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यादों के झरोखों से : सात

यादों के झरोखों से : सात

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। 1997 में संजय उपाध्याय और सुमन कुमार द्वारा तैयार ‘गगन घटा घहरानी ‘ के कई शो उस वर्ष और उसके बाद भी होते रहे। इसी एक वर्ष में संजय भाई के साथ इप्टा रायगढ़ की ट्यूनिंग ऐसी हो गयी थी कि वे भी हमारे साथ और काम करना चाहते थे और हमें भी उनसे और नया-नया सीखने में मज़ा आ रहा था। एक कारण यह भी था कि संजय भाई हमारे साथ ऐसी स्क्रिप्ट पर काम करने के लिए तैयार हो जाते, जो एकदम नयी हो, जिसके पहले कहीं मंचन न हुए हों ! उन्होंने पहली बार नाट्य-मंचनों का मानदेय रायगढ़ इप्टा को दिलवाया तथा प्रोफेशनलिज़्म के नए-नए गुर भी सिखाए। इसके अलावा, उनके साथ पूरे नाटक की रचना-प्रक्रिया का भागीदार बनने का आनंद भी हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण रहा है। उनके रंग-संगीत के तो हम मुरीद थे ही। अजय द्वारा लिखी गयी इस कड़ी में इस बात का विवरण तो है ही, मगर इसके साथ साथ इप्टा रायगढ़ के एक साथ बहुआयामी कामों को अपनी निरंतर परिपक्व होती टीम के साथ करने का भी वर्णन है। कैसे हम एक साथ ‘गगन घटा घहरानी’ के मंचन भी कर रहे थे, बर्टोल्ट ब्रेख़्त की जन्म-शताब्दी के अवसर पर केंद्रित वर्कशॉप और उनके दो नाटक तैयार कर उनका मंचन भी कर रहे थे या फिर जिला जेल में विचाराधीन कैदियों का वर्कशॉप भी ले रहे थे, इसका भी विशद आख्यान अजय ने अपनी चिर-परिचित शैली में प्रस्तुत किया है।जो आवश्यक विवरण छूट गए थे, उन्हें मैंने कोष्टक में जोड़ा है।)

बर्टोल्ट ब्रेख़्त

वर्ष 1998 का वर्ष प्रसिद्ध जर्मन नाटककार बर्तोल्त ब्रेख़्त की जन्म-शताब्दी का वर्ष था। संजय उपाध्याय ने रायगढ़ इप्टा के साथ ब्रेख़्त पर केंद्रित प्रोजेक्ट एनएसडी से स्वीकृत करवा लिया था। इस शिविर की तैयारी के लिए ब्रेख्त के नाटकों को और अन्य सामग्री को खोज-खोजकर पढ़ना शुरु किया। संजयभाई के आने पर रोज एक नाटक पर चर्चा होती। ‘अजब न्याय गजब न्याय’, ‘दिलेर माँ’ जैसे अनेक नाटकों पर चर्चा की गई। एक और स्क्रिप्ट हमारे पास थी ‘लुकुआ का शाहनामा’, उसका किसी ने भी मंचन नहीं किया था। वह संजयभाई को दी गई। उन्हें स्क्रिप्ट पसंद आई। शिविर में बहुत प्रतिभागी थे इसलिए दो नाटक करने की बात तय हो गई। संजयभाई ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ लेकर आए थे। विभाजन किया गया कि नए लोगों के साथ ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ किया जाए और पुराने लोगों के साथ ‘लुकुआ का शाहनामा’।

वर्कशॉप शुरु हुआ ही था कि मध्यप्रदेश कला परिषद से ‘गगन घटा घहरानी’ के दो शो भोपाल और सागर में करने के लिए आमंत्रण आ गया।(ये शो प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ साथी डॉ.कमला प्रसाद की पहल से आयोजित हुए थे। कमला प्रसाद जी उस समय मध्य प्रदेश कला परिषद् के सचिव थे) तय किया गया कि ‘गगन घटा घहरानी’ की रिहर्सल भी साथ-साथ की जाए, उसमें कुछ नए लोगों को भी जोड़ा जाए। हम सभी लोग भोपाल के लिए रवाना हुए। तय हुआ कि संजयभाई वहाँ से दिल्ली जाकर अपने साथ एक आर्ट डायरेक्टर को लाएंगे और ‘लुकुआ का शाहनामा’ के अनुवादक कन्हैयालाल नंदन से अनुमति भी लेकर आएंगे।

