(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। पिछली कड़ी में 2005 तथा 2006 की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। साथ ही जनवरी 2007 में हुए तेरहवें नाट्य समारोह तक की बातें आ चुकीं हैं। इस कड़ी में 2007 की गर्मियों से लेकर 2009 के पन्द्रहवें नाट्योत्सव का विवरण प्रस्तुत है।)
2007 की गर्मी में अपर्णा और अजय ने बच्चों का शिविर लिया, जिसमें अपर्णा ने राजस्थानी लोककथा ‘ठाड़ दुआरे नंगा’ का ‘नंगा राजा’ के नाम से तथा अजय ने एक लोककथा पर आधारित ‘डिस्को रामायण’ तैयार करवाया।
इसी गर्मी में अपने पुराने साथियों को पुनः सक्रिय करने के उद्देश्य से फिर संजय उपाध्याय को वर्कशॉप लेने के लिए बुलाया गया।
संजय उपाध्याय
इस शिविर के लिए तत्कालीन विधायक श्री विजय अग्रवाल के विशेष प्रयत्नों से संस्कृति विभाग रायपुर से आर्थिक सहयोग के रूप में पैंसठ हजार रूपये प्राप्त हुए। यह शिविर दोपहर तीन बजे से रात आठ बजे तक संचालित किया गया। पहले तीन-चार दिनों तक कबीर को ही नए ढंग से खड़े करने पर विचार चलता रहा परंतु बाद में उस विचार को ड्रॉप कर दिया गया। अंततः भगतसिंह की सौंवीं जयंती होने के कारण पीयुष मिश्रा लिखित ‘गगन दमामा बाज्यो’ पर सहमति बनी। रीडिंग शुरु हुई। रोल बाँट दिये गये। भगतसिंह का रोल स्वप्निल को दिया गया जो गर्मी की छुट्टी में आया हुआ था। इसे बहुत लचीली शैली में खड़ा किया गया ताकि इसका कहीं भी प्रदर्शन किया जा सके।
(नीचे बाएं से) विनोद, राजकिशोर, टिंकू, बाबू खान, भरत, अमित, युवराज
इसमें तालियों का अद्भुत प्रयोग किया गया था। इसका संगीत भी बड़ा प्रभावी बना था। स्वप्निल के जाने के बाद भगतसिंह का रोल राजकिशोर पटेल करने लगा था। इस नाटक के भी अनेक मंचन हुए थे। (संजय भाई के साथ पहले भी कबीर और ब्रेख्त पर हम काम कर चुके थे, साथ ही उनकी नाटक तैयार करने की प्रोसेस बहुत रचनात्मक थी। उनके हरेक नाटक में भरपूर गीत होते और वे गीत सबके बीच रचे जाते। ‘गगन दमामा बाज्यो’ के तमाम गीत भी इसीतरह रचे गए। सभी कोरस में थे। दो गीत, जो बहुत वेदना के साथ गाए जाते थे, उन्हें हमने संजयभाई की आवाज़ में ही रिकॉर्ड कर लिया था और सिर्फ वे दो गीत बजाये जाते, शेष लाइव ही गाए जाते। स्क्रिप्ट रीडिंग के साथ ही भगत सिंह और उनके साथियों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हम इकठ्ठा करते और आपस में उन्हें साझा करते। इस नाटक ने हम सबके दिल-दिमाग को बहुत प्रभावित किया था। हम उस क्रान्तिकारी जज़्बे को समझने और जीने की कोशिश करते।) प्रस्तुत है पूरा नाटक …
हम लोगों ने एक दिन रात भर जागकर इस नाटक की डीवीडी बना ली। इसे भारंगम के लिए भी भेजा गया मगर उस वर्ष रा.ना.वि. अपनी स्वर्ण जयंती मना रहा था और केवल अपने पूर्व छात्रों द्वारा निर्देशित नाटक ही करवाने वाला था इसलिए कोई फायदा नहीं हुआ।
