही सिले।

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एक अप्रेल 2002 को भारत रंग महोत्सव में हम लोगों का शो था। हमारे साथियों की शिकायत थी कि सूट बूट वाले नाटक गर्मियों में होते हैं और खुले बदन वाले ‘बकासुर’ जैसे नाटक ठंड में। 31 मार्च को हम दिल्ली पहुँचे। इस समारोह में एक साथ सात नाटक समानांतर चल रहे थे। हमारी टीम अनजानी टीम थी इसलिए हमें कम दर्शक मिले।

फिर भी शो अच्छा हुआ। एन.के.शर्मा जी की पूरी टीम नाटक देखने आई थी। दूसरे दिन योगेन्द्र और विवेक ने एनएसडी में भर्ती के लिए वहीं से फॉर्म लेकर भरकर जमा किया और हम लोग वापस लौट आए।

इस बीच हम लोगों की अंकुर जी से ग्रीष्मकालीन शिविर लगाए जाने की बात चल रही थी। हमने प्रस्ताव बनाकर भेज दिया था। अंकुर जी ने अखिलेश खन्ना जी का नाम सुझाया, जिसे हमने स्वीकार कर लिया।

इसके पहले हमने बच्चों के शिविर लगाए दो जगहों पर – केवड़ाबाड़ी स्कूल और विवेकानंद स्कूल में। एक शिविर अनुपम पाल द्वारा संचालित किया गया, जिसमें ‘बैलों की जोड़ी’ तैयार किया गया। दूसरा शिविर सुगीता द्वारा लिया गया, जिसमें गुलज़ार लिखित ‘बोस्की का पंचतंत्र’ से ‘अथ मूषको भव’ कहानी पर आधारित नाटक तैयार किया गया।

उसके बाद अखिलेश खन्ना जी आए। उन्होंने इस शिविर में दो नाटक ‘सर्कस’ और ‘सूरजमुखी और हैमलेट’ तैयार करवाए। उनके साथ पहली बार हमने ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ नामक कॉमेडी का प्रकार किया। (मगर हम इसे भलीभाँति नहीं कर पाए थे, हम इस शैली में अपने कौशल से संतुष्ट नहीं हो पाए, इसलिए ‘सूरजमुखी और हैमलेट’ के आगे मंचन नहीं हुए। – उषा)

इस बीच योगेन्द्र चौबे का चयन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हो गया था।

वह छत्तीसगढ़ का पहला विद्यार्थी था, जो एनएसडी के लिए चयनित हुआ था।

छत्तीसगढ़ इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन भिलाई में 22-23 जून 2002 को हुआ। इसमें हमने ‘सर्कस’ और ‘आजादी के दीवाने’ दो नाटक किये। इस सम्मेलन में उषा को अध्यक्ष और राजेश श्रीवास्तव को महासचिव की जिम्मेदारी दी गई।

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