भोपाल के रवीन्द्र भवन में शो हुआ। वहाँ एक महंत जी भी मौजूद थे। उन्होंने संस्कृति सचिव से नाटक को लेकर आपत्ति दर्ज की। संस्कृति सचिव ने निर्देशक से आमना सामना करवा दिया। उनकी आपत्ति थी कि कबीर की शादी ही नहीं हुई थी तो उनका कोई बेटा भी नहीं था। इसलिए यह अंश नाटक से निकाल दें। संजयभाई ने कहा कि ‘‘हमने जैसा पढ़ा है, वैसा ही नाटक लिखा है। हम इसे नहीं बदलेंगे। आप लोग अपना नाटक तैयार कीजिए और आप जो चाहते हैं, उसे दिखाएँ, हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।’’ महंत जी नाराज़ हो गए, कहने लगे, ‘‘कल आपका नाटक हम सागर में नहीं होने देंगे।’’ संजयभाई ने हँसते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप विरोध कीजिए, इससे हमारा नाटक और चर्चित हो जाएगा।’’ हम सशंकित थे कि पता नहीं सागर में क्या हो! मगर कुछ नहीं हुआ।

बंसीदादा भोपाल में नाटक देखने आए थे। उन्होंने कहा था, ‘‘बाकी तो सब ठीक है मगर लड़के बहुत जल्दी थकने लगते हैं, नाटक में एक घंटे बाद इनकी एनर्जी खत्म होने लगती है। इन्हें एक्सरसाइज़ की ज़रूरत है। मैं अपने लड़कों को रायगढ़ भेजता हूँ। वे वहाँ अपने खर्चे पर रूकेंगे, अपने नाटकों की रिहर्सल करेंगे और तुम लोगों को भी सिखलाएंगे। किसी धर्मशाला में उनके रूकने की व्यवस्था कर देना। दूसरे दिन हमारी पूरी टीम के साथी बंसी दादा के रिहर्सल वाली जगह पर गए, वहाँ उनकी पूरी टीम थी। उन्होंने स्लम के बच्चों के साथ तैयार किया हुआ नाटक हमें दिखलाया। शाम को हम सागर के लिए रवाना हुए।सागर में अन्वेषण ग्रुप को हमारी जिम्मेदारी दी गई थी। वहाँ संजयभाई के साथी मुकेश तिवारी भी मौजूद थे। उन्होंने ही हमें मोमेंटो दिया। बाद में हम उसी मंच पर अन्वेषण के साथियों के साथ बैठे। मुकेश तिवारी जी ने नाटक की तारीफ की और कुछ आवश्यक सुझाव भी दिए। दूसरे दिन हम सागर से वापस रायगढ़ के लिए रवाना हुए।

संजय उपाध्याय

संजयभाई दस दिनों के लिए दिल्ली गए थे। ‘लुकुआ का शाहनामा’ की कुछ धुनें तैयार हुई थीं, उनकी और ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ की उस गैप में हम रिहर्सल करते रहे। संजयभाई और रंग विदूषक के साथी पहुँचे। रिहर्सल शुरु हुई। राजकुमार रायकवार और उनके साथी हमें डंडा चलाना और दूसरी एक्सरसाइज़ करवाते थे। फिर दोनों नाटकों की रिहर्सल होती थी। दो-तीन दिन बाद दिल्ली से गौतम मजूमदार भी आ गए। गौतम मजूमदार माइम और मूव्हमेंट के विशेषज्ञ थे। उन्होंने हमारी कड़ी एक्सरसाइज़ शुरु करवा दी। सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक वर्कशॉप चल रहा था। कभी-कभी देर भी हो जाती थी। इस बीच रंग विदूषक के दो नाटक ‘नाक’ और ‘मानकीकरण की नीति’ तैयार हो गए थे, इधर ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ भी तैयार हो गया था। पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में इनके मंचन हुए। शो तो अच्छे हुए पर गर्मी के कारण फिर दर्शक कम आए थे। रंग विदूषक के साथी कुछ निराश हुए परंतु उन्होंने नाट्योत्सव में हाउसफुल भी देखा था। शो के बाद रंग विदूषक के साथी वापस लौट गए। (‘थ्री पेनी ऑपेरा’ के शो उसके बाद नहीं हो पाए।)