हीरामन मानिकपुरी, जो रायपुर का है, एनएसडी का कोर्स पूरा कर रायगढ़ आ गया था। उसकी पत्नी उषा वाणी रायगढ़ के जिंदल स्कूल में टीचर थी। उसने यहाँ आकर सबसे पहले विवेकानंद स्कूल में बच्चों के साथ एक वर्कशॉप कर ‘जादू का सूट’ नाटक तैयार करवाया। उसके बाद डिग्री कॉलेज के विद्यार्थियों के साथ उषा की पहल से उसने एक नाटक तैयार करवाना स्वीकार किया। कॉलेज की ओर से अंकुर जी को प्रस्ताव भेजा गया, हीरामन के नाम की तुरंत स्वीकृति आ गई।
हीरा मानिकपुरी गणेश कछवाहा
संयोग की बात थी कि गणेश कछवाहा, जो ट्रेड यूनियन लीडर हैं, दिल्ली से शाहिद अनवर लिखित नया नाटक ‘बी थ्री’ इप्टा के लिए लेकर आए थे। हमने नाटक पढ़ा, जो हमें बेहद ज़रूरी लगा। हीरामन को बताने पर उसने इसी नाटक को डिग्री कॉलेज के विद्यार्थियों के साथ करना तय किया। रिहर्सल टाउन हॉल में शुरु हुई। हमारी ‘गगन दमामा बाज्यो’ की रिहर्सल भी चल रही थी। हम लोगों ने कुछ सीढ़ियाँ बनवा ली थीं, ताकि उन पर चढ़-उतरकर कुछ मूवमेंट्स बनाए जा सकें। ये साढ़ियाँ हीरामन को भी पसंद आईं और उसने नाटक में क्लासरूम के लिए इनका उपयोग करने की ठानी।
‘बी थ्री’ नाटक की रिहर्सल जोरों पर चल रही थी। यह नाटक टैक्स्ट बेस्ड होने के कारण इसके हर संवाद पर और उसके संदर्भ पर लगातार चर्चा की जा रही थी। उषा, मैं और कुछ और साथी भी छात्रों की जिज्ञासाओं को दूर करने के लिए चर्चा में शरीक होते थे। इस नाटक की रिहर्सल लगभग डेढ़ महीने चली, इसमें इप्टा के भी कुछ युवा साथियों को सम्मिलित किया गया था।
इसका पहला शो टाउन हॉल में, दूसरा शो हमारे नाट्योत्सव में और तीसरा शो बिलासपुर यूनिवर्सिटी में वैश्वीकरण पर केन्द्रित एक नेशनल सेमिनार में हुआ था, जिसे बहुत सराहा गया।(इस सेमिनार में पधारे विद्वान अतिथि प्रोफ़ेसर चमनलाल तथा जितेंद्र भाटिया ने भी नाटक देखा। तत्कालीन कुलपति महोदय ने अपने भाषण में विद्यार्थियों की सराहना करते हुए कहा कि, मेरी यूनिवर्सिटी के किसी कॉलेज के विद्यार्थी इतना अच्छा नाटक कर सकते हैं, मेरे लिए ये गर्व का विषय है। इस मंचन का अवसर यूनिवर्सिटी की हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष और सेमिनार की संयोजक हमारी मित्र डॉ.हेमलता महिश्वर ने दिया था।)
इस बीच रायपुर इप्टा से मुक्तिबोध नाट्य समारोह का आमंत्रण मिला। ‘गगन दमामा बाज्यो’ करने की बात तय हुई। इस नाटक का मंचन देखने दिनेश ठाकुर भी उपस्थित थे क्योंकि दूसरे दिन उनका नाटक था। हमने दोपहर को रिहर्सल की। उसके बाद सुभाष भाई ने आकर पूछा, ‘‘तुम लोगों का नाटक कैसा है?’’ मैंने जवाब दिया कि नाटक अगर खराब हुआ तो दर्शक रोयेंगे और अच्छा हुआ तब भी रोयेंगे। इस नाटक में हँसने की कोई गुंजाईश नहीं है। नाटक सही समय पर शुरु हुआ और धीरे-धीरे पकड़ बनाता गया। नाटक खत्म होने के बाद जिसतरह से प्रतिक्रिया मिली, वह सचमुच उत्साहित करने वाली थी। ग्रीन रूम में अचानक श्री आनंद वर्मा जी आए और सीधे उषा के पैरों पर झुककर प्रणाम करने लगे। उषा हड़बड़ा गई तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम्हें नहीं, भगतसिंह की माँ को प्रणाम कर रहा हूँ।’’ एस.के.मिश्रा और विश्वरंजन भी आकर मिले और नाटक की सराहना की।