‘लुकुआ का शाहनामा’ में बाएँ से नीतू, कृष्णा, युवराज, सुगीता, पीछे विनोद बड़गे, अनुपम और योगेंद्र

अब पूरा ध्यान ‘लुकुआ का शाहनामा’ पर लगा दिया गया। तभी अचानक पता चला कि टाउन हॉल किसी शादी की पार्टी के लिए बुक हो गया है। अमूमन ऐसा होता नहीं था। हम जिलाधीश के पास गए, अपनी समस्या बताई। उन्होंने शेष बीस दिनों के लिए हमें पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम ही मुहैया करवा दिया। अब हम स्टेज पर ही रिहर्सल करने लगे। तय हुआ कि इसमें काबुकी शैली का इस्तेमाल किया जाएगा। यह कुछ कुछ छाऊ की तरह होती है। हम लोगों की काबुकी की क्लास गौतम ने शुरु की। बेहद कठिन प्रशिक्षण था यह। गर्मी पूरे शबाब पर थी, ऐसे में बहुत से साथी थकने लगे, बीमार पड़ने लगे। सेट्स के लिए रोज भारी-भारी तख्त उठाते, जमाते, रिहर्सल करते, फिर कुछ नए ढंग से जमाते। इस बीच हमारे कॉस्ट्यूम भी सिले जा रहे थे। साथ ही थर्मोकोल से प्रॉप्स भी बनाए जा रहे थे। (गौतम मजूमदार आर्ट डायरेक्टर भी थे। उन्होंने बहुत-सी सामग्री मंगवाकर टिंकू देवांगन के साथ मछली, बोतल, प्राचीन शिलालेख, हेड गियर्स आदि बनाये।उनकी हिंदी उतनी अच्छी नहीं थी, इसलिए हमारे कई साथियों के साथ उनकी झड़पें भी हो जाती थीं। उनकी प्रॉप्स के लिए बनायीं गयी सामानों की सूची दूकानदार भी समझ नहीं पाते थे। तब अजय, टिंकू आदि ने उन्हें पूछकर, कि कौनसी सामग्री किस प्रॉप के लिए चाहिए, उपलब्ध कराई। इस नाटक के लिए पुराने यूनानी ढंग के कॉस्ट्यूम बनाये गए थे, जिनके डिज़ाइन्स हमने अजय के दादाजी की लाइब्रेरी के ‘लैंड्स एण्ड पिपल’ के दुर्लभ अंकों से निकाले थे। नाटक में स्वर्ग के दृश्य को साकार करने के लिए सुनहले जालीदार परदे बनवाये गए थे, उनके साथ भी कई मूवमेंट्स बनायीं गयी थीं। मुमताज भारती ‘पापा’ ने बैक कार्टन के लिए काबुकी शैली का पर्दा भी पेंट किया था। ये परदे और लाइट्स लगाने में टोनी चावड़ा सिद्धहस्त था। जहाँ भी इस नाटक के शो हुए, टोनी ने ही यह ज़िम्मेदारी निभाई।) सेट्स और प्रॉपर्टीज़ से नाटक बहुत भव्य होने जा रहा था मगर रिहर्सल और एक्सरसाइज़ बेहद थका दे रही थी। एक दिन रात को बारिश होने लगी। घर कैसे जाएंगे इसलिए रात तीन बजे तक रिहर्सल चलती रही और सुबह नौ बजे फिर सब हाजिर।