वहाँ से वापस आकर हम 10 से 14 जनवरी तक आयोजित चौदहवें नाट्य समारोह की तैयारी के लिए जुट गए। उद्घाटन के लिए श्री विश्वरंजन आए थे। पहले दिन डिग्री कॉलेज के विद्यार्थियों का ‘बी थ्री’, दूसरे दिन हमारा ‘गगन दमामा बाज्यो’,
तीसरे दिन इप्टा बिलासपुर का ‘सूपना का सपना’, चौथे दिन नाचा थियेटर ग्रुप, रायपुर का लोक शैली में नाटक ‘गड्ढा’ तथा अंतिम दिन दानिश इकबाल के अंकुरजी निर्देशित ‘डांसिंग विथ डैड’ की एकल प्रस्तुति हुई। बहुत संवेदनशील कथानक एवं प्रस्तुति थी।
नाचा थिएटर ग्रुप रायपुर का ‘गढ्ढा’ दानिश इकबाल का ‘डांसिंग विथ डैड’
(इस वर्ष ‘रंगकर्म’ का अंक अनेक लेखों के साथ प्रकाशित किया गया। इसका विमोचन नाट्य समारोह के अंतिम दिन समापन समारोह में दानिश इकबाल, सुभाष मिश्रा, प्रभात त्रिपाठी तथा हीरा मानिकपुरी के हाथों हुआ।)
2008 में हमने तय किया कि बच्चों के ग्रीष्मकालीन शिविर की जगह अंतरविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता शुरु की जाए।
अप्रेल माह में आयोजित इस प्रतियोगिता में सात विद्यालयों ने भाग लिया। हमारे सदस्यों ने ही अपने परिजनों के नाम पर प्रथम, द्वितीय पुरस्कार एवं सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक आदि पुरस्कार प्रदान किये। बड़ी संख्या में अलग-अलग स्कूलों के बच्चों को मैनेज करना नया अनुभव था।
2008 में ही युवा साथियों के लिए ग्रीष्मकालीन नाट्य शिविर हेतु हमने रा.ना.वि. से सम्पर्क किया और उन्होंने वहाँ से नीरज वाहल को भेजा। वे पहले फिल्म इंडस्ट्री में भी काम कर चुके थे। उन्होंने पच्चीस दिन का वर्कशॉप लिया। इस शिविर में भाग लेने के लिए किसी पुराने साथी के पास समय नहीं था। केवल अपर्णा आई। हाँ, बाल रंग शिविर के अनेक बच्चे अब युवा हो चुके थे, उन्होंने इसमें उत्साह के साथ भाग लिया। दो-तीन दिन एक्सरसाइज़ और इम्प्रोवाइज़ेशन चलता रहा। फिर नीरज वाहल ने हमारे साथ एक पुराने नाटक ‘गधे की बारात’ पर चर्चा की। उन्होंने बतलाया कि यह नाटक उत्तर भारत में बहुत खेला गया है और मूलतः मराठी का लोकनाट्य है। हमें नाटक पसंद आया। हमने उनसे कहा कि इसे छत्तीसगढ़ी में किया जाए तो एकदम नया प्रयोग होगा। पहले तो नीरज वाहल हिचकिचाए क्योंकि उन्हें छत्तीसगढ़ी नहीं आती थी। हमने उन्हें इस मामले में सहायता करने का आश्वासन दिया तो वे तैयार हो गए कि उन्हें भी एक नया अनुभव मिलेगा।
शिविर के दौरान सारे गीत छत्तीसगढ़ी में सबने मिलकर लिखे, इसकी धुनें भी उन्हीं युवाओं ने बनाईं। नाटक गति पकड़ने लगा। इस नाटक से भावना दुबे और विनिता पांडे इप्टा से जुड़े। इसी बीच जिंदल पॉवर लिमि. तमनार से पर्यावरण दिवस पर कार्यक्रम करने का आमंत्रण आया। हमने पर्यावरण पर केन्द्रित ‘भूमि’ नृत्यनाटिका दो-तीन दिनों में तैयार कर वहाँ प्रस्तुत की। इधर ‘गदहे के बरात’ नाटक चल ही रहा था। इस नाटक में क्राफ्ट का काम टिंकू देवांगन ने किया और एक प्रतिभागी हितेश पित्रोडा ने बरामदे में बेकार पड़ी वस्तुओं से एक बहुत बड़ी कलाकृति बनाई।
वह आया तो था एक्टिंग सीखने, मगर था फाइन आर्ट का विद्यार्थी। आर्ट एवं क्राफ्ट में उसका ज्ञान और प्रयोगशीलता बहुत अच्छी थी। शिविर का समापन श्री विश्वरंजन ने किया। चूँकि उस समय वे डीजीपी थे इसलिए उनके साथ आईजी, एसपी, कलेक्टर से लेकर तमाम अधिकारी गण भी आए। ऑडिटोरियम में पहली बार गर्मी में शो हाउसफुल रहा। नीरज वहाल बहुत खुश थे। नाटक बहुत अच्छा और ऊर्जा से भरा हुआ था, प्रस्तुति भी बेहद सफल रही।
इप्टा रायगढ़ का ‘गदहा के बारात’ इप्टा रायगढ़ का ‘गदहा के बारात’
इस बीच अजीज़ कादिर जी पटना से रायपुर दूरदर्शन आ गए थे। उन्होंने हमारी मुलाकात दूरदर्शन के निदेशक श्री पाणिग्रही जी से करवाई। उन्होंने संतोष जैन लिखित ‘सपने कब हुए अपने’ नामक सीरियल की स्क्रिप्ट हमें दी। इप्टा रायगढ़ के साथियों के साथ मिलकर हमने इसके तीन एपिसोड बनाए, जो रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित भी हुए। आगे चलकर रायपुर दूरदर्शन ने हमारे दो नाटकों ‘होली’ और ‘गदहा के बरात’ की शूटिंग करके उन्हें भी रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित किया। चक्रधर समारोह में भी ‘गदहा के बरात’ का मंचन हुआ। उसके बाद इसे जे.पी.एल.तमनार में भी मंचित किया गया। ये दोनों मंचन खुले मंच पर हुए।
स्वप्निल कोत्रीवार एनएसडी से पासआउट होकर रायगढ़ आया था। उसने हमारे साथ ‘लोअर डेप्थ’ करने का प्रस्ताव रखा। हमने उसको बताया कि सभी वरिष्ठ साथी व्यस्त है। इसलिए समय निकालना मुश्किल होगा। मगर उसने सबसे बात की और लोगों के पास जैसा समय होगा, उसी हिसाब से रिहर्सल करने का तय किया। नटवर स्कूल के बरामदे में टुकड़ों-टुकड़ों में रिहर्सल होती रही। इसे छत्तीसगढ़ी में ‘दलदल’ नाम से किया गया।
इसका शो पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में हुआ। देखने के लिए अंकुर जी आए थे। यह शिविर स्वप्निल और उसके सहपाठी बोरगांवकर ने संयुक्त रूप से किया था।
इस वर्ष की उल्लेखनीय बात यह रही कि अपर्णा ने अपने स्कूल में ड्रामा को एक विषय के रूप में रखवाने में सफलता पाई। वह तो नियमित कक्षाएँ लेती ही थी, बीच-बीच में अन्य साथी भी जाने लगे।
छत्तीसगढ़ राज्य इकाई का तीसरा राज्य सम्मेलन डोंगरगढ़ में 20, 21, 22 दिसम्बर 2008 में तय हुआ। इसके लिए हम ‘गदहा के बरात’ और ‘गांधी चौक’ लेकर गए। इसमें पहले पटना इप्टा का नाटक ‘मुझे कहाँ ले आए हो कोलम्बस’, हमारा ‘गदहा के बरात’ और ‘गांधी चौक’ कोरबा इप्टा का नाटक, इप्टा भिलाई का ‘राई’, झारखंड सांस्कृतिक मंच जमशेदपुर का ‘अतिमानव’ और डोंगरगढ़ इप्टा का ‘प्लेटफॉर्म नं. 4’ नाटक मंचित हुए। इस राज्य सम्मेलन में लगातार दो बार अध्यक्ष रहने के बाद उषा ने पद त्याग दिया और मधुकर गोरख नए अध्यक्ष बने। महासचिव राजेश श्रीवास्तव ही बने रहे।