‘लुकुआ का शाहनामा’ में पीछे अजय लुकुलस की भूमिका में, सिपाही विनोद बड़गे, दीनानाथ खूंटे, पवन चौहान

नाटक में अठारह लोग उतरने वाले थे पर बीमार पड़ते-पड़ते शो के दिन सिर्फ ग्यारह लोग ही उतरे। जिलाधीश भी शो देखने आए थे, उन्हें भी दर्शकों की बहुत कम उपस्थिति से निराशा हुई। इस नाटक के लगातार दो शो हुए। और शिविर का समापन हुआ। हम सब बेहद थक चुके थे, आराम करना चाहते थे। हालाँकि इस शिविर में बहुत कुछ सीखा, प्रॉपर्टी, सेट्स, मेकअप, कॉस्ट्यूम से लेकर माइम-मूव्हमेंट्स तक सब कुछ सीखने को मिला मगर जितने पैसे हमने ‘गगन घटा घहरानी’ में कमाए और बचाए थे, सब खर्च हो गये।

‘लुकुआ का शाहनामा’ में बाएँ से योगेंद्र, सुगीता, अजय, टिंकू, पीछे से कृष्णानंद,अनुपम, कृष्णा, पवन, नीतू, उषा, विकास, विनोद और मधुसूदन

इस बार चक्रधर समारोह की तैयारियों की बैठक में इप्टा को भी आमंत्रित किया गया। मैं और योगेन्द्र चौबे मीटिंग में भाग लेने पहुँचे। चक्रधर समारोह पाँच दिन का करने का निर्णय लिया गया। हमने निर्माण कला मंच पटना और विवेचना जबलपुर का छाऊ शैली में तैयार किया गया ‘मृत्युंजय’ को आमंत्रित करने का प्रस्ताव रखा जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया।

डॉ. राजेंद्र गायकवाड़

मीटिंग में ही जेल अधीक्षक राजेन्द्र गायकवाड़ जी ने प्रस्ताव रखा कि अगर आप लोग विचाराधीन बंदियों के साथ कोई नाटक तैयार करवा सकें तो मैं पूरी मदद करूँगा। हमने तुरंत हामी भर दी। वापस आकर सभी साथियों के बीच इस प्रस्ताव पर चर्चा की गई। सभी ने उत्साह दिखाया। हम गायकवाड जी से मिलने जेल गए। उन्होंने एक विचाराधीन बंदी मुन्ना पांडे को बुलवाया। उसने भी उत्साह दिखाया और कहा कि बीस लोग तैयार हो जाएंगे। समस्या यह थी कि शिविर दिन में ही लिया जा सकता था, शाम छै बजे के बाद वहाँ किसी को रूकने की इजाज़त नहीं थी। तय हुआ कि शिविर दोपहर में रखा जाए। शिविर का संचालन पिंटू करेगा और कृष्णानंद, युवराज, अनुपम, टिंकू, उषा, मैं और सुगीता समय-समय पर साथ रहेंगे। शिविर के पहले दिन हम बहुत से साथी जेल परिसर में पहुँच गये। सभी विचाराधीन बंदियों को स्कूल के सामने की एक खुली जगह में बैठा दिया गया था। चूँकि हमारे साथ उषा और सुगीता भी थीं इसलिए गायकवाड़ जी हिचक रहे थे। उन्होंने बाकायदा गार्ड की ड्यूटी लगा दी थी। वे स्वयं भी मौजूद थे। हमने बातचीत शुरु की मगर वे लोग खुल नहीं रहे थे। हमने गायकवाड़ जी से अनुरोध किया कि क्या हम स्कूल के हॉल में बैठ सकते हैं, हम इनसे अलग से बातचीत करना चाहते हैं। थोड़ी झिझक के बाद उन्होंने अनुमति दे दी परंतु चारों तरफ गार्ड लगा दिये। साथ ही हमें निर्देश दिया गया कि हम किसी भी हाल में हॉल का दरवाजा बंद न करें। हॉल में चारों ओर बड़ी-बड़ी ग्रिल लगी थी और लोहे की ग्रिल का ही दरवाजा था ताकि बाहर से सबकुछ दिखाई दे।

हॉल में पहुँचकर हमने फिर सबसे परिचय लिया और अपना भी परिचय दिया। सबकी पारिवारिक जानकारी भी ली। फिर पूछा कि गाना कौन अच्छा गा लेता है। पता चला मुन्ना पांडे अच्छा गाना गाता है। हमारे आग्रह पर उसने गाना सुनाया ‘‘अकेला जाबे संगी मोर, मरे के बेरा तैं अकेला जाबे रे’’, वाकई बहुत अच्छा गाया था। सबने उत्साह बढ़ाया। सुगीता ने ब्रेख्त के नाटक का गाना सिखाया, कुछ खेल खिलवाए। कृष्णानंद ने हरेश से पूछा, क्या करते हो? उसने बताया, पाकिटमारी। कृष्णानंद ने उसे डिमॉन्स्ट्रेशन देने के लिए कहा। उसने दो-तीन तरीके बताए। कृष्णानंद ने कहा, अब तो तुम पकड़े जाओगे। वह हँसने लगा, ऐसा थोड़ी है भैया, आपको पता भी नहीं चलेगा। शाम को जब हम उनसे विदा लेकर कल आने का वादा कर निकल रहे थे, हरेश ने पुकारा, कृष्णा भैया! अपना पर्स तो लेते जाओ। हरेश ने कब उसकी पर्स जेब से निकाल ली थी, पता ही नहीं चला था। अब उसे वापस कर उसने जता दिया कि अपने काम में वह माहिर है।

बारी-बारी से लोग पिंटू के साथ जाते रहे और सिखाते रहे। तय हुआ कि ‘दूर देश की कथा’ कराया जाए। मुन्ना पांडे और चंद्रप्रकाश को लग्गू-भग्गू बनाया गया। रिहर्सल चलती रही। इस बीच गायकवाड़ जी ने बताया कि शिविर शुरु होने के बाद से इनमें लड़ाई-झगड़े की शिकायत एकदम कम हो गई है। हमें बहुत संतोष हुआ। 15 अगस्त 1998 को इसका शो तय हुआ। जिलाधीश के अलावा स्वास्थ्य मंत्री और गणमान्य नागरिक भी उस दिन जेल पहुँचने वाले थे। पिंटू सुबह से उनकी रिहर्सल ले रहा था। सब बेहद उत्साहित थे। सुबह ग्यारह बजे नाटक शुरु हुआ। सचमुच इन बंदियों ने बहुत अच्छा मंचन किया। सभी की बहुत तारीफ हुई। विदा लेते वक्त सबके गले रूँधे हुए थे। हमने वादा किया कि हर रविवार को हम मिलने आते रहेंगे। हम जाते भी रहे।

इसी बीच चक्रधर समारोह में मंचन हेतु ‘लुकुआ का शाहनामा’ की रिहर्सल शुरु हो गई। कई साथी, जो तबियत खराब हो जाने के कारण यह नाटक नहीं कर पाए थे, वे भी इसमें शामिल हुए। अब यह नाटक बीस कलाकारों के साथ हो रहा था। संजयभाई दो दिन पहले पहुँच गए थे। उनकी टीम बाद में आने वाली थी। तीसरे दिन विवेचना की टीम ने माधव बारीक के निर्देशन में ‘मृत्युंजय’ खेला था और चौथे दिन हमारा नाटक था। टाउन हॉल में रिहर्सल जारी थी। नाटक का मंचन अच्छा हुआ। मंचन के बाद एक व्यक्ति ने आकर कहा कि ‘‘आज का शो भी बढ़िया हुआ।’’ हमने पूछा, ‘‘आज का मतलब?’’ उसने कहा कि ‘‘मैं पॉलिटेक्निक का चौकीदार हूँ। इसके पहले भी यह नाटक देख चुका हूँ।’’ हमने पूछा, ‘‘इसमें क्या समझ में आता है?’’ तो कहने लगा, ‘‘ये जो दिखाया है न कि कितना भी अत्याचार कर लो, लेकिन एक दिन तो ऊपर जवाब देना ही पड़ेगा।’’ लोक की इस समझ का मैं फिर कायल हो गया।