मधुकर गोरख राजेश श्रीवास्तव
डोंगरगढ़ से आते ही नाट्योत्सव की तैयारी में जुट गए। 7 से 11 जनवरी 2009 तक चले पन्द्रहवें नाट्य समारोह में पहले दिन हमारा ‘गदहा के बरात’, दूसरे दिन खैरागढ़ विश्वविद्यालय के नाट्य विभाग के विद्यार्थियों की योगेन्द्र चौबे के निर्देशन में ‘क्या करेगा काजी’,
रायगढ़ इप्टा का ‘गदहा के बरात’ खैरागढ़ यूनिवर्सिटी नाट्य विभाग का नाटक ‘क्या करेगा क़ाज़ी’
तीसरे दिन इप्टा जेएनयू दिल्ली की प्रस्तुति ‘बाकी इतिहास’, चौथे दिन अलखनंदन निर्देशित नट बुंदेले भोपाल का नाटक ‘भगवदज्जुकम हुआ, जिसका दूसरा शो जिंदल के ऑडिटोरियम में हुआ।
जे एन यू इप्टा का ‘बाकी इतिहास’ नट बुंदेले भोपाल का ‘भगवदज्जुकम’
अंतिम दिन निर्माण कला मंच पटना का संजय उपाध्याय निर्देशित नाटक ‘कहाँ गए मेरे उगना’ मंचित हुआ।
(इस वर्ष ‘रंगकर्म 2009’ में दो नाटकों की स्क्रिप्ट ‘आखिर कब तक’ मणिमय मुखर्जी लिखित तथा फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘पंचलैट’ का शरीफ अहमद द्वारा किया नाट्य रूपांतरण प्रकाशित हुआ।
इसके अलावा नंदकिशोर तिवारी के लेख ‘छत्तीसगढ़ी थिएटर की परिकल्पना’, अरुण पाण्डेय का लेख ‘नाट्यालेख की रचना-प्रक्रिया’, सुभाष मिश्रा लिखित ‘आज के परिप्रेक्ष्य में संगठन की गतिविधियों में नए लोगों का समावेश’, रायगढ़ इप्टा के साथी आलोक शर्मा का ‘इप्टा रायगढ़ के नाट्योत्सव : एक विहंगावलोकन’, अजय आठले का ‘इप्टा की आवश्यकता’, अपर्णा का ‘इप्टा के प्रयासों से’, कल्याणी मुखर्जी का ‘व्यक्तित्व निखरे इप्टा’, अजेश शुक्ल का ‘नाटक में संगीत’, भारत निषाद का ‘संगठन में प्रबंधन’ के अलावा छत्तीसगढ़ इप्टा के तीसरे राज्य सम्मलेन की रिपोर्ट प्रकाशित की गयी थी।)
इस वर्ष जब हम नाटक का चंदा शुरू कर रहे थे तो बाबा की याद आई। हमेशा जितनी भी रसीद हम छापते थे 100, 200, 500, 1000 की, तो सबसे पहली रसीद बाबा कटवाते थे। इस वर्ष मैंने बाबा के नाम से रसीद कटवाई। इस बीच उषा ने अपने भाई से कहा कि हर साल बाबा चंदा देते थे तो अब यह जिम्मेदारी तुम्हारी है। उसने तुरंत ग्यारह हजार रूपये भिजवा दिये। हम थोड़ा अचंभित भी हुए। उषा ने उनसे फोन पर पूछा कि क्या तुम इतनी ही रकम हर साल भेजोगे? उसके हामी भरने पर हमने तय किया कि इस राशि से हर साल बाबा की स्मृति में रंगकर्मी सम्मान दिया जाए तब लगा कि ग्यारह हजार की राशि कम होगी तो उषा ने कहा कि दस हजार वह मिला देगी। इसतरह तय हुआ कि 2010 के नाट्य समारोह से हर साल किसी रंगकर्मी को शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान प्रदान किया जाए। साथ ही 2010 के नाट्य समारोह के साथ अंतर विद्यालयीन नाट्य प्रतियागिता को जोड़ दिया जाए, ताकि एक ही खर्च में दोनों कार्यक्रम हो जाएँ।