निर्माण कला मंच पटना का ‘बिदेसिया’

आखिरी दिन ‘बिदेसिया’ की प्रस्तुति थी। चर्चित नाटक होने के कारण अत्यधिक भीड़ उमड़ी थी। मंचन बेहद सफल रहा और नाटक समाप्त हो जाने के बाद भी लोग आ ही रहे थे। उन्हें शिकायत थी कि इतनी जल्दी बिदेसिया कैसे खत्म हो गया! वो तो रात भर का प्रोग्राम समझे थे। पटना वालों की गाड़ी दूसरे दिन शाम की थी। राजेन्द्र गायकवाड़ जी का आग्रह था कि पटना की टीम को उनके यहाँ लाया जाए। पटना के साथी आसपास घूमने जाना चाहते थे। आखिर में तय हुआ कि पहले जेल चलते हैं, उसके बाद समय रहा तो घूमने जाएंगे। हम लोग तीन बजे के करीब जेल पहुँचे। स्कूल का हॉल लगभग भरा हुआ था। पटना की टीम, हमारी टीम और जेल की टीम, गाने-बजाने का कार्यक्रम जो एक बार शुरु हुआ, तो पता ही नहीं चला कि कब छै बज गए। हम वापस हो लिए, घूमना स्थगित हो गया। संजयभाई ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप वहाँ ले गये, ऐसे अनुभव बार-बार नहीं मिलते। रात को पटना की टीम विदा हो गई।

हम सब नाट्योत्सव की तैयारी में जुट गए। तभी खबर आई कि रायपुर इप्टा मुक्तिबोध नाट्य समारोह, जो बहुत पहले बंद हो चुका था, फिर से शुरु कर रही है। उन्होंने हमसे एक नाटक करने की बात की। हम ‘लुकुआ का शाहनामा’ करने के लिए तैयार हो गए। तभी विवेचना जबलपुर ने हमसे ‘गगन घटा घहरानी’ के लिए सम्पर्क किया, जिसके लिए हमने स्वीकृति दे दी। हमारी रिहर्सल शुरु हो गई। कुछ प्रॉप्स नए ढंग से बनाए गए। कुछ कॉस्ट्यूम नए तरह से सिले गए। शो के एक दिन पहले हम कुछ लोग हमारे बढ़ई को लेकर रायपुर पहुँच गए ताकि सेट्स बनाए जा सकें। अरूण काठोटे चूँकि महाराष्ट्र मंडल का सचिव भी था इसलिए वहाँ रखे जितने भी टेबल और तख्त थे, उसे उपयोग करने की अनुमति उसने दे दी। रातभर में हमने सेट लगा लिया। आधी रात को शेष टीम भी पहुँच गई। अब यह नाटक बाईस कलाकारों की टीम में होने लगा था। दूसरे दिन प्रस्तुति हुई, जो बेहद सफल कही जा सकती है।

इस बीच हमारा जेल में मिलने जाना जारी रहा, जब तक गायकवाड़ जी रहे। उनके तबादले के बाद हमारा जाना लगभग बंद हो गया। बीच-बीच में पता भी चलता था कि सबकुछ ठीक नहीं है। एक दिन अचानक यह खबर आई कि मुन्ना पांडे नामक विचाराधीन कैदी ने जेल की अव्यवस्थाओं के खिलाफ अपने शरीर को ब्लेड से गोद लिया है और पेड़ पर चढ़ गया है। उसे बड़ी मुश्किल से उतारकर अस्पताल में भरती किया गया है। खबर मिलते ही हम लोग अस्पताल पहुँचे। उसे जेल कैदी वार्ड में रखा गया था। हमें देखते ही उसने हमसे पहला प्रश्न किया, ‘‘भैया क्या मैंने विरोध करके गलत किया?’’ हम निरुत्तर थे। हमने उसे सान्त्वना दी। उसने बतलाया कि उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त बतलाकर ग्वालियर भेजा जा रहा है। हमने उसे आश्वस्त किया कि हम ऊपर कम्प्लेंट करेंगे मगर तुम्हें ग्वालियर भेजे तो ज़रूर चले जाना। हमने ज्ञापन बनाकर जिलाधीश को दिया और उसकी जाँच जेल डॉक्टर से करवाने की बजाय सिविल सर्जन से करवाने का निवेदन किया। अचानक कुछ दिनों बाद अखबार में एक छोटी सी खबर छपी कि रायगढ़ के एक कैदी ने ग्वालियर ले जाते वक्त भिंड के पास रेलगाड़ी से कूदकर आत्महत्या कर ली है। हम सब यह खबर पढ़कर स्तब्ध रह गए। हमने प्रशासन को पत्र लिखा, एक लेख मैंने लिखा, जिसे भास्कर ने प्रमुखता से छापा, अरूण पांडे जी ने उसे वहाँ के अखबारों में छपवाया।

हमने मानवाधिकार आयोग को शिकायत की। यहाँ तक कि इंटरनेशनल ह्यूमन राईट्स कमीशन को लिखा और जस्टिस गुलाब गुप्ता द्वारा लगाई गई लोक अदालत में भी गुहार लगाई। मगर सिर्फ जेल अधीक्षक और जेल चिकित्सक का तबादला हुआ और फाइल बंद कर दी गई। यह हमारे लिए बहुत बड़ा झटका था। रंगमंच व्यक्ति में बदलाव तो लाता है मगर समाज अगर नहीं बदला है तो स्थितियाँ ज़्यादा खराब हो जाती हैं। जब तक समाज में एक सपोर्ट सिस्टम न बन जाए, ऐसे सुधार कार्य बेमानी हो जाते हैं।

अनाथालय (चक्रधर बाल सदन) के बच्चे उषा, अजय, टोनी, कृष्णानंद और युवराज के साथ

यह बात तब भी महसूस हुई थी, जब संजयभाई और सुमनभाई ने अनाथालय में वर्कशॉप लिया था। बच्चे हमसे हिलमिल गए थे। कई बार वे भागकर हमसे मिलने घर भी आ जाते थे। हम लोग भी उनसे मिलने नियमित जाते थे मगर धीरे-धीरे ट्रस्टवालों ने बहाने बनाकर हमसे उनका मिलना बंद करवा दिया। उन्हें तकलीफ होने लगी थी क्योंकि बच्चे अब सवाल पूछने लगे थे। ट्रस्ट को परेशानी होने लगी थी। रंगकर्म ने उनको इतना मजबूत बना दिया था। उन्होंने जिद करके अपने स्कूल की गैदरिंग करवा ली थी और उसमें नाटक भी किया था। ट्रस्ट को यह पसंद नहीं आया था।

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लघु फिल्म ‘बच्चे सवाल नहीं करते’ का अंत

बहुत दिनों बाद हमने जब मध्यप्रदेश इप्टा के साथी पुन्नीसिंह यादव की कहानी पर फिल्म बनाई थी ‘बच्चे सवाल नहीं करते’, अंत में एडिटिंग में अनादि ने यह वाक्य जोड़ा था कि ‘‘यह फिल्म उन बच्चों को समर्पित है, जो सवाल करते हैं।’’ तब उन बच्चों की बहुत याद आई थी।

रायपुर का शो होते ही हमें विवेचना जबलपुर के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में भाग लेने जाना था। रिहर्सल शुरु हो गई। दिसम्बर प्रथम सप्ताह में हमारी टीम जबलपुर के लिए रवाना हुई। हमें कटनी में गाड़ी बदलनी थी। कटनी पहुँचकर पता चला कि वह गाड़ी छूट गई है और अगली गाड़ी चार बजे सुबह तक आएगी। हम लोगों ने आदत के मुताबिक कटनी के प्लेटफॉर्म पर एक रन थ्रू कर डाला। समय भी कट गया। कुछ लोगों ने आकर हमसे पता पूछा, बुलाने पर कितना लेते हैं, आदि नोट कर ले गए। हमें मालूम था कि आगे कुछ नहीं होगा। तात्कालिक जोश में आकर लोग पता ले जाते हैं, अपने शहर में शो करवाने का आश्वासन देते हैं, बाद में भूल जाते हैं। शाम को हमारा शो हुआ। दर्शकों की बहुत अच्छी प्रतिक्रिया थी, उनकी तालियों से पता लग रही थी। मगर आयोजकों और आलोचकों को यह प्रस्तुति उतनी नहीं भायी थी। दूसरे दिन हम रायगढ़ लौट गए।

‘गगन घटा घहरानी’ में बाएँ से जनक, योगेंद्र, अनुपम, युवराज, कृष्णानंद, कृष्णा

यहाँ आकर हम नाट्योत्सव की तैयारियों में जुट गए। इस बार इतनी व्यस्तताओं और हर बार दिसम्बर में पड़ती कड़ाके की ठंड के कारण हमने पंचम नाट्योत्सव 3 जनवरी से 7 जनवरी तक आयोजित किया था। इस बीच शरद शर्मा ने हमसे सम्पर्क किया और बतलाया कि वे एक शो बिलासपुर में कर रहे हैं। तब हमने और बिलासपुर इप्टा ने एकदूसरे से जोड़कर नाट्योत्सव करना तय किया। हमारे यहाँ एक्ट वन आ रहा था तो उनका एक शो बिलासपुर में भी तय करवा दिया। उन्होंने हमारा नाटक ‘लुकुआ का शाहनामा’ हमारे नाट्योत्सव की समाप्ति के दूसरे दिन रखा था। उसके बाद अंतिम दिन वहाँ हबीब साहब का प्रसिद्ध नाटक ‘चरनदास चोर’ होना था। रायगढ़ में नाट्योत्सव के उद्घाटन हेतु अजीत जोगी आने वाले थे। वे तब रायगढ़ से लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बने थे।

पहले दिन ‘लुकुआ का शाहनामा’ हुआ, दूसरे दिन अभिनव रंगमंडल उज्जैन का ‘टोन्टी नैन का खेल’, निर्देशक दिनेश खन्ना हुआ। बहुत अच्छी प्रस्तुति थी। खासकर टप्पू कामरेड का रोल लोगों के जेहन में बहुत दिनों तक छाया रहा। तीसरे दिन एक्ट वन का ब्रेख्त लिखित ‘हैप्पी एण्डिंग’, फिर भिलाई इप्टा का ‘फाँसी के बाद’ तथा अंतिम दिन रायपुर इप्टा का ‘शून्य से शून्य तक’ हुआ।

रायपुर की टीम को विदा कर हम तुरंत बिलासपुर पहुँचे। हम अपने साथ लाइट्स भी ले गये थे क्योंकि हम बिलासपुर के साथियों पर बोझ नहीं डालना चाहते थे। तीन-चार साथियों को पहले ही भेज दिया गया था ताकि सेट्स तैयार हो जाएँ। फिर हम सबने वहाँ पहुँचकर उनकी मदद की। इस नाटक में सेट्स बहुत भारी थे, जिसे हम धीरे-धीरे कम करते जा रहे थे।

हम सब इस शो को लेकर बेहद उत्साहित थे क्योंकि हबीब साहब और उनकी टीम इस नाटक को देखने आने वाली थी। नाटक अच्छा हुआ, हबीब साहब की उपस्थिति उत्प्रेरक का काम कर रही थी। शो के बाद हम कुछ लोग वापस लौट गए क्योंकि नाट्योत्सव पश्चात् का सारा काम समेटना था। बाकी साथी रूक गए थे। दूसरे दिन ‘चरणदास चोर’ देखने के बाद सभी लोगों ने हबीब साहब से मुलाकात की। हबीब साहब ने सुझाव दिया कि सेट्स बहुत भारी हो रहे हैं, उसे कम करो। इसके अलावा भी कुछ छोटे-छोटे सुझाव दिए। कुल मिलाकर उन्हें यह प्रोडक्शन पसंद आया था। उन्होंने संगीत की तारीफ की थी।(क्रमशः)